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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 अगस्त, 2016

लेख : नीलिमा चौहान

साथियो आज आपके समक्ष प्रस्तुत है नीलिमा चौहान जी का लिखा लेख।

इस लेख पर साथी अपने विचार रखें ।

एफ जी एम / सी यानि योनि पर पहरा
 
नाइजीरिया ने प्रतिबंध क़ानून पारित किया 

पिछले 29 मई को नाईजीरिया ने क़ानून बना कर अपने यहाँ  महिलाओं के  होने वाले  खतना ( एफ जी एम / सी - फीमेल जेनिटल म्युटीलेशन / कटिंग  )  पर पूरी तरह प्रतिबन्ध लगा दिया . इस अमानवीय प्रथा को हमारे ही विश्व के एक भाग की महिलायें झेल रही थीं. यह एक बड़ी पहल है. हममें से बहुत कम को पता है कि ऐसी कुप्रथा भारत में भी कहीं न कहीं मौजूद रही है .  इस क़ानून के लागू होने के परिप्रेक्ष्य में नीलिमा चौहान का लेख 

सनी लियोन जैसे पॉर्न  स्टार के स्टाडम को मनातेइसी देश में वे स्त्रियां भी रहती हैं जिनकी योनि के बाहरी वजूद को काटकर देह से अलग कर देने जैसे अमानवीय  कृत्य के प्रति एक सामाजिक अनभिज्ञता और असंवेदना दिखाई देती है ।  हमारे समाज में स्त्री की यौनिकता के सवाल समाज के लिए बहुत असुविधाजनक हैं ।  जिस समाज में स्त्री की यौनिकता का अर्थ  केवल पुरुषकेन्द्रित माना जाता है  उस समाज के पास  स्त्री की यौन शुचिता और  यौन नियंत्रण को बनाए रखने के कई तरीके हैं  । इन्हीं में से एक तरीका FGM / C  भी है यानि स्त्री की योनि के बाहर उभरा हुआ अंग  देह से अलग कर दिया जाना ।  स्त्री का सेक्सुअल आनंद दुनिया को कितना डराता है इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है इस समय दुनिया के 29 देशों में करीबन 130 मिलियन बच्चियां / औरतें FGM / C की शिकार  हैं । इन ताज़ा आंकड़ों में दुनिया के कुछ विकसित देशों का भी नाम शामिल है । हाल ही में एक पीड़ित भारतीय महिला द्वारा  एक विदेशी स्वयंसेवी संस्था के नाम लिखे गए खत से इस बात का खुलासा पूरे विश्व को हुआ कि भारत में भी एक वर्ग के स्त्री सदस्यों के यौनांगों को आंशिक या पूर्ण रूप से काट दिए जाने की  पुरानी प्रथा आज भी जारी है ।  हैरानी है कि धर्म संस्कृति या सामाजिक अभ्यासों के नाम पर होने वाले इस जधन्य आपराधिक कृत्य को स्त्री के मानवाधिकार के हनन के रूप में देखे जाने लायक संज्ञान अभी लिया नहीं गया है ।

FGM के कई प्रकार प्रचलित हैं जिनमें भग शिश्न को आधा या पूरा काटने से लेकर उसको महीनता से सिल दिये जाने का प्रकार भी प्रचलित है । योनि पर तालाबंदी  से स्त्री को गुलाम बनाने की जघन्यता के अलावा क्लीटोरिअस लगभग पूरी तरह सिल कर योनि द्वार को बंद कर दिया जाता है ।  इस सिलाई को संभोग के अवसर पर खोले जाने के अलावा यौन प्रक्रिया और प्रसव की जरूरतों के मुताबिक अनेक बार सिला और खोला जाता है । इन प्रक्रियाओं  की शिकार होने वाली स्त्री अनेक यौन रोगों और असहनीय पीड़ा से ही नहीं गुजरती वरन मानसिक त्रासदी के साये के तले अपना पूरा जीवन बिताने के लिए विवश होती है । स्त्री के कौमार्य का संरक्षण तथा पुरुष केन्द्रित यौनानंद को सुनिश्चित करने वाली इस प्रक्रिया से विश्व की असंख्य स्त्रियां सदियों से चुपचाप गुजरती आ रही हैं  ।

