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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

05 अगस्त, 2016

कहानी : रोजा क़ुबूल : सीमा व्यास

आज की इस नयी और सुहानी सुबह के साथ आइये पढ़ते हैं समूह के साथी की कहानी रोज़ा कुबूल।

कहानी को पढ़ें और चर्चा कर अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कर साथी का मार्गदर्शन करें ।

परिचय शाम तक रचनाकार के नाम के साथ जानिए ।

रोज़ा  कुबूल

इस साल मानसून ने समय से पहले ही दस्तक दे दी। पहली बारिष ने ही पूरा षहर तर-बतर कर दिया। आज भी दिन भर रूक-रूककर बारिष होती रही। सड़क पर छोटे-बड़े गडढों में पानी भर गया। गलियों में पानी का बहाव तेज हो गया। बच्चे गंदे पानी और कीचड़ से खेलने में मगन हो गए।छोटी-छोटी कागज की नावें इधर-उधर तैरती डूबती नजर आने लगी। मानो हर कोई पहली बारिष में ही अपने सारे अरमान पूरे करना चाह रहा हो।
नन्हा फ़ज़ल कारखाने की डयूटी पूरी कर घर लौट आया था। कपड़े, जूते, टोपी सब भीग गए थे। बरसाती दरवाजे पर टांग कर उसने जूते दरवाजे के सहारे खड़े कर दिए। टोपी निचोड़कर खिड़की के पल्लेे पर फैला दी। कपड़े बदलकर आया तब तक अम्मी चाय की प्याली लेकर तैयार थी। प्याली फ़ज़ल को पकड़ते हुए बोली, ”पता है नन्हे, आज चांद दिखा न तो कल से रमजान षुरू हो जाएगा। मोहल्ले में सब बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। काजी साहब इत्तला करने ही वाले होंगे मस्जिद से। षुक्र है खुदा का इस साल ठंडक रहेगी मौसम में। वरना गर्मी में तो क्या बच्चे क्या बूढ़े सब प्यास से हलकान हो जाते हैं। है न फजल ?
फ़ज़ल अम्मी की बातों के उत्तर में सिर्फ ’हंू हां’ करता रहा। उसके मन में तो आसमान के काले बादलों की तरह कई ख्याल उमड़-घुमड़ रहे थे। उसे तस्दीक करना था, सुनी हुई खबर पक्की है या नहीं। क्या कल सच में कोई कोहराम मचाने वाले हैं वो लोग ?
 यूं तो फ़ज़ल की उम्र तेरह बरस से ज्यादा नहीं थी। किंतु वक्त और हालात ने उसे अपनी उम्र से कहीं बड़ा कर दिया था। जल्दी-जल्दी चाय सुड़ककर उसने अपनी पैंट की मोरी को दो-तीन बार मोड़ा। जेब से रबर बैंड निकालकर पैरों में पहनते हुए पैंट की तहों पर चढ़ा लिए। अब न पैंट गीली होगी ना अटकेगी साइकल में। दरवाजे से टिके रबर के जूतों को उलट कर पूरा पानी निकाला। फिर तीन-चार बार झटककर पहन लिए। दरवाजे पर टंगी बरसाती को कंधों पर डाल साइकिल की ओर बढ़ा। अम्मी के पूछने से पहले ही बोला, ” किसी जरूरी काम से चैराहे तक जा रहा हूं। एक-डेढ़ घंटा भी लग सकता है। चिंता मत करना।”
कोई बच्चा नहीं समझता कि जब भी वह मां से कहकर जाता है कि चिंता मत करना, मां दुगुनी चिंता करती है उसके आने तक। बड़े होने पर भी  बच्चे समझ ही नहीं पाते की माएं ऐसा करती क्यों हैं।
बारिष षुरू होते ही लाइट का जाना तो तय रहता है। फ़ज़ल अंधेरे में छोटे-बड़े गडढों में दचके खाता चला जा रहा था। चैराहे की तरफ नहीं, बगीचे के पास वाली पुलिया की तरफ। यहीं उन लोगों के कल की साजिष तय करने की खबर मिली थी उसे।
