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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

04 फ़रवरी, 2015

कवितायेँ पवन चौहान जी की टिप्पणी अर्पण कुमार जी की

आज चर्चा के लिए  कविताएँ और टिप्पणी प्रस्तुत है...
न कवि का नाम बताया जा रहा है और नहीं टिप्पणी करने वाले साथी का....बिजूका एक से साभार है यह पोस्ट...

कविता                  
अरसा

बहुत अरसा हो गया है
उन लम्हों को गुजरे
जो रहते थे सदा मेरे साथ
पल-प्रतिपल
हमेशा मानसपटल पर दौड़ते
कभी थकते नहीं

बहुत अरसा हो गया है
कलम से झरते उन शब्दों को भी
रचते रहते थे जो कुछ नया हमेषा
देते रहते थे साकार रुप
उन अनबुझी, अनछुई
हकीकत तलाषती कल्पनाओं को

बहुत अरसा हो गया है
डाकिए को मेरे घर का दरवाजा खटखटाए
रंग-बिरंगे पन्नांे पर उभरी
मेरी रचनाओं को
मेरे आंगन तक छोड़े

जाने क्यों लगता है जैसे
जंजीरों में जकड़ लिए गए हों मेरे हाथ
किसी शहनशाह के डर से
ताकि खड़ा न हो पाए
एक और ताजमहल
गलती से भी

पता नहीं कब खत्म होगी
इस विराम की बेमतलब खामोश रात
और मिल पाएगा रोषनी का सुराग
फूटेगी कल्पना की एक नन्ही-सी कोंपल
और जन्म होगा किसी नए सृजन का

षायद तभी ढीली हो पाएगी
शहनशाह की मजबूत बेड़ियों की जकड़न
और मिल पाएगी
इस खामोश लंबे रास्ते में
बोलती कोई पगडंडी।
००००

कविता                   
कच्चा घड़ा

अभी नहीं सीख पाया मैं
कच्ची मिट्टी से पक्के बर्तन बनाना
यह हुनर पाने
चलना होगा कहीं तपती रेत पर
नंगे पांव
पिरोने होंगे बिखरे मोती
उस नाजुक डोर में
जो छूने मात्र से ही टूट जाती है
खोजना होगा उन अनगिनत रास्तों में से एक
जो ले जाएगा कल्पना के महल के
पहले पायदान तक
जोड़ने होंगे नए षब्द रचना में
ताकि वह उत्कृश्ट हो
टूटना होगा बड़े ढेले से
सूक्ष्तम मृदा कणों में एक बराबर
तपना होगा अनुभव की भट्ठी में
तभी दे पाऊंगा मैं रुप मृतिका को

०००

कविता                     
काफल

लो फिर आ गया ‘काफल’
लाल, मैरुन रंग का
‘छड़ोल्हु’ में सजा
हर किसी के मुंह में जाने को तैयार

ऊंचे पहाड़ से उतरी
नीलू की मां
हर साल लाती है काफल
बेचती है उन्हे षहर
और मैदान में बसे गांव में

लोगों के लिए मात्र यह फल है
पर नीलू की मां के लिए
कुदरत का यह तोहफा सौगात है
सौगात है
उसके और उसके परिवार के लिए
के बी सी के किसी एपीसोड में जीते
कम से कम रुपए जितनी

डेढ़-दो महीने के इस सीजन में
कमा लेती है वह गुजारे लायक
अपने परिवार के
जोड़ लेती है इन रुपयों से
अपने परिवार की जरुरत की चीजें

नीलू की मां खुष है
इस बार भर गया है जंगल
काफल के दानों से
हर पेड़ हो गया है सुर्ख लाल
इस बार खूब होगी आमदन
जुटा लेगी वह इस बार
अपनी जरुरत का हर सामान

पिछले बर्श की भांति नहीं खलेगी
रुपयों की कमी
अपने बेटे को ‘ख्योड़’ मेले के लिए देगी वह
खुले मन से रुपए
पति के लिए लाएगी वह
एक बढ़िया-सी व्हील चेयर
अपने लिए भी खरीदेगी वह
अपनी पसंद का एक बढ़िया-सा सूट
भतीजे की षादी के लिए

इसलिए वह बेच रही है काफल
घर-घर
बिना समय गंवाए
जानती है वह
ज्यादा दिन की नहीं है इसकी रौनक
हो जाएगा खत्म यह कुछ ही दिनों में
और फिर लौट आएगी उसकी
पुरानी दिनचर्या

