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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

07 जनवरी, 2018


मीना पांडेय की कविताएँ



मीना  पांडये 





विस्थापन
नए पते पर पुरानी पहचान खोजते
टीन शेड केम्पों के बाहर
बुझी -बुझी आँखों वाली लड़की
धौंकनी से फूंक मार भूख सुलगा रही है
सांसों के उतार चढ़ाव से उसका रुँधा गला और रुँधा गया है
तनते - सिकुड़ते, भींचे गालों वाली, लड़की आग चढ़ते ही
एक दर्द भरा गीत गुनगुनाने लगती है
ठंडी आह ने उठा दिया धुंआ
घुप्प, सर्पीला, छल्लेदार धुआं
अब भी उस ओर उड़ रहा है धुआं "मुआं "
अब भी उन्हीं हवाओं में ढूंढता है जीवन के अंश
जहाँ एक गांव हुआ करता था
माचिस के डिब्बों की मानिद,
सुगठित पटालों व् गारे वाले घरों का गांव
वो लड़की बुदबुदाती है , उधर मत जाना
उधर एक घायल नदी रहती है, इन दिनों
उसका विलाप तोड़ चुका है सारी  हदें
निगल चुका है मेरे गांव, आंगन, खेत, दालान ,
पशु,उत्सव,मेले -ठेले
उस तरफ मत जाना
कि पटालों वाले घरों से होती हुई पगडण्डी पर
घास बटोरती घस्यारिने अब नहीं दिखेंगी 
धार पर से चितकबरे बैल को गलियाने वाली हरुली काकी भी
शहर की शरण गए बेटों के परदों पर पैबंद काढ़ रही होगी
गर्मियों  में अखरोटों से लद जाने वाला पेड़ भी कहा रहा होगा
जब आंगन ही न रहा
धुएं मत उठ यहीं ठहर जा, लौट आ अपनी हदों में
आग -आग होने दे लकड़ियों को
जुड़े रह अपनी जड़ों से
शाख से टूटे आदमी की कोई पहचान नहीं होती
गड़बड़ चाचा, निरु लाटा  जैसी पहचान
ताल घर , माल घर और बाखली की पहचान
जड़ों से टूट, ठूंठ रह जाता है आदमी
विस्थापितों के लिए बने दस्तावेजों में कैद।



                                 
हवा, पानी और सुकून
अब के लौटी तो माँ ने छोटी -छोटी पोटलियों में
साथ बांध दिया गांव
गए साल से छिपाकर रखे चूड़
धृतकुमारी की जड़
सुखाई तुलसी,गुरजा, पड़ोस के पेड़ से उधार लिए आँवले
गडेरी, गहत, मंडुआ और जाने क्या -क्या ?
लम्बे -चौड़े आंगन में सुनहरे कालीन सी बिछी धूप में
औंधे मुंह लेटी बेफिक्र दोपहर और
किनारे की पथरीली मुंडेर पर से कंकड़ फेंक
ताल के पानी में हलचल उठाती शामें, वहीँ छूट गयी
ऑंखें मूंदती हूँ तो गालों पर अब तक महसूसता है
हवाओं का चुम्बन
और पैरों पर फिसलती पिरूल की सरसराहट
यहाँ सब कुछ है
पहाड़ों सा हवा, पानी और सुकून नहीं
वही एक नहीं बांध पायी माँ।




M singh






लोककलाकार
माइक्रोफोन को अपने पपड़ी चढ़े होंठों से छुआ
जब तुम कुछ गुनगुनाते हो, हरदा
तुम्हारे गहरे रंग के चेहरे को आधा ढापती अर्द्धचन्द्राकार दाढ़ी
खेतों पर बीजों के लिए कोख जुटाते फावड़े सी दिखाई देती है
और दुबली -पतली देह पर झूलता मटमैला खादी का कुर्ता
खेतिहार के कैनवास सा
जिस पर अभी -अभी बोई गयी है उम्मीदों की फसल
 हरदा ! क्या तुमसे पहले कहा किसी ने ?
तुम्हारे स्वर में गेहूं की बालियाँ मुस्कुराती हैं
कच्चे घड़े की खुशबू है यहाँ
नंग -धडंग मिट्टी में लोट -पोट खेलने जैसा सुख
गांव के संघर्ष में रस घोलता ताजे गुड़ सा तुम्हारा संगीत
कसैली आधुनिकता में घोल देता है लोक की मिठास
पसीने व् मिट्टी से गुंथे ये शब्द चित्र
मेरे नथुनों को फूलों की घाटी तक ले जाते हैं
तुम गुनगुनाओ हरदा !
जी भर , मेले, ठेले, उत्सवों में
साँझ ढले आंगन या मंदिरों में
ढोल -दमुआ, हुड़के की ताल से मिलाकर तान
कि दिनभर की कमरतोड़ मेहनत के बाद उदेख मन दो घडी गुदगुदाए
कि खाली पड़े मेरे पहाड़ के गावों का दर्द सरकारों के कान में
न्यौली सुनाकर आए
तुम गुनगुनाओ
कि मेरे रोम रोम से मिट्टी की खुशबू आए।



