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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

03 दिसंबर, 2017

एम. हनीफ मदार की कहानी: मैं भी आती हूं 

हरिया पेड़ के नीचे बैठा एकटक खेत में चलती जे सी बी को देख रहा था। पेड़ की डालियां हवा में लगातार झूम रही थीं लेकिन नीचे बैठा हरिया तनिक भी हिलडुल नहीं रहा था। न जाने क्यों उसे ऐसा लग रहा था जैसे मशीन के लोहे के मजबूत पैर उसकी छाती पर जमे हैं।

एम.हनीफ मदार

और वह अपने पंजे गढ़ा-गढ़ा कर खेत से मिट्टी नहीं उसकी आत्मा को निकाल रही है और वह चीख भी नहीं पा रहा है जैसे वह मन मसोस कर किसी कैन्सर के दर्द को सहन करने का प्रयास कर रहा है। वहीं बैठे बैठे खेत के चारों ओर की मेंढ़ों पर लगे पॅापूलर के पेड़ों पर नजर पड़ते ही उसकी आंखों की चमक बढ़ गई। उसे हवा में झूमते पेड़ ऐसे जान पड़े जैसे वे सब अपने बंधन तोड़ देना चाहते हैं और अगले ही पल वे सब मुक्त हो कर दौड़ पड़ेंगे उसे बचाने को। पिछले पांच दिनों से वह इसी नीम के पेड़ के नीचे आ बैठता है। यह पेड़ उसके बाबूजी ने यहां लगाया था तभी उसने ख़ुद अपने हाथों से यह बाकी के सब पेड़ लगाये थे और अपने बच्चों की तरह इनकी देखभाल भी की थी। तभी तो एक दिन बाबूजी ने उसकी पीठ थपथपाई थी और कहा था ‘‘हरिया तूने तो कमाल कर दिया हमें तो लगता था कि यहां यह पेड़ होंगे ही नहीं।’’
‘‘बाबूजी यह पेड़ नहीं मेरे बच्चे हैं।’’ कितनी मासूमियत से हरिया ने जवाब दिया था। उसकी इस मासूमियत पर बाबूजी भी मुस्करा पड़े थे।
पेड़ के नीचे बैठे हरिया को अब बड़े हो चुके यही पेड़ वास्तव में बेटा बेटी नज़र आ रहे थे जो उसे बचाने को हाथ पैर पटक रहे हों। हिम्मत पाकर उसने एक लम्बी सांस भरी। शरीर की इस हरकत से उसकी तन्द्रा टूट गई जैसे वह मशीन के चंगुल से मुक्त हुआ हो। वहीं बैठे-बैठे उसने पहलू बदला। आसमान में सूरज ढलान के रास्ते पर आ चुका था। पेड़ों की छाया अपनी जड़ें छोड़ने लगी थी। हरिया को भी भूख लगने लगी थी। उसने पास रखी पोटली खोली जिसमें रोटियां बंधी थीं। खेतों के चारों ओर नज़र डालते हुए ठीक वैसे ही खाने लगा जैसे रोटी खाकर अभी उठेगा और आलुओं में खाद फैलाने लगेगा।
हरिया ने जब से होश संभाला है इसी पेड़ के नीचे बैठ कर उसने रोटी खाई है। शादी के कुछ दिन बाद, मां के लम्बी बीमारी से गुजरने के बाद, उसकी पत्नी रोटी लेकर खेत पर आती थी तो वह खेत के उस कोने से सब पेड़ों को छोड़कर इसी नीम के नीचे आकर रोटी खाने बैठता था। उसकी पत्नी समझती थी कि मुझे ज़्यादा न चलना पड़े इस लिए दौड़कर इस कोने पर आ जाते हैं रोटी खाने । लेकिन एक दिन हरिया खेत के ठीक उस कोने पर सरसों में पानी लगा रहा था। सरोज यह सोच कर कि, उधर से इधर दौड़ेंगे तो और थक जाएंगे रोटी लेकर वहीं पहुंच गई। लेकिन हरिया रोटी लेकर उसी पेड़ के नीचे आने लगा तो सरोज रास्ते भर खिसियानी बिल्ली सी पीछे-पीछे चलती रही। और उसने धम्म से बैठते हुए पूछा ‘‘इस पेड़ में ऐसे क्या लाल लटके हैं …. जो इसके अलावा किसी पेड़ के नीचे तुम्हारी रोटी हजम नहीं होती ?’’ कहते हुए सरोज की दोनों भंवें आपस में मिल गईं थीं । पहले तो हरिया उसका चेहरा देखकर जोर से हंसा तो सरोज और खिसियानी सी हो गई। हरिया मुस्कराते हुए बताने लगा ‘‘यह पेड़ मेरे पिताजी ने लगाया था। जब मैं बड़ा हुआ तो हम दोनों यहीं बैठकर रोटी खाते थे……. आज भी लगता जैसे पिताजी साथ में खा रहे हैं।’’

