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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

20 मार्च, 2016

कहानी सरोगेट कंट्री : सीमा आजाद

आइये आज पढ़ते हैं समूह  के साथी की लिखी एक कहानी। कहानी पर आपकी मूल्यवान टिप्पणियों की अपेक्षा है।

    कहानी           

             "सरोगेट कन्ट्री"

खिड़की पर बैठी मंजू ने सुभाष को आते देख लिया, उसके लड़खड़ाते कदमों को देखकर मंजू के कल्पना की तैरती गागर, अचानक पानी में गुड़ुप-गुड़ुप कर बैठ गयी।
‘आज फिर चढ़ा ली, ऐसे में क्या बात होगी!’ 
गुस्से से भरी मंजू पास ही सोये चार साल के बेटे राहुल के पास लेट गयी और आंखे बंद कर ली। जो बात वह आज सुभाष से करना चाहती थी, वह उसके दिमाग से कपूर की तरह उड़ गयी और वह सुभाष के बारे में ही सोचने लगी।
पिछले कुछ दिनों से सुभाष अक्सर नशे में धुत्त होकर घर पहुंचता है। उस दिन तो मंजू चुप लगा जाती है, अगले दिन उसकी फटकार सुनकर सुभाष तीन-चार रोज तो ठीक रहता है, लेकिन फिर वही। घर से तो वह हर रोज यूनियन की मीटिंग के नाम पर निकलता है। 
‘क्या मीटिंग में अब यही सब होने लगा है, यूनियन के लोगों से पूछना पड़ेगा।’ मंजू ने मन ही मन सोचा। 
इतने में सुभाष दरवाजे पर आ गया, उसने मंजू को खिड़की से आवाज देने की बजाय दरवाजा पीटा। दरवाजा पीटने की ताल से भी स्पट हो रहा था कि पीटने वाले का सन्तुलन बिगड़ा हुआ है। जब भी सुभाष पीकर आता है मंजू को आवाज देने की बजाय दरवाजा पीटता है। वह पूरी कोशिश करता है कि उसके मुंह की बदबू बाहर न आने पाये ताकि मंजू को उसके शराब पीने का पता न चले। मंजू अक्सर सुभाष से कहती है कि ‘‘आप अपनी गलती छिपाने का कबूतरी और शतुरमुर्गी प्रयास करते हैं।’’
दरवाजा न खोलने का अपना इरादा बदलते हुए मंजू ने एक ही भड़भड़ाहट में दरवाजा खोल दिया, ताकि राहुल की नींद न टूटने पाये। दरवाजा खोलकर वह वापस राहुल के पास आकर लेट गयी और सुभाष सीधा अन्दर के कमरे में जाकर बिस्तर पर गिर कर सो गया। राहुल के पास लेटी मंजू के दिमाग में बिना किसी प्रयास के उसकी ज़िन्दगी के कई दृश्य एक के बाद एक आते जा रहे थे। 
सुभाष के फैक्ट्री में काम करने के दौरान उनके जीवन में सुख ही सुख और प्रेम ही प्रेम था, फैक्ट्री के बन्द होने की बात पता चलने के बाद तक भी। जब मंजू बन्दी को लेकर चिन्तित होती, तो सुभाष उससे कहता-
‘‘ अरे तू काहे को चिन्ता करती है, यूनियन ने बन्दी के फैसले के खिलाफ लड़ने की पूरी तैयारी कर ली है।’’
‘‘कैसे लड़ेगा यूनियन’’ एक बार मंजू ने संशय से पूछा, तो सुभाष ने मुट्ठी बांधकर हवा में लहराना शुरू  कर दिया-
‘‘तालाबंदी नहीं चलेगी, फैक्ट्री प्रशासन मुर्दाबाद, मजदूर एकता ज़िन्दाबाद, मंजू जी ज़िन्दाबाद, मंजू के पति सुभाष जी ज़िन्दाबाद’’ 
यहां आकर इस नारेबाजी में मंजू भी शामिल हो गयी और दोनों खिलखिला पड़े। उसके बाद तो इसे बार-बार हर दो-चार दिन पर दोहराया जाने लगा। राहुल भी अपनी तोतली बोली में ‘दिन्दाबाद-दिन्दाबाद’ ‘मुद्दाबाद-मुद्दाबाद’ बोलने लगा था। 
शुरू में सुभाष ने मंजू को पूरी तरह आश्वस्त कर दिया था कि यूनियन फैक्ट्री को बन्द नहीं होने देगी। लेकिन कुछ समय बाद उसने कहना शुरू किया -
‘‘और बन्द हो भी गयी तो हमें इतना मुआवजा मिलेगा कि हम उससे कुछ दूसरा काम शुरु कर सकेंगे।’’
सुभाष ने अपनी बात में जब इस वाक्य को जोड़ना शुरु कर दिया तभी मंजू समझ गयी कि ऊपर से निश्चिंत दिखने वाला उसका पति भी इसी चिन्ता में डूब-उतरा रहा है कि आगे क्या होगा। इसलिए उसकी चिन्ता और बढ़ गयी पर अब उसने इसे बार-बार जताना कम कर दिया। 
बंदी की शुरूआत मजदूरों की छंटनी से हुई। कभी 10 तो कभी 15 तो कभी 5 मजदूरों को किसी न किसी बहाने से कुछ-कुछ दिन पर निकाला जाता रहा। यूनियन लगातार इन मजदूरों को काम पर वापस लेने की लड़ाई लड़ता रहा और इसी बीच अचानक एक दिन सबको नोटिस दे दी गयी कि तीन महीने के अन्दर सारे कर्मचारी अपना दूसरा इन्तजाम कर लें, क्योंकि इसके बाद फैक्ट्री में तालाबंदी हो जायेगी। यूनियन की लड़ाई में शामिल होने वालों की संख्या बढ़ने लगी थी, क्योंकि इस वक्त मजदूरों की एकमात्र उम्मीद इसी से बची थी। लेकिन उम्मीद, उम्मीद ही रही। 
तीन महीने बाद ताला बन्दी हो भी गयी। फैक्ट्री प्रशासन ने गेट पर ताले के साथ यह नोटिस भी चस्पा कर दिया था, कि मजदूरों का बकाया वेतन व अन्य देय जल्द ही उनके खाते में डाल दिया जायेगा। मुआवजे की तो कोई बात ही नहीं कही गयी थी। सुभाष सहित सारे मजदूर ठगा सा महसूस कर रहे थे। इस फैक्ट्री में नौकरी लगने पर सबने अपनी ज़िन्दगी सुकून से चलने का सपना देखा था। उन्हें यह बताने में गर्व महसूस होता था कि वे अमुक मोबाइल कम्पनी में काम करते हैं। वास्तव में किसी को विश्वास ही नहीं था कि फैक्ट्री उनकी जिन्दगी के साथ अचानक यह विश्वासघात करेगी। मंजू को याद आया, सुभाष जब यूनियन से नहीं जुड़ा था तो बन्दी की बात सुनते ही गुस्सा हो जाता-
‘‘अफवाहों पर ज्यादा ध्यान न दिया करो, मैं कोई ऐरी-गैरी फैक्ट्री में काम नहीं करता हूं कि वो अपने कर्मचारियों के साथ ऐसी धोखा-धड़ी करेगी। ऐसा हुआ भी तो वो हमें कहीं और लगायेगी, समझी, इसलिए तू इन सब बातों पर ध्यान देने की बजाय सिर्फ मेरी बात पर ध्यान दिया कर।’’
मंजू का विश्वास तो वास्तव में सुभाष से ही बनता बिगड़ता था, उसे भी सुभाष की बात तार्किक लगी। लेकिन ये सारे तर्क एक-एक कर फैक्ट्री प्रशासन ने कुतर्क साबित कर दिये। मजदूरों की छंटनी शुरू होने के कुछ ही दिनों बाद सुभाष न सिर्फ यूनियन में शामिल हो गया, बल्कि इसकी ज्यादा से ज्यादा कार्यवाहियों में शामिल होने लगा। लेकिन मजदूरों को काम पर वापस लेने की बजाय फैक्ट्री प्रशासन ने तालाबन्दी की घोषणा कर दी। 