गाँधी, संसद और संविधान
बात -बात का अपना फितूर है भाई
अपने -अपने नथुनों की क्षमतायेँ हैं
अपनी -अपनी जीभ का स्वाद
किसी को चुपड़ी रोटी देख उबकाई आती है
और बासी रोटी में दिखाई पड़ता है गए वक्त का खमीर
हम उसी प्रजाति की नस्ल हैं
खेत में स्वयं के लिए जगह बना गई औषधीय घास की तरह
उगाये नहीं जाते, उग जाते हैं
रिश्ते जख्मों पर घिस दिए जाने को
हम उलटी जीन के लोग हैं भाई
चाँद में रोटी देखते हैं
हमें परेशान करती हैं अन्नदाताओं की पेड़ों पर झूलती लाशें
और स्वप्न में लोकतंत्र दिखाई देता है
हम नहीं समझते मंदिर -मस्जिद, गाय -भैंस जैसे मुद्दे
और भाँप लेते हैं खबरों के पीछे की खबर
दरअसल हम प्याज, टमाटर में उलझी सियासत से
गाँधी, संसद और संविधान पर बात करना चाहते हैं।



मुश्किल दिन
सरकते मौसम, दिन -रात के चक्र
व् मुफलिसी के लिहाफ की तरह दबे पांव नहीं सरकते मुश्किल दिन
आवाज करते हैं
निरंतर चलता है भावना का देह से एक गृहयुद्ध
कमर से होता हुआ पीड़ा का सैलाब स्नायुवों पर ठहरता है
तब फूटते हैं संवेदनाओं के स्रोते
कितना अजीब है दर्द को ख़ुशी से ढोते रहना
किसी विकृत परंपरा की तरह।
माँ की आंख में जो उभरी थी कभी उस फ़िक्र की गरमाहट
चाय , काफी या हॉट वाटर बोतल में ढूँढना
आसान नहीं आह पर धर्म की हांड़ी चढ़ाना
और उपजाऊ खेत होने को ढोना कुछ निखालिस बंजर दिन
सदियों से दफ़न होती आई
असंख्य अनकही पीड़ाओं की तरह
ये मुश्किल दिन भी आखिरकार ढल ही जाते हैं
एक नए दर्द की शक्ल में।











कमिटमेंट
जीभ से
लार की जगह टपकता
बेसहारा शब्द '
मस्तिष्क के स्नायुओं का
बेवजह स्पंदन 'या '
मेरी हथेली को  दाबती
तुम्हारे विश्वास की
छुअन मात्र नहीं ,
कमिटमेंट
विवेक की
दियासलाई  में  कैद
किसी मोमबत्ती का
पिघलता अविश्वास 'और '
दृढ़ता की हथेली पर
गिरता  दिए का अर्क है।
कमिटमेंट
शब्द ,स्पंदन 'या '
उँगलियों का
दबाव भर नहीं।



पुरुष प्रेम
पहले वो प्रेम देगा
मांगने तुम्हारा प्रेम
फिर थोड़ी इज़्जत
वादों की लड़ी, चाही -अनचाही
फिर अकस्मात् एक दिन जब
तुम चली जाओगी उसके घर
वो मागेगा नहीं छीन लेगा
प्रेम की ही तरह
तुम्हारा मान - सम्मान
तुम्हारी बहुत सारी इज्जत के बदले
तुम्हें बेइज्जती मिलेगी
अक्सर दाल में थोड़ा सा नमक तेज होने पर।



विद्रोह
कोख से
पैदा नहीं होगा
विद्रोह ,विद्रोह है
उभर आएगा
दासता के
सूने आंगन में
कुकुरमुत्ते की  भांति ,
अंकुशों के खाद पानी से
पौंधे से वृक्ष
हो जाएगा विद्रोह,
रीढ़ से होकर
मस्तिष्क के
स्नायुओं में
दौड़ने लगेगा
रक्त की जगह
तब होंगे
कई असफल विद्रोह
नन्ही गुड़िया का
दूध के एक गिलास
के लिए ,
गरीब का रोटी के  लिए
दासता का मुक्ति के लिए
और कुचल दिए जाएंगे
अपनी ही चौखट पर
मुट्ठी भर लोगों द्वारा
विद्रोह के लिए
उठे हाथ
अठारह सौ सतावन की तरह।



झील
ठहरी हुई झील, मैं हूँ और
काठ की नौका
टहलते बादल , पेड़ , पहाड़
हरे पानी मैं तैरता हमारा अक्श
उधर, वो गहरे रंग व् बोलती आँखों वाला
महाप्रयाण का सारथी
पानी को दूसरी तरफ ठेलता,
सुना रहा है लोगों द्वारा गढ़ी कथायें
ये राम ताल, वो लक्षमण,सीता और वो भरत ताल
लोगो ने झीलों के भी नाम दे दिए
उन्हें भी नहीं रहने दिया गया एक
धार्मिक,पौराणिक नाम
इस तरह बंद कर दिए गए हैं
वाद -प्रतिवाद के सभी रास्ते
इधर, मैं हूँ 
और दूर तक फैली
हरी,शांत, पारदर्शी झील
केवल एक झील।









सत्य की खोज
तुम्हारे एक प्रश्न को
खड़े हैं सैकड़ों उपनिषद, पुराण
फिर भी अधूरा सा एक प्रश्न
कौन कृष्ण? कौन था अर्जुन ?
सत्य की खोज के इस
बेहद थका देने वाले सफर के बाद
जब तुम लौटोगे खुद के भीतर
तुम्हें लगेगा
असल में, एक दिन
तुम्हारे ही भीतर ने सुनाई थी
तुम्हें भगवत गीता।




औरत
केवल
ऊपर वाला नहीं लिखता
तक़दीर औरत की ,
अक्सर
नील आकाश के नीचे भी
लिखी,पढ़ी ,
बोली जाती है औरत
खुली किताब होकर भी 
अक्सर बंद किताबों में
सबसे ज्यादा।



मीना पांडेय
एम -3 ,सी -61
वैष्णव अपार्टमेंट ,शालीमार गार्डन -2
साहिबाबाद ,गाज़ियाबाद -201005


चित्र गूगल से साभार 

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