पिछले तीन साल से अपनी दुनिया अखबार बांटता है फ़ज़ल। हर सुबह पौ फटने से पहले ही हर ग्राहक के घर अखबार पहुंचा देता है। कभी नागा नहीं। कोई छुट्टी नहीं। अपने अब्बू से यही तो सीखा था उसने। उसके प्यारे अब्बू इसी अपनी दुनिया की प्रेस में काम करते थे। वे भी बारहों महीने, तीन सौ पैंसठ दिन प्रेस जाते, कभी नागा नहीं करते। उनकी इस आदत के तो मालिक भी कायल थे। बहुत मान करते थे अब्बू का। तभी तो, जब प्रेस की मषीन में अब्बू का हाथ आया तो ताबड़तोड़ महंगे अस्पताल में उनका मुकम्मल इलाज करवाया। वो तो अब्बू ही होष आने पर अपना कटा हाथ देख गष खा गए। उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे अल्लाताला के पास चले गए।
बेचारा अम्मी। आंसू सूखते ही न थे उनके। नौ साल के फ़ज़ल को लेकर कहां जाती ? पढ़ी-लिखी भी तो नहीं थी जो कहीं नौकरी कर पाती। मालिक ने ही रहम कर प्रेस में साफ-सफाई का काम दे दिया। उनके एहसान तले दब गए अम्मी और फ़ज़ल दोनों।
बस, दस साल का ही था फ़ज़ल और उसके दिमाग में अखबार बांटने का ख्याल आया। प्रेस जाकर मालिक से बात की तो उन्होंने तुरंत हां कह दी। यह भी बताया कि उसे सुबह दो घंटे ही काम करना होगा और हर अखबार पर पंद्रह पैसे कमीषन मिलेगा। फ़ज़ल मन ही मन नन्हीं अंगुलियों पर अपनी कमाई का हिसाब लगाने लगा। पैसा कमाना इतना आसान होता है क्या ? फ़ज़ल ने हां तो कह दिया पर सुबह चार बजे अपनी गहरी नींद को सिरहाने के तकिये को सौंपने में उसे नानी याद आ जाती। अम्मी को भी बहुत रहम आता उस पर। अम्मी उसे दस बार प्यार से आवाज लगाती, हाथ में चाय की प्याली पकड़ाती तब कहीं जाकर फ़ज़ल मियां की आंखें खुलती। 
तीन साल से अखबार बांटते-बांटते अब तो आदत हो चली है जल्दी उठने की। अक्सर अम्मी से पहले ही उठ जाता है। कई ग्राहक बना लिए हैं अपने काम और व्यवहार के दम पर उसने। पर खुद्दार इतना कि अखबार केवल एक ही बेचेगा, अपनी दुनिया।
पिछले दो-तीन माह से दूसरा अखबार छपने लगा है षहर से-नई किरण। खूब एजेन्ट लगे हैं उसके प्रचार-प्रसार में। कई तो फ़ज़ल के दोस्त भी हैं। उससे भी कई बार कहा, नई किरण के ग्राहक बनाने का। कुछ अखबार भी दिए मुफ्त में अपने ग्राहकों को बांटने के लिए। कमीषन भी पंद्रह नहीं पूरे पैंतीस पैसे देने का वादा किया। एक बार तो फ़ज़ल का मन भी हो गया था नव किरण बांटने का। बहुत अंतर होता है पंद्रह और पैंतीस के बीच। हाॅकर को घर-घर अखबार पहुंचाने में कितनी परेषानी होती है कोई अखबार पढ़नेवाला नहीं जानता। उन्हें तो बस सुबह उठते ही अखबार चाहिए दरवाजे पर। सर्दी, गरमी, बारिष चाहे जो हो। अखबार की छुट्टी नहीं होना चाहिए। ऐसे में यदि कोई हमारे बारे में सोचकर दो पैसे ज्यादा दे रहा है तो लेने में क्या हर्ज है ? 
पर कुछ देर बाद ही अपनी स्वार्थी सोच पर ग्लानि हुई उसे। वह अखबार पढ़ समझ सके इतनी अक्ल नहीं है उसमें। पर इतना जानता है कि इस षहर के लोग अपनी दुनिया अखबार के आदी हैं। जिस तरह कुछ लोग चाय या चावल की किसी एक किस्म के षौकीन होते हैं, बस कुछ उसी तरह।