स्त्री को यौन उत्तेजना और स्खलन  के आनंद से वंचित रखने की यह साजिश  इतनी अमानवीय है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठनों , जैसे यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन आदि ने इस प्रचलन को समाप्त करने के लिए विविध प्रकार के कदम उठाए हैं ।  दिसम्बर 12 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक आम सभा कर एक प्रस्ताव पारित किया था,  जिसके तहत विश्व भर में इस अमानवीय प्रक्रिया को समूल खत्म करने की दिशा में पहल की गई थी । कुछ  देशों में नए कानून बनाकर और कुछ देशों ने पुराने कानूनों की नई व्याख्या में इसपर प्रतिबंध को घोषित कर दिया है । नाइजीरिया में 29 मई को ऎतिहासिक कदम उठाते हुए FGM को कानूनी रूप से प्रतिबंधित कर दिया है । परंतु फिर भी ताज़ा हालात यह हैं कि विश्व के कई अन्य देशों में इस प्रक्रिया के जरिए असंख्य स्त्रियों को उनके मानवाधिकार से वंचित किया जा रहा है । भारतीय समाज में भी  एक ओपन सीक्रेट के रूप में इस अमानवीय कृत्य की मौजूदगी है  जिसकी चर्चा या विरोध करने योग्य जागरूकता का अभाव है ।

इसी दुनिया के कुछ हिस्सों में  स्त्री के सी स्पॉट व जी स्पॉट के यौनानंद की प्रक्रिया में महत्त्व  के प्रति जागरूकता का माहौल दिखाई देता है । जिस दुनिया में स्त्री के हस्तमैथुन करने को पुरुष के हस्तमैथुन के समान ही सामाजिक मान्यता दिए जाने योग्य जागरूकता बन रही हो ; उसी दुनिया में स्त्रियों की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा  अपने यौनांग़ों को अपनी देह से अलग किए जाने की त्रासदी का शिकार है । स्वीडन में स्त्री के क्लिटोरिअस के यौनानंद की प्रक्रिया में महत्त्व को  स्थापित करते हुए "क्लिटरा" जैसी शब्दाभिव्यक्तियां बनाई गई हैं वहीं दूसरी ओर यूनीसेफ के द्वारा जारी किए आंकड़े  ' यौनानंद की उत्पत्ति की स्थली : क्लीटोरिअस ' को स्त्री की देह से अलग करने वाले इस नृशंस कृत्य  की मौजूदगी का  रहे
स्त्री  के बाहरी यौनांग यानि भग्नासा को स्त्री देह के एक गैरजरूरी , मेस्क्यूलिन और बदसूरत अंग के रूप में देखने की बीमार मानसिकता  का असल यह है कि पितृसत्ता को इस अंग से सीधा खतरा है । इस अंग के माध्यम से महसूस किया गया यौनानंद स्त्री को उन्मुक्त यौनाचरण के लिए प्रेरित कर सकता है जिससे समाज के स्थायित्व को एक बड़ा खतरा  होता  है  । नैतिकता और यौनाचरण को बनाए रखने में ही सामाजिक संरचनाओं का स्थायित्व व उपलब्धि  है । यह स्त्री की देह के प्रति उपनिवेशवादी नजरिया है जिसका सीधा मंतव्य यह भी है स्त्री केवल प्रजनन के लिए है अत: उसका गर्भाशय तो वांछित है  किंतु  वह यौनानंद प्राप्त करने की हकदार नहीं है इसलिए उसके बाह्य यौनानंग अवांछित हैं । इस तरह से स्त्री की समस्त देह पुरुष के आनंद के लिए और सम्पत्ति के  उत्तराधिकारी को जन्म देकर पितृसत्ता को पुखता करने के लिए काम आती है ।  उसकी देह का केवल वही हिस्सा पितृसत्ता को अखरता है जिससे पितृसत्ता को कोई लाभ नहीं वरन हानि ही हानि है । स्त्री के यौनिक आनंद को गैरजरूरी और असंभव बनाने के इरादे भर से संवेदन तंत्रियों से भरे उस अंग को देह से विलग करने के पीछे दंभी पितृसत्ता को बनाए रखने की सोची समझी पुरानी साजिश है । इस साजिश को तरह तरह के आवरणों में सजाकर स्त्री को इस प्रक्रिया से गुजरने के लिए विवश किया जाता है ।


