बिजूका समूहों के साथियों ने नव वर्ष 2016 पर शुभकामनाएं देने के लिए अनेक सुन्दर रचनाएँ समूहों में साँझा की। प्रस्तुत है उन रचनाओं से बनी एक पोस्ट।
नज़्म:
ऐ नए साल बता, तुझमें नया-पन क्या है
हर तरफ़ ख़ल्क़ ने क्यूँ शोर मचा रक्खा है
(ख़ल्क़ - मानवता)
रौशनी दिन की वही, तारों भरी रात वही
आज हम को नज़र आती है हर इक बात वही
आसमाँ बदला है, अफ़सोस, ना बदली है ज़मीं
एक हिंदसे का बदलना कोई जिद्दत तो नहीं
(हिंदसे - संख्या; जिद्दत - नया-पन)
अगले बरसों की तरह होंगे क़रीने तेरे
किस को मालूम नहीं बारह महीने तेरे
(अगले - पिछले/गुज़रे हुए; क़रीने - क्रम)
जनवरी, फ़रवरी और मार्च पड़ेगी सर्दी
और अप्रैल, मई, जून में होगी गर्मी
तेरा मन दहर में कुछ खोएगा, कुछ पाएगा
अपनी मीआद बसर कर के चला जाएगा
(दहर - दुनिया; मीआद - मियाद/अवधि)
तू नया है तो दिखा सुबह नयी, शाम नयी
वरना इन आँखों ने देखे हैं नए साल कई
बे-सबब देते हैं क्यूँ लोग मुबारकबादें
ग़ालिबन भूल गए वक़्त की कड़वी यादें
(बे-सबब - बे-वजह; ग़ालिबन - शायद)
तेरी आमद से घटी उम्र जहाँ में सब की
'फ़ैज़' ने लिक्खी है यह नज़्म निराले ढब की
(आमद - आना; ढब - तरीक़ा)
फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'
सत्यनारायण:-
मित्रो
फिर कैलेन्डर वर्ष बदल गया है..
हम वही है. समूह वही है. हमारे सुख-दुख वही है. सब कुछ वैसा का वैसा ही है. लेकिन कैलेन्डर वर्ष 
बदल गया है. मित्रो कैलेन्डर के पेज की तरह न बदलेगी हमारी दोस्ती.
इतिहास नहीं बनेगी ..हमारी एकजुटता.... यूँ फलता फूलता रहेगा..हमारा साझा प्रयास...हमारा साझा परिवार...हमारा बिजूका 
परिवार....
आज आपको दो अलग-अलग मूड की रचना पेश की जा रही है...
फहली फैज़ अहमद फैज़ की है और दूसरी सोहन लाल द्विवेदी जी की है..
आप सबको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ....
अब दिन खुल है...आप अपने ढँग से नया वर्ष मनाएँ...
सत्यनारायण:-
दो
स्वागत! जीवन के नवल वर्ष 
आओ, नूतन-निर्माण लिये, 
इस महा जागरण के युग में 
जाग्रत जीवन अभिमान लिये; 
दीनों दुखियों का त्राण लिये 
मानवता का कल्याण लिये, 
स्वागत! नवयुग के नवल वर्ष! 
तुम आओ स्वर्ण-विहान लिये। 
संसार क्षितिज पर महाक्रान्ति 
की ज्वालाओं के गान लिये, 
मेरे भारत के लिये नई 
प्रेरणा नया उत्थान लिये; 
मुर्दा शरीर में नये प्राण 
प्राणों में नव अरमान लिये, 
स्वागत!स्वागत! मेरे आगत! 
तुम आओ स्वर्ण विहान लिये! 
युग-युग तक पिसते आये 
कृषकों को जीवन-दान लिये, 
कंकाल-मात्र रह गये शेष 
मजदूरों का नव त्राण लिये; 
श्रमिकों का नव संगठन लिये, 
पददलितों का उत्थान लिये; 
स्वागत!स्वागत! मेरे आगत! 