के रवीन्द्र

‘‘अब तुम्हारे पिताजी तो रहे नहीं, फिर भी पूरा खेत पार कर के यहीं रोटी खाते हो, पेड़ तो सब पेड़ हैं किसी के नीचे बैठकर खा लो …….?’’
’’तू नहीें समझेगी ……. इस पेड़ की छाया मुझे ऐसी लगती है जैसे इस धूप में पिताजी ख़ुद मेरे सिर पर हाथ फैलाए खड़े हैं।’’ कहते हुए हरिया ठंडी सांसों से भर उठता था।
पत्नी चंचल हो उठती ‘‘मुझे कुछ नहीं समझना है।’’ कहते हुए हरिया के गले में बांहें डाल देती। हरिया उसे झिड़क देता ‘‘पागल हो गई है बाबूजी आ रहे होंगे।’’
‘‘हूं ….. तुम्हारे बाबूजी …..।’’ पत्नी तिलमिला कर सुर्ख हो जाती और मुंह फेर कर बैठ जाती। एक दिन तो हरिया की पत्नी ने हरिया को बातों ही बातों में चूम लिया। हरिया शर्म से लाल पढ़ गया वह पत्नी से कुछ न कह सका, बघुआया सा इधर-उधर देखने लगा कि कहीं किसी ने देख न लिया हो। उसकी पत्नी उसकी इस हालत पर खिलखिला कर लगातार हंसे जा रही थी।
‘‘किसी ने नहीं देखा बुद्धू डरपोक ….. इस दोपहरी में कौन बाहर निकलेगा हमें देखने को ……?’’ हरिया की पत्नी ने दुहरे होते हुए कहा।
‘‘क्यों, टट्टी पेशाब पर किसी का वश चलता है कोई बैठा हो इधर-उधर …..?’’ हरिया ने आंख निकालीं थीं।
‘‘देख ले तो कौन-सा पाप कर दिया हमने …..?’’ कहते हुए उसकी पत्नी शरमाई-सी सहमते हुए बोली और उसने हाथों की अंगुलियों से खेत की रेत में छोटे-छोटे गड्ढे बना दिए थे।
‘‘तू कल से रोटी लेकर मत आना। मैं सुबह साथ ही ले आया करूंगा …..।’’ हरिया ने उसे डांटते हुए घर भेज दिया था। तब से हरिया सुबह ही कपड़े में रोटी बांध लाता है।
हरिया ने रोटी का पहला निवाला तोड़ा ही था कि खेत के किनारे सड़क पर कार रुकते देख उसकी आंखें किसी बाघ की तरह ऐसे चमकने लगीं जैसे पिछले पांच दिनों से वह इसी के इन्तज़ार में आ बैठता है। हरिया कार को पहचान गया था यह वही कार है जो उस दिन बाबूजी की कार के साथ आई थी …….।
हरिया खेत के दूसरे कोने से दौड़कर बाबूजी के सामने हाथ जोड़कर आ खड़ा हुआ था। बाबूजी के साथ दूसरी कार में आये लोगों को देखकर हरिया तनिक भी असहज नहीं हुआ था बल्कि भीतर ही भीतर प्रफुल्लित हो रहा था। असल में बाबूजी के साथ यकलख़्ता जब भी कोई मिलने या खेत देखने आता तो हरिया इसी तरह दौड़कर उनके पास आ खड़ा होता था। जल्दी से ट्यूबवैल की कोठरी से चारपाई निकाल देता। यह बात उसे उसके पिताजी ने ही सिखाई थी। बाबूजी साथ आये लोगों के साथ बैठते हुए हरिया को शाबाशी देते कहते थे ‘‘यही है इन खेतों का मालिक। इसी की देख-भाल में सब कुछ हो रहा है।’’ जब इन शब्दों से बाबूजी हरिया की तारीफ करते और साथ आए लोग भी उसे शाबाशी देते तो वह गर्व से फूल जाता था। उसे लगता ही नहीं था कि वह खेत का मालिक नहीं नौकर है।
उस दिन भी हरिया ऐसा ही सोच कर मन ही मन खुश होते हुए चारपाई निकाल लाया था लेकिन बाबूजी उन लोगों के साथ बात-चीतों में ऐसे मशगूल थे कि उन्हें हरिया का ध्यान ही नहीं रहा। वे किसी तहसील और कचहरी की बातें कर रहे थे। हरिया को यह सब कुछ अटपटा भी लगा लेकिन उसने सोचा कोई ज़्यादा जरूरी बात होगी इसलिए ध्यान नहीं रहा है। उसने बाबूजी का ध्यान अपनी ओर दिलाने को साहस करके बीच में छेड़ा ‘‘बाबूजी …….वो ….. आलू ….. आलू का बीज नहीं आया है आप ख़बर कर देते तो …. ?’’ और नज़रें बचाकर इधर-उधर ऐसे देखने लगा जैसे कुछ खोज रहा हो लेकिन उसकी मंशा पूरी हो गई बाबूजी का ध्यान हरिया पर हो गया ‘‘हां…… आलू अब मंगवा नहीं रहे हैं, इसलिए मैंने ही मना कर दिया है।’’ कह कर बाबूजी तो साथ आए लोगों के साथ बातों में फिर जुट गये। हरिया सुन कर उछल पड़ा ‘‘तो कल क्या करूंगा…….? और आलू भी तो पिछैता हो जाएगा !’’ हरिया का विचलन बाहर आ गया था।
‘‘अरे अब कैसा अगाया और पिछाया जब करना ही नहीं तो …..।’’ मुस्कराते हुए कह कर बाबूजी और साथ आये लोग हंस पड़े थे। हरिया को लगा आपस में मज़ाक कर रहे हैं या हमसे कोई भूल हो गई है तभी तो आज हमारी तारीफ नहीं की है फिर भी उसने हिम्मत कर के पूछ ही लिया ‘‘क्यों …. बाबूजी …..?’’
‘‘अरे जब खेत ही नहीं रहेगा तो खेती कैसे होगी …..?’’ बाबूजी फिर हंसे ‘‘और हां तू भी अब कुछ और काम तलाश ले ….. क्यों कि यह खेत हमने बेच दिया है।’’