स्त्री की स्वतंत्रता और अस्मिता का एक बहुत जरूरी अर्थ स्त्री की दैहिक व यौनिक आजादी से है । दरअसल हमारे समाज में स्त्री स्वातंत्रय और स्त्री की सेक्सुएलिटी को एकदम दो अलग बातें मान लिया गया है ! पुरुष की सेक्सुएलिटी हमारे यहां हमेशा से मान्य अवधारणा रही है ! चूंकि पुरुष सत्तात्मक समाज है इसलिए स्त्री की सेक्सुएलिटी को सिरे से खारिज करने का भी अधिकार पुरुषों पास है और और अगर उसे पुरुष शासित समाज मान्यता देता भी है तो उसको अपने तरीके से अपने ही लिए एप्रोप्रिएट कर लेता है ! जिस दैहिक पवित्रता के कोकून में स्त्री को बांधा गया है वह पुरुष शासित समाज की ही तो साजिश है ! यह पूरी साजिश एक ओर पुरुष को खुली यौनिक आजादी देती है तो दूसरी ओर स्त्री को मर्यादा और नैतिकता के बंधनों में बांधकर हमारे समाज के ढांचे का संतुलन कायम रखती है ! स्त्री दोहरे अन्याय का शिकार है- पहला अन्याय प्राकृतिक है तो दूसरा मानव निर्मित ! ! कोई भी सामाजिक संरचना उसके फेवर में नहीं है क्योंकि सभी संरचनाओं पर पुरुष काबिज है !  दरअसल  स्त्री के अस्तित्व की लड़ाई तो अभी बहुत बेसिक और मानवीय हकों के लिए है  । सेक्सुअल आइसेंटिटी और उसको एक्स्प्रेस करने की लड़ाई तो उसकी कल्पना तक में भी नहीं आई है ! अपनी देह और उसकी आजादी की लड़ाई के जोखिम उठाने के लिए पहले इसकी जरूरत और इसकी रियलाइजेशन तो आए ! हमारा स्त्री-समाज तो इस नजर से अभी बहुत पुरातन है ! स्त्री के सेक्सुअल सेल्फ की पाश्चात्य अवधारणा अभी तो आंदोलनों के जरिए वहां भी निर्मिति के दौर में ही है, हमारा देश तो अभी अक्षत योनि को कुंवारी देवी बनाकर पूजने में लगा है ! एसे में शेफाली जरीवाला अपनी कमर में पोर्न पत्रिका खोंसे उन्मुक्त यौन व्यवहार की उद्दाम इच्छा का संकेत देती ब्वाय प्रेंड के साथ डेटिंग करती दिखती है तो इससे हमारे पुरुष समाज का आनंद दुगना होता है उसे स्त्री की यौन अधिकारों और यौन अस्मिता की मांग के रूप में थोड़े ही देखा जाता है । लेकिन पर्दे की काल्पनिक दुनिया के बाहर का सामाजिक यथार्थ में स्त्री के लिए न केवल आनंद के सारे द्वार बंद हैं बल्कि स्त्री की देह के सामाजिक नियंत्रण और शोषण के तमाम विकृतियां बदस्तूर जारी हैं ।