तुम आओ स्वर्ण विहान लिये! 
सत्ताधारी साम्राज्यवाद के 
मद का चिर-अवसान लिये, 
दुर्बल को अभयदान, 
भूखे को रोटी का सामान लिये; 
जीवन में नूतन क्रान्ति 
क्रान्ति में नये-नये बलिदान लिये, 
स्वागत! जीवन के नवल वर्ष 
आओ, तुम स्वर्ण विहान लिये!
सोहनलाल द्विवेदी 
सत्यनारायण:-
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के शब्द सुुमनों से वर्ष २०१६ की हार्दिक 
शुभकामनाएँ ।
नए साल की शुभकामनाएँ!
खेतों की मेड़ों पर धूल भरे पाँव को
कुहरे में लिपटे उस छोटे से गाँव को
नए साल की शुभकामनाएं! 
जाँते के गीतों को बैलों की चाल को
करघे को कोल्हू को मछुओं के जाल को
नए साल की शुभकामनाएँ!
इस पकती रोटी को बच्चों के शोर को
चौंके की गुनगुन को चूल्हे की भोर को
नए साल की शुभकामनाएँ!
वीराने जंगल को तारों को रात को
ठंडी दो बंदूकों में घर की बात को
नए साल की शुभकामनाएँ!
इस चलती आँधी में हर बिखरे बाल को
सिगरेट की लाशों पर फूलों से ख़याल को
नए साल की शुभकामनाएँ!
कोट के गुलाब और जूड़े के फूल को
हर नन्ही याद को हर छोटी भूल को
नए साल की शुभकामनाएँ!
उनको जिनने चुन-चुनकर ग्रीटिंग कार्ड लिखे
उनको जो अपने गमले में चुपचाप दिखे
नए साल की शुभकामनाएँ!
चंद्र शेखर बिरथरे :-
पल  पल    में       बीत गए ।
दिन कल   कल में रीत गए ।
ऋतुओं  के आलिंगन     में ।
बारह महीने कब बीत    गए।
वर्ष ये     नवीन    आया है ।
खुशियों की सौगातें लाया है ।
खुशियों का संकल्प चलो हम करते है ।
स्वागत नए वर्ष का खुशियों से करते है ।
चंद्रशेखर बिरथरे
जीवेश चौबे:-
कोई ऐसा साल न होगा
कि जिसके बीतने का मलाल न होगा
आप सभी को नए वर्ष की शुभकामनाये केदारनाथ अग्रवाल जी की इस कविता के साथ
गए साल की
ठिठकी ठिठकी ठिठुरन
नए साल के
नए सूर्य ने तोड़ी।
देश-काल पर,
धूप-चढ़ गई,
हवा गरम हो फैली,
पौरुष के पेड़ों के पत्ते
चेतन चमके।
दर्पण-देही
दसों दिशाएँ
रंग-रूप की
दुनिया बिम्बित करतीं,
मानव-मन में
ज्योति-तरंगे उठतीं।
जीवेश चौबे
अजित कुमार:-
नये साल को सम्बोधित महबूब शायर फैज़ अहमद फैज़ की ये मशहूर नज़्म-
ऐ नए साल बता तुझ में नयापन क्या है?