तालाबन्दी के बाद यूनियन ने कुछ दिन तक फैक्ट्री गेट पर धरना दिया फिर कानूनी लड़ाई में चली गयी। और ढाई साल होने को है, अभी तक कोर्ट ने इस सम्बन्ध में कोई निर्णय नही सुनाया है। इस कानूनी लड़ाई को लड़ने में सुभाष और अन्य मजदूरों ने अपना न जाने कितना पैसा लगा दिया है, इस उम्मीद में कि केस जीतने के बाद फैक्ट्री से उन्हें मुआवजा मिलेगा या हो सकता है मुआवजे के झंझट की बजाय वह सबको कहीं समायोजित ही कर दे। लेकिन इस इन्तज़ार में घर खर्च चलाना मुकिल हो गया है। वो तो कहो कि मंजू इण्टर तक पढ़ी है, वरना गृहस्थी अब तक डीरेल हो चुकी होती। उसने घर पर ही बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया है। सुभाष ने मोबाइल रिपेयरिंग का काम शुरू कर दिया है, दोनों का थोड़ा-थोड़ा मिलाकर किसी तरह घर चल रहा है। इस साल राहुल भी स्कूल जाने लगा है, जिससे तंगी बढ़ गयी है।
राहुल जब पैदा हुआ था, तो दोनों ने उसे लेकर कितने सपने देखे थे। सुभाष उसे गोद में उठाकर कहता- 
‘‘मिलिये, भविष्य के डी एम से मिलिये, बाद में इनके पास समय नही होगा, इसलिए समय मत गंवाइये, आइये इनकी सेवा कीजिये।’’
जब मंजू हंसने लगती तो जाने क्या सोच कर राहुल भी खिलखिलाने लगता। अब, जब राहुल को अच्छे स्कूूल में पढ़ाने का समय आया तो घर की स्थिति ऐसी हो गयी कि छोटे से स्कूल की फीस भरना भी मुश्किल हो गया है। इन्हीं तीन-चार महीनों में सुभाष ने पीना और देर रात लौटना भी शुरू कर दिया है। 
लगभग एक सप्ताह पहले मंजू को यह नया प्रस्ताव मिला है, जिसके बारे में वह सुभाष से बात करना चाहती है। इस काम के लिए खुद उसका मन भी हिचक रहा है पर बेटे की अच्छी परवरिश के लिए और घर के हालात में सुधार के लिए वह इस काम को करना चाहती है। कई दिनों की उहा-पोह के बाद उसने खुद को तैयार किया, लेकिन सुभाष को तैयार करना बहुत मुकिल है। आज दोपहर से ही वह हिम्मत जुटा रही थी, कि आज रात सुभाष से इस सम्बन्ध में न सिर्फ बात ही करेगी बल्कि उसे मना भी लेगी। लेकिन सुभाष को लड़खड़ाती हालत में देख उसका इरादा बदल गया। राहुल के ऊपर हाथ धरे लेटे-लेटे वह फिर से इस बारे में सोचने लगी थी। नींद उसकी आंख से गायब है। राहुल निश्चिंत सो रहा है। सुभाष भी दारू के नशे में धुत्त बिस्तर पर पड़ा है।
सुबह 10 बजे जब सुभाष सोकर उठा तो राहुल स्कूल जा चुका था। मंजू घर के काम निपटाने में लगी थी। रात में न सोने की वजह से उसकी आंखे सूजी हुई थीं और लाल भी, चेहरा अस्वस्थ दिख रहा था। सुभाष को लगा मंजू उससे नाराज है। वह बिस्तर पर लेटा-लेटा उसे देखता रहा फिर सीधा उठकर उसके पास गया और पीछे से उसके गले में हाथ डालते हुए बोला-
‘‘कल आखिरी बार था, अब और नहीं’’
‘‘ये बात आप आखिरी बार कह रहे हैं या पचासवीं बार’’ मंजू ने सुभाा की ओर पलट कर मुस्कुराते हुए कहा तो सुभाष ने झेंपकर अपना सिर उसके कंधे पर रख दिया
‘‘आखिरी बार’’
रात भर जागने से मंजू वैसे ही थकान महसूस कर रही थी, फिर उसे आज सुभाष से जरूरी बात भी करनी थी, इसलिए वह ‘मान गयी’।
‘‘अच्छा जल्दी से नहा-धो लीजिये, पता नहीं कहां-कहां लोट-पोट के आ रहे हैं, फिर मुझे आपसे कुछ जरूरी बात भी करनी है।’’
‘‘तो अभी कर लो न’’ सुभाष ने झेंप कर उसे लपेटते हुए कहा।
‘‘अभी नहीं, पहले आप नहा कर दारू की बदबू को दूर भगाइये’’ मंजू ने सुभाष को बाथरूम में ढकेल दिया।
खाना खाने  के बाद मंजू ने सुभाष के पास बैठकर बातचीत शुरू की... 
‘‘आपको याद है राहुल के होने के समय मुझे अस्पताल में एक औरत मिली थी?’’
‘‘कौन?........ वो जो दूसरे का बच्चा पैदा कर रही थी’’ सुभाष ने थोड़ा मुस्कुराकर कहा।
‘‘हां जिसने अपनी कोख किराये पर दी थी, डेढ़ लाख रूपये में’’
‘‘तो उसे पैसा मिला या नहीं’’ सुभाष ने करवट उसकी ओर करते हुए उत्सुकता से पूछा।
‘‘हां मिला ही होगा, मैं उससे फिर नहीं मिली, एक दूसरी औरत से मिली, जिसने उसे ये काम दिलाया था.............हफ्ते भर पहले.....जब मैं डॉक्टर के पास गयी थी...।’’ बोलने के बाद मंजू थोड़ी देर चुप रही तो सुभाष ने पूछा-
‘‘क्या वो भी अपनी कोख किराये पर दे रही है’’
‘‘नहीं, वो मुझसे ऐसा करने को कह रही है’’ मंजू ने सुभाष की आंखों में सीधे देखते हुए कहा।
‘‘तो’’ सुभाष उसकी आंखों को पढ़कर हैरान हो गया।
‘‘तो.................क्या मैं उसे हां कर दूं?’’ मंजू ने धीरे से कहा
‘‘तुम पागल हो गयी हो क्या’’ सुभाष तेजी से उठकर बैठ गया।
‘‘मैंने इस पर काफी सोचा.... और इसमें कुछ भी गलत नहीं लग रहा है... आपको तो मैंने बताया था इस प्रक्रिया के बारे में। मुझे दो लाख रूपये मिलेंगे...... उससे हम कुछ नया काम शुरू कर सकते हैं।’’ 
मंजू ने अपनी बात रूक-रूक कर लेकिन स्पटष्ता के साथ रखी, तो सुभाष और भी आश्चर्य में पड़ गया।
‘‘मंजू तुम अपने दूसरे बच्चे के लिए तो तैयार नहीं होती, और दूसरे का बच्चा पैदा करने की बात कह रही हो, तुम सचमुच पागल हो गयी हो।’’ ।
लेकिन मंजू तो इन सब बातों के लिए पहले से तैयार थी। उसने अपना तर्क रखना जारी रखा
‘‘अपना बच्चा पैदा करने और सरोगेसी से दूसरे का बच्चा पैदा करने में फर्क है। ढाई साल से हम कितना परेशान हैं, इसमें एक बच्चा और हो गया तो हम उसे कैसे पालेंगे, लेकिन इस बच्चे की जिम्मेदारी मेरी नहीं होगी.....यहां तक की उसके गर्भ की जिम्मेदारी भी मेरी नहीं होगी। उसमें जो कुछ लगेगा वह दूसरे का होगा। मुझे केवल थोड़ी शारीरिक तकलीफ होगी..... और उसके लिए हमें दो लाख रूपये मिलेंगे, उससे हम कोई नया काम शुरू करेंगे। जीवन पटरी पर आने के बाद हम अपना दूसरा बच्चा पैदा करेंगे, सिर्फ 9- 10 महीने की तकलीफ के बाद हमारा जीवन पटरी पर आ सकता है.....और नही तो यह ऐसे ही चलता रहेगा....घिसटता हुआ.......अब तो आपकी आदतें भी बिगड़ने लगी हैं, जब घर मुझे ही चलाना है तो मुझे इसमें कोई दिक्कत नहीं लगती।’’
मंजू एक सांस में पूरी बात कह गयी। सुभाष चुप रहा तो मंजू ने फिर कहा-
‘‘मैं आपको बता चुकी हूं कि इसमें कुछ भी गलत नहीं होगा, दूसरा मर्द मुझे छुएगा भी नहीं, मुझे लैब में पहले से तैयार भ्रूण अपने गर्भ में पालना होगा बस, यहां तक कि गर्भ में उसे पालने का खर्च भी वे ही उठाऐंगे। हमें कुछ भी नहीं करना है इसमें क्या गलत है?’’ 