स्त्री समाज की आबादी के एक बड़े हिस्से को यौन दासी के रूप में बदल देने वाली अन्य परम्पराओं के साथ साथ स्त्री  यौनांगों के खतना जैसी  अतिचारी अमानवीय प्रक्रिया को जल्द से जल्द समाप्त किए जाने की आवश्यकता है । इस तरह की कबीलाई मानसिकता की वाहक प्रथाओं की जड़ में स्त्री के प्रति उपेक्षा गैरबराबरी  और गैरइंसानी रवैये को मिलती रहने वाली सामाजिक स्वीकृति है । स्त्री की यौनिकता के सवालों से बचकर भागते समाज को शीध्र ही स्त्री के मानवाधिकारों में उसकी दैहिक - यौनिक उपस्थिति को ससम्मान तरजीह देने का उपक्रम शुरू कर देना चाहिए । उम्मीद है कि नाइजीरिया  के द्वारा लिए गए इस ताज़ा वैधानिक फैसले के प्रकाश में दुनिया के दूसरे देशों में भी स्त्री के मौलिक अधिकारों के प्रति चेतना आएगी ।

प्रस्तुति-बिजूका समूह
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टिप्पणियां:-

पल्लवी प्रसाद:-
Is topic k chayan k liye lekhika ko badhai. Lekh se bahut ummeed jagi isliye nirasha bhi bahut hui. Information ka bhari abhav raha. Tathya kendrit bilkul nahi. Statistics nahi diye. Bharat samaj me kin prant ya samuday me prachalit hy yeh nahi batane se aakshep poorna reh gaya lekh. A very serious topic touched very superficially! Yeh hindi jagat ki bhi problem rahi hy. Yeh 'faadu' lekh ban sakta tha, shodh ka abhav! Bawzood, lekhakika ko badhai.

प्रमोद तिवारी:-
तितिक्षा जी और नीलिमा जी इसी मुद्दे पर जयश्री राय का उपन्यास 'दर्दजा' प्रकाशित हुआ है जिसमें नायिका के बहाने विस्तार से इस मुद्दे को उठाया गया है। करीब 28 देशों की 14 करोड़ महिलाएं इस गलत प्रथा की शिकार शिकार हैं। इस चर्चा में अगर उसे भी शामिल किया जाए और तथ्यात्मक ढंग से बातें की जाएं, खास तौर से भारत के बोहरा समाज की भी तो बातें ज्यादा स्पष्ट होंगी।

संध्या:-
बहुत ज़रूरी लेख ।मगर ये भी सही है कि ,भारत के परिप्रेक्ष्य में आंकड़ों का अभाव अखरा ,और कानून पास करने मात्र से लगाम लगाना बहुत आसान भी नहीं समाज में जागरूकता लाना ज़्यादा ज़रूरी है और ऐसे विषय एक taboo मानेजाते हैं ।चर्चा होना ज़रूरी है ।
इस विषय पर जयश्री रॉय का उपन्यास दर्दजां सद्य प्रकाशित है जो गहराई से छूता भी है ।
लेखिका को बधाई

पल्लवी प्रसाद:-
Kholne silne wali bat ko pratha bataya lekin facts se supprt nahi kiya gaya. Ye medicinal science se impractical hy isliye pratha hona dubious hy. Ye sambhav hota toh shayadd is pratha k shikar vishwa bhar ki mahilayein hotin. / Definitely this is one case in india jahan pati aisa karta tha....tala bhi lagata tha  lekin vah bhi daily ya weekly basis p kholta nahi tha. Ek do bar stitch kar tale k vyavastha kar di thi, chabi apne pas rakhta. Usse kadi saja hui.