जाएगी वह फिर
घर-घर
मांजेगी लोगों के जूठे बर्तन
धोएगी उनके मैले कपड़े
थकी हुई लौटेगी घर जब
नहीं होगी उसके चेहरे पर वह रौनक
जो काफल बेचने की थकान के बाद
रोज होती थी षाम को
जब करती थी वह काफल के दानों का हिसाब
नोटों की बढ़ती हर परत को खोलती हुई।

नोटः-1. ‘काफल’ हिमाचल का एक जंगली फल है जो गर्मी के मौसम में लगता है।
लोग इसे बड़े चाव से खाते हैं। जंगल के किनारे रहने वाले गरीब लोग इन
दिनों इसे घर-घर बेचकर अपनी आर्थिकी को सहारा देते हैं।
2. ‘छड़ोल्हु’- बांस की बनी हुई टोकरी
3. ‘ख्योड’- हिमाचल के मण्डी जिले का एक प्रसिद्ध पहाड़ी मेला

००००

कविता               
 अक्षर की व्यथा

मुझे नहीं पड़े रहना है
किसी अंधेरे कोने में अनजान सा
किताबों के पन्नों तक सिमटे
जिस पर धूल की परत
मोटी और मोटी होती जाती है
नहीं जलना है चूल्हे में
आग सुलगाने के वास्ते
नहीं जाना है किसी आवारा जानवर के मुंह में
उसकी भूख मिटाने
नहीं दबना है मुझे कंही
बदबुदार कचरे के ढेर में
बिकना नहीं है मुझे रद्दी में
पानी में पड़े गलना नहीं है मुझे पल-पल
टूटना नहीं है तार-तार
नहीं जीना है मुझे
कागज के बंद लिफाफों के अंदर
घुट-घुट कर
नहीं जकड़े रहना है मुझे
निर्बल रुढियों में
बस! बहुत हुआ
अब मुझे स्वतंत्रता चाहिए
घुंघट से झांकते अनगिनत चेहरों से
मिटाना है मुझे अषिक्षा का कलंक
मैं अपनी गूढ़ी काली काया संग
हर जुबान हर हाथ में जाकर
हर कलम से छूटकर निखार चाहता हूं
स्थिर जल में गिरती बूंद की तरह
अब मैं फैलाव चाहता हूं।

०००

कविता     
आत्महत्या

जब मन भर जाता है
किसी चीज से
इस भागमभाग, दौड़-धूप से
हर कड़वी बात की कड़वाहट से
बहुत ज्यादा मिठास
और लोगों की घृणित नजरों से
तो षायद मौत भी डरा नहीं पाती
उस वक्त
डरने लगती है वह खुद ही
इस आक्रामक रुख से

सोचता हूं
क्या जरुरी हो जाता है यह सब करना
परिवार को अकेला छोड़ना
और सबको को दे जाना एक जोरदार धोखा

पर मैं यह भी जानता हूं
होता है यह अपने अंदर का डर ही
जो अनायास ही निकल आता है बाहर
किसी ब्रेकिंग न्यूज पर हुए खुलासे-सा
और खिसका देता है कदम अपने पथ से

जैसे उतरती है कोई ट्रेन पटरी से
किसी खतरनाक हादसे को अंजाम देती हुई

पर यह मत सोचना
आत्महत्या कर बच जाओगे तुम
अपनी जिम्मेवारियों से
अपने आप से

यही जिम्मेवारियां बुलाएंगी तुम्हे एक फिर भी
दुत्तकारेंगी तुम्हे
और इस जन्म के अधूरे कार्यों का बदला लेगी
तुम्हारे अगले जन्म तक

तुम आओगे
तुम्हे आना ही होगा
नाक रगड़ते
घीसटते हुए
अपनी पिछली गलतियों पर
हाथ जोड़ते
माफी मांगते
पर तुम्हे कोई नहीं पहचानेगा तब
पहचानेगीं सिर्फ तुम्हारी जिम्मेवारियां ही
पिछले जन्म के दुखों का
पल-पल का हिसाब करते हुए

तुम अकेले लड़ोगे फिर
इस दुनिया की जंग
अपनी छूटी पिछली
हारी हुई अंतहीन जंग
इस जंग के डर से क्या तुम
एक बार फिर करोगे आत्महत्या?