मंजू की बात में उसका निर्णय और उसे मनवा लेने की उसकी उसकी व्यग्रता दोनों साफ दिख रही थी। सुभाष को कुछ सूझ नहीं रहा था, यह सच है कि उसे शराब की लत लगती जा रही है, जिसके कारण पूरा घर मंजू के भरोसे ही चल रहा था। सुभाष लज्जित महसूस कर रहा था और उसे फिर से दिलासा दिलाना चाहता था कि वह शराब छोड़ देगा और कोई नया काम शुरू करेगा। लेकिन यह वादा वह मंजू से इतनी बार करके तोड़ चुका है कि आज उससे फिर से यह कहने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी, नशा इन्सान को कितना कमजोर बना देता है।
सुभाष ने समाज का हवाला देकर उसे रोकना चाहा-
‘‘और लोग, बाद में उनको क्या बताओगी कि पेट का बच्चा कहां गया?’’
‘‘उनको बताने की जरूरत ही नहीं होगी, उसने बताया है कि पेट में भ्रूण डालने के बाद से घर से दूर डॉक्टरी देख-रेख में रखा जाता है, और बच्चा पैदा होने के बाद ही घर जाने दिया जाता है। यह अच्छा ही है। यहां लोगों से कह कर जाउंगी कि मां के घर जा रही हूं।’’
मंजू यह सब यूं कहती जा रही थी, जैसे कि बस सुभा के हां कहने भर की देर है और सब काम चुटकियों में हो जायेगा।
‘‘और राहुल? " सुभाष ने आखिरी अस्त्र फेंका।
‘‘हां राहुल का ही तय करना है’’ मंजू की आवाज ठहर सी गयी और गम्भीर हो गयी-
‘‘अगर आप उसे 9 महीने किसी तरह देख लें, तो किसी को बताना भी नहीं पड़ेगा और उसका स्कूल भी नहीं छूटेगा’’
मैं......मैं..... मैं कैसे देखूँगा .....इतने दिन तक?’’ सुभाष अचानक अपने ऊपर बच्चे की जिम्मेदारी आते देख हड़बड़ा गया। साथ ही उसे लगा कि मंजू को मना करने का ये अच्छा कारण है। लेकिन मंजू तो सब पहले से सोच कर तैयार बैठी थी। उसने झट से कहा-
‘‘ठीक है मैं अम्मा से बात करूंगी।’’
वह तो निश्चिंत सी हो गयी और सुभाष को लगा जैसे उसे ठग लिया गया हो, जैसे वह सहमति के फंदे में फंस गया हो। बात राहुल की देखभाल तक पहुंचने का मतलब है कि उसने सहमति दे दी है, वह व्यग्र हो उठा, चुप रहा और उठकर पानी पीने लगा। पानी पीकर उसने फिर से बात शुरु  की।
‘‘मुझे यह सब ठीक नहीं लग रहा, पैसों के लिए अपनी कोख में दूसरे का बच्चा पालना, तुम कैसे तैयार हो सकती हो इसके लिए। और कुछ नही तो अपने स्वास्थ्य के बारे में तो सोचो।’’
‘‘मैंने सोचा, स्वास्थ्य के बारे में भी मैंने पूछताछ कर ली है, क्योंकि उन्हें स्वस्थ बच्चा चाहिए, इसलिए वे मेरी पूरी देखभाल करेंगे........
थोड़ी देर चुप रहने के बाद मंजू ने थोड़ा खीझकर कहा
‘‘मैं नहीं करूंगी, तो कोई दूसरी औरत करेगी, यह भी आजकल एक काम है, कोई न कोई तो अपनी कोख किराये पर देगा ही, तो मैं क्यों नहीं, अगर इससे हमारी ज़िन्दगी पटरी पर आ सकती है?’’
उसकी आंख पनीली हो गयी, उसने घड़ी की ओर एक नजर डाली और राहुल को स्कूल से लेने जाने के लिए उठ गयी।
सुभाष चुप रहा, उसे कुछ समझ में नही आ रहा था, मंजू दरवाजा भिड़ाकर बाहर निकल गयी। सुभाष लेटे-लेटे अपने को कोसने लगा....
"यह सब मेरी ही वजह से हुआ है। पिछले सात-आठ महीने से तो वह घर से भागता ही रहा है। राहुल की कितनी फरमाइशें वो पूरी नहीं कर पाता, उससे घर की हालत देखी नहीं जाती।यह सब झेलते-झेलते मंजू कितनी झटक गयी है। सुभाष को लग रहा था कि मंजू के इस निर्णय के पीछे उसकी नाराजगी ही होगी।
‘‘ये सब अपनी कमजोरी ही है, जो मैं मंजू को रोक नहीं पा रहा हूं, वरना ये काम करना तो दूर, उसे मुझसे कहने की भी हिम्मत नहीं होती। सुभाष एकदम पस्त हो गया। क्या सोच कर वह शहर में नौकरी करने आया था, और क्या होता जा रहा है।
मोबाइल फोन की यह फैक्ट्री जब यहाँ लगी थी, तो वह देश में सबसे आगे चल रही थी। नौकरी मिलने के बाद सुभाष अक्सर मंजू को सबका फोन दिखाते हुए धीरे से कहता-
‘‘देखो मैंने बनाया है ’’
मंजू हंसते हुए कहती-
‘‘नाम तो किसी और का लिखा है?’’
‘‘अरे वो तो दिखावे का नाम है’’ सुभाष पीछे न हटता।
पापा से सुन-सुनकर राहुल उससे भी आगे निकल गया। जब वह थोड़ा-थोड़ा बोलना सीख गया, तो खिलौने वाला फोन हाथ में लेकर कहता -
‘‘मेले पापा ने बनाया’’
कुछ ही साल में जाने कैसे जोड़-घटाकर फैक्ट्री मैनेजमेंट ने यह कहना शुरू  किया कि यह घाटे में जा रही है। अब तो यह भी चर्चा  है कि फैक्ट्री किसी बड़े बिजनेस घराने के साथ मिलकर दूसरा कारोबार शुरू  कर रही है, जहां उसे ज्यादा मुनाफा होगा। कम्पनी तो अपना फायदा ही देखेगी पर आगे उसके साथ क्या होने वाला है ये सोचकर सुभाष परेशान हो रहा था। यूनियन ने उसे पक्का यकीन दिलाया है कि वे मुकदमा जीत जायेंगे और उन्हें मुआवजा मिलेगा ही। उसी मुआवजे को लेकर वह दिन-रात सपना देखता रहता है कि ‘उसका ये करेंगे....उसका वो करेंगे।’
‘लेकिन यूनियन ने ही उसे ये यकीन भी दिलाया था कि उन्हें कहीं और समायोजित किये बगैर फैक्ट्री बन्द नहीं हो सकती, पर ऐसा हो गया। फिर क्यों वह फिर से ऐसा पक्का मान बैठा है कि ऐसा होगा ही, मुकदमें में यूनियन की जीत होगी ही। शायद ऐसा मानते रहने में ही सुकून है, वरना जीना मुकिल हो जाये। दारू भी इसीलिए पी लेता हूं, लेकिन सच ये है कि मुझे ऐसे ही जीने की आदत पड़ गयी है।’
सुभाष लेटे-लेटे सोच रहा था। अपने बारे में सोचते हुए उसका ध्यान मंजू पर गया कि उसने कभी ध्यान ही नही दिया कि मंजू इस स्थिति की आदी नहीं हुई है, न ही वो दारू पीकर स्थितियों से दूर भागने का शौक पाल सकती है। सुभाष इन सारी चिन्ताओं में डूब उतरा रहा था, तभी मंजू राहुल को लेकर वापस आ गयी। राहुल हमेशा की तरह चहक रहा था, मंजू से वह अपने स्कूल की बातें बता रहा था-
‘‘आज मैंने क्लास में पोयम सुनाई और मैम ने मुझे वेरी गुड कहा’’
‘‘अच्छा कौन सी पोयम सुनाई’’ मंजू ने उसका जूता उतारते हुए पूछा।
‘‘चिड़िया रानी वाली और जॉनी-जॉनी यस पापा’’
मंजू ने उसे चूम लिया और उसके कपड़े उतारने लगी, उसे नहलाकर वह खाना लेने चली गयी और राहुल दौड़कर बिस्तर पर लेटे पापा के ऊपर चढ़ गया।
‘‘चल मेरे घोड़े टिक-टिक टिक’’ सुभाष बिस्तर पर घोड़ा बन कर चलने लगा। थोड़ी देर चलने के बाद घोड़े ने सवार को पटक दिया, राहुल खिलखिलाकर हंस पड़ा, मम्मी-पापा के तनाव से भरे चेहरों पर भी हंसी खिल गयी। खाना खिलाने के बाद मंजू राहुल को सुलाने के लिए उसके साथ लेट गयी। रात उसे नींद नहीं आयी थी, उसके साथ वह खुद भी सो गयी। सुभाष का दिमाग अभी भी अपनी ज़िन्दगी में उलझा हुआ था।
जब उसे मोबाइल फैक्ट्री में नौकरी मिली, वह मंजू को लेकर शहर आ गया। उस वक्त उनकी शादी का एक साल भी पूरा नहीं हुआ था, मंजू अभी दुल्हन ही लगती थी। कम होते रोजगार के दौर में इस फैक्ट्री में नौकरी मिलना, उसके लिए फख्र की बात थी। सुभाष ने अपने एक दोस्त के कहने पर इण्टर पास करके इलेक्ट्रॉनिक डिप्लोमा में प्रवेश ले लिया था और जिस साल उसने प्रवेश लिया, उसी साल शहर में इस बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने अपनी फैक्ट्री लगायी। सुभाष को तो लगा जैसे भगवान ने यह सब उसी के लिए किया है। गांव में तो उसी दिन से उसकी नौकरी पक्की मान ली गयी थी और सचमुच पढ़ाई पूरी करते ही उसे फैक्ट्री में नौकरी मिल गयी। उसे अपने काम और फैक्ट्री से इतना लगाव था कि शुरु में तो मंजू फैक्ट्री को सौतन कहती थी।