सुनते ही हरिया ऐसे छटपटाया जैसे बाबूजी ने उसके सिर पर कोई भारी पत्थर दे मारा हो। जैसे उसके पेट में चाकू मार दिया हो। हरिया चीखने को था लेकिन न जाने कैसे उसकी आवाज़ ही नहीं निकली। पल भर पहले उसके चमकते चेहरे पर एक साथ मनों मिट्टी की परत चढ़ गई। उसे काटो तो खून नहीं। बाबूजी और साथ आये लोग बेपरवाही से खेत में घूमने लगे थे। हरिया की जैसे जड़ें मिट्टी में वहीं के वहीं इतनी गहरी समा गई कि वह हिल भी नहीं पा रहा था। पल भर में ही उसके भविष्य के तमाम सपने किसी रेत की तरह उड़ने लगे थे। अचानक उसे कुछ याद आया तो उसने पूरी ताक़त लगाकर अपने पैर ज़मीन से उखाड़े और लगभग घिसटता हुआ-सा बाबूजी के पास तक पहुंचा।
‘‘लेकिन ….. बाबूजी …. मुझसे भी …..?’’ कराहता हुआ सा वह कहने को था कि मुझसे भी तो पूछ लेते …..। लेकिन वह पूरी बात कह पाता उससे पहले ही बाबूजी उसे अनदेखा कर साथ आये लोगों की बातों में फिर व्यस्त हो गये थे। यह देखकर हरिया के शब्द गले में ही कहीं गांठ बनकर अटक गये थे। इस एक पल ने उसे सिखा दिया था कि वह इन्सान नहीं रईसों का एक सस्ता खिलौना है जिसे जब तक जी चाहा खेला फिर बिना सोचे समझे फेंक दिया। उसकी नियति मालिक को खुश करना ही है उसके दिल से जुड़ना नहीं।
बाबूजी चलने लगे तो उसने बड़ी हिम्मत के साथ कुछ याद दिलाना चाहा ‘‘बाबूजी …..!’’ बाबूजी के सामने अक्सर चहकने बाला हरिया उस दिन एक बार में बस इतना ही कह पाया था कि उसके पैर कांपने लगे थे।
‘‘हां बोल बेटा ….?’’ बाबूजी के शब्द अब भी मिश्री में डूबे थे ‘‘बता बता, क्या बात है ……?’’
‘‘बाबूजी …. वो …… वो आपने कहा था कि इसी खेत के किसी कोने में तुझे थोड़ी जगह दे दूंगा ……?’’ इतना कहने में हरिया ने कई बार सांस ली थी जैसे पूरे शरीर की ताकत इकट्ठी करता रहा हो।
‘‘आ ….. अच्छा …. अच्छा …..।’’ बाबूजी को वे शब्द याद आए थे जो उन्होंने हरिया के बाउ से मरते समय कहे थे।
श्यामा घर में लम्बी-लम्बी सांसें ले रहा था। बाबूजी देखने आये थे। श्यामा उठकर बैठना चाहता था लेकिन उठ नहीं सका था। श्यामा की आंखों से आंसू निकल रहे थे तब बाबूजी ने पूछा था ‘‘क्यों परेशान है श्यामा ….?’’
‘‘बाबूजी ….! हरिया का ब्याह भी हो गया …. लेकिन इसके लिए एक छोटे से घर का जुगाड़ नहीं कर पाया। किराये का घर बूढ़े शरीर की तरह है न जाने कब खाली करना पड़े … बाबूजी इसने तो इस शहर में इन खेतों के अलावा कुछ देखा भी नहीें है …..?’’ श्यामा न जाने क्या कहते कहते रुक गया था। तब बाबूजी ने श्यामा की पीठ थपकी थी ‘‘हरिया केवल तेरा ही बेटा है श्यामा ….. मेरा कुछ नहीं है क्या …..? सब जुगाड़ होगा और फिर न मैं कही जा रहा और न ये खेत फिर क्यों परेशान होता है ? इसी खेत में से किसी कोने पर इसे थोड़ी सी जगह दे दूंगा, जिससे इसके रहने का जुगाड़ बन जायेगा। तू इसकी चिन्ता छोड़ और आराम कर ठीक हो जायेगा।’’ श्यामा शायद बाबूजी के पांव पकड़ लेता लेकिन वह उठ नहीं पाया था सो केवल हाथ जोड़ कर रो पड़ा था तब श्यामा की आंखों से आंसू नहीं उसकी बेवशी आंखों से बहकर दोनों कानों तक जा रही थी। बाबूजी वापस आ गये थे।
हरिया के बाउ के मरने के कुछ दिन बाद ही बाबूजी ने हरिया से कहा था ‘‘बेटा शहर में रह कर कुछ करना है तो फिजूल खर्ची से बचे रहना। मेरी तो एक सलाह है कि खाने-पीने के लायक मुझसे पैसे ले लिया कर …. बाकी ….. मैंने सोच रखा है कि जब घर बनाए तब इकट्ठे ले लेना तेरे काम आयेंगे।’’
‘‘बाबूजी आप जैसे चाहें, अब आप ही तो हैं आपके अलावा मैंने तो कुछ देखा ही नहीं जो कुछ सोचूं और कहूं …..।’’ उसके बाद से आज तक बाबूजी जो देते रहे हरिया उसी में जैसे भी हो सका अपना पेट भरता रहा। इसी लालच में कि चलो बच्चे होंगे तब तक बाबूजी घर तो बनवा ही देंगे।
बाबूजी ने मुस्कराते हुए साथ के लोगों से कहा था ‘‘भाई इसको किसी कोने में रहने लायक जगह दे देना ….. इसके बाप ने हमारी बड़ी सेवा की है।’’ कहते हुए बाबूजी की मुस्कान कुछ अजीब सी हो गई थी। उन लोगों ने भी ‘‘ठीक है’’ कहा और चले गए थे।