07.01.2015

टिप्पणी                                                                                      
'अरसा'
'अरसा' एक महत्वपूर्ण और समकालीन संदर्भों से संपृक्त कविता है, जिससे किसी न किसी रूप में हम सभी रचनाकारों का साक्षात्कार गाहे-ब-गाहे होता ही रहता है।कहने की ज़रूरत नहीं कि किसी रचनाकार के लिए कुछ न लिख पाना हमेशा ही एक पीड़ादायक स्थिति रहा है। लिखना किसी लेखक के लिए साँस लेने जैसा ही है। जिस तरह ज़िंदगी के लिए साँस लेना ज़रूरी है, उसी तरह ज़िंदगी को मानीखेज़ बनाए रखने और उसका साहित्यिक रूप से दस्तावेजीकरण करने के लिए उसकी पुनर्प्रस्तुति ( लेखक के लिए लिखना) ज़रूरी है। इस कविता में न लिखे जाने की स्थिति में व्यक्त हुई कवि की उद्विग्नता से भी यही सिद्ध होता है। राजेंद्र यादव ने तो ‘न लिखने के कारण’ पर भी कितना कुछ लिख डाला।

बिना किसी राजाश्रय के स्वतंत्र रूप से लिखना या किसी विधा/रूप में कुछ सृजनात्मक करना अँधेरे और जुल्म के प्रति प्रतिरोध का एक माध्यम रहा है। अन्याय और विषमता को चित्रित करने का एक प्रयास। प्रकृति और मनुष्य के साहचर्य और उनकी रागात्मकता को यथार्थ के कैनवस पर कल्पना की कूची से रंगने की एक उदात्त पहल। जनता की आवाज़, उसकी हँसी और उसके आँसू को लोककेंद्रित साहित्य में शुरू से उचित ही केंद्रीय जगह प्राप्त होती रही है। जबकि सत्ता की कमोबेश कोशिश यह रहती है कि साहित्य निरा दरबारी साहित्य बनकर रहे। इतिहास गवाह है कि कई शासकों ने किसी सृजन को अपने अनुकूल न पाने पर लिखनेवाले को सज़ा दी है।
‘अरसा’ कविता में कवि ने ताजमहल का जिक्र किया है। प्रसंगशः ताजमहल के निर्माण के संबंध में यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि उसके कारीगरों को जंजीरों में डाल देने की बात का जिक्र इतिहास की किसी पुस्तक में नहीं आता है। उनकी हुनरमंदी का उपयोग किसी और भव्य इमारत के लिए न हो, इसके लिए उनके हाथ काट लेने की बात भी हम सुनते तो आए हैं मगर इतिहास की स्तरीय पुस्तकों में ऐसी घटनाओं के कोई सबूत नहीं मिलते हैं। अस्तु, इन्हें काव्य-रूढ़ि के रूप में ही देखना उचित होगा। कविता का काम कोरे भूमि-मालिकों से अधिक खेतों में कार्यरत श्रमिकों के साथ खड़े होना है| भवन-निर्माता शहंशाहों की तुलना में उसे बनानेवाले कारीगरों के साथ खड़े होना ज़्यादा मुनासिब लगता है, इससे कौन इनकार कर सकता है! फिर भी, इतिहास और विज्ञान-सम्मत बातों के तत्व कविता में आएं या उनसे जुड़े तथ्यों के हवाले से कविता में कुछ कहा जाए तो यह आधुनिक कविता के चरित्र के ज़्यादा अनुकूल होगा।

‘कच्चा घड़ा’
‘कच्चा घड़ा’ कविता भी सामान्य भाषाई रचाव में प्रस्तुत एक उल्लेखनीय कविता कही जाएगी।

‘टूटना होगा बड़े ढेले से
सूक्ष्तम मृदा कणों में एक बराबर
तपना होगा अनुभव की भट्ठी में
तभी दे पाऊंगा मैं रुप मृतिका को’

निश्चय ही अहं का विसर्जन किसी रचना के लिए एक आवश्यक तत्व है। अज्ञेय ने अपनी प्रसिद्ध कविता ‘असाध्य वीणा’ में अहं के इसी विसर्जन को कलाकार की साधना से जोड़ा है। कला के प्रति अटूट समर्पण में कलाकार के अपने व्यक्तित्व का विलोपन होता है। बिना इसके कोई ईमानदार रचना संभव नहीं है।किसी निर्माण के लिए अंदर और बाहर दोनों तरफ से चोट की थाप का लगना आवश्यक है।यह थाप किसी हेकड़ी के आगे नतमस्तक होती बेमतलब की प्रशंसा से लाख गुनी बेहतर है।

‘अक्षर की व्यथा’
‘अक्षर की व्यथा’ कविता अंत तक आते-आते अक्षर की अभिलाषा बन जाती है। यह कवि की सफलता है। मनोवांछित का न होना व्यथा है और उसे होते देखना एक अभिलाषा। प्रस्तुत कविता में अक्षर अपनी उपयोगिता का कुछ सार्थक फैलाव चाहता है। अक्षर-ज्ञान शिक्षा की पहली सीढ़ी है और हमारे निरक्षर नागरिकों का एक बड़ा हिस्सा अब तक इस पहले पायदान पर ही नहीं पहुँचा है। समाज में लंबे समय से जारी शोषण के पीछे अज्ञानता एक बहुत बड़ा कारक है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। कवि ने ऐसे शोषितों की व्यथा को ‘अक्षर की व्यथा’ बना दी है, यह उसकी सफलता है।