मंजू शहर में पली-बढ़ी थी, अभी उसने इण्टर ही पास किया था कि सुभाष में रोजगार की पक्की संभावना देखते हुए उसके पिता जी ने उसकी शादी कर दी। मंजू को कोई शिक़ायत नहीं थी। शादी के बाद दोनों खुश थे। साल भर के अन्दर ही नौकरी मिलने के बाद तो और भी। सुभाा की तनख्वाह बहुत ज्यादा नहीं थी, लेकिन घर आराम से चल रहा था। आगे तरक्की की भी उम्मीद थी। लेकिन उस वक्त क्या मालूम था कि रोजगार देकर जीवन सुखी बनाने का छलावा करने वाली यह नौकरी उसे इस हाल में ला देगी। यूनियन भी क्या करे, दरअसल विदेाी बहुराष्ट्रीय कम्पनी होने के नाते इसके नियम कानून इतने कड़े थे कि उसमें यूनियन और श्रम विभाग की ज्यादा चलती ही नहीं थी, श्रम विभाग की तो बिल्कुल भी नहीं। यूनियन भी मजदूरों की लड़ाई से ज्यादा अपना अस्तित्व बचाने में लगा रहता था।
एक बार समूह में दारू पीते समय यूनियन के नेता जोशी जी ने कहा था-
‘‘दरअसल यहां यूनियन है ही नही, केवल उसका भूत ही कर्मचारियों को यूनियन का भ्रम देता रहता है, लेकिन मैनेजमेंट तो यह जानता है मेरे भाई।’’
वास्तव में दारू के नशे में ही यूनियन के लोग ऐसी निराशा की बात करते हैं। होश में रहने पर तो वे केवल टूट रहे मजदूरों की उम्मीद जिलाये रखने का काम करते हैं। दारू के नशे में पता चलता है कि यूनियन के नेता खुद अन्दर से कितना टूटे हुए है और नयी स्थिति को स्वीकार भी कर चुके हैं।
सुभाष को याद आया, ऐसी ही एक बैठकी में जोशी जी ने बताया था
‘‘कम्पनी के कानून में तो बन्दी के समय मुआवजे की कोई बात है ही नहीं।’’
नशे की बात नशा उतरते ही गायब हो जाती है लेकिन जोशी जी की यह बात उसे याद रह गयी। उसने अगले दिन उनसे इस सम्बन्ध में पूछा-
‘‘अगर कम्पनी के कानून में मुआवजे की बात लिखी ही नही है तो इतना पैसा खर्च कर हम मुकदमा किस बात के लिए लड़ रहे हैं?’’
जोशी जी को रात में कही गयी अपनी बात पर शर्मिंदगी हुई और उन्होंने कहा-
‘‘कम्पनी के कानून में नहीं लिखा है लेकिन भारतीय श्रम की कानूनों में तो मुआवजे और पुनर्वास की बात लिखी है न, अब मुकदमा इसी बात पर चल रहा है कि भले ही यह विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनी है पर यह भारत में लगी है तो इस पर भारत का श्रम कानून लागू होना चाहिए या नहीं?’’
सुभाष को भी यह बात एकदम तार्किक लगती है। ‘मुकदमें में जीत तो यूनियन की ही होनी चाहिए, आखिर उन्होंने हमारे देश की धरती पर फैक्ट्री लगाई है, तो कानून तो हमारा ही मानना होगा।’
सुभाष ही नही, फैक्ट्री के सभी मजदूर मुआवजा मिलने की उम्मीद में कानूनी लड़ाई लड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते। अब दूसरी जगह नौकरी भी तो मुश्किल है। मुआवजे की उम्मीद में सभी कोई छोटा-मोटा काम करके समय काट रहे हैं। सुभाष का मोबाइल रिपेयरिंग का काम नियमित नही है, काम आने पर दुकानदार फोन करके उसे बुलाते हैं, अन्यथा घर पर ही बैठे रहना होता है। सुभाष का यह छः साल का जीवन उसके दिमाग में बिना तरतीब के चलचित्र की तरह चल रहा था, तभी दरवाजे पर दस्तक हुई।
‘ट्यूशन वाले बच्चे आ गये’ कहते हुए उसने दरवाजा खोला, मंजू कुनमुनाती हुई बेमन से उठी, मुंह धोया, साड़ी ठीक की, बाल ठीक किये और पढ़ाने बैठ गयी।
मंजू दिन भर कितना काम करती है, इसका एहसास आज सुभाष को पहली बार हो रहा था। वह धीरे से उठा और दो कप चाय बनायी। एक कप चाय वह धीरे से मंजू के पास रख आया। मंजू ने आश्चर्य से उसे देखा तो वह झेंप गया। अन्दर आकर वह चुपके से झांककर देख रहा था कि चाय मंजू को कैसी लगी, एक सिप लेने के बाद मंजू का चेहरा नहीं बिगड़ा, तो उसने अनुमान लगा लिया कि चाय ठीक ही बनी होगी। खुद चाय पीकर वह बाहर निकल गया। उसे जाता देख मंजू ने सोचा ‘आज फिर पीकर लौटेंगे’ और सचमुच वह पीकर लौटा। अगले चार दिन तक दोनों के बीच अबोला रहा फिर मंजू ने ही पहल करते हुए सुभाष को बताया कि उसकी मां राहुल को अपने पास रखने के लिए तैयार हो गयी हैं।
‘‘तुमने उन्हें क्या बताया’’ सुभाष ने आश्चर्य से पूछा।
‘‘मैंने कह दिया कि कुछ समय के लिए एक काम मिल गया है जिसके लिए दिन भर बाहर रहना पड़ेगा।’’
सुभाष ने कुछ नहीं कहा, कमरा भी खामोश रहा। थोड़ी देर बाद इस खामोशी को तोड़ते हुए मंजू ने पूछा
‘‘राहुल को छोड़ने आप जायेंगे?’’
‘‘ मैं ?.......मुझसे ये नहीं होगा’’ सुभाष ने हाथ खड़े कर कहा।
‘‘मैंने राहुल को समझा दिया है वह रोयेगा नहीं’’ मंजू ने कहा। थोड़ी देर चुप रहने के बाद सुभाष ने कहा-
‘‘मैं अकेले नहीं जाऊंगा, तुम्हें भी साथ चलना होगा।’’
मंजू मुस्कुराने लगी। वह समझ गयी कि अम्मा द्वारा पूछे जाने वाले सवालों से वह घबरा रहा है। लेकिन इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि मंजू के सरोगेट मदर बनने पर उसका विरोध नहीं है।
15 दिन बाद मंजू को जल्द से जल्द अस्पताल आने की सूचना मिलते ही दोनों राहुल को उसकी नानी के पास छोड़ आये। ये पहला मौका है कि राहुल उन दोनों से अलग हुआ था। मंजू से तो वह कभी अलग हुआ ही नहीं था। वापस लौटते समय मंजू बेहद दुखी थी, रास्ते भर वह अपने आंसू पोंछ रही थी और छिपा भी रही थी। पर यह उसका अपना निर्णय था, इसलिए कुछ कह भी नहीं सकती थी। घर आने के दूसरे दिन ही वह अस्पताल चली गयी, डाक्टर से समय पहले ही तय था। उस दिन उसकी कुछ जांच हुई और कुछ आगे भी। उसके बाद उसके गर्भ में किसी विदेशी दम्पत्ति का भ्रूण प्रत्यारोपित कर दिया गया। यह बात उसे बाद में पता चली जब उसे वैसे ही माहौल में आगे के नौ महीने रहना पड़ा। उसे दो लाख रूपये देने का लिखित वादा किया गया और साथ ही उससे कई तरह की शर्तों पर दस्तखत कराये गये। जैसे बच्चे पर उसका कोई दावा नहीं होगा,, उसे डॉक्टरी देख-रेख में एक अलग जगह पर रहना होगा, ताकि पेट में पलने वाला बच्चा किसी दूसरे के घर के माहौल में नहीं बल्कि अपने जैसे घर के माहौल में भ्रूण से बच्चे में बदले। उसे वही सब खाना था, जो उसे खाने को दिया जाय। इन महीनों में वह अपने पति के संसर्ग में नहीं रह सकती, महीने में एक बार आधे घण्टे के लिए वह पति से मिल सकती थी, लेकिन शारीरिक संपर्क से दूर रहना था। हां फोन पर वह किसी से भी बात कर सकती थी। हर समय आस-पास बना रहने वाला विदेशी माहौल उसे और भी परेशान करता। उसके कमरे में हर तरफ विदेशी बच्चे की तस्वीरें टांग दी गयीं, जिसमें वह अपने राहुल को खोजती और झल्लाती रहती थी। उसे पढ़ने के लिए अंग्रेजी की विदेशी किताबें -पत्रिकायें दी गयी, जिन्हें वह पढ़ नहीं पाती, उससे कहा गया कि वह उनमें बने चित्र ही देखा करे। जेल जैसे इस माहौल में मंजू के शुरुआती चार महीने बहुत ही मुश्किल से गुजरे। अपने को समझाने के लिए मंजू सुभाा के नौकरी पर जाने के शुरूआती दिन याद करती, जब सुभाष को फैक्ट्री के माहौल से घबराहट होती थी। अंगूठा दरवाजे पर लगा कर अन्दर जाना तीन स्कैन मशीनों से गुजरना, सीसी टीवी की निगरानी में काम करना और फिर दरवाजे पर अंगूठा टिका कर बाहर निकलना। यहां तक कि टॉयलेट के दरवाजे पर भी कैमरा लगा था, ताकि यह देखा जा सके कि किसी व्यक्ति ने कितना समय बाथरूम में बिताया। लेकिन धीरे-धीरे सुभाष को इसकी आदत हो गयी और वो गर्व से बताने लगा कि ‘सभी हाई-फाई कम्पनियों में ऐसा ही होता है।’ इसे याद कर इस माहौल के लिए तो वह खुद को समझा लेती पर उसे राहुल की बेइन्तहा याद आती। फोन पर वह उससे पूछता
‘‘मम्मी मुझे लेने कब आओगी।’’
‘‘बहुत जल्दी बेटा, तेरे लिए खिलौने तो खरीद लूं, अच्छा स्पाइडरमैन या डोरेमान?’’
‘‘डोरेमान’’
राहुल जल्दी ही मम्मी से आने की बात छोड़कर खिलौने की बात करने लगता। वो तो बच्चा था, उसे फुसलाया जा सकता था। सुभाष के लिए वह ज्यादा चिन्तित रहती थी। इस बीच वह ज्यादा पीने भी लगा था। जब वह उससे मिलने आता तो कांच की दीवारों वाली ऐसी जगह पर उनकी मुलाकात कराई जाती कि सुभाष उसका हाथ भी नहीं पकड़ सकता था। वह हमेशा ही झल्लाकर समय पूरा होने के पहले ही चला जाता