हर तरफ खल्क ने क्यों शोर मचा रखा है 
रौशनी दिन की वही, तारों भरी रात वही  
आज हमको नज़र आती है हर एक बात वही
आसमान बदला है,अफ़सोस न बदली है ज़मीं
एक हिन्दसे का बदलना कोई जिद्दत तो नहीं
अगले बरसों की तरह होंगे करीने तेरे
जनवरी, फरवरी और मार्च में होगी सर्दी
तेरा सिनदहर में कुछ खोएगा, कुछ पायेगा
अपनी मियाद बसर कर के चला जायेगा
तू नया है तो दिखा सुबह नयी, शाम नयी 
वर्ना इन आँखों ने देखे हैं नए साल कई
बेसबब लोग क्यों देते हैं मुबाराकबादें
गालेबन भूल गए वक़्त की कडवी यादें
क्रांति बोध:-
नये वर्ष की आकांक्षाओं को व्यक्त करने के लिए गोरख पाण्डेय के इन शब्दों से बेहतर और क्या अभिव्यक्ति हो सकती है,बधाई हो
हमारे वतन की नई जिंदगी हो
नई जिंदगी इक मुकम्मिल खुशी हो
नया हो गुलिस्ताँ नई बुलबुलें हों
मुहब्बत की कोई नई रागिनी हो
न हो कोई राजा न हो रंक कोई
सभी हों बराबर सभी आदमी हों
न ही हथकड़ी कोई फसलों को डाले
हमारे दिलों की न सौदागरी हो
जुबानों पे पाबंदियाँ हों न कोई
निगाहों में अपनी नई रोशनी हो
न अश्कों से नम हो किसी का भी दामन
न ही कोई भी कायदा हिटलरी हो
सभी होंठ आजाद हों मयकदे में
कि गंगो-जमन जैसी दरियादिली हो
नए फैसले हों नई कोशिशें हों
नई मंजिलों की कशिश भी नई हो
महावीर वर्मा:-
नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है              आओ बैठो बात करो-                    हम सभी जानते है,तुम केवल एक बरस रह पाओगे                     जिस तरह तुम्हारे बंधू गये तुम भी वैसे ही जाओगे।।।                     इस घर को अपना घर समझो शायद है समझोगे भी                           बेशक तुम कुछ दे दोगे लेकिन कुछ तो लोगे भी।।।                            तुम जैसा हम को बतला दो हम वैसा बंदोबस्त करें                             अपना सुख दुःख हम सहलेंगे पर तुमको क्यों त्रस्त करें।।                   शुभ मंगल सबका ही हो संकल्प हमारे साथ करो                       फिर लाख बरस तक रहो यहाँ-स्वागत है-                                      बैठो बात करो। -बालकवि बैरागी
सत्यनारायण:-
*नज़्म*
"केलेंडर"
******
उम्मीदों की 
गठरी थामे
हों जनवरी का 
पहला दिन
जीवन की 
सुनी बगिया में
आते हैं 
कुछ लौग ऐसे
बिछा कर फिर 
रिश्तों की चादर
सजाते हैं फिर
वो ख्वाबों को
अहसास दिला कर
तारीकी का
करते हैं बात 
उजालों की
फिर जब 
पूरी हो जाती है
उनके जज़्बातों
की तफ़रीह
और दिल की
तिजारत भी
हर पल अपना 
कहने वाले
नाउम्मीदी की
खाली बोतल
यादों के कुछ
फ़टे से रेपर
ख़ामोशी का
ढुलता पानी
उदासियों का
कीचड़-वीचड़
यादों का
फैला कर कचरा
जाते हैं
यूँ बेगाने से
दिसम्बर की आखरी
शाम हों जैसे
मिजाज़ मौसम सा
जज़्बात महीनों से
लोगों ने साल 
बना डाले रिश्ते
काश ये दिल भी
केलेंडर होता
परवेज़ इक़बाल