उसने एजेन्ट की दी हुई नव किरण की सारी प्रतियां अम्मी को दे दी चूल्हे में जलाने के लिए। मन ही मन कहा, नमक हराम नहीं है फ़ज़ल। बेचेगा तो सिर्फ एक अखबार - अपनी दुनिया।
बहुत हाथ-पैर मारे नए एजेन्टों ने। पर ग्राहकों का मन नहीं मोड़ पाए। हार बर्दाष्त नहीं हुई तो वे नीचता पर उतर आए। फ़ज़ल को उड़ती-उड़ती खबर लगी थी कि आज नव किरण के एजेन्ट रात आठ बजे पुलिया के पास इकट्टा होकर कुछ योजना बनाएंगे। कल से अपनी दुनिया को दिखने नहीं देंगे षहर में। जरूर कोई बड़ी घटना होनेवाली है अपनी दुनिया के हाॅकरों के साथ। आखिर क्या होगी वह योजना, इस खबर की तस्दीक करने फ़ज़ल चल पड़ा था पुलिया की ओर।
पुलिया के आसपास अंधेरा था। इक्का दुक्का लोग आ जा रहे थे। बारिष अभी थमी हुई थी। फ़ज़ल ने पुलिया से कुछ पहले साइकिल खड़ी की। चेन ठीक करने के बहाने नीचे पैडल के पास बैठ गया। ताकि वाहनों की हेडलाइट में भी किसी को षक न हो। तय समय के मुताबिक तीन-चार लड़के आए। कुछ देर में ही वे सात-आठ हो गए। फ़ज़ल उनकी बांतें सुनने की कोषिष कर रहा था। वे बीच-बीच में अपनी दुनिया के मालिक को गालियां भी दे रहे थे। तब खून खौल जाता फ़ज़ल का। आखिर टुकड़ों -टुकड़ों में ही फ़ज़ल उनकी साजिष भांप गया। तय हुआ था कल सभी हाॅकरों से अखबार छीनकर जला देंगे वे सारी प्रतियां। जब बाजार में पसंदीदा अखबार रहेगा ही नही ंतो लोग मजबूरन नई किरण को लेंगे। रिमझिम बारिष षुरू हो गई थी। फजल का दिमाग भी तेजी से चलने लगा था।  फ़ज़ल बिना आहट किए कुछ दूर साइकिल हाथ में लेकर गया। फिर तेजी से पैडल मारते हुए कोतवाली पहुंचा। यहां उसके मुंहबोले मामूजान काम करते हैं। उनका ओहदा क्या है यह तो नहीं जानता फजल, पर इतना जानता है कि वे वर्दी पहनते हैं और गलत काम करने वालों को थाने में बंद भी कर देते हैं। 
अंधेरे से घिरा था कोतवाली का इलाका भी। चिमनी की हल्की रोषनी में मामू के पास जाकर पानी से तरबतर फजल ने जल्दी-जल्दी सारी बात बता दी। मामू ने कुछ प्रष्न  पूछकर खबर की तसल्ली की। फिर उसे रोज की तरह कल भी अपना काम करने की हिदायत दी। बाहर छोड़ने भी आए और उसकी पेषानी चूमते हुए कहा,” संभलकर जाना मेरे बच्चे। और हां अम्मी को सलाम कहना मेरा।”
अम्मी बहुत देर से थाली लगाकर इंतजार कर रही थी। फ़ज़ल ने बेमन से कुछ निवाले जल्दी-जल्दी खाए। बिस्तर पर गया तो नींद कोसों दूर थी। करवट बदलते हुए कल की विपदा से बचने की तरकीब सोचने लगा। हांलाकि अपने मामू पर भरोसा था उसे। पर वह भी खाली नहीं बैठने वाला था। 
कुछ ख्याल आते ही अचानक उठा और कोने में पड़े रद्दी अखबारों को सलीके से जमाने लगा। अखबारों का बड़ा सा गट्ठर बनाकर उस पर अपनी बरसाती लपेट दी। आवाज से अम्मी जाग गई। पूछा, ”इत्ती रात को क्या कर रहा है नन्हें ? सोता क्योें नहीं ? सुबह नींद नहीं खुलेगी तेरी।”
