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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

04 फ़रवरी, 2015

कविता विदुषी जी की हैं टिप्पणी डॉ.शशांक शुक्ला की है..

पटरी

मैं खड़ी थी जहाँ
मेरे पैरों के नीचे की मिट्टी मेंथे
कंकर पत्थर और काँच के टुकड़े
जो चुभते मैं दुखी हो जाती
बैठ जाती वहीं
देखती रहती अपने लहूलुहान पैरों को
एक दिन मुझे लकड़ी की एक पटरी मिली
मैं खड़ी हो गई उस पर
मिट्टी को छानकर
अलग कर लिए कंकर पत्थरऔर काँच के टुकड़े
कंकरों से मैने एक मन्दिर बना लिया
पत्थर को मूर्ति बना प्रतिष्ठित कर दिया
काँच के रंगीन टुकड़ों से अल्पनाएं बना लीं
अब मेरे पैरों के नीचे की मिट्टी मुलायम है
बहुत खुश हूँ मैं
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होलिका दहन

अनाचार की होलिका
भले ही पहने हो
संरक्षित वस्त्र
जलाने जाएगी जब
विश्वास के नन्हें प्रहलाद को
तो सच मानो
जलेगी वह स्वयं
अक्षत बचेगा विश्वास
तो आओ
इस होलिका दहन में
तपाएं आस्था जौं
नई फ़सल के
फूटने दें उल्लास
झूम उठे लयबद्ध
लोकमन

मौसम

दिन भर सजा के बाद
मौसम के मास्टरजी ने
दे दी है छुट्टी
देखो..
हवा की शैतान बच्ची
कन्धे पर चढ़ गई है
नीम दादू के
तभी तो
झुका जा रहा है वो

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बिटिया

मेरे मन में उतर आती ह
पहाड़ों से उतरती
उछलती
पत्थरों से इक्कल दुक्कल खेलती
एक अल्हड़ नदी
जो लगा लेती है अपने माथे पर
लाल बिंदिया
ओढ़ लेती है चुनरी सुनहरी
कभी सजा लेती है चाँदी का बोड़ला
और बालों में मोती की लड़ियाँ
मेरे भी अधरों पर
खिल उठते हैं फूल
दुपहरिया के
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ना जाने क्या बात हुई

बदले रंग फ़िज़ाएं बदलीं बिन मौसम बरसात हुई
भरी दोपहरी गोधूली है ना जाने क्या बात हुई
पकते बौर झूमते अमुवा मस्त मल्हारें कहाँ गईं
गंगा वैसे ही बहती है पर होली की आँच गई
नानी का चौबारा छूटा बस की आपाधापी में
छत पर लेटें किस्सों वाली खत्म सुहानी रात हुई
मिलते थे हम रोज सखा रे गलबहियों के हारों संग
मिट्टी नरम घरौंदों वाली लील कौन बरसात गई
गिट्टू पौटिक्का पोशम्पा गुल्ली डंडा भूल गए
टीवी सीडी इन्टरनैट ही बचपन की सौगात हुई
पाती के दिन कहाँ गए अब फोन हमेशा खड़के है
सम्बन्धों की निश्छलता तो अब अतीत की बात हुई

टिप्पणी                                                                        

पटरी,होलिका दहन ,मौसम ,बिटिया और न जाने क्या बात हुई...सभी छोटी कवितायेँ हैं।छोटी कविताओं की ख़ूबी उसकी भाषा मितव्ययता तो होती ही है इसके अतिरिक्त वह संवेदना के प्रभाव को पकड़ने का कार्य भी लम्बी कविताओं के मुकाबले ज्यादा बेहतर करती हैं। बड़ी कविताओं में व्यौरे-इतिवृत्त के माध्यम से संवेदना तक कवि पहुँचता है तो छोटी कविता में संवेदना तक कवि प्राय:सीधे ही पहुँचना चाहता है ।आलोच्य कविताओं में कवि/कवयित्री ने जीवन के उल्लास को अन्दर से पकड़ने का अच्छा प्रयास किया है ।होलिका दहन ,मौसम और बिटिया जैसी कविताएँ मन-संवेदना के मूल तंतुओं को बख़ूबी पकड़ती हैं। इन कविताओं में प्रकृति-मनुष्य की गति को एक-दूसरे के सापेक्ष में रखा गया है। न जाने क्या बात हुई कविता जीवन की विसंगति को पकड़ती है तो 'पटरी' कविता जीवन बोध को ...इस दृष्टि से यह कविता मुझे विशेष प्रिय लगी। अब बात कविताओं पर -

