image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

05 मार्च, 2016

कविता गुप्ता के डायरी के दो पन्ने

आज कविता गुप्ता की कहानी "डायरी का पन्ना" आपके समक्ष रख रहे हैं।  कृपया पढ़कर अपनी निष्पक्ष प्रतिक्रिया दीजिएगा जिससे रचनाकार को अपनी रचना तराशने में मदद मिले।

डायरी का पन्ना
------------

शाम हो गयी उर्मी ( बेटी ) के घर में उसके कमरे की खिड़की का पर्दा हटा कर शाम को देख रही हूँ । अंधेरे का डेरा क़ब्ज़ा जमाता जा रहा हैं । मुझे वो नन्ही जान झटपटाती हुई दिख रही हैं । अब सोच रही हूँ की कितनी बेवक़ूफ़ हूँ उसका फ़ोन नम्बर तो क्या नाम तक भी नहीं पूछा । मेरे बाज़ू वाली सीट पर आकर बैठी बहुत बेचैन सी फ़ोन को उलट- पलट रही थी । उसने एक मुस्कान परोसी मैंने भी जवाब में होंठ फैला दिये ।

मेरे हाथ में अपने जैसा सेल फ़ोन देख कर "उसने पूछा आपके पास चार्जर हैं।" उसके मुँह से बासी मुँह की गंध आई । शायद उसने बड़े लम्बे समय से ना कुछ खाया ही था ना कुछ पीया ही था। शायद कुछ बोली भी नहीं थी। 
माफ़ी  माँगते हुए मैंने उसे बताया की यदि होता भी तो इस जहाज़ में फ़ोन चार्ज करने की सुविधा नहीं हैं । मैंने उसे कैबिन क्रू से सम्पर्क करने की सलाह दी । वो उठ कर गयी और आईं थोड़ी देर में ही उसने बैटरी बैंक ख़रीद लिया । 
"तुम मुंबई से हो " मैंने पूछा 
"न्यूजीलैंड से " उसने जवाब दिया 
"दिल्ली में कौन रहता हैं " मैंने पूछा
"कोई नहीं दरअसल मैं सीधा न्यूजीलैंड से आ रही हुँ । मुझे दिल्ली की टिकट नहीं मिली थी इसीलिए जल्दी में मुंबई की टिकट ली ।" उसने कहा लेकिन अचानक उसकी आँखें नम हो गयी।
"दिल्ली से रूद्रपुर पहुँचने में कितना समय लगता हैं ।" उसने अचानक पूछा लेकिन उसके होंठ कुछ विक्रत तरीक़े से मुड़े । जैसे कुछ कहना भी चाहते हो और नहीं भी । 
"मुझे ठीक से मालूम नहीं लेकिन शायद चार घंटे से कम तो नहीं लगेगें।" मैंने जवाब दिया

"मैं अपने बोयफ़्रेंड को खोजने भारत आई हूँ।" इतना कहते ही उसकी आँखों व होठों ने उसका साथ देना बंद कर दिया। आँसू उसकी नीली आँखों से झरने लगे। 
ख़ुद को सम्भालने की कोशिश करते हुए वो बोली "रिलीजन प्रॉब्लम हैं।" और थूक सटकते हुए एक लम्बा सा साँस भरा। लम्बे समय से कुछ भी नहीं खाने-पीने की वज़ह से उसके होंठ सूख कर पपडाएँ हुए थे।