महावीर वर्मा

हरिया तब तो संतोष से भर गया था किन्तु दूसरे ही दिन जब हरिया ने उन लोगों से खेत पर पूछा था कि ‘‘साहब मेरी जगह कहां है ?’’ हरिया इतना ही कह पाया था कि उन लोगों ने उसे मां-बहन की गन्दी गालियां देकर भगाया था। तब से हरिया इन लोगों से खार खाए बैठा है।
कार रुकती देखते ही हरिया किसी शिकारी चीते की भांति उठ खड़ा हुआ। उसके दोनों हाथों की मुट्ठियां कुछ इस तरह कसमसाने लगीं कि उसके हाथों की मांसपेशियों में भी जकड़न होने लगी। सफ़ेद झक कुर्ता-पायजामा में कार से वही आदमी उतरा जो उस दिन बाबूजी के साथ आया था। न जाने मन में क्या ठानकर हरिया आगे बढ़ता कि तभी कार में से दो बन्दूकधारी भी उतरे। इन हट्टे-कट्टे शक्ल से ही डरावने दिखते लोगों के हाथों में बन्दूकें देखकर हरिया सहमकर ठिठक गया। उसके हाथों की कसावट ढीली पड़ने लगी। हरिया ने ऊपर पेड़ पर नज़र डाली जो अब भी मस्ती में झूम रहा था। जैसे वह उसके बाल सहलाना चाहता है। दोनों बन्दूकधारियों के साथ उस आदमी को अपनी तरफ बढ़ता देख बिना कुछ सोचे समझे हरिया चुपके से घर की ओर खिसक गया।
घर जाते हुए न जाने हरिया को ऐसा क्यों लग रहा था कि पीछे से कोई उस पर गोली चला देगा। बड़े लोग हैं इनका कोई क्या बिगाड़ लेगा। यह सोचते ही वह तेज-तेज कदमों से चलने लगता। ‘मैंने उनका क्या बिगाड़ा है जो मेरे साथ …..?’ मन में ऐसे ख्याल आते ही उसकी चाल धीमी हो जाती। इसी उधेड़-बुन में घर पहुंचते-पहुंचते वह इतना थक गया कि उसके पैर किसी शराबी की तरह यहां वहां पड़ने लगे। फिर भी वह साहस करके घर में किसी से बिना कुछ कहे सुने छत पर ऐसी जगह जा कर बैठ गया जहां से खेत और खेत में खड़े नीम के पेड़ को आसानी से देख सके।
शाम होते सूरज की लालिमा से नीम के पेड़ पर निकलती छोटी-छोटी कोंपलें गहरी नारंगी हो चली थीं। खेत में मशीन अब भी अपना काम कर रही थी। किन्तु उसकी धड़धड़ाती आवाज़ उसके पास पहुंचकर उसे बेचैन नहीं कर पा रही थी। हरिया को नीम के पेड़ पर चमकती किल्लियां खिलते हुए नारंगी फूल-सी दिख रहीं थीं। इन्हें देखकर हरिया बड़ा सुकून महसूस कर रहा था जैसे उसे किसी ने अपनी गोद में लेकर उसके बालों को सहलाना शुरू कर दिया हो, इस आनन्द में ही उसकी आंखें मिचने लगीं। उसे आज अपने बाउ की बहुत याद आने लगी थी। वह बाउ की हर बात को दुहरा लेना चाहता था।
जब से उसने होश संभाला और देखना शुरू किया तो अपने बाउ को इसी खेत की मिट्टी में मिले हुए देखा। पास के स्कूल में भी उसका नाम श्यामा से कहकर बाबूजी ने ही लिखवाया था। यह बात भी े उसके बाउ ने ही उसे बताई थी। दरअसल उसे स्कूल इन्टरवल तक ही सुहाता रहा। उसका इतना समय भी स्कूल की रसोई में बड़े-बड़े बर्तनों की आवाज के सहारे कट जाता था। जहां दलिया खाने को मिला कि सीधे खेत में। नीम के नीचे मिट्टी में पैर रख कर उस पर लगभग गीली-सी मिट्टी चढ़ाकर थपकना फिर धीरे से पैर निकालना। उस अजीब तरह की बनी खोली को वह अपना घर कहता। ‘‘बाउ देखो घर बन गया …..।’’ बाउ वहीं से कह देते ‘‘ठीक है तू देख मैं पहले काम कर लूं फिर देखूंगा।’’ वह जिद करता ‘‘अभी आकर देखो ….. फिर टूट जायेगा।’’ जैसे वह यह समझने लगा था कि हमारे घर टूटने या बिखरने को ही बनते हैं। बाउ विवश होकर घुटने तक कीचड़ में सने पैरों के साथ बाहर आते और देख कर उसकी पीठ थपथपाते जैसे उसने वह सपना पूरा कर दिया हो जिसे वे वर्ष से देखते आ रहे हैं।
हरिया को लगा उसके बाउ उसकी पीठ थपथपा रहे हैं। उसने हकबका कर आंख खोली। सुनीता उसके पास बैठी उसे जगा रही थी। पत्नी को सामने देखकर हरिया सकपका कर निःसहाय सी नजरों से सुनीता को ताकने लगा। पिछले पांच दिनों से वह सुनीता को रोज ही कहकर जाता रहा है कि आज शाम को आकर तुम्हें जरूर बता दूंगा कि हमें कोन-सी जगह मिली है। फिर पूरे खेत में लगाये अपने पेड़ पौधों को अपनी जगह में फिर से उगा लूंगा। जबकि सुनीता पहले दिन से ही कहती रही है ‘‘कुछ और काम तलाश लो वहां तुम्हें कुछ नहीं मिलने वाला। अब वहां तुम्हारे बाबूजी का कुछ नहीं रहा।’’
हरिया को लगा सुनीता अब भी यही सब कहेगी इसलिए वह पत्नी के कुछ बोलने से पहले ही कह उठा ‘‘मैं हिम्मत नहीं हारुंगा ….. सुनीता! मैं, …. मैं कल बाबूजी के पास जाऊंगा …. जब वे कहकर गए हैं तो वह क्यों नहीं देगा हमारी जगह ?’’ कहते-कहते हरिया के होंठ थरथराने लगे। सुनीता समझ गई कि उसका पति आज पूरी तरह हार गया है लेकिन वह अपने बाबूजी पर किये गये विश्वास के टूटने के डर से बस लड़ रहा है। सुनीता पर हरिया की यह हालत देखी नहीं गई। उसने बिना कुछ बोले ही हरिया के लगभग कांपते बदन को पूरी तरह से अपनी बांहों में समेट लिया। हरिया के दिनभर का मानसिक तनाव सुनीता के आंचल में पिघलकर आंखों से बह निकला।