निरुपमा नागौरी:-
बहुत महत्वपूर्ण लेकिन पूरी तरह  अव्.यक्त मुद्दे को उठाने के लिये लेखिका को बधाई।
लेकिन बार बार उन्हीं बातों का दोहराव तथ्यों की कमी को और उभारता है।

पल्लवी प्रसाद:-
Vah parivar aur samaj se chupi hui bat thi. Bhed khulne par he ws socially ostracised nd legally convicted. // //is point par bhi lekh mahaj aakshep poorna hy.

प्रमोद तिवारी:-
दर्दजा के बहाने एक लंबे लेख का छोटा हिस्सा
'दर्दजा' किताब को लेखिका ने ‘हव्‍वा के बेटियों की दास्‍तान’ कहा है। पूरी दुनिया में सत्‍ता (पितृ) ने कमजोरों के शोषण के लिए तमाम प्रकार के कानून बनाएं हैं और इन कानूनों को धर्म, ईश्‍वर की इच्‍छा, परम्परा आदि का नाम दिया है। इसके तहत कभी शकुंतला के रूप में उन्‍हें भाषा का अधिकार(शकुंतला संस्‍कृत नहीं प्राकृत बोलती है) नहीं दिया जाता तो कभी बड़े वर्ग को पढ़ने से वंचित रखा जाता है। इसका सबसे ज्‍यादा मूल्‍य स्त्रियों को चुकाना पड़ा है। केवल अ‍फ्रीका की नहीं पूरी दुनिया की स्त्रियों को। ‘नारी नरक की खान है’, ‘अवगुण आठ सदा उर रहहीं’ जैसी पंक्तियां हमारे देश की हैं, इंग्‍लैंड जैसे देशों में उन्‍हें वोट का अधिकार हाल तक नहीं मिला था। असल में यह सब धर्म नहीं, राजनीति है। कुछ भी अराजनीतिक नहीं होता (Nothing is apolitical) इसीलिए नारी समर्थकों ने कहना शुरू किया कि ‘पर्सनल इज पॉलिटिकल’।
दर्दजा ऐसी ही सच्‍चाई को इतने भयावह ढंग से सामने रखती है कि आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे। पितृसत्‍ता सेक्शुअलिटी से डरती रही है। पुरुष अपनी सेक्‍सुअलिटी को बढ़ाने के लिए खूब सारे उपाय करता रहा है और उसी अनुपात में स्त्रियों को दबाने के ऊपाय रचता रहा है। स्‍त्री पैदा नहीं होती बनायी जाती है। फिमेल सेक्‍स को सोची समझी रणनीति के तहत जेंडर में बदला जाता रहा है। कभी पहनावे के नाम पर, कभी आभूषण के नाम पर तो कभी डायन और चुड़ैल के नाम पर उन्‍हें मजबूर किया जाता है। इसी साजिश के तहत सोमालिया की इन स्त्रियों को बताया जाता है कि अगर तुमने अपने जनन अंग के ऊपरी हिस्‍से को नहीं कटवाया तो ये मांस का लोथड़ा बढ़ते-बढ़ते घुटनों तक लटक आता है, यह गंदा होता है और इसमें से बदबू आती है। बढ़ने के बाद इस 80 किलो के मांस को लेकर चल पाना, बैठना, सोना सब मुश्किल हो जाता है इसलिए दर्द को सहो और इसे कटवा लो। क्‍योंकि असल में ये मर्दों का हिस्‍सा है और मर्दों के शरीर में थोड़ा सा स्त्रियों का हिस्‍सा होता है जिसे वे खतना करा के उससे मुक्ति पाते हैं।
असल में अपने स्‍वार्थ के लिए प्राकृतिक स्थितियों को अप्राकृतिक बता स्त्रियों को फालतू की चीजों में उलझाए रखने की साजिश रची जाती रही है। अब कुछ सित्रयां इसके खिलाफ खड़ी हो रही हैं और इसमें विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनेस्को जैसी विश्व-संस्थाएं मदद कर रही हैं।
सुन्नत की भीषण यातना से गुज़र चुकी इस उपन्‍यास की नायिका माहरा अपनी बेटी को उसी तरह की त्रासदी से बचाने के लिये अपने समाज की सीमाओं का उल्लंघन करती है, जम कर संघर्ष करती है। असल में यह किताब अपने को संवेदनशील कहनेवाले मनुष्‍य के एक ऐसे वहशीपन को उद्घाटित करती है जिसे दुनिया का कोई और जीव नहीं करता। हो सकता है यह किताब कुछ स्‍थानों पर अति की ओर जाती हो परंतु दुनिया की सारी कलाएं अति में ही बात करती हैं। अगर इस अति से हम थोड़ा ज्‍यादा संवेदनशील बन जाते हैं, थोड़े मनुष्‍य बन जाते हैं, स्त्रियों को थोड़ा मनुष्‍य मानने लग जाते हैं तो ऐसे अतियों का स्‍वागत करना चाहिए।