मैं सन्न थी। मेरा हाथ ख़ुद ब ख़ुद उसके कंधे पर पहुँच गया । उफ़ ! इस तेईस चौबीस साल की लड़की का दिवनापन । अब मेरे पास कोई शब्द नहीं थे ना ही मैं कुछ भी सोच पा रही थी । 
मगर वो अब कुछ और भी शायद बहुत कुछ कहना चाहती थी " वो वर्क वीज़ा पर था । उसका वीज़ा ख़त्म हुआ तो उसकी फ़ैमिली ने उसे वापस बुला लिया । बहुत दिनों से कह रहा हैं की उसकी फ़ैमिली इस सम्बंध के लिए तैयार नहीं हैं।" उसने कहा साथ ही आँसू पौछे और नाक टीशु पेपर में सिड़की। 
"मेरी फ़ैमिली गुजरात ओरिजन से हैं। मैं अपना रिलीजन बदलने के लिए भी तैयार हूँ।" कह कर वो अपनी कलाई पर गुदे शोइब को सहलाने लगी उसकी ऊँगलियों पर भी एस एस लिखा था।अपने पपडाये होंठों की सूखी खाल वो दाँतों से कुतरने लगी। 
"मेरी फ़ैमिली भी तैयार नहीं हैं लेकिन मैं उन्हें मना लूँगी।" उसके स्वर में विश्वाश था । 
"मैंने कल ही ममा को कहा की मैं उसे खोजने इंडिया जा रही हूँ।" उसने बताया। वो ना जाने कब से किसी उस शक्स को ढूँढ रही थी जिससे वो कुछ बातें कह सके । अपने ही दाँतों से अपने ही होंठों की खाल कुतरते हुये उसके होंठों पर उसका अपना ख़ून झलक़ आया था।लेकिन मेरे दिमाग ने बिलकुल ही काम करना बन्द कर दिया । मैं तो बस यह सोच रही थी की अब बस ये छली ना जाये दुनिया के हाथों । ये उस इबादत के दौर से गुज़र रही हैं जब इसके ख़ुदा को इससे छीनने की कोशिश कर रही है ये दुनिया। पर ये पागल उसके पीछे देश दुनिया पहाड़ समुद्र लांघती चली आ रही हैं ।

" हम लोगों ने शादी करके मेरे पासपोर्ट पर घर लेने का प्लान किया था । लेकिन उसके परिवार ने उसे कहीं और भेज दिया हैं वो आजकल मेरे टच में बिलकुल नहीं हैं । ईवेन फ़ेस बुक अकाउंट भी डीऐक्टिवेट कर दिया हैं । वहत्सप्प भी बंद फ़ोन भी नहीं आन्सर करता हैं ।" अब तक वो अपने आँसुओं पर क़ाबू कर चूकी थी । उसे यह अहसास हो चुका था की उसे लोग देखने लगे हैं ।

मेरे दिमाग़ में पूछने के लिये यह प्रश्न भी नहीं आ पाया की वो उसे कैसे खोजेगी । अब तक उसके फ़ोन में थोड़ी जान आ गई थी । अचानक कोई मेसिज आने का संकेत मिला । उसने फ़ोन उठा कर पढ़ा। तुरंत कॉल किया। बहुत धीमी आवाज़ में उसने बातें करी । इतनी धीमी की स्पष्ट कुछ समझ नहीं आ रहा था ।

फ़ोन काटने के बाद वो फिर बोली " "उसके फ़ादर से टच में हूँ । उनसे ही मिल कर उसे वापस न्यूज़ीलैंड ले जाने आयी हूँ।"

"मेरे पेरेंट्स का कहना की उसकी उम्र और मेरी उम्र में चार साल का अंतर भी हैं वो मुझसे चार साल छोटा हैं। इसीलिये अभी पूरी तरह से मैंचयोर नहीं हैं।मैं जानती हूँ यह बात बट वी आर इन लव।"उसने कहा। पर मैं उसकी प्रेम पगी नीली आँखें ही देखे जा रही थी।

मेरा दिमाग़ अभी तक सन्न हैं । उसकी दीवानगी के लिये। सच में प्रेम की कोई परिभाषा नहीं हैं । मीरा गली गली भटक रही हैं । एक ही नाम रटते रटते ये चली आई हैं पहाड़ों में भटकने।

जहाज़ से उतरते वक़्त मुझे अचानक ख़याल आया की ये बावरी तो इश्क़ में हैं इसे अपनी सुरक्षा का कोई ख़्याल नहीं।मेरा दिल चाहा की इसके साथ इसके प्यार की खोज में चली चलूँ। पता नहीं कहाँ कहाँ भटकेगी इस मेरे असुरक्षित देश में । परन्तु फिर वही जिस काम के लिये मैं दिल्ली जा रही हूँ उससे भी मुँह नहीं मोड़ सकती । 
कुछ सोचते हुये मैंने कहा " मैं एक सलाह देना चाहती हूँ उसके घर सीधे मत जाना। उसके फ़ादर को किसी पब्लिक प्लेस पर बुला लेना । जो भी डिसिज़न होना हैं,हो ही जाएगा। भारत इतना सुरक्षित भी नहीं की तुम इस तरह किसी के घर अकेली चली जाओ।" 
"आप सही कह रही हैं ।" उसने कह तो दिया मगर उसकी आँखों में साफ़ दिख रहा था की अभी वो कुछ भी कर गुज़रने को तैयार है।