प्रदीप मिश्र:-
सभी मित्रों को वष 2016 की शुभकामनायें।परवेज इक़बाल की नज़्म, टीकम शेखावत की कवितायेँ,सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी, अरुण भाई,बाल कवि बैरागी,बहादुर भाई,मनीष और निरंजन भाई साब की काव्यात्मक अभिव्यक्ति के साथ अन्य मित्रों की जोरदार उपास्थि नए वर्ष में हमारे संवाद को और भी सार्थक करेंगे। फिलहाल मेरी भी एक कविता मित्रों के लिए।शुभकामनाओं के साथ।
एक सुबह चाहिए
नववर्ष के पूर्वी क्षितिज पर खड़ा बच्चा
सूर्य का आह्वान कर रहा है
उसे विश्वास चाहिए
बिजली के लट्टुओं में तब्दील नहीं हो रहा है सूर्य
अपने सपनों की सड़ांध के बीच खड़ी स्त्री
नाक पर पल्लू रखे
अगवानी की थाल सज़ा रही है
आँगन के कुम्हलाए हुए मोगरे में
भरना चाहती है
सुगंध
धरती की उर्वरा में अपना जीवन तलाशते हुए
आश्वस्त होना चाहते हैं किसान  
खेत सुरक्षित रहेंगे अगले नववर्ष तक
कांक्रीटी आतातायियों से
रासायनिक सेंधमारी से
पर्यावरण को बचा कर रखना चाहता है समय
मोबाइल के नेटवर्क को ध्वस्त करती हुई मधुमक्खियाँ
ठीक-ठीक लौटना चाहतीं हैं
अपने छत्तों तक
अपनी धुरी पर घूमते हुए
मदमस्त होना चाहती है धरती
मछलियों की तरह तैरते हुए बादल
समुद्र में अपना घर बनाना चाहते हैं
फूल गमकते रहना चाहते हैं
जैसे गमकता है पहला प्रेम
फसल की तरह लहलहाते हुए हम
बाँटना चाहते हैं नववर्ष की मंगलकामनाएं
इस वर्ष एक सुबह चाहिए
जिसमें सूर्य उगता है
शुभकामनाओं की तरह और
दिन मंगलमय होते हैं ।  
प्रदीप मिश्र
सत्यनारायण:-
साल
अवधारणा हैै
काल की
जो 
जितना शाश्वत है
उतना सापेक्ष
यह 
न नया है
न पुराना
न अच्छा 
न बुरा
इसे बनाता हैै
मनुष्य का
सामर्थ्य
निष्ठा और श्रम
यह तो हैै 
महाकाल का 
एक कण
अब देखें 
आप इसे 
नया बनाते हैं
या यह आपको
पुराना कर जाता है
- 
हूबनाथ
अर्पण कुमार:-
नववर्ष पर अपना एक पुराना चित्र मिला। उसी के बहाने फेसबुक पर कुछ देर पहले एक पोस्ट लिखा। लिखते हुए लगा कि इसे क्रमशः और बढ़ाया जा सकता है। आज चूंकि खुला मंच है, इसलिए उस पोस्ट का टेक्स्ट यहाँ रख रहा हूँ। चित्र को जान बूझकर छोड़ रहा हूँ। वह चित्र कोई भी हो सकता है।ऐसे कई चित्र आपके पास भी होंगे। यह संयोग है कि उस चित्र के बहाने कुछ लिखा गया और एक अंतर्यात्रा लिखने का ख्याल आया। इस मायने में उस चित्र का एक विशेष महत्व ठहराता है।नए वर्ष की शुभकामनाओं सहित।
टूटे मन की यात्रा / अर्पण कुमार 
01 जनवरी 2016 
