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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

02 दिसंबर, 2017

नाटक पंचलैट :


 रेणू की कथा की बुंदेली मिठास के साथ दिलचस्प पेशकश 

                                                                                                          विवेक सावरीकर मृदुल

आज शाम कमलेश दुबे के  निर्देशन में उन्ही के द्वारा रूपान्तरित  महान उपन्यासकार -कथाकार फणीश्वरनाथ रेणू की कहानी ''पंचलैट '' की दिलचस्प प्रस्तुति के साथ पांच दिवसीय करुणेश नाट्य समारोह का  स्मरणीय समापन हुआ।  ''पंचलैट ''रेणूजी की छोटी सी कहानी है।

नाटक का एक दृश्य

कथा बिहार के  धुर ग्राम्य जीवन की है जहाँ विकास की तमाम पंचवर्षीय सरकारी योजनाएं अपना सा मुँह लेकर खड़ी हैं। जहाँ आम आदमी  अब भी लालटेनों और ढिबरियों से अँधेरा भगा रहा है।  सवर्ण और नीची जातियों के बीच में विषमता की खाई इतनी गहरी है कि ''पेट्रोमेक्स '' जैसी  साधारण वस्तु भी सर्वहारा वर्ग के लिए दुर्लभ है। जैसे तैसे  पेट्रोमैक्स का जुगाड़  होने पर भी उसका इस्तेमाल करने की तकनीक तक भोले ग्रामीणों को  ज्ञात नहीं है। आखिरकार आठवीं जमात पास बुधन उसे जलाकर अपनी बिरादरी का सपना पूरा करता है और  उपेक्षित तथा शोषित समाज के जीवन में सुख की पहली किरण फूटती है।
कमलेश ने इस कथा को बुंदेली मिठास के साथ बड़े ही खूबसूरत ढंग से नाट्य में तब्दील किया है। पहले दृश्य से ही ग्रामीण परिवेश रचने में वे कामयाब रहे। पंचलैट लाने के लिए आम जनता की निधि लेकर कुछ  लोगों का शहर जाना ,उनकी उत्सुकता ,ओहदे वालों की ठसक ,ऊँची जाति के लोगों को कुछ 'दिखा देने ' की छटपटाहट और इसी सब के बीच पनपती बुधन -मुनिया की प्यारी प्रेम कहानी सभी कुछ अच्छे तरीके से मंच पर उभरता है ,जिसके साथ दर्शकों का तादात्म्य जुड़ जाता है। मुझे लगता है कि इस कहानी में रेणू हाशिये पर खड़े जन की विडम्बनाओं को भी रेखांकित करते हैं।   रेणू यहाँ उस उपेक्षित वर्ग के साथ खड़े दीखते हैं ,जैसे कि 'मारे गए गुलफाम '(तीसरी कसम) में भी हम अनुभव करते हैं। तो तत्कालीन  जाति वादी संघर्ष को उभारने वाले एक-दो दृश्य बंध और रचे जा सकते थे। कारण पैट्रोमैक्स का आना साधनहीनों की जिंदगी में दबे पांव बाजार के प्रवेश करने का भी रूपक रचता है।दूसरी ओर यह उजाले पे हक सबका है,इस समाजवादी चिंतन को भी रेखांकित करता है।परंतु कमलेश ने इसे मनोरंजन और हास्य की झालर में ही व्यक्त किया है,जो उनका अपना चाईस है।

नाटक का एक दृश्य

अभिनेताओं में बुधन का किरदार लोकेन्द्र प्रताप सिंह ने बड़ी ही दमदारी से निभाया है। आलोक गच्छ ,विभा श्रीवास्तव ,रश्मि आचार्य ,संदीप पाटिल ,बटुआ ,अल्ताफ , मुनिया और उसकी नन्ही सहेली का किरदार निभाने वाली  कलाकार सहित सभी अभिनेता एकदम सहज होकर पंचलैट के जलने के साक्षी बने। पेट्रोमेक्स जलने का अंतिम दृश्य बड़ा प्रभावी रहा।  लेकिन पेट्रोमेक्स को जलाने वाले को खोजने से लेकर बुधन की एंट्री तक दृश्य थोड़े बोझिल  और समरसता के शिकार हुए। शायद कमलेश इस स्थान को प्रभावी बनाने पर विचार कर सकें तो बेहतर होगा। नाटक में लोक संगीत की भी काफी गुंजाईश है। मंच सज्जा और तानाजी का प्रकाश आकल्पन उत्तम था। खासकर नचनिया का नाच देखते पकडे जाने पर आलोक के चेहरे की भंगिमा के साथ खट से ब्लेक आउट किया जाना और बुधन -मुनिया के छेड़-छाड़ वाले दृश्य में लाईट भी बोलती लगी।  संक्षेप में एक बढ़िया और दिलचस्प
नाट्य प्रस्तुति का आस्वाद लेने का मौका मिला।


                                                                               विवेक सावरीकर मृदुल: 
                                                    

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