। मंजू को इस हाल में देख उसे अच्छा भी नहीं लगता। पिछली मुलाकात के  बाद से तो वो आया ही नहीं।

‘‘अब मैं मिलने नहीं आऊंगा, तुम अपना किराये का मकान खाली करके खुद ही आना।’’
सुभाष कहकर चला गया और सचमुच वह नहीं आया। फोन पर भी ‘हां-हूँ" में ही बात करता। उसके मुकदमें के फैसले की तारीख नजदीक आ रही थी। अब हर तारीख पर यूनियन से जुड़ा हर व्यक्ति जाता था। इसमें अब पैसे भी ज्यादा लगने लगे थे। जिसके लिए सुभाष खोज-खोज कर मोबाइल रिपेयरिंग का काम लेता था। अपने तनाव से भागने के लिए दिन भर वह काम में लगा रहता। रात में दारू पीता। उसके बाकी साथी पिये या न पिये पर वह रोज पीने लगा। 
एक दिन मोबाइल रिपेयर करने वह किसी दुकान पर था, जब दुकान वाले ने उसे बताया कि उसकी मोबाइल फैक्ट्री की खाली जमीन पर वाटर पार्क और मॉल बनने वाला है। दुकान वाले ने उसे वह अखबार भी दिखाया, जिसमें यह खबर छपी थी। सुभाष को ऐसा लगा जैसे अब उसे पूरी तरह घर से बेदखल कर दिया गया हो। उसे याद आया फैक्ट्री लगाने के लिए किसानों से उनकी जमीनें दिलवाने में भारत सरकार ने आगे आकर मदद की थी। सरकार का कहना था कि इससे देश की बेरोजगारी दूर होगी और क्षेत्र का विकास होगा। सुभाष के एक फूफा के गांव की कुछ जमीन भी इसमें गयी थी। उन्होंने एक बार सुभाष से बात करते हुए बताया था-
‘‘बेटवा फैक्टरिया से तोहइं तो रोजगार मिली ग, बकि हमरे गांव के किसानन और मजदूरवन के काम छिनि ग। ओन्हन के जौन मुऔजा मिला रहा उहौ खतम होइग। ओन्हन त बरबाद होई गयेन इ फैक्टरिया से।’’ 
रात में उसने रोज से ज्यादा दारू पी और सबसे लड़खड़ाती और लरजती आवाज में कहने लगा-
‘‘हम जिस जगह पर फोन बनाते थे, पैसा कमाते थे, वहां बाढ़ आने वाली है’’
‘‘बाढ? किसने बताया’’ रजनीश ने पूछा। 
‘‘हां बाढ़, मगर ये ऐसी बाढ़ है जो आने के पहले ही सबको डुबा देती है... देखो हम सब डूबे हुए यहां बैठे हैं।’’ सुभाष ने कहा तो रजनीश ये सोचकर हंसने लगा कि सुभाष शराब की बात कर रहा है, लेकिन तभी महेन्द्र ने उसकी बात समझते हुए कहा 
‘‘हां मैंने भी पढ़ा है कि फैक्ट्री की जमीन पर वाटर पार्क और मॉल बनने वाला है।’’
‘‘पहले खेत उजाड़ कर फैक्ट्री लगाई फिर फैक्ट्री उजाड़ कर वाटर पार्क लगाया’’ सुभाष ने टेबल पर हाथ ठोंकते हुए कहा और उठकर सबसे पूछने लगा-
‘‘ये वाटर पार्क किसके लिए बन रहा है बताओ’’
‘‘बच्चों के लिए’’ रजनीश ने जवाब दिया।
‘‘किसके बच्चों के लिए।’’
इस बार जोशी ने जवाब दिया-
‘‘अमीरों के बच्चों के लिए’’
सुभाष हंसने लगा
‘‘तुममे से कोई नहीं बता सकता किसके लिए, सिर्फ मैं जानता हूं, पर बताउंगा नहीं....... केवल मैं जानता हूं पर नहीं बताउंगा।’’
वह लड़खड़ाते हुए घर की ओर बढ़ने लगा, कुछ दूर जाने के बाद वह रूक कर जोर-जोर से हंसते हुए बोलने लगा-
‘‘केवल मैं जानता हूं कि वाटर पार्क किसके लिए बन रहा है...... अबे मंजू के विदेशी बच्चे के लिए। वो उसमें खेलेगा।’’ पीछे के वाक्य में उसने उसने अपनी आवाज नीची कर ली। बोलने के बाद पहले वह हल्का सा हंसा फिर चुप हो गया और पैर फैला कर सड़क पर बैठ गया। 
सुबह जब वह सो कर उठा तो अपने घर के बिस्तर पर था। वह समझ गया उसे उसके दोस्तों ने ही घर पहुंचाया होगा। उसे शर्मिंदगी महसूस हुई 
‘‘रात में नशे में जाने क्या-क्या बोल दिया था। ’’
एक बार उसने फिर तय किया कि अब वह दारू नहीं पियेगा। अगर पूरी तरह नहीं भी छोड़ पाया तो भी कम तो वह कर ही लेगा। उसका सिर भारी हो रहा था, वह लेटा रहा और मंजू और राहुल को याद करने लगा। 
गर्भ के पीछे के चार महीनों में जब पेट के बच्चे ने हरकत शुरू कर दी तब मंजू में मकान मालिक की बजाय मां का भाव जागने लगा और उसका अकेलापन खालीपन कुछ कम होने लगा। उसे जैसे काम मिल गया हो, वह उसकी एक-एक हरकत पर ध्यान देती और खुश होती। तटस्थता की बजाय उसे बच्चे पर प्यार आने लगा, जिस पर चाह कर भी वह लगाम नहीं लगा पाती, अपने पेट पर हाथ रखकर वह घण्टों अजन्मे बच्चे से बतियाती, उसके लिए गाना गाती और उसे प्यार करती। एक दिन फोन पर उसने सुभाष को भी बताया-
‘‘ये राहुल की तरह ही चुलबुला है, बहुत हाथ-पैर चलाता है’’
‘‘लेकिन वो राहुल का भाई या बहन नहीं है’’ सुभाष ने ठण्डेपन से जवाब दिया और फोन काट दिया। 
मंजू का मन रोने का होने लगा। रोने के लिए इस समय वह सुभाष का साथ चाहती थी। उसे राहुल के जन्म का समय याद आया, जब सुभाष उसके पेट पर हाथ रख कर बच्चे से बातें करता था और मंजू को ऐसा लगता जैसे सुभाष की बात का जवाब देने के लिए राहुल तेजी से हाथ पैर मारने लगता था। 
इन मनःस्थितियों से गुजरते हुए मंजू ने जैसे ही साढ़े आठ महीने का समय पूरा किया डॉक्टर ने बताया कि बच्चे को ऑपरेशन करके निकाला जायेगा। मंजू ने लाख कहा कि अभी तो नौ महीने पूरे भी नहीं हुए है कुछ दिन इन्तजार किया जा सकता है, हो सकता है ऑपरेशन की नौबत ही न आये, पर डॉक्टरों ने उसकी नहीं सुनी। उसे अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में भरती कर दिया गया।