” अम्मी एक जोड़ी कपड़े रख रहा था। भीग जाएं तो बदलने के लिए। बस सोने जा ही रहा हूं।” गट्ठर को देख मन ही मन खुष होते हुए फ़ज़ल बोला।फिर इत्मीनान से लेटा। अब भी नींद कहां थी उसकी आंखों में । सुबह रोज की तरह अम्मी चाय लेकर उठाने आई तो फ़ज़ल चैंक गया ,”आज तो पहला रोज़ा है न अम्मी ? तो फिर सहरी के लिए भी कुछ दो न साथ में ?” 
”ना फ़ज़ल तू कैसे रख पाएगा रोज़ा ? अभी ही तो बीमारी से उठा है। फिर सुबह अखबार बांटना और दिन भर कारखाने में हाड़-तोड़ मेहनत। ना बेटा। मैं रख रही हूं ना तेरी सलामती के लिए रोजे़। वैसे भी अल्लाताला तेरे जैसे नेक दिल इंसान पर मेहरबान रहते हैं। तू रहने दे।” अम्मी ने मन की बात रखी। 
”नहीं अम्मी, आज का रोज़ा तो बहुत खास है मेरे लिए। आज तो अल्ला ताला को साथ रखना है मुझे। कोई खास और नेक काम करना है आज। आप तो बस दुआ करना मेरे लिए।” अम्मी के दोनों कंधों को पकड़ते हुए फ़ज़ल बोला। सहरी देते समय लाख पूछा अम्मी ने। पर फ़ज़ल ने कुछ न बताया उस खास काम के बारे में। 
साढ़े चार बज रहे होंगे। फ़ज़ल अखबार लेने पहुंचा। अपने अखबार गिनकर बांधे। फिर उन्हें वहीं कोने में रखकर देने वाले बाबूजी से कहा, ”ये अखबार यहीं रहने देना। मैं कुछ देर में आकर ले जाऊंगा इन्हें ।” और वह रात में तैयार किया गट्ठर झोले में डाल चल दिया। उसका षक सही निकला। कुछ देर जाते ही अंधेरे में से निकली दो आकृतियों ने उसे धक्का देकर साइकिल से गिरा दिया। धमकाकर सारे अखबार ले लिए। गंदी गालियां भी दीं। 
फ़ज़ल  डरा नहीं बल्कि मन ही मन अपनी कामयाबी पर मुस्कुराया। क्या करेंगे ? जलाएंगे ? फाड़ेंगे ? जो करना हो करें। पुराने अखबारों को वेसे भी कौन पढ़ता ?
फ़ज़र की नमाज़ का वक्त हो रहा था। फ़ज़ल ने हैंडल का रूख मस्जिद की ओर कर दिया। ष्षरीर से तो वह मस्जिद में था पर मन नमाज़ पढ़ने में नहीं लग रहा था। ख्याल आ रहे थे अपनी कामयाबी के, दुष्मनों की हार के। नमाज़ खत्म होते ही उसने तहे दिल से अल्लाह से माफी मांगी। दिल से नमाज न पढ़ पाने के लिए। 
बाहर हल्का उजाला फैलने लगा था। घरों के बाहर निकलकर लोग बात कर रहे थे,। किसी ने कहा, ” बहुत बुरा किया नए अखबार के एजेन्टों ने। बेचारे हाॅकरों से अखबार छीना।”  कोई बता रहा था, ”वो तो अपनी दुनिया के मालिक की किस्मत अच्छी थी किसी बच्चे ने पुलिस को खबर कर दी। और सादी वर्दी में तैनात पुलिसवालों ने समय रहते पकड़ लिया उन्हें। नहीं जला पाए वे अखबार।” तीसरे कहा, ” अब कौन पढ़ेगा इतनी गिरी हरकत करनेवालों का अखबार ? थू-थू होगी अब पूरे षहर में। कोई माने या न माने इस षहर में तो अपनी दुनिया का ही राज चलेगा।”
लोगों की बातें सुनते हुए, सड़क पर छपक-छपक की आवाज़ करते फजल तेजी से साइकल चलाते हुए प्रेस तक गया। अपना गट्ठर उठाया। आज अखबार बांटने में अजीब सा उत्साह था उसमें। खट...खट किसी के आंगन में तो कहीं तीसरी मंजिल तक। सधे हाथों से अखबार फेंक रहा था फ़ज़ल। हर अखबार के रूप में वह अपनी दुनिया के मालिक के एहसानों को उतार रहा था।  और उसका मन कह रहा था , आज अल्लाताला ने कर लिया है उसका रोज़ा कुबूल।