आशीष मेहता:-
लेख/कथा/ कहानी अपनी यथाशक्ति से विचारोत्तेजन कर सकते हैं। पल्लवी जी से सहमत कि तथ्यों /परोक्ष जानकारी के अभाव में आलेख (आज की पोस्ट) सतही रह गया है।

निस्संदेह, जानकार एवं सक्रिय साथियों के पास मौका है, पुष्ट जानकारी एवं हो रहे संघर्ष की स्थिति / जरूरत/व्यवहारिकता को साझा करने का।

इस विषय पर अन्य उपन्यास /कृतियों का विवेचन, अनजान साथियों का 'विमर्श' पुष्ट करेगा (जो कि एक आवश्यक प्रक्रिया है), पर इससे प्राथमिकता (समस्या-विमर्श एवं समाधान) की बलि नहीं होना चाहिए।

आनंद पचौरी:-
बहुत अमानवीय और घृणित स्थिति है यह।ऩाइजरिया जैसे पिछडे देश ने यह पहल की है किन्तु हमारे देश की स्थिति तो इससे भी बुरी है।इसेएक परंपरगत मुद्दा मानकर सब अपना पल्ला झाड लेते हैं।नारी संगठन भी इस मामले में बहुत जागरूक नहीं दिखते।नारी देह को अभी भी यहाँ अजूबा ही समझा जाता है,तभी तो यहाँ बलात्कार की घटनाएँ इतनी ज्यादा है।वहशी दिमागों ने धर्म और परंपरा के नाम पर अपनी कारगुजारियों के कई रास्ते निकाल लिये हैं।सामाजिक चेतना के बिना इस मानसिकता में कोई सुधार संभव नहीं दिखता।

पल्लवी प्रसाद:-
Jahan tak mei janti hun (yeh limited ho sakta hy)... Is kupratha ka bharat me hona kisi k patr k dwara discover nahi hua hy. Yeh jaankaari hamesha rahi hy./ Meri smriti me samudaay ka naam nahi aa raha tha siway k vah islamic  samudaay hy,, lekin Pramod ji nam yad dila diya / Yeh kupratha bharat me anyatra kahin nahi payi jati / Vartaman Bohra me bhi bahut kam/ sambhavatah vishya me anyatra bhi islamic

पल्लवी प्रसाद:-
Lekh ne sirf mudda uthaya, jankari a-pramanik aur naganya di. Lekin lekhakika aur bizooka ko badhai evam shukriya isse charcha me laane k liye.
Gaur talab african deshon me islamic following hy, baki research ka vishay hy. I don't mean to offend any religion. My own religion is a great offender of human rights. They al are.
Zahir hy ki yadi 14 crores mahilayein isse suffer kar rahi hyn aj k zamane me toh...ds custom has religious sanction! It is d same as male circumcision bt wd different purpose.
Vah lock n key wala criminal case jiska zikr maine upar kiya, usme convict pati muslim nahi tha na kisi pratha se prerit. Vah vahshi tha.

