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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

04 अक्तूबर, 2018

यात्रा संस्मरण 

बुराँस    के साये- साये  

  उर्मिला शुक्ल                                                                                                                                                                                                                                                               
उर्मिला शुक्ल
        
                                                                                                                                                                                
 यूँ तो पूरा का पूरा हिमालय ही बहुत सुंदर है ।तभी तो कालिदास ने अपनी अलकापुरी की कल्पना हिमालय में ही की। क्योंकि यक्ष के मनोभावों को व्यक्त करने वाले मेघ तो हिमालय में ही विश्राम पाते हैं और जो अलकापुरी को दूसरे नगरों से अलगाते हैं। पंत के प्रकृति चित्रण का तो आधा रही हिमालय रहा  है और नागार्जुन ने तो उससे भी आगे जाकर हिमालय के सौंदर्य में अवगाहन करते  हंस- हंसिनी , कस्तूरी मृग ,शैवालों पर क्रीड़ा करते चकवा -चकवी और किन्नर -किन्नरियों की प्रेम क्रीड़ाओं का वर्णन कुछ यूँ किया है कि हिमालय का समूचा सौंदर्य ही आँखों में उतर आता है।मगर हिमालय के इस सौंदर्य में चार चाँद लगाते हैं बुराँस यूँ तो कवि हरीशचंद्र पांडेय ने अपनी कविता में इसे पिरोया है। औरश्रीकांत वर्मा की कविता में भी बुराँस  प्रेम का प्रतीक बन कर  उभरा है मगर इसे देखने की ललक जागती है अज्ञेय की नायिका से  जब  नायक  बुराँस  के फूलों के फूलों से उसका श्रृंगार करता है। नायक का  उसे बुराँस  का  कर्णफूल  पहनाना इस कदर भा गया था कि उस सुंदर फूल को देखने के लिये मन ललक उठा था और मैंने हिमालय के उस इलाके में जाने का मन बना लिया जहाँ ये सुंदर फूल खिलते हैं। बरसों कोशिश की ,पर कामयाबी नहीं मिली।  









फिर अवसर मिला कौसानी जाने का,वो भी पंत जी के जन्मदिन पर। ,बड़ा आयोजन था  और मेरे लिये तो ये सोने पे सुहागा था। कारण लोगों ने बताया था कौसानी के आस पास बुरांस के सघन वन हैं और मई तक उसमें  बहार रहती है ।ये कार्यक्रम  २० मई को था। सो मन उमंगित था कि बुरांस से मिलना होगा।सो  इसी उमंग में मैं  एकदिन पहले कौसानी जा पँहुची  मगर बुरांस के दर्शन नहीं हुये। पूछने पर एक सज्जन ने बताया कि  ये चौड़े पत्ते वाले सभी पेड़ बुरांस के ही हैं. ये सब फूलों से लदे थे  मगर कुछ दिन पहले आँधी  आयी और सारे फूल झड़गये।सुनकर लगा जैसे अब कभी उस सौंदर्य के दर्शन ही  नहीं होंगे। कौसानी से रामपुर लौटते हुये रास्ते भर नजरें बुराँश को तलाशती रहीं ।मगर तलाश पूरी नहीं हुई ।बुराँश को न देख पाने की कसक लिये  लौटना पड़ा था ।

बरस दर बरस गुजरते रहे ,मगर बुराँश को देखना सम्भव नहीं हुआ ।फिर एक दिन चार धाम यात्रा का विज्ञापन देखा  और अपनी तमाम नास्तिकता के बावजूद मैं  चार धाम की यात्रा पर निकल पड़ी थी. मेरे लिये  इस यात्रा का उद्देश्य उस अनुपम सौंदर्य को महसूसना था जो हिमालय में रचा बसा है ।अप्रेल का अंतिम सप्ताह था । हिमालय की चोटियों पर अभी भी भरपूर बर्फ होगी और उसे निहारना भी आसान होगा ।अभी  बुराँस का मौसम  भी तो है सोचकर मन आल्हादित हो उठा था।दिल्ली से  झारखण्ड के  गणेश जाधव  और उनके बूढ़े माता पिता मेरी यात्रा के सहयात्री  थे। हरिद्वार हमारा पहला पड़ाव था।हर की  पौड़ी पर गंगा अपने उद्दाम बेग से बह रही थीं। गंगा तट श्रद्धालुओं से ठसाठस था।बच्चे -बूढ़े ,युवक और युवतियाँ सब डुबकी लगा रहे थे।  कुछ वर्ष पहले की आपदा का कोई असर नज़र नहीं आ रहा था। फिर शुरू हुई थी गंगा आरती और दीपदान के दीयों से गंगा जगमगा उठी थी। हर कोई दीपदान करके अपने  स्वर्ग की राह रौशन कर रहा था। मगर इस दीपदान से गंगाजल  कितना प्रदूषित होगा इसकी चिंता किसी को नहीं थी।
सुबह हम मसूरी होकर बड़कोट के लिये रवाना हुये। मसूरी से पहले ही सर्पाकार चढ़ाई शुरू हो चुकी थी।कैम्टी फाल होते हुये हम बड़कोट की और बढ़ चले थे और यमुना पुल पार करते ही हम यमुना के साथ साथ चलने लगे थे । मगर उसके गन्तव्य से ठीक उलटी दिशा यानि उसके उदगम की ओर बढ़ रहे थे हम। अब तक भूख लग आयी थी सो एक पहाड़ी ढाबे पर रुककर राजमा चावल खाया फिर चल पड़े अपनी मंजिल की ओर। यमुना के दोनों और सघन वन थे । तरह तरह के फूलों से भरी थी यमुना की घाटी, पर हमारा मन जिसे ढूंढ़ रहा था वो कहीं नहीं था। सोचकर मन में उदासी उतरने लगी थी।मगर बड़कोट आते आते हमें  बुराँस नज़र  आया था।लाल सुर्ख बुराँस। फूल क्या था फूलों का स्तबक ही  था वो। एक फूल में छोटे छोटे तीस पैतीस फूल: पर एकही आधार ,एक ही डंठल पर ,एक दूसरे से इस कदर सटे हुये, बिलकुल भारतीय संस्कृति की तरह।  हमने रुककर उसे देखा ,छूकर महसूस किया और अज्ञेय की  कल्पना से मुक्त हुये।,उसकी डंठल इतनी मोटी थी कि किसी सुंदरी के कर्ण छिद्र में समाना मुशिकल था।पर लेखक तो स्वतंत्र होता है वो कुछ भी कर सकता है।अब यमुना के दोनों ओर रास्ते भर बुराँस ही बुराँस नज़र आ रहे थे। शाम होते होते