नए साल में अपना यह एक पुराना चित्र मिला। पुरानी चीजें या पुरानी छवियाँ जब अरसे बाद मिलें तो किस तरह नई सी दिखती हैं, इसका अहसास हुआ। गर्दन पीछे मुड़ती है और दिमाग विगत वर्षों की यात्रा करता उस विशेष काल-बिंदु पर आ पहुंचता है। वर्ष 1991, शहर पटना और कॉलेज, पटना कॉलेज। इंटर की पढ़ाई के सिलसिले में  गाँव से शहर में प्रवेश करता एक किशोर। युवक होते उस किशोर के लिए उसका शरीर बदल रहा था, उसकी दुनिया बदल रही थी। उसके मनोभावों में जीवनानुभव की नई कड़ियाँ जुड़ रही थीं और उसका दायरा बढ़ रहा था। उसका गाँव छूट रहा था। उससे शहर जुड़ रहा था। शहर में नए घर तलाशने थे और नई रसोई का इंतज़ाम करना था। घर से कॉलेज तक जाने और वापस घर तक आने के लिए कोई वाहन भी चाहिए था। गाँव की साइकिल ट्रेन पर लदकर शहर आ गई थी। उसी साइकिल से पटना के सभी सिनेमाघर रौंदे गए। उसी साइकिल से शहर में पहले से ही रहे रिश्तेदारों के बंद दरवाजों पर दस्तक दी गई। उसी साइकिल पर आवारगी के कई पल जीवंत हुए। स्कूल की प्रेमिका ने शहर में आकर पहला और आख़िरी प्रेम-पत्र लिखा।स्कूल की प्रेमिका तब कुछ गंवई लगी और शहर की लड़कियों ने घास नहीं डाली।किसी एक के प्रति बरती गई निष्ठुरता में खुद ही टूटा और उसी टूटे मन से पटना से विदा लिया और दिल्ली पहुँचा। दिल्ली, जहाँ आकर और टूटना था। मगर टूटना, जब जीवन का हिस्सा हो जाए, तो टूटे मन से भी आदमी हँसना/बोलना सीख जाता है।जान जाता है, जुड़ी हुई चीजें अंततः टूटती हैं। इस टूटने से आदमी पहले ठिठकता है और फिर आगे बढ़ता है। इस विखंडन से ही कुछ न करते रहने की ऊर्जा बनी रहती है। पुरातनता की इस नवीनता के साथ आप सभी को नव वर्ष की अनंत शुभकामनाएं।
सत्यनारायण:-
नये वर्ष के प्रति 
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ओ अपरिचित !
लाओगे ! क्या लाओगे !
पूछते हैं घर-
दिशाएँ,
नदी-नाले,
गाँव-जंगल--
लाओगे! क्या लाओगे!
गन्ध पहले बौर की 
या फलों पर चढ़ते सुनहरे रंग,
स्पर्श हाथों का नया 
या सर्द पानी-सी छुवन निस्संग,
लाओगे! क्या लाओगे!
बन्द कमरे 
या कि दरवाज़ों-भरी दीवार,
शर्त नगे झरोखे की
या कि गलियों-पार झोकों की उदास पुकार,
लाओगे! क्या लाओगे!
अनछुए तट 
याकि रस्तों के नए भटकाव 
धूपगंधी पंख चिड़ियों के 
याकि टूटे आंधियों के पांव 
लाओगे ! क्या लाओगे !
नया कोई शब्द शाखों के लिए 
या फिर वही की वही कूक अनाम 
नये समझौते 
बंधतीं और खुलतीं 
मुट्ठियां निष्काम 
लाओगे ! क्या लाओगे !
निहाई पर चोट घन की 
या कि छेनी से निकलते--
फूल, आँसू, ऋचाएँ, मन के रुँधे सब के बोल,
गिरे पालों की उदासी 
या कि जल के आईनों में काँपता भूडोल,
लाओगे! क्या लाओगे!
नयी चा की प्यालियों में तैरता दिन 
या कि हल्की भाप,
चोट खाये बादलों की टूक-टूक जिजीविषा 
या फिर--
अजनमे स्वरों का चढ़ता हुआ आलाप,
लाओगे! क्या लाओगे!
आज की यह लहर,
आज की यह हवा, 
आज के ये फूल--
ये झरतीं पंखुरियाँ,
'आज'--इस ख़मोश मिटते शब्द की 
सारी उबलती अर्थवत्ता--
राह में ले कर खड़ा हूँ,
लाओगे! कब लाओगे!
ये घर 
दिशाएँ 
नदी-नाले 
गाँव-जंगल--
पूछते हैं-
लाओगे! क्या लाओगे!
ओ अपरिचित !
०००
केदारनाथ सिंह
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