पटरी

'पटरी' कविता विवेक की छलनी में आस्था को तार्किक रुप दे देने का कौशल विकसित कर देना है ।यहाँ मिट्टी समाज के रुपक में ढल गया है।कांकर-पाथर ब़ेगढ़ संवेदना /आस्था में ।भावों के अनगढ़पन को ठोस आस्था और विवेक में ढाल कर सृजनात्मक रुप दे दिया गया है ।
जब तक हमारी भावनाएं-संवेदनाएँ कच्चे रुप में होती हैं ,तब तक हम लहुलुहान ही होते रहते हैं...भावनाओं की कच्चाई हमारे स्थिर जीवन का ही प्रतिफल है ।हमें जो मिला है , उसके साथ जीना जड़ता नहीं तो और क्या है ? कंकड़ को मंदिर ,पत्थर को मूर्ति तथा कांच को अल्पना में ढाल देना  'विवेक का सृजन ' है ।यहाँ कविता कबीर के विद्रोही तेवर से अलग सृजन-पथ पर चली जाती है। वास्तविक रुप में ख़ुशी- आनन्द हमारे कर्मों का सृजनात्मक हो उठना ही है ।इस दृष्टि से यह कविता अपनी प्रभावान्विति में सफल है ।

होलिका दहन

'होलिका दहन' कविता विश्वास के बच निकलने की थीम पर आधारित है ।होलिका-दहन के पौराणिक - वृत्त को लेकर यह कविता चलती है....होलिका यहाँ असत् के जल जाने और सत् के निखर उठने के प्रतीक रुप में आई है। लेकिन होलिका दहन में आस्था का तपना , नई फ़सल के कोंपल रुपी उमंग में लोकमन के उल्लास का रुपक भी निर्मित हुआ है ।अनाचार की होलिका पर विश्वास की विजय के मिथ को लोक की स्वीकृति की कविता ही 'होलिका दहन' है ।

मौसम

'मौसम' कविता केदारनाथ अग्रवाल के 'बासंती हवा ' कविता का स्मरण कराती है ।मौसम मास्टरजी में , हवा शैतान बच्ची में रूपांतरित हो गई है...नीम का झुक जाना वस्तुत: प्रकृति की उमंग का परिचायक भी है और व्यक्ति मन के साथ प्रकृति के तादात्म्य और साहचर्य का भी...... कविता अपेक्षाकृत छोटी है...बिम्ब अधूरे लगते हैं अत: कविता अधूरे रूप में हमारे सामने आती है ।कुछ और चित्र कविता को संभवत: ज्यादा प्रभावी बनाते ....

बिटिया

'बिटिया' कविता में प्रकृति और मानव गति के बीच साहचर्य को सुन्दर ढंग से पकड़ा गया है ।मन से भावों का उतर जाना ...पहाड़ के बीच से नदी का निकल जाना है। समाज- सभ्यता की जटिलता , कृत्रिम ऊँचाई के बीच जो तरलता है...उमंग है ,वह जीवन है ।इस कविता में बिटिया नदी में रूपांतरित होती है...फ़िर जीवन में और फ़िर 'खिल उठते हैं फूल दुपहरिया के ' के माध्यम से प्रकृति और मानव-सम्भावना के तादात्म्य को खोजा गया है। पूरी कविता बिम्बों के संगीत से रची गयी है....प्रकृति अनुभूति में और अनुभूति प्रकृति की जीवंतता में ढल  गई है। यह छोटी कविता है किन्तु बिटिया रुपी मानव-सम्बन्ध को संगीतात्मक रवानगी से जीवंत किया गया है ।

न जाने क्या बात हुई ।

इस कविता में बिन मौसम बरसात ,दोपहरी गोधूली जैसे विभावनात्मक- विसंगतिपूर्ण भाषा प्रयोग से जीवन की विसंगति के चित्र खींचे गये हैं ।प्रारंभ में कविता में आशा के दृश्य रखे गये हैं किन्तु क्रमश: कविता जीवन के यथार्थ पर खड़ी हो गयी है ।कविता मल्हार ,होली की आँच , नानी के चौबारे के छूट जाने के माध्यम से समाज के रीतेपन का अच्छा चित्र खींचती है ।क़िस्सों का ख़त्म हो जाना कहीं हमारे जीवन में "स्मृति लोप " का हो जाना तो नहीं है ? इतिहास- जीवन सम्बन्ध को बांधने वाले क़िस्से की समाप्ति हमारे अतीत-भाव का चूक जाना भी है ।'संबंधों की निश्छलता को अतीत' कहना इसी प्रकार की स्वीकारोक्ति है। बचपना पूँजी में खोता जा रहा है.... ।सभ्यता -विस्तार के क्रम में मनुष्य के भाव -प्राकट्य के तौर-तरीके भी बदले हैं और उनमें आंतरिक संघर्ष भी बढ़ा है ....अंत:करण पर बाह्य दबाव क्रमश: बढ़ता ही गया है और उसी अनुपात में संवेदनाओं का क्षरण भी....यह कविता 'न जाने क्या बात हुई ' के प्रश्न सूचक संकेत के माध्यम से हमारा ध्यान इसी ओर खींचती है

कवि विदुषी जी हैं.. कविताओं पर टिप्पणी हमारे साथी डॉ.शशांक शुक्ला जी ने की है..दोनों साथियो का बहुत-बहुत आभार...

12.01.2015

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