‘‘तुम्हीं पागल हुए हो ….. मैं तो मना करती हूं।’’ सुनीता ने धीरे से कहा। हरिया कुछ नहीं बोला उसके दिमाग में तो कुछ और ही चल रहा था। उसे अपने बाउ की वे बातें याद आ रही थीं जो उन्होंने मरते समय हरिया से कहीं थीं। ‘‘बेटा सुभाष बाबू का साथ मत छोड़ना। इस परदेस में सिर्फ वे ही तो अपने हैं। यह शहर है। यहां पड़ोसी-पड़ोसी को नहीं जानता। कुछ और नहीं तो, वे अपने गांव के तो हैं। उन्हीं के बल पर हमने अपनी पूरी जि़न्दगी काट दी। वे ही हमें लेकर आए थे गांव से और फिर उन्होंने कह भी दिया है इसी खेत में से थोड़ी जगह हमें देने की। सुभाष बाबू वचन के बड़े पक्के आदमी हैं। गांव भर में इसी लिए उनकी इतनी इज़्ज़त थी। बेटा सुभाष बाबू का साथ मत छोड़ना ….. ।’’ कहते कहते उनकी दोनों आंखों से दो बूंद इधर-उधर लुढ़क गईं थीं। फिर वे कभी नहीं बोले।
उसकी समझ से अभी तक यह बात बाहर थी कि आखिर हमने बाबूजी को कहां छोड़ा है बल्कि खुद उन्होंने ही हमें अपने से दूर कर दिया खेत किसी और को दे कर। उसे बाबूजी पर गुस्सा आने लगा कि आखिर उनके पास क्या कमी थी जो यह खेत बेच दिया। क्या करेंगे वे इतने रुपयों का, खानी तो आखिर दो रोटी ही हैं। उसका मन तो हो रहा था कि अभी जाकर पूछे बाबूजी को कि यह खेत आखिर आपको क्या नुकसान दे रहा था। खुद ही तो कहते थे ‘अगर पेड़-रुख नहीं रहे हरिया तो यह धरती एक दिन मिट जाएगी। और अब खुद ही उसको बेचकर …..?’ लेकिन न जाने क्या सोच कर हरिया रह गया। हां इतना तो उसने जरूर तय कर लिया था कि सुबह उनके पास जाऊंगा जरूर।
इसी उधेड़-बुन में हरिया को नींद नहीं आ रही थी। बस सुबह होने का इन्तज़ार था। उसे बार-बार करवट बदलता देखकर उसकी पत्नी की आंख खुल गई। उसने मुड़कर देखा वास्तव में हरिया जाग रहा था।
वह उठ कर बैठ गई उसे देख हरिया भी उठ बैठा ‘‘क्यों नींद नहीं आ रही ….. अब छोड़ो उस जगह और ज़मीन को कोई और काम तलाश लो ऐसे रोज़-रोज़ जागते रहकर मारोगे क्या …..?’’
‘‘अब जि़न्दगी तो हमने इन खेतों में काट दी और कोई काम हमें आता हो तब तो तलाशेंगे। हम कहते थे बाउ से कुछ और काम करने की, सीखने की, तो कह देते थे ‘बेटा कहां जाएगा ……? इन खेतों में ही काम कर ले ….. अब इन खेतों में बाबूजी तो काम करने से रहे हम ही तो करते हैं और हमें ही करना है।’’
‘‘तो ऐसे जागने से क्या पाओगे सो जाओ, दिन में सोच लेना …..।’’ सुनीता की इस बात पर हरिया आंखें बन्द करके फिर लेट गया लेकिन उसे आशंका थी कि बाबूजी कहीं निकल न जांय इसी डर से वह रात भर सो नहीं सका ‘कहीं आंख लग गई और देर में खुली तो …..?’ आखिरकार उसने सुबह भी नहीं होने दी और घर से निकल ही लिया। सुनीता को तो तब पता चला जब वह बाबूजी के घर से लगभग आठ बजे लौटकर आया। हरिया की आंखें चमक रहीं थीं। ‘‘मैंने कहा नहीं था कि बाबूजी मेरे साथ ऐसा नहीं करेंगे ।’’ उसके शब्द बच्चों की तरह उछलते लग रहे थे।
‘‘आखिर क्या कह दिया तुम्हारे बाबूजी ने …..?’’ सुनीता की उत्सुकता चरम पर थी।
‘‘अरे कहना क्या था, उन्होंने फोन पर उस सेठ को सब समझा दिया है। अब उसने खुद मुझे बुलाया है। कह रहे थे ‘‘चला जइयो सेठ जी बता देंगे तेरे लिए जगह। अब मैं जा रहा हूं वहीं खेत पर।’’
‘‘अरे कुछ खा तो जाते, चाय ही पी जाओ …..।’’ सुनीता चहक रही थी।
‘‘पागल! तुझे पता नहीं कहां से आया हूं ….. बाबूजी ने चाय नाश्ता सब करवा दिया है। आखिर हमारे गांव के हैं, शहरी नहीं हैं कि काम खत्म तो पहचानते नहीं।’’ हरिया इठलाया और खेत की ओर निकल गया।
हरिया को देखते ही नीम का पेड़ तालियां बजा-बजा कर झूमने लगा। हरिया उसे देखकर तनिक मुस्कराया और जाकर उसके मोटे तने से टिक कर बैठ गया। उसने एक नज़र पूरे खेत पर डाली जहां हरिया कल तक आलुओं की मेंढ़ बनाता था। लहलहाते धानों से बातें करता था। पत्तों की खड़खड़ाहट के साथ गीत गुनगुनाता था। वहां लम्बी-लम्बी उदास सड़कें अलसाई सी पड़ी हैं। उसके रास्ते में जो भी पेड़ आया उसका वज़ूद खत्म कर दिया गया। कटे पेड़ों के सूखे पत्ते देखकर उसकी आंखें नम हो गईं। उसे अपनी हालत भी उसी कटे पेड़-सी जान पड़ रही थी। जो केवल छटपटाने के अलावा इस खेत को बचाने के लिए चाहकर भी कुछ नहीं कर सका। वह समझ गया था बाधा बनने पर इन्हीं पेड़ों की तरह हरिया बीते समय की बात बन जाएगा। उसे फिर भी संतोष था कि नीम का यह पेड़ बचा हुआ है। जिसके नीचे आकर वह बैठकर रो तो सकता है। ‘‘सब किस्मत है इस खेत की और मेरी भी।’’ यही सोचकर हरिया सेठ जी की गाड़ी का इन्तज़ार करने लगा।
