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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

12 मई, 2018

वंदना भगत की कविताएँ



वंदना भगत 


कविताएँ

 इमारतें

ये इमारते कैसे जिंदा रहती है
कोई एक मंज़िला
कोई पांच मंजिला
कोई उतनी कि
जिससे उनके मालिक का शान
साफ दिखाई दे।

पर क्या ये इमारते
कभी ज़िंदा रह सकती है?
ये वो इमारते है
जिसमे किसी और का पसीना है
ये वो इमारते है
जिसमे कितनो का खून बहा होगा
इन्हें खड़ा करते समय
इनमे जान डालते समय।
पर इनमे रहते कौन है?
वही जिसने इन्हें बनाने वाले को
पैसे दिए होंगे
तनख्वाह!
पर ये तनख्वाह कभी उतनी नही होती
जितने में इन्हें बनाने वाले इनमे रह सके।

मेरे सामने एक इमारत है
जो अभी खड़ी हो रही
या फिर यह कहे
कि खड़ी की जा रही।
कितनी धूप है बाहर
मगर कुछ लोग
इतने धूप में भी
उसे खड़ा कर रहे।

हाँ , मैं एक विद्यार्थी हूँ
और एक ऐसे ही इमारत में रह रही हूँ
और ये इमारत जो आज बन रही है
कल मेरे जैसे
कई विद्यार्थियों के काम आएगी
जिनमे इसे बनाने वालों
के बच्चे नहीं रह पाएंगे।

पर कई विद्यार्थी
इन इमारतों में बसी
खून -पसीने को देख ही नही पाएंगे।
क्यों!
क्योंकि उनको तो लगता है
की उनके लिए किया गया संघर्ष
बस उनके परिवार का है।
ये मजदूर- किसान कौन है?
इनका उनसे क्या रिश्ता है?
इन्होंने क्या किया है उनके लिए?
कितना खुदगर्ज़ बना दिया है
इस व्यवस्था ने सबको।

ये व्यवस्था कभी बराबरी ला सकती है!
जो व्यवस्था खुदगर्ज़ी पैदा करे
गैर-बराबरी पैदा करे
वो कभी विकास नही ला सकती
न ही कभी बराबरी ला सकती है।
इस व्यवस्था का हल है
इसे तोड़ देना
जल्द-से-जल्द तोड़ देना!
और एक ऐसी व्यवस्था बनाना
जिसका आधार बराबरी हो।




 काश तुम होते

एक अजीब सा खालीपन है
कुछ गुम सा है
मैं हूँ पर अकेली सी हूँ
विचारों की गठ्ठर अकेले ढ़ोती हुई
उसे बाँटने की चाह में
तुम्हे ढूँढती हूँ
फिर खुद से कहती हूँ
की काश तुम होते।

मैं क्या हूँ, तुम समझ पाते
मैं क्या चाह रही हूँ तुम खोज पाते
तुम निकाल लेते मुझे उस तन्हाई से
जिसने इतनी भीड़ में भी
मुझे अपने आगोश में भर रखा है
तुम पहचान लेते मुझे
मगर तुम नहीं हो
और फिर खुद से कहती हूँ
काश तुम होते।

तुम वो हो जिसे ढूँढा नहीं गया है
तुम वो हो जो सिर्फ कल्पना मात्र है
तुम वो हो जो मेरी आरज़ू बन गया है
तुम वो हो जिसे मैं अपने पास देखना चाहती हूँ
तुम वो हो जो मुझे समझे
पर फिर खुद से कहती हूँ
की काश तुम होते।

मैंने ढूँढा तुम्हे
कोशिश की कि तुम मिल जाओ
फिर गलतियां भी की
पर तुम नहीं मिले
फिर भी मैं ढूँढ रही हूँ तुम्हे
की खुद से कह पाऊँ
अब पास हो तुम मेरे
कुछ ख़ास हो तुम मेरे।




 तुम

थोड़े अजीब से होगे तुम,
बहुत करीब से होगे तुम,
मुझे समझा होगा तुमने,
मुझे जानना चाहा होगा तुमने,
तुम भी मेरी तरह हर चीज़
महसूस करते होगे,
बहुत खूब होगे तुम,
पर थोड़े अजीब होगे तुम।