रचनाकार का नाम व परिचय आज आपसे साझा कर रहे हैं।

        ऑपरेशन के बाद जब मंजू को होश आया तो पैदा हुआ बच्चा अंडाणु और शुक्राणु के साथ उसके गर्भ पर पैसा लगाने वाले मां-बाप के पास जा चुका था। उसे ये तक नहीं पता चला कि शिशु बेटा था या बेटी। जन्म की पीड़ा से गुजरने के बाद मां को उसका बच्चा न दिखे तो उसकी पीड़ा को समझना मुश्किल नहीं है। मंजू बिस्तर पर पड़ी थी। दवा का असर खतम होते ही टांकों वाली जगह पर दर्द शुरू हो चुका था। बच्चा तो नहीं ही था, उसे ढांढस बंधाने वाला कोई अपना भी नहीं था। नर्स ही थोड़ी-थोड़ी देर पर उसका बीपी लेने और ड्रिप देखने के लिए आती और चली जाती। जान-बूझ कर उसने सुभाष को फोन नहीं किया था। वह अपने आप को खुद सांत्वना दे रही थी कि जो बच्चा उसका था ही नहीं उसके लिए दुखी क्यों होना। लेकिन उसका मन यह मानने के लिए तैयार ही नहीं हो रहा था कि जो बच्चा उसके अपने शरीर में था, जिससे उसकी इतनी बातें हुई हैं, जिसके लिए उतने इतने गीत गुनगुनाये हैं वो उसका था ही नहीं।
‘कम से कम उसे एक बार मेरा दूध तो पी लेने देते, भूखा ही उठा ले गये उसे।’ 
मंजू की आंखों से आंसू बहने लगे। उसे सुभाष फिर याद आने लगा, उसे वह दिन याद आया जब फैक्ट्री प्रशासन गेट पर ताला लगा। सुभाष भी उस दिन ठगा हुआ सा महसूस कर रहा था। उस दिन को याद करते हुए उसे सरोगेसी के लिए मिलने वाले रूपयों की याद आयी। 
‘कहीं ऐसा तो नहीं, बिना मूल्य चुकता किये बच्चा लेकर भाग गये हों। क्या भरोसा, अगर ऐसा हुआ तो सुभाष के पास मैं क्या मुंह लेकर जाऊंगी’। मंजू का दिमाग आशंकाओं से घिरने लगा। बच्चा होने के बाद डॉक्टर अभी तक उसे देखने भी नहीं आया। नर्स इस बार जैसे ही आयी उसने तुरन्त उससे पूछा,
‘‘सिस्टर वो लोग चेक दे गये हैं न’’
‘‘मै नही जानती’’ नर्स ने जवाब दिया तो मंजू का दिल बैठने लगा, उसने फिर हिम्मत करके पूछा 
‘‘कौन बतायेगा?’’
‘‘डॉक्टर साहब या बड़े साहब’’ नर्स ने जवाब दिया।
‘‘प्लीज उन्हें बुला दीजिये सिस्टर’’ मंजू ने एकदम कातर होकर कहा
‘‘वो कल सुबह ही मिलेंगे।’’ सिस्टर ने कहा और बाहर निकल गयी। मंजू बेचैन हो गयी, उसने अपना फोन उठाया और उस महिला को फोन मिलाया जिसने उसे यह कॉन्ट्रैक्ट दिलाया था। उसने फोन पर आवासन दिया कि डिस्चार्ज होते समय उसे चेक मिल जायेगा, मंजू को राहत मिली, पर वह पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो सकी।
एक हफ्ते बाद टांका कटा और उसे घर जाने के लिए आज़ाद कर दिया गया। उसने सुभाष को फोन कर सुबह ही बुला लिया था। चलने के पहले उसे सचमुच चेक मिल गया। वह तो चेक देखकर ही आश्वस्त हो गयी कि उसे ठगा नहीं गया है, पर सुभाष की निगाह उस पर लिखे शब्द पर भी गयी, जिस पर लिखा था- ‘1 लाख 90 हजार’।
पूछने पर काउंटर से पता चला कि 10 हजार रूपये ऑपरेशन के बाद हुये उसके इलाज और प्राइवेट वार्ड के किराये के काट लिये गये हैं। मंजू ने इस पर आपत्ति करनी चाही पर सुनने वाला तो कोई था ही नहीं, सब एक-दूसरे पर टालते हुए कहते-
‘‘मैं जिम्मेदार नहीं हूं, फलाने व्यक्ति से बात कीजिये।’
हार कर मंजू वापस लौट रही थी। उसके दिमाग में डॉक्टर साहब की बातों का रिकॉर्ड बज रहा था। 
‘‘बच्चा पैदा होने के बाद सरोगेट मदर के साथ जो कुछ भी हो उसकी जिम्मेदारी असली मां-बाप की नहीं होती, यह तो शर्त के कागज में ही लिखा है।’’ 
मंजू एक तो बच्चे को एक बार भी दुलार न पाने के दुख से ग्रस्त थी ऊपर से उसके 10 हजार रूपयों की सीधे डकैती डाल ली गयी। वह बहुत आहत थी। घर पहुंच कर वह सुभाष से लिपट कर देर तक रोती रही। वह इस बीच काफी दुबला हो गया था उसकी आंखें गड्ढे में धंस गयी थीं। मंजू का रोना इस कारण भी बढ़ गया था। सुभाष मंजू के दुख का एहसास तो कर रहा था, पर आज वह खुद अपने में खोया हुआ था, वह बाहर कम अपने अन्दर ज्यादा था। आज कोर्ट का फैसला आना था। इसलिए यूनियन के सभी लोगों को 12 बजे तक कोर्ट पहुंचने को कहा गया था। यथासंभव मंजू को संभालकर, खाने का कुछ इन्तजाम कर वह कोर्ट के लिए निकल गया। मंजू घर में अकेली रह गयी। एक लाख नब्बे हजार रूपये उसे सुकून नहीं दे रहे थे, जिसकी उसने कल्पना की थी। वह दिन भर अपने अन्दर भर गये खालीपन से लड़ती रही। वह अपने नवजात बच्चे को दूध पिलाने के लिए तड़प रही थी। 
शाम 5 बजे सुभाष वापस आ गया। उसकी आंखे और भी धंसी हुई लग रही थीं, चेहरा काला पड़ गया था और वह सुबह से भी ज्यादा दुबला दिख रहा था।
‘‘हम मुकदमा हार गये’’
उसने घर की एकमात्र साबुत बची कुर्सी पर बैठते हुए कहा। कमरे में पहले से ही दुख था, सन्नाटा और गहरा हो गया। दोनों बहुत देर तक शान्त बैठे रहे। सुभाष ने कुर्सी पर बैठे-बैठे और मंजू ने बिस्तर पर टिके-टिके आंखें बन्द कर ली थीं। दोनों न एक-दूसरे को दिलासा देने की स्थिति में थे न दोनों एक-दूसरे को दुख से भरा देखना चाहते थे। पर यह संभव कहां था, बन्द आंखों से दोनों एक-दूसरे को ही देख रहे थे। यह स्थिति दोनों के अन्दर घुटन पैदा कर रही थी। सुभाष ने उठकर पानी पीया और देखा कि खाना जस का तस ढका है, मंजू ने कुछ नहीं खाया था। परन्तु चाहते हुए भी उसने मंजू से कुछ नहीं कहा, वह फिर से कुर्सी पर बैठ गया और थोड़ी देर बाद उठ कर बाहर भी चला गया। मंजू फिर से घर में अकेली रह गयी दुख ने उसे तटस्थ और निर्विकार बना दिया था। कुछ समय बाद उसे घबराहट होने लगी तो उसने टीवी चला लिया पर वह उसे देख नहीं रही थी टीवी केवल उसे किसी और के होने का एहसास भर दे रही थी। वह वैसी ही बैठी अपलक जाने क्या और कहां देखती रही। रात 10 बजे सुभाष लड़खड़ाते कदम से दरवाजे के अन्दर दाखिल हुआ और मंजू के बगल में आकर बैठ गया। दोनों एक-दूसरे को देखते रहे। मंजू को उम्मीद थी कि हमेशा की तरह सुभाष आज भी बिस्तर पर गिर कर सो जायेगा, पर ऐसा नहीं हुआ। सुभाष आज पीकर मुखर हो गया है अब वह अन्दर कम और बाहर ज्यादा हो गया है। शराब की बदबू मंजू तक पहुंचने ही परवाह किये बगैर उसने मंजू से लड़खड़ाती आवाज में पूछा-
‘‘अभी तक दुखी हो ?’’
मंजू उसे देखती रही, कहा कुछ नहीं। सुभाष हाथ हिला-हिलाकर बोलने लगा
‘‘साली फिरंगी कम्पनी होती ही ऐसी है उसने हम दोनों को ठग लिया.......थोड़ा सा पैसा लगाया....ज्यादा कमाया और चलती बनी......तू पगली है...सोचती थी उन्हें मुनाफा कराके तेरा क्या बिगड़ेगा, अपना मेहनताना तो मिलेगा ही.....गलत सोचती थी........वे सब कुछ ले गये न........मेरी कमाई ले गये .......तेरा बच्चा ले गये......किराया दे गये। अरे हमने....हमने .......हम मजदूरों ने ही तो कम्पनी को मुनाफा दिया था जिसे वे लेकर भाग गये.......तेरा और मेरा दुख एक सा है मंजू.....’’
सुभाष की बात गड्ड-मड्ड हो रही थी। 
सुभाष मंजू के पास खिसक आया और उसकी ठुढडी उठाकर बोला 
‘‘लेकिन मंजू तू मेरी वाली गलती मत करना, तू खुद को पहुँचे दिमागी नुकसान का मुआवजा मत मांगना .....मुआवजा मांगने के लिए मुकदमा मत लड़ना, नहीं तो तेरी कमाई के 1लाख 90 हजार रूपये भी वे उड़ा ले जायेंगे।’’ सुभाष जोर-जोर से हंसने लगा और शराब की बदबू मंजू के मुंह में भी घुसने लगी। उसने सुभाष को हल्का सा धक्का दिया तो वह पीछे हो गया और बिस्तर के सिरहाने पर टिक गया।
खुली हुई टीवी पर नये-नये प्रधानमंत्री का भाषण चल रहा था, जिसमें वे दुनिया भ के पूँजीपतियों को भारत में आकर निवेश करने का यानि यहां फैक्ट्री लगाने का न्यौता दे रहे थे-‘कम, मेक इन इण्डिया’।
बिस्तर पर लुढ़का सुभाष हंसने लगा-
‘‘तेरी कोख और देश एक जैसा है मंजू, जिसमें पूंजीपति पैसा लगा सकते हैं और मुनाफा कमा सकते हैं......बच्चा ले गये घायल कोख छोड़ गये,....मुनाफा ले गये घायल देश छोड़ गये।’’ 
सुभाष और जोर-जोर से हंसते हुए बिस्तर पर गिर कर लेट गया। वह नींद की आगोश में जाते हुए भी बड़बड़ा रहा था-
‘‘ किराये की कोख, किराये का देश! ’’