धूप से तपिश बढ़ने लगी तो गर्म हवाओं को शीतल करने में नीम का पेड़ लगभग नाकाम सा होने लगा। लेकिन हरिया को हवा के ठण्डे या गर्म हो जाने का ध्यान ही नहीं था। वह तो बस सेठ जी की गाड़ी का इन्तज़ार करते-करते बस इस सोच में डूबा हुआ था कि आखिर ’यहां कौन लोग रहने आऐंगे , जिनके पास रहने को घर नहीं है ….. या वे सब मेरे जैसे होंगे ….. या कोई और …..? पिताजी बताते थे शहरों में एक आदमी के पास चार-चार बड़े-बड़े घर होते हैं। क्या करते हैं इतने घरों का यह लोग। और एक दिन सब खेत ही मिट जाएंगे तब खाएंगे क्या, घरों के ईंट पत्थर, आखि़र इन्हें कोई समझाता क्यों नहीं! इन पर इतना पैसा कहां से आता है …..? भगवान जाने ….. जरूर कुछ उल्टा सीधा करते होंगे। इन्हें भगवान से डर नहीं लगता …..! कैसे होते हैं ये लोग …..?’ इन्हीं सब सवाल-जवाबों में उलझे हुए न जाने कब हरिया नीम के पेड़ से टिका-टिका ही सो गया।
सूरज ने रुख बदला तो निशाना सीधा हरिया बन गया। हरिया को लगा जैसे उसका बदन किसी भट्टी पर रख दिया है। वह बिलबिला कर उठा। सामने सेठ जी की गाड़ी खड़ी थी। देखते ही हरिया के अन्दर एक ठण्डक सी दौड़ गई। खेत में सबसे पहले बनी कोठरी नुमा आॅफिस में हरिया ने झांक कर देखा सेठ जी अन्दर बैठे हैं। वह सहमा-सा दरवाजे पर जा खड़ा हुआ। सेठ जी की जलती सी नजर पड़ते ही हरिया सकपकाया सो बोला ‘‘मैं हरिया साब ….. इस खेत की देख-भाल ….. मैं …. वह बाबूजी ने आपका….।’’ हरिया का वाक्य पूरा नहीं हो पाया था कि सेठ जी की खरखराती सी आवाज ने उसे चुप कर दिया।
‘‘हां ….. हां बाबूजी ने हमें सब समझा दिया है ….. बैठ जा अभी बताते हैं ….. वही देख रहे हैं।’’ कह कर सेठ जी मेज़ पर बिछे कालिन्द्री कुन्ज का नक्शा खंगालने लगे।
पीछे आॅफिस की परछाई खेत में फैली थी। हरिया उसी छाया में जा बैठा। अब नीम का पेड़ ठीक उसके सामने चिलचिलाती धूप में भी किसी फौजी की भांति सीना ताने खड़ा था। हरिया को लगा वह नीम का पेड़ नहीं पिताजी खड़े हैं। और कह रहे हैं बेटा सुभाष बाबू बड़े अच्छे आदमी हैं उनका साथ मत छोड़ना। हरिया मन ही मन बुदबुदाया …. पिताजी मैं क्या करता, खेत तो तुम्हारे बाबूजी ने ही बेच दिया अब तुम उन्हीं से पूछना कि इस खेत ने उन्हें क्या कुछ नहीं दिया, क्या कमी थी उनके पास जो उन्होंने इसे बेचा वह भी उन लोगों को जिनके पास पहले ही चार चार घर हैं। अब क्या मैं अपना हिस्सा भी छोड़ दूं और फिर यहां रहूंगा तो आपसे बातें भी करता रहूंगा, और मैंने नहीं छोड़ा है बाबूजी को ….। अभी हरिया यह सब बुदबुदा ही रहा था कि सेठ जी ने बाहर आकर उसे आवाज दी ‘‘हरिया ….. अबे कहां गया …..?’’ ‘‘हां साब …..!’’ कहते हुए ऐसे आ खड़ा हुआ जैसे वह बाबूजी के सामने आ खड़ा होता था।
सेठ जी ने छोटू से कहा ‘‘इसे पार्क वाली जगह बता दे …..। चल जा।’’ कहते हुए सेठ जी ने हरिया को छोटू के साथ जाने का इशारा कर दिया था।
‘‘बाबूजी पार्क वाली जगह में, मैं …..?’’ हरिया उसी मुद्रा में गिड़गिड़ा पड़ा।
‘‘चल जा ….. अब छोटू समझा देगा …..।’’ सेठ जी ने लापरवाही से कहा और कोठरी में वापस मुड़ गये। हरिया उसी मुद्रा में छोटू के साथ चल दिया । ‘‘देख ! हम कोई पार्क-वार्क नहीं छोड़ते ….. जगह बिकने तक बस ग्राहकों को दिखाने भर की चीज़ होता है ये सब। फिर तू कोन-सा उसमें अभी घर बना रहा है। घर बनाने के लिए भी तो आज ढेर पैसा चाहिए …? यह तू भी जानता है। इस लिए अभी तो तू इसमें पेड़-पौधे फुलवारी सजा अच्छा लगेगा। कुछ दिनों में तेरे पास भी कुछ इन्तज़ाम हो जाएगा और सेठ जी के भी सब प्लॉट बिक जाएंगे फिर तू आराम से अपना घर बना लेना।’’ छोटू हरिया को समझाता गया। हरिया आश्वस्त-सा हुआ तो पूछ बैठा ‘‘भइया बाबूजी ने आपको भी कोई जगह देने का वचन दे रखा है क्या ….?’’ छोटू गुर्राया ‘‘अबे मैं कोई नौकर नहीं हूं वे मेरे बड़े भाई हैं।’’ सुनकर हरिया एक दम शान्त हो गया।
छोटू निशान लगवा कर चला गया। हरिया नीम के पेड़ से थोड़ी दूर पर ही जगह पाकर खुश हो गया और एक दम शान्त खड़ा होकर नीम के पेड़ को लगभग डबडबाई आंखों से ताकता रहा। कुछ दिन में ही लगभग अठारह सौ वर्ग फुट का वह ज़मीन का टुकड़ा हरिया के छोटे खेत में तब्दील हो गया। हरिया मजदूरी को जाने लगा तो सुनीता अपने छोटे खेत में खड़े पेड़-पौधों तथा सब्जियों की देख-रेख में मगन ।
हर रोज़ शाम को दोनों हिसाब लगाते। हरिया हिसाब समझाता ‘‘देख दो सौ रुपये मिलते हैं मुझे तू पचास में खर्चा चला डेढ़ सौ रोज के हिसाब से साल भर में बहुत हो जाएगा फिर बन जाएगा हमारा घर।’’
‘‘लेकिन तुम्हारे बाबूजी कहते थे कि ….. पेड़-पौधे नहीें रहेंगे तो यह धरती ही मिट जाएगी फिर घर ही कहां रहेगा …. और फिर पूरे महीने में पन्द्रह दिन ही काम मिल पाता है तुम्हें, तो सौ रुपये रोज़ ही तो रह गये उस पर यह मंहगाई …..।’’ हरिया ने सुनीता की बात को बीच में काट दिया ‘‘तू कहना क्या चाहती है …..?’’