आसमान को तुमने देखा होगा,
तारों से प्यार किया होगा,
चाँद की ख़ूबबसूरती उसकी दाग को मानते होगे,
ओस की बूँद को निहारते होगे,
कुछ मुझसे होगे तुम,
थोड़े अजीब होगे तुम।

मुझमें गुम ना होगे तुम
शायद थोड़े गुमसुम होगे तुम
हम दुनिया की बातें करेंगे
अपने बातों में ही एक दूसरे को जीयेंगे
मंजिल एक लिए चलेंगे हम
वैसे ही ज़िन्दगी जिए चलेंगे हम
क्रांति हमारा मक़सद होगा
जिसे जान से ज्यादा हमने चाहा होगा
मेरे साथी होगे तुम
बस थोड़े अजीब होगे तुम।




इमारतें

ये इमारते कैसे जिंदा रहती है
कोई एक मंज़िला
कोई पांच मंजिला
कोई उतनी कि
जिससे उनके मालिक का शान
साफ दिखाई दे।

पर क्या ये इमारते
कभी ज़िंदा रह सकती है?
ये वो इमारते है
जिसमे किसी और का पसीना है
ये वो इमारते है
जिसमे कितनो का खून बहा होगा
इन्हें खड़ा करते समय
इनमे जान डालते समय।
पर इनमे रहते कौन है?
वही जिसने इन्हें बनाने वाले को
पैसे दिए होंगे
तनख्वाह!
पर ये तनख्वाह कभी उतनी नही होती
जितने में इन्हें बनाने वाले इनमे रह सके।

मेरे सामने एक इमारत है
जो अभी खड़ी हो रही
या फिर यह कहे
कि खड़ी की जा रही।
कितनी धूप है बाहर
मगर कुछ लोग
इतने धूप में भी
उसे खड़ा कर रहे।

हाँ , मैं एक विद्यार्थी हूँ
और एक ऐसे ही इमारत में रह रही हूँ
और ये इमारत जो आज बन रही है
कल मेरे जैसे
कई विद्यार्थियों के काम आएगी
जिनमे इसे बनाने वालों
के बच्चे नहीं रह पाएंगे।

पर कई विद्यार्थी
इन इमारतों में बसी
खून -पसीने को देख ही नही पाएंगे।
क्यों!
क्योंकि उनको तो लगता है
की उनके लिए किया गया संघर्ष
बस उनके परिवार का है।
ये मजदूर- किसान कौन है?
इनका उनसे क्या रिश्ता है?
इन्होंने क्या किया है उनके लिए?
कितना खुदगर्ज़ बना दिया है
इस व्यवस्था ने सबको।

ये व्यवस्था कभी बराबरी ला सकती है!
जो व्यवस्था खुदगर्ज़ी पैदा करे
गैर-बराबरी पैदा करे
वो कभी विकास नही ला सकती
न ही कभी बराबरी ला सकती है।
इस व्यवस्था का हल है
इसे तोड़ देना
जल्द-से-जल्द तोड़ देना!
और एक ऐसी व्यवस्था बनाना
जिसका आधार बराबरी हो।


         
 वन्दना भगत,
 झारखण्ड की रहने वाली हैं।
 बीएचयू आईआईटी से सेरेमिक इन्जीनियरिंग की पढ़ाई कर रही हैं,
 वे तीसरे साल में है। 
यहां पर काम करने वाले संगठन "स्टूडेंट फॉर चेंज" की सचिव है।
 उन्होनें इसके बैनर तले कई आन्दोलनों का नेतृत्व किया है
 जन्मतिथि 1अगस्त 1997

2 टिप्‍पणियां:

  1. वंदना भगत की ये कविताएँ यूं तो बहुत प्रारंभिक दौर की कविताएँ हैं जिनमें उनकी निजी भावनाओं का संसार थोड़ी रोमानियत के साथ दृश्यमान हुआ है । बावजूद इसके उनकी 'इमारतें'जैसी कविता व्यवस्था से मिले कड़वे अनुभव को गहनता से प्रस्तुत करती है जो उनकी कविताओं को ठोस धरातल देने की शुरुआत कही जा सकती है ।

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  2. जी बिल्कुल। यह पहली-पहली कविताएं ही है। वंदना ने शुरुआत ही की है। कविताएं पढ़कर लगता है कि वंदना भविष्य बहुत बेहतरीन कविताएं रचेगी।

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