आशीष मेहता:-
कुड़ी (पल्लवीजी) किन्नी सोणी गल् करदी ए । जे हिन्दी विच् कSर ले, ताँ बल्ले बल्ले।

पचौरी साहब की बात और सत्य भाई की पोस्ट से उम्मीद जगी कि कुछ बेहतर तथ्य /आँकड़े / हालात (भारतीय परिप्रेक्ष्य में) सामने आएंगे। उम्मीद बरकरार है।..........

..... जैसे कुछ साथी बगैर तथ्यों के इस लेख के बारे में अपने विचार रख चुके हैं, तो जरूरी है कि भारतीय समाज से 'उस मुद्दे ' के सरोकारों को तटस्थ एवं उद्देश्यपूर्ण नजरिये से समझा/परखा जाए।

हमारे समाज में बेहद तेज गति से बढ़ती महिला भागीदारी के बावजूद, महिलाओं की स्थिति दयनीय है। परन्तु, मेरे  विचार  से भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस मुद्दे (बातचीत) में सिर्फ विदेशी latex कम्पनियों का  ही हित नज़र आ रहा है।

पल्लवी प्रसाद:-
मध्य कालीन चाईना में प्रथा थी महिलाओं को बचपन से अत्यधिक छोटे लोहे के जूते पहनाने की । उनके पैर ठूँठ हो जाते । वे खेल या दौड़ नहीं पातीं । उनकी अपंग चाल हसीन मानी जाती।

पूनम:-
आदरणीय
आप सबको सादर प्रणाम
नीलिमा जी को पढकर बहुत कडवे सच को  महसूस किया ।
दरअसल स्त्री देह पर ढाये गये
अत्याचारो के विवरण के बिना उसकी
आजादी के लिए कोई मुहावरा गढना
मुशकिल होगा ।
आदरणीय ।
निजी सम्पत्ति की अवधारणा ने अजीबोगरीब लालसा की पगडंडी बना दी ।महिला की मानसिक शारिरिक स्वतंत्रता पर ban से लगने लगे ।विवाह संस्था जिसके लिए बहुत सम्माननीय शब्द सामाजिक विकास आदि आदि कह दिए गए ।वो बहुत ही
भयावह ।भयानक जेलखाने से भी ज्यादा शापित सिद्ध हुई ।
मादा देह का वासतुकरण शायद
सबसे ज्यादा यही हुआ ।
एक विदुषी है
German griyar
और एक
साॅयसाउस
शायद ऐसा ही नाम रहा होगा ।
एक जगह इनका कहना है कि
औरत तो खुद ही न्याय पाने की कोशिश भी नही करती ।
स्री  अपने शरीर के लिए लिखे
शरीर पर लिखे गए को खुद पढे
अपने इस पाठ को अपनी खोज
मानकर चलते हुए
अपने आप सही राह पर कदम रख ले ।"
आदरणीय नीलिमा जी
आपने तो शारीरिक पक्ष को रखा ।
आकडे बताते है कि
अकेले भारत मे चुड़ैल और डायन कहकर हजारो मासूम, मेहनती, देवीतुल्य महिलाओ को पागलपन की हद से आगे धकेल दिया जाता है ।

गीतिका द्विवेदी:-
नीलिमा जी द्वारा लिखित इस लेख पर टिप्पणी  करने में मैं सक्षम नहीं हूँ।औरत होते हुए भी मुझे इन बातों का ज्ञान नहीं था।अधूरा है या पूरा लेख,मेरे लिए तो सम्पूर्ण है।सत्यनारायण पटेल जी द्वारा भेजे गए लिंक को भी पढ़ी।उस विषय पर पहले भी थोड़ा पढ़ी थी किंतु इस लिंक से भी काफी कुछ जानने को मिला।शुक्रिया बिजूका

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