‘‘मैं सोच रही थी घर तो यही ठीक है जैसा भी है। हां सेठ जी मुझसे अपने घर पर काम की कह रहे थे। बोल रहे थे यहां कोन-सी दो चार ट्रक सब्जी हो जाएगी जो यहां पड़ी रहती है। मेरे घर सुबह शाम काम कर दिया कर, यहां कौन इसे उखाड़े ले जा रहा है ?’’ सुनीता ने एक दिन शाम को यह बात हरिया को बताई तो सुनीता की बात सुन कर हरिया बिदक गया ‘‘न मैं उन्हें जानता न ही तू …. फिर बाबूजी कहते तो बात भी ठीक थी।’’
‘‘अब यहां तुम्हारे बाबूजी तो हैं नहीं जो कहते।’’
‘‘हां तो क्या हुआ मैं कल पूछ आऊंगा …..।’’
‘‘पूरी जि़न्दगी बाबूजी से पूछते रहो ….. सांस लेने की भी उन्हीं से पूछो …. अब तक तो तुम्हारे लिए कुछ किया नहीं तुम्हारे बाबूजी ने, अब उद्वार करेंगे ….?’’
‘‘क्यों ….? क्या नहीं किया बाबूजी ने। यह जगह नहीं दी …. दिलवाई तो उन्होंने ही …..।’’
‘‘तो क्या ऐहसान कर दिया, पूरे जीवन पिताजी की और तुम्हारी कमाई नहीं खाई …. दे दी यह एक मुट्ठी जगह …..।’’
‘‘उन ने कौन सी कमाई खाली मेरी ….? उन्होंने कह तो दिया था घर बनाएगा तब पैसे दे देंगे तो हम घर तो बनाएं।’’
‘‘मैं तो कहती हूं हमारा पैसा है हमें दे दें हमें नहीं बनाना कभी घर …. तो क्या कभी नहीं देंगे….?’’
‘‘क्यों नहीं देंगे, मैंने ही नहीं मांगे हैं।’’
‘‘तो मांग कर देख लो ….. जब पैसा मिल जाएगा तो मैं भी काम पर नहीं जाऊंगी, मुझे क्या जरूरत होगी फिर।’’
‘‘मैं मांग लाऊंगा लेकिन तुझे काम पर जाने की जरूरत नहीं है किसी का क्या भरोसा …..? कल ही जाकर मैं बाबूजी से पैसे ले आऊंगा।’’
हरिया बाबूजी से हुई कोई भी बात सुनीता को नहीं बताना चाहता था। लेकिन हरिया के न चाहते हुए भी उसके भीतर की कुछ उलझन उसके चेहरे पर उतर आई थी। जो सुनीता से छुपी न रह सकी ‘‘क्या बात है क्यों परेशान हो ….?’’
‘‘तू हर समय मेरा चेहरा ही क्यों देखती रहती है …. कुछ भी नहीं है बस थोड़ा थक गया हूं।’’
‘‘अब सीधे से बताओ क्या कह दिया ….. तुम्हारे बाबूजी ने ….?’’
हरिया कुछ देर चुप रहा फिर ‘‘कह रहे थे तेरा इतना पैसा नहीं है कि घर बन जाए ….. और कह रहे थे जगह कहां भागी जा रही है कुछ और कमा धमा ले फिर ले लेना …..। हां और कह रहे थे मैं तो अभी दे दूं लेकिन तेरे पास खर्च ही तो हो जाएंगे। मुझे लगा ठीक ही तो कहते हैं।’’ हरिया ने कनखियों से सुनीता को देखते हुए कहा। सुनीता को हरिया की मासूम निरीहता पर तरस और खीझ एक साथ आए लेकिन न जाने क्या सोचकर वह चुप रह गई।
अभी कुछ ही दिन ही गुजरे थे कि काम पर जाते हुए हरिया ने देखा उसके छोटे खेत में कुछ लोग फावड़ा चला रहे हैं। हरिया दौड़कर उनसे जा भिड़ा ‘‘क्या कर रहे हो ? तुम इसे क्यों उजाड़ रहे हो …..?’’
लोगों ने हरिया को धकिया दिया ‘‘कौन है रे कौन है तू ….?’’
‘‘ये …. ये मेरी जगह है …..।’’
‘‘अच्छा …..! किस ने कह दिया ? जा पहले सेठ जी से पूछ।’’
‘‘हां मैं अभी बुला लाता हूं ।’’ कहता हुआ हरिया सेठ जी की कोठारी की तरफ दौड़ा।
हरिया को काटो तो खून नहीं जब सेठ जी ने भी कह दिया हां वह जगह बिक गई है। हरिया को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या कहे। यह तो इन्होंने पार्क की जगह बताई थी और कहा था ‘इसकी तेरे नाम कोई लिखा पढ़ी नहीं हो सकती। और फिर जब हमने तुझे दे दी तो कौन तुझसे छीन रहा है इसे।’ फिर भी इन्होंने इसे बेच दिया और मुझे पूछा भी नहीं। बाबूजी से कहूंगा यह तो बहुत झूठा है …. तो क्या बाबूजी भी …..। नहीं बाबूजी झूठे नहीें हो सकते। सोच कर हरिया ने हिम्मत से कहा ‘‘लेकिन यह जगह तो बाबूजी के कहने पर आपने मुझे दिलवाई थी।’’
‘‘हां तो मैंने मना कहां किया है बस जगह बदल दी है। तेरे बाबूजी से पूछ कर ही बदली है। हमारा विश्वास नहीं तो पूछ लेना अपने बाबूजी से।’’ हरिया को कुछ भी सूझ नहीं रहा था बस सोच रहा था आखिर बाबूजी ने क्यों कहा होगा …. फिर भी अगर बाबूजी ने कहा है तो उन्होंने सोच समझ कर शायद ठीक ही कहा होगा। अभी हरिया सोच ही रहा था कि
‘‘कुछ ज़्यादा मत सोच वह नीम के पेड़ वाली जगह तुझे दे दी है। अब तू तो समझेगा नहीं …..! बेटा हमने सारे प्लॉट ऊंची जाति वालों को बेचे हैं ….. वैसे मुझे या तेरे बाबूजी को तुझसे कोई परेशानी नहीं है लेकिन अब बीच में तेरे रहने से लोगों को समस्या थी। हालांकि तू ….. तू समझ रहा है न।’’ सेठ जी ने समझाते हुए उसे थपथपाते हुए लगभग धकिया दिया। हरिया को एक बारगी लगा उसे गहरी गाली दी है लेकिन न जाने उसे क्या हुआ कि नीम के पेड़ वाली जगह मिलने के नाम पर वह सब भूल गया।