रचनाकार परिचय
नाम- सीमा आजाद
जन्म- 5-8-1975
निवास-इलाहाबाद
शिक्षा- एम ए मनोविज्ञान
सम्प्रति-सामाजिक राजनैतिक पत्रिका दस्तक का सम्पादन, पीयूसीएल उ प्र की संगठन सचिव, स्वतंत्र पत्रकारिता
साहित्यिक परिचय- कविता व कहानी लेखन, हंस, ज्ञानोदय, पाखी, लमही, पल-प्रतिपल, बया में प्रकाशित। कविता के लिए २०१२ का लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई पुरस्कार
प्रस्तुति -  रचना त्यागी
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टिप्पणियाँ:-

आशीष:-
सहज प्रवाह  में  मेहनतकश  अवाम  की  दिनोरात  की  जद्दोजहद  हमारे  सामने  है ।  मुल्क की  सबसे  ज्यादा   दिखने  वाली  आबादी   की  ज़िन्दगी किस्सा कहानी  का  सबसे  कम  विषय  बन पाता  है  ।  सीमा जी  ने  इस  विषय  पर  लिखा  और  हमारे  सामने  मौजूदा तंत्र   की  मुट्ठीभर देशीविदेशी लुटेरों  की  खातिर  श्रमकानूनों  का  लचीला  करते  जाना  और  मजदूर महज  माल  पैदा करने  की मशीन रह   गए  हैं ।ऐसे  तंत्र का  पर्दाफ़ाश  करती  कहानी  है  यह ।
एक बात  और । विषय और  कथ्य  के  सहारे  कहानीकार अपनी   सामाजिक  चिन्ता  सामने  ला  रहा  है ।  यह  किसी  मजदूर की  ज़िन्दगी की  तरह  खुरदरी है । भाषा  और  तकनीकी के  तौर  पर  कल्पनाशीलता , उत्सुकता , और  संकेतात्मकता  का  अभाव है । या यूं  कहे कि  बेहतरीन विषय के  बावजूद  कहानीपन  का  अभाव  ।  तंत्र  का  पर्दाफ़ाश करती  हुई     सायासता  प्रधान है । कहानी  और  लेख  के  बीच  दूरी  ज्यादा  नहीं   दिख  रही  है ।  कई  एक  जगह  प्रतीकात्मक बात  कहें  तो  जैसे   राहुल के  मार्फत  कहा  गया -   घोड़ा   सवार  को पटक   देता  है  आदि ।  बढ़िया संकेतात्मक  प्रयोग   है ।  एक  पाठक  को  सोचने  के  लिए  कम  जगह  छोडती  है।  सघनता ज्यादा   है  वर्णन  के  रूप  में  ।  कहानी  अच्छे विषय   के  बावजूद  एक  तयशुदा  खांचे  में  बंधी  नजर  आती  है   ।

वनिता बाजपेयी:-
बहुत अच्छी कहानी विषय मारक शिल्प से और प्रभावी बन सकती थी । एक ओर जंहा सेरोगेसी से निसन्तान दम्पतियों को सन्तान सुख मिल रहा है वंही दूसरी और इसका एक ख़ौफ़नाक सच भी है । हमारी आर्थिक अवधरणा पूर्णतः पूँजीवादी है।इस इकहरी व्यवस्था में सम्वेदनाओं का कोई मोल नहीं है

आशीष:-
सही  है ।  अगर  आप  पैसे  वाले  हैं मातृत्व खरीद  सकते  हैं ।  अभाव  और  गैरबराबरी  की व्यवस्था   में  सबसे   आत्मिक -  मानवीय  पहलू  भी  बाजार में  मोलभाव होने  के  लिए  बाध्य   है ।

आशीष मेहता:-
आशीषजी/मनचंदा भाई, पहले धंधे (देहव्यापार) से लेकर ताजातरीन साफ्टवेयर इन्जीनियर्स् तक (जिनमें आप हिन्दुस्तानी तबक़े से गल्फ, कैनेडा और अमरीका गए सेवकों, टैक्सी ड्राइवर एवं वैज्ञानिकों को भी गिन सकते  हैं।) सब कुछ बिक रहा है । शोषण में  देशी-विदेशी का क्या भेद ?

