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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

15 जुलाई, 2018



तेजिन्दर : एक स्मरण !

प्रकाश कान्त


कवि-कथाकार तेजिन्दर से पहली बार मुलाकात आकाशवाणी इंदौर में हुई थी।मैं कहानी की रिकार्डिंग के सिलसिले में अरलावदा से आया था। रिकार्डिंग के बाद प्रभु (जोशी) के साथ केंटिन में चाय पीने के लिए जाते वक़्त उनसे मिलना हो गया था। प्रभु ने ही मिलवाया था। इस मुलाकात के पहले प्रभु मुझे बता ही चुका था कि  तेजिन्दर आजकल   इंदौर आकाशवाणी में ही हैं । सम्भवतः वे समाचार विभाग में थे जिसमें कवि सन्दीप श्रोत्रिय भी थे।

तेजिंदर
बहरहाल, वह पहली मुलाकात बिल्कुल सहज मुलाकात थी। तब तक उनकी कुछेक कहानियाँ पढ़ चुका था। उनके पहले उपन्यास ‘वह मेरा चेहरा’ के बारे में सुन रखा था। हालाँकि, उसे बाद में पढ़ पाया था। बाद में तो फिर उनकी काला आज़ार, काला पादरी, सीढ़ियों पर चीता, हेलो सुजीत जैसी रचनाएँ और डायरी पढ़ने को मिलती ही रहीं। इस बीच उनसे इन्दोर में आयोजित होनेवाले कार्यक्रमों में मिलना होता रहा। जब वे आकाशवाणी में सहायक केन्द्र निदेशक की हैसियत से आये तब संवाद नगर में रहते थे। आशा कोटिया, गुरुजी, देवताले जी समेत उन दिनों संवाद नगर में अेार कई बड़ी शख्सियतें रहती थीं। प्रभु भी तब वहीं था। उसी के साथ तेजिन्दर जी के घर जाना हुआ।समकालीन कहानी पर काफ़ी विस्तार से बातें होती रहीं। उन्हीं दिनों आग्नेय के प्रयासों से मध्य प्रदेश साहित्य परिषद् का कालिदास अकादमी उज्जैन में कथा कुम्भ जैसा  तीन दिवसीय महत्त्वपूर्ण आयोजन हुआ था। जिसका उद्घाटन सुमन जी ने किया था। राजेन्द्र यादव, हिमांशु जोशी, मन्नू भण्डारी जैसे कई्र वरिष्ठ रचनाकारों ने विभिन्न सत्रों में सम्बोधित किया था।एक स़त्र में ज्ञानरंजन भी सम्बोधित करने वाले थे लेकिन किसी कारण वे आ नहीं पाये थे।मन्नू भण्डारी उन दिनों उज्जैन में प्रेमचन्द सृजन पीठ की निदेशक थीं।उसी नाते इस आयोजन की सह आयोजक भी! हरि भटनागर सारी व्यवस्था देख रहे थे।प्रभु ने आकाशवाणी के लिए कार्यक्रम रिकार्ड्र किया था। लेखक कृष्णा सोबती, राजी सेठ, चित्रा मुद्गल, अर्चना वर्मा इत्यादि महत्त्वपूर्ण लेखिकाओ को इन्हीं गोष्ठियों में सुना था। आमन्त्रित लेखकों को यूनिवर्सिटी हॉस्टल सहित अलग-अलग जगह ठहरवाया गया था। होस्टल के ही एक कमरे में उस अवसर एक रात कुछ लेखकों का अनौपचारिक कथा पाठ हुआ था। उस गोष्ठी में शशांक, लक्ष्मेन्द्र चोपड़ा, भालचन्द्र जोशी के अलावा तेजिन्दर भी थे।लक्ष्मेन्द्र चोपड़ा ने अपनी कहानी पढ़ी थी। जिस पर बाक़ी लोगों के साथ-साथ तेजिन्दर ने भी काफ़ी विस्तार से बात की थी। उसी से मैं उनकी कथादृष्टि और कहानी सम्बन्धी बुनियादी चिन्ताओं को जान पाया था। बाद में भी उनसे बात होती रही। वे अपनी बात बहुत सहज ढंग से कहते थे। बिना आक्रामक हुए! बिना इस आग्रह-दुराग्रह के कि उनकी बात से सहमत हुआ ही जाये! इसी सहजता से वे उस दिन अपने नये लिखे जा रहे उपन्यास पर बात करते रहे थे जिस दिन उन्हें इन्दौर लेखिका संघ के एक आयोजन में बहैसियत मुख्यातिथि बोलने जाना था। मैं  साथ था। वे उन दिनों इन्दौर दूरदर्शन के केन्द्र निदेशक थे।वह उनका इन्दौर का तीसरा और अन्तिम प्रवास था। प्रभु भी दूरदर्शन में ही था। उससे मिलने जाने पर उनसे भी मुलाक़ात हो जाती थी। वे एक छोटी-सी शालीन मुस्कुराहट के साथ मिलते थे। आख़िरी बार भी उनसे मिलना दुआ सभागृह में प्रसार भारती के एक आयोजन में ही हुआ था। तब तक वे सेवा निवृत्त होकर स्थाई रूप से अपने गृहनगर रायपुर रहे थे। वहीं से आये थे।उन्होंने नक्सल समस्या को लेकर लिखे जा रहे अपने नये उपन्यास का एक अंश सुनाया था। वे स्वाभाविक रूप से पढ़ते थे। जबलपुर में जब उन्हें कहानी पाठ करते सुना था तब भी यही लगा था। कहानी पाठ के उस आयोजन में ए0 असफल,हनुमन्त मनगटे,राजेन्द्र दानी भी थे। अध्यक्षता ज्ञान जी कर रहे थे।
       कहानियों की तुलना में उन्होंने इधर  उपन्यासों पर ज़्यादा काम किया। हालाँकि, उनके पास ‘घोड़ा बादल’जैसी शानदार कहानियाँ भी थीं। बहरहाल, उनके वह मेरा चेहरा, काला आजार, काला पादरी, सीढ़ियां पर चीता वगै़रह जेसे उपन्यास नियमित अन्तराल से आते रहे। उनके ये सभी उपन्यास आकार के लिहाज़ से छोटे उपन्यास ही थे। लेकिन अपनी वैचारिक दृष्टि और सरोकारों के लिहाज़ से उनमें एक ख़ास तरह की गहराई थी। पहले उपन्यास  ‘वह मेरा चेहरा’ में जो एक हल्का-सा सरलीकरण दिखाई देता हे उससे वे जल्दी उबर गये थे। उनके यहाँ मानवीय मूल्यों का अपना एक वैचारिक सन्दर्भ था। ओैर अपनी एक तार्किकता भी!वर्ना तो इस तरह के मूल्यों के नाम पर अमूमन अजीब-सी घपलेबाजी भी दिखाइ्र्र देती है। कहानियाँ हों या उपन्यास उनके यहाँ अलग से बहुत चौकाने पर आमादा किस्म का मामला नहीं है। और ना ही धूम-धड़ाके जैसा कुछ है। एक ख़ास तरह की सादाबयानी है। जिसके ज़रिये रचना अपने भीतर से खुलती चलती है।
     
प्रकाश कान्त

इसके अलावा सबसे ख़ास बात, आख़िर तक वे अपनी वैचारिक निष्ठाओं को लेकर  सचेत-सतर्क बने नज़र आते रहे हैं। 
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कवि नईम से कथाकार प्रकाश कान्त की बातचीत नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/blog-post_88.html?m=1



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