महावीर वर्मा

हरिया को उम्मीद थी सुनीता भी सुन कर खुश होगी लेकिन सुनीता परेशान थी। ‘‘तुम मान क्यों नहीं लेते तुम्हारे इन दोनों बाबूजियों की नीयत मुझे ठीक नहीं लगती।’’
‘‘तू हमेशा से बाबूजी पर शक करती रही है। बाउ के सामने भी करती थी। बाउ कितनी बार कहते थे सुनीता हमारे बाबूजी ऐसे नहीं हैं।’’
‘‘काश आज बाउ जिन्दा होते अपने बाबूजी के इस सेठ की ये गाली सुनने को जो आज तुम सुन कर आये हो।’’ कह कर सुनीता घर के कामों में तो लग गर्ई लेकिन उसका मन आशंकाओं से खाली नहीं हो पाया था। वह हरिया से कुछ और भी कहती लेकिन हरिया ने उसे बोलने ही कहां दिया ‘‘सुनीता तू कुछ भी कह लेकिन मैं खुश हूं, अब मैं नीम के नीचे बैठकर तसल्ली से रोटी तो खा पाऊंगा। ठीक ऐसे जैसे बाउ के साथ खाता था।’’ हरिया को खुश होते देख सुनीता भी चुप लगा गई।
सुनीता का डर बहुत जल्दी सच बनकर सामने आ गया। नीम के पेड़ के नीचे कुछ भीड़ इकट्ठी थी। कुछ लोगों के हाथ में कुल्हाड़ी और आरा था। हरिया ने भीड़ के अन्दर जा कर देखा पेड़ काटने की तैयारी थी। हरिया भौंचक था। उसने भीड़ में देखा सेठजी एक पंडित जी के साथ खड़े थे। हरिया चीख़्ा पड़ा यह पेड़ नहीं कटेगा। भीड़ में एक बारगी सन्नाटा छा गया। सबकी निगाहें हरिया पर आकर रुक गईं। ‘‘मूर्ख यह धर्म का काम है इसमें टांग मत अड़ा ….. पुण्य का काम है यह।’’ पंडित जी ने हरिया को समझाते हुए हटाया। ‘‘बाबा यह मेरा पेड़ है, मेरी जगह है यह, इसे मेरी मर्जी के बिना कैसे काट लोगे आप …? नहीं तो आप सेठजी खड़े हैं इनसे पूछ लो इन्होंने यह जगह मुझे दी है।’’
‘‘यह जगह मन्दिर के लिए ही है। यह मैं सबको पहले ही बता चुका हूं। और मैं तो इसे जानता तक नहीं कौन है यह …. हटाओ इसे यहां से और काम चालू करो।’’ कह कर सेठजी वापस चले गये। सेठजी की यह बात सुन कर हरिया बघुआया-सा आंखें फाड़े चारों ओर ऐसे देखने लगा जैसे किसी अपने को खोज रहा हो। लेकिन यहां उसे जानने वाला कोई नहीं था। यह सब यहां नये आ बसने वाले वे लोग थे जो उस कॉलोनी में अभी आ बसे हैं ।
हरिया को जब कोई आश न रही तो वह हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगा। ‘‘मैं आपके हाथ जोड़ता हूं। यह पेड़ मेरे बाउ ने लगाया था इसे मत काटो ….. मन्दिर बना लो …. मुझे जगह मत दो …. लेकिन इसे तो कम से कम मत काटो।’’ कहता हुआ हरिया लगभग रो पड़ा । लोगों को जैसे कुछ हमदर्दी हुई तो पूछ लिया ‘‘ऐसा क्या है यार इस पेड़ में।’’
‘‘क्या है मतलब …. अरे कुछ नहीं है ….. बस यह पेड़ है जो नहीं कटना चाहिए।’’ सुनीता ने भीड़ को चीरते हुए अन्दर आकर ऊंची आवाज़ में कहा। अचानक सुनीता को वहां देखकर हरिया की भी हिम्मत बढ़ गई। और हरिया पेड़ से चिपक कर खड़ा हो गया।
‘‘अजीब दादागीरी है इन दोनों की, अरे हटाओ इन को …..।’’ ऐसी बातों से पब्लिक में शोर बड़ा। किसी ने कहा पुलिस को फोन कर दो, सेठजी को बुलाओ। वे देखें, ये क्या आफ़त है। अरे यार नक्शे में देख लो यह मन्दिर के लिए छोड़ी गई जगह है। तो फिर हटाओ इनको और काम चालू करो। मुहूर्त का समय निकल रहा है।
हरिया को लगा अब यहां उसकी कोई सुनने वाला नहीं है। साथ ही कुछ लोगों को अपनी ओर बढ़ता देख हरिया ने लपक कर एक कुल्हाड़ी उठा ली और गुर्राया ‘‘आओ कौन आता है।’’ हरिया की आंखों में उतरता हुआ खून देखकर लोग ठिठक गये। अचानक भीड़ ने जगह दी और पुलिस अन्दर आ गई। उसने आनन फानन में हरिया को गिरफ्तार कर लिया। सुनीता ने पुलिस के सामने हाथ जोड़े इनकी कोई ग़लती नहीं यह लोग ही हमारी जगह पर कब्ज़ा कर रहे हैं और यह पेड़ काट रहे हैं। आप चाहो तो इस खेत के पहले मालिक इनके बाबूजी को फोन कर के पूछ लो वे सब बता देंगे उनके कहने पर ही सेठजी ने हमें यह जगह दी है।’’
‘‘हां हमें तेरे बाबूजी ने ही फोन पर ख़्ाबर दी है तभी हम आऐ हैं, आते होंगे तेरे बाबूजी। कह रहे थे इसे ज़्यादा चर्बी चढ़ी है थोड़ी उतर जाएगी तो ठीक रहेगा। इस लिए तू हट जा नहीं तो उठा के रख लूंगा तुझे भी इसी जीप में समझी, चल हट।’’ दरोगा सुनीता को हड़का ही रहा था कि धूल उड़ाती बाबूजी की गाड़ी आकर रुकी। ‘‘ले आ गए तेरे बाबूजी …..।’’ कहता हुआ दरोगा हरिया को खींचता चल दिया लेकिन बाबूजी को देखकर हरिया की आंखें चमकने लगीं। वह अकड़ में आ गया और हाथ छुड़ा कर बाबूजी के सामने जा खड़ा हुआ। अभी वह कुछ नहीं बोल पाया था कि बाबूजी की आवाज़ गूंजी ‘‘कितना शरीफ था इसका बाप, उसने कभी मुंह नहीं खोला …. लेकिन इसके दिमाग में बहुत गर्मी चढ़ी है। अब देखो पुण्य के काम में बाधा डाल रहा है …. ले कर जाओ इसको।’’ बाबूजी ने दरोगा को देखते हुए कहा । सुनते ही हरिया का दिमाग जैसे सुन्न हो गया। उसने बाबूजी के चेहरे को गौर से देखा यह सोच कर कि क्या वाकई यह वही बाबूजी हैं, बाउ जिनकी बहुत तारीफ करते थे। बाबूजी ने हरिया से नजरें नहीं मिलाई वे आगे बढ़ गये। पुलिस ने हरिया को जीप में बिठा लिया। तभी अचानक एक थप्पड़ की आवाज़ से सन्नाटा पसर गया लोगों की सांसें रुक गईं। सिपाही और दरोगा भी दंग और भौंचक्के देखने लगे। सुनीता बाबूजी को थप्पड़ मार कर अभी तक किसी सांप की तरह फुंफकार रही थी। इस से पहले कि कोई कुछ कहता सुनीता ख़ुद हरिया के पास जीप में जा बैठी। वह अभी तक गुस्से से कांप रही थी। हरिया की मुट्ठियां भिंच गई थीं। अचानक हरिया चिल्लाया बाबूजी ! अभी एक हाथ था बहुत जल्दी हजारों हाथ होंगे। जीप चली गई हरिया की आवाज़ दूर जाते तक आती रही थी।
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एम.हनीफ मदार: 1 मार्च 1972 उत्तर प्रदेश में जन्मे ‘एम. हनीफ मदार’ कहानी, व्यंग्य, कविता, समीक्षाऐं, आलेख, और साक्षात्कार आदि साहित्यिक विधाओं पर निरंतर लेखन में संलग्न हैं।

उद्भावना प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित ‘बंद कमरे की रोशनी’ भले ही आपका पहला कहानी संग्रह है लेकिन संग्रह में संकलित ग्यारह कहानियों के अलावा आपकी कहानियाँ एवं विभिन्न साहित्यिक विधाओं में लिखी जाने बाली रचनाऐं हंस, परिकथा, वर्तमान साहित्य, समरलोक, वागर्थ, अभिव्यक्ति, उद्भावना, वाड्मय, युगतेवर, सुखनबर, लोक संवाद, लोकरंग, दैनिक जागरण, अमर उजाला, सहारा समय, डी. एल. ए.आदि में प्रकाशित होती रहीं हैं।

आधुनिक तकनीकि के समय में आपके आलेख ‘न्यूज क्लिक (इंगलिश चैनल), ‘जनमन’ (ई पत्रिका) में निरंतर प्रकाशित हो रहे हैं तथा आपकी कहानियां भी यहा पढ़ी जा सकती हैं।
देशभर के प्रसिद्व साहित्यकारों की कृतियों की समीक्षाऐं भी आपकी कलम से लिखी जाती रही हैं जिनमें सर्वश्री मनोहर श्याम जोशी, कथाकार संजीव, नासिरा शर्मा, मीराकान्त, शुषम वेदी, डा. नमिता सिंह, रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ के नाम शामिल हैं।

मथुरा एवं बृज क्षेत्र की प्रचीन कलाओं एवं सांस्कृतिक धरोहरों पर आपके द्वारा लिखे गये विस्तृत आलेख एवं साक्षात्कार सहारा समय में निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं।

रंगमंच से आपका गहरा जुड़ाव रहा है आपने विगत पांच वर्षों से संकेत रंग टोली के सचिव पद की जिम्मेदारी संभालते हुए कई कहानियों के नाट्यरुपान्तरण भी किये हैं साथ ही आपकी लिखी नाट्य समीक्षाऐं नटरंग, और अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित होेती रहीं हैं।

हाल ही में आपने ‘जन सिनेमा’ द्वारा निर्मित साहित्य का सिनेमा क्रम में ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी ‘कैद’ पर आधारित फिल्म के लिए पटकथा एवं संवाद लेखन किया है।  

वर्तमान में आप ‘हमरंग’ साहित्यिक बेव पोर्टल, का संपादन कर रहे हैं । जनवादी लेखक संघ मथुरा के उप सचिव और संकेत रंग टोली में सक्रिय सदस्य की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं।

56/56 शहजादपुर सोनई टप्पा
यमुनापार, मथुरा 281001
फोन- 08439244335, ईमेल. hanifmadar@gmail.com

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