यकीन माने कानून (अपने देश में) कोई लचर नहीं है। व्यवस्था में दीमक (भ्रष्टाचार) है।

अफसोसजनक रूप से कहानी सरोगेसी को संवेदनशीलता से डील नहीं  कर पाई। जैसा, आशीषजी ने भी कहा, कहानी में 'कहानी' कम, 'तयशुदा खाँचा' ज्यादा रहा। 'सायास पर्दाफाश' इसे प्रथम दृष्ट्या doctored story प्रतीत करवा रहा है।

सामाजिक चिन्तन बतौर बहुत सतही प्रयास (मौजूदा चर्चा समेत) है।

यदि, उद्देश्य सिर्फ "शेर का शिकार" ही है (जैसी न्यूज कल मनचंदा भाई ने ब्रेक की थी।) तो कहानी/कथन सब चंगा है।

टाटा की लखटकिया बाजार में हंगामा नहीं कर पाई, पर सिंगूर (बंगाल) में पैर रखना सुहाया नहीं टाटा (देसी कंपनी) को ।
बहरहाल, आजादी की सीमा तय करते समाज में 'सीमा जी आजाद' को सलाम, एक संभावनापूर्ण विषय को पालने - पोसने, मूर्त-रूप देने के लिए। PUCL की सक्रीयता के चलते, उनके अनुभव (पूंजीवादी शोषण) को सादर नमन। उनके अनुभव एवं स्वतंत्र विचारों से उपजी इस कहानी में अच्छी संभावनाऐं थी।

आशीष:-
जी  आशीष  जी  सीमा आजाद   का  यह प्रयास   सराहनीय  है ।  किंचित  सीमाओं  क्के  बावजूद   ऐसे   विषयों    पर  सोचने  के  लिए  प्रेरित  किया   ।  आभार  ।

परमेश्वर फुंकवाल:-
कहानी एक आम आदमी की जिंदगी से देश के रूपक पर समानांतर चलती है। परन्तु मेक इन इंडिया को निगेटिव चित्रित करने के लोभ से बचना चाहिए था। यदि हम नियमों को बनाने व लागू करने में सक्षम होंगे तो यह परिस्थितियां नहीं आएगी। कहानी का भावनात्मक पहलू प्रभावित करता है। सीमा जी को बधाई।

तितिक्षा:-
सीमा जी आपकी कहानी एक अच्छे विषय को लेकर है और कहानी बड़ी होने के बावजूद पूरे वक्त बांधे रखती है एक उत्सुकता बनी रही ।
पता नही कितने ही सुभाष और मंजू इस परेशानी से गुज़रते होंगे।
कहानी के माध्यम से ये पहलू भी सामने आया।
सीमा जी बधाई आपको ।

गरिमा श्रीवास्तव: अच्छी रचना वही जिसमें स्वयं को पढ़वा लेने की क्षमता हो।इस दृष्टि से रचना का प्रस्तुतिकरण चाहे एकतान हो या धारावाहिक,कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता।ये कहानी रोचक थी और प्रवाहपूर्ण भी साधुवाद।

मिनाक्षी:-
सीमा जी की कहानी अच्छी थी। शुरू से आखिर तक पकड बनी रही।हर किश्त के बाद अगली किश्त के इन्तजार का अपना एक अलग ही आनन्द है।रोचक पाठ्य के लिए सीमा जी को धन्यवाद।आप महीने में एक बार ऐसा जरूर करें।

शुचिता राठी:-
स्तब्ध हूँ।इस कहानी से लगा मैं स्वयं इस पीड़ा से गुज़र रही हूँ।सरोगेसी ....... और देश...... हुम्म ..... और इस पीड़ा से भी की कोई विदेशी co मुझे लूट रही है।
उस पत्नी के किरदार में  उस पति के किरदार में जो पी कर अपनी व्यथा भुला रहा है।....आजीवन बेरोज़गारी ???दिल बैठ रहा है क्या होगा आगे ??मैं मुखिया हूँ कैसे घर चलाऊंगा??? क्या होगा बीवी बच्चों का??? कितने ही लोग ऐसे है। कितने ही परिवार बेघर हो रहे है। मर्म बहुत अपना सा लगा।
यही वस्तविकता है lower middle class की और यही विडम्बना भी।
क्या शादीशुदा घरेलु स्त्री के पास और कोई विकल्प नहीं छोड़ा देश ने ????  
देश और स्त्री दोनों सेरोगेट है।अकल्पनीय दूरदर्शी सत्य
किराये की कोख़ किराये का देश!!!!!
मेरा अपना कहने को क्या है??
सचमुच ठगी सी महसूस कर रही हूँ मैं भी
क्योंकि मैं ही मंजू हूँ मै ही सुभाष हूँ।

कुछ देर ही सही असहज महसूस कर रही हूँ।मुस्कुराना भी बोझ लग रहा है

सीमा आज़ाद जी

मंजे हुए शब्द ,मंजे हुए स्थाई भाव और सर्व साधारण का अज्ञात भय

आप को , आप की कल्पना शक्ति को और no doubt आप को साधुवाद।

राहुल सिंह:-
कहानी सफलता से पूंजी के भयानक खेल को उघाड़ रही है, पूंजी जिसने खेती उजाड़ी फैक्ट्री डाली, खेती से जुड़े लोग अपने पुश्तैनी रोजी से निकाल फेंके गए, रोजगार से हटा कर भिखारी बना दिए गए,

फैक्ट्री केवल मुनाफ़ा आधारित पूंजी व्यवस्था का एक रोग भर थी, जो मुनाफ़ा कम होते ही फिर, से लोगो को बेरोजगार कर दूसरे धंधे में जा घुसी।

कहानीकार ने पूंजी की निर्मम ताकत का सेरोगेटरी से साम्य रचा है।
हम जैसे गरीब मुल्को को अमीर मुल्को के लिए अपना
शरीर-गर्भ-ज़मीन तक खपा डालने के पूंजी के खेल को पूर्ण नग्न करने में कहानी सफ़ल हो रही है।

सीमा आज़ाद ने 'पूंजीवाद' को साफ़ बेपर्दा कर दिया अपनी कहानी में। देश की 80% आबादी मंजू और सुभाष है,
मंजू और सुभाष के पात्र कैसे सृजित हो रहे है?
क्योंकि वैश्विक पूंजीवादी झांसे के शिकार हम जैसे गरीब मुल्को में, पारंपरिक इको-फ्रेंडली धंधे और रोजगार, मुट्ठीभर देशी/विदेशी धनपतियों की असीम धन-पिपासा की भेंट चढ़ कर मसल दिए जा रहें है।

हम किस विकास की बात करते है? जिसमे मुट्ठीभर 'रईस' उद्योगपति, जनता के शेयर-कॅपिटल से मिले पैसो से, खुद के लिए मुनाफ़ा कूटते है, फिर मुनाफ़ा कम होते ही हजारो लोगो को मंजू-सुभाष बनाकर फुर्र हो जाते है।
नेता,ब्यूरोक्रेट्स,सिस्टम किस कदर उनकी जरखरीद गुलामी करते है, इसका उदाहरण 'विजय माल्या' का 1 साल से सीबीआई द्वारा जारी लुक-आउट नोटिस के बावजूद देश की जनता का 9000करोड़ रु डुबा कर भाग जाने से साबित हो जाता है।

बेहतरीन कहानी

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