बस! बहुत हुआ
अब मुझे स्वतंत्रता चाहिए
घूंघट से झांकते अनगिनत चेहरों से
मिटाना है मुझे अशिक्षा का कलंक
मैं अपनी गूढ़ी काली काया संग
हर जुबान हर हाथ में जाकर
हर कलम से छूटकर निखार चाहता हूं
स्थिर जल में गिरती बूंद की तरह
अब मैं फैलाव चाहता हूं।

‘काफल’
लोगों के घरों में झूठे बर्तन और गंदे कपड़े धोनेवाली नीलू की मां जब कुछेक समय के लिए अपना ‘काफल’ बेचने लगती है, तो उसे अपनी इस फेरीगत व्यवसाय में ज़्यादा आनंद आता है।जीवनयापन के लिए कोई भी कर्म छोटा नहीं होता है, नहीं होना चाहिए। फिर भी कई कार्यक्षेत्रों में लगे लोग नारकीय हालात में और मनुष्य की यथोचित और न्यूनतम गरिमा को बट्टा पर रखकर कार्य कर रहे हैं, जिनका क्रमशः सम्मानजनक विकल्प तैयार हो तो बेहतर है।बिना किसी अतिरिक्त टिप्पणी के, कविता के कवित्व को सुरक्षित रखते हुए कवि ने इसे समुचित रूप में रखा है।विपन्नता के बरक्स चंद सिक्कों से हासिल आत्मविश्वास और उम्मीद की चमक को, श्रम-सौंदर्य से विरचित इस कविता में सहज ही देखा जा सकता है।प्रकृति की प्रचुर देयता को मनुष्य की आवश्यकता और उसके निष्कलुष आत्मविश्वास के साथ एकमेव करते हुए यहाँ सहज ही देखा जा सकता है। इस क्रम में आदिवासियों के पर्यावरण-प्रेम को और विभिन्न देशों में पर्यावरणविदों के पर्यावरण-संरक्षण संबंधी जारी संघर्षों के बारे में बिना कुछ कहे यह कविता अपनी ‘पंक्तियों के बीच’ (‘बिटविन द लाईंस’) बहुत कुछ कह जाती है।    

नीलू की मां खुश है
इस बार भर गया है जंगल
काफल के दानों से
हर पेड़ हो गया है सुर्ख लाल
इस बार खूब होगी आमदन
जुटा लेगी वह इस बार
अपनी जरुरत का हर सामान
               
‘आत्महत्या’
आत्महत्या की मानसिकता एक जटिल और नाजुक मानसिकता है। व्यक्ति के अंतर्जगत का यह एक बीहड़ प्रदेश है। इसपर लिखते हुए उन दुर्गम पथों पर ऐसी राह चुननेवाले लोगों में समुचित रूप से परकाया प्रवेश करना होगा। इस जन्म के अधूरे रहे कार्यों को अगले जन्म में पूरा करना होता है, कवि जन्म-जन्मांतर की एक अवैज्ञानिक धारणा को ही विशुद्ध अभिधात्मक रूप में प्रस्तुत कर रहा है। इस जन्म का हिसाब तुम्हें अगले जन्म में देना होगा, यह कहकर अन्यायी के अन्याय को और न ही किसी शोषित द्वारा उठाए गए आत्महत्या के निर्णय को कभी रोका जा सका है और न कभी रोका जा सकता है। अतः कविता में और अन्यत्र भी हमें किसी समस्या के ऐसे सरलीकरण से बचने की ज़रूरत है। आत्महत्या अमीर और अपराधी भी करते हैं मगर उनके ऐसे कदमों के पीछे कई दूसरे कारक होते हैं और किसी गरीब की आत्महत्या के पीछे दूसरे ।हालाँकि, यह विषय  इस कविता से इतर है और इसपर अलग से चर्चा की जा सकती है।  

सामान्य बोलचाल की भाषा में लिखी ये कविताएँ प्रभावित करती हैं। आत्मान्वेषण करती और हाशिए पर जीवन जीते लोगों के पक्ष में खड़ी ये कविताएँ अपने लिखे जाने का औचित्य सिद्ध करती हैं और अपनी जनपक्षधरता भी स्पष्ट करती हैं।

कविताओं में टंकण संबंधी त्रुटि से बचे जाने की ज़रूरत है।

कवि पवन चौहान हैं और उनकी कविताओं पर टिप्पणी अर्पण कुमार की है

07.01.2015

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