नाम : सीमा व्यास     
          
शिक्षा :स्नातकोत्तर (हिन्दी, समाजशास्त्र )      ।     

प्रकाशन  :कहानी संग्रह क्षितिज की ओर ।

राष्ट्रीय स्तर के पत्र -पत्रिकाओं में 300 आलेख व कहानियों का प्रकाशन सोद्देष्य साहित्य की 42 पुस्तिकाओं का प्रकाशन ।
           
आकाशवाणी द्वारा रूपक,कहानियों व नाटकों का प्रसारण

तीन स्क्रिप्ट पर लघु फिल्मों का निर्माण
         
किशोर-किशोरियों हेतु विशेष लेखन व उस पर फिल्म निर्माण।
- किसान चेनल पर प्रसारित धारावाहिक ‘ हंसता गाता, गांव हमारा में स्क्रिप्ट लेखन सहयोग। 

पुरस्कार : साक्षरता निकेतन, उत्तर प्रदेश द्वारा दो कहानियाँ
पुरस्कृत

सम्प्रति :  कार्यक्रम अधिकारी राज्य संसाधन केन्द्र,इंदौर

प्रस्तुति-बिजूका समूह

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टिप्पणियां:-

पल्लवी प्रसाद:-
हॉकरों पर हमला कहाँ तक लाभदायक हो सकता है ? लेकिन कहानी उम्दा है । सादगी भरा प्यारा कथन । फज़ल, यादगार ।

आशीष मेहता:-
सीमा जी की उम्दा कहानी पेश करने के लिए धन्यवाद।

कहानी मानवीय स्वभाव /मूल्यों को बखूबी समेटे, सरल बहाव के साथ पाठक को साथ ले लेती है। कठिन परिस्थितियों में किशोरवय व्यक्तित्व का सुन्दर चित्रण।

मैं खुद दैनिक 'नईदुनिया' से आत्मीय रिश्ता जीता हूँ, सो मेरा कहानी के साथ जुड़ाव और सहज हो उठा ।

समूह पर अक्सर रचनाएँ (खास तौर पर कविताएँ) व्यवस्था, वाम, अवाम  पर केन्द्रित होती हैं, सो ऐसी हल्की फुल्की 'बाल सुलभ' रचनाएँ, विशेष आकर्षण रखतीं हैं ।

पिछले दो दिनों, कविताएँ पढ़ने पर एक ख्याल आया कि क्या अभिजात्य वर्ग से भी सुन्दर कविताएँ उपजतीं हैं? अगर हाँ, तो क्या समूह पर साझा होती/ हो सकती हैं।

अपने आप को 'ईश्वरवादी' भी नहीं पाता, और पूरे भरोसे से नकार भी नहीं सकता। पर, फ़ज़ल का रोज़ा रखने का कारण और फिर अल्लाताला से माफी माँगने का कारण घणा रास आया।

तितिक्षा:-
आशीष जी प्रतिक्रिया देने के लिए बहुत आभार।
और आपकी या किसी अन्य साथी की रचनाएँ जो आप भेजना चाहते है वो समूह के मेल पर भेज दें।

आशीष मेहता:-
मेरे मन्तव्य कुछ इस तरह जाहिर हुआ है तो खेद है। मैं रचनाकार भी नहीं हूँ, 'बिजूका' / नईदुनिया के अलावा कुछ पढ़ता भी नहीं हूँ। इस अनभिज्ञ / अराजनैतिक सदस्य से हुई किसी भी असुविधा के लिए क्षमा।

डॉ सुधा त्रिवेदी:-
बहुत अच्छी कहानी । भाषा में प्रवाह और बड़ी सहजता जिसके कारण लंबी होने के बावजूद पढ़ते समय ऊब नहीं होती ।
अच्छी कहानी के लिए लेखक को बधाई। बिजूका का आभार्।

विनोद राही:-
कहानी सुंदर बन पड़ी है| भाषा प्रवाह सरस व सरल है| मैं लिखता तो अंत की एक दो पंक्तियाों में फेरबदल करता|

सीमा व्यास:-
बहुत आभार तितिक्षा जी,  मेरी कहानी समूह में साझा करने के लिए । सभी साथियों का भी धन्यवाद '  रोज़ा कबूल ' को पढ़ने और प्रतिक्रिया देने के लिए ।

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