अब इस ढलती शाम को देख कर सोच रही हूँ की क्या किया मैंने ? उसका फ़ोन नम्बर यदि ले लिया होता तो कम से कम अब पूछ तो लिया होता की सब ठीक है। फिर सोच रही हूँ की अच्छा हुआ नहीं लिया उसका नम्बर यदि वो कहीं किसी कोने में बैठी रो रही होगी तो ? मैंने तो उसका नाम भी नहीं पूछा।फिर दिल ही दिल दुआ करती हूँ की वो रो तो रही हो मगर  ख़ुशी के मारे रो रही हो वो बे नाम दीवानी।
०००

इसी पोस्ट में कविता जी की डायरी का एक पन्ना और  प्रस्तुत है..
आपकी महत्त्वपूर्ण टीप्पणी  इन पन्नों
को और बेहतरी प्रदान करेगी.
  ०००
             
आन्दोलन

उन लोग कई दिनों से शांति पूर्ण धरने पर बैठे थे। उनकी ही संस्था के अन्य साथी शहर के अलग अलग स्थानों पर अलग अलग ग्रुप में धरने पर थे। जिन लोगों ने ये धरने प्रदर्शन शुरू किये उन्हें कोई जानता तक नहीं था। लेकिन धीरे धीरे लोगों को उनकी बातें सही लगने लगी। लोग उनसे जुड़ते गये।

कलाकार,लेखक,कवि,चित्रकार,समाज सेवक और अनेक बुद्धिजीवी कहलाया जाना पसंद करने वाले लोग भी शामिल होते गये।

कई रातों से बैठे थे।उनके साथ कुछ लोग जुड़ रहे थे। कुछ लोग छूट भी रहे थे।

धरना जिसे अब आंदोलन का नाम दिया जा रहा था जिसने शुरू किया वो अगुआ अब उनका नेता बन चूका था। उसकी आवाज की ठसक भी बढ़ती जा रही थी। खुद को स्थापित होते देख उसने कार्यशैली में थोडा बदलाव लाने की सोची।लोगों का उत्साह  बनाये रखने के लिये उसने हर धरने प्रदर्शन पर एक एक रात बिताने का फैसला किया।

उस रात टपरे वाले चौक की बारी थी। रात भर  कुत्ते भौकते रहें। उसके सोने के उपक्रम में कभी कभी कोई अड़ियल कुत्ता उसके मुँह की बोतलीय गन्ध लेने के लियें उसके मुँह से मुँह सटा देता। वो सो न सका। कचरे के ढेर पर कव्वे भी रात में भी काव काँव करते रहे। मच्छरों से उसे कोई खास परेशानी नहीं थी। उनकी उसे आदत रही थी हमेशा से। कुत्ते को उसने कई बार धिक् धिक् करते हुए भगाया। ब्रह्म महूरत के लगभग साढ़े चार बजे थे। कव्वों की काँव काँव और कुत्तों की बार बार की घुसपैठ से झल्लाया वो तैश में आ गया। उसने अंटी से पिस्तौल निकली। कुत्ते पर दागी। कुत्ता काय काय भी नहीं कर सका।

कुछ ही दिनों में उसके शांति पूर्ण आंदोलन में लोगों की संख्या बहुत बढ़ गयी।
००० कविता गुप्ता
------------------------------
टिप्पणियाँ:-

रेणुका:-
Kahani ka shuruati plot padhke ek Hindi film "pyar to hona hi tha" yaad aati hai...plot almost same..isliye    kuch nayapan nahi laga.

प्रगति कौशिक:-
Sach kaha aapne Renuka ji kahani me kuch maza nahi aaya. Plot to purana tha hi andaz me bhi kuch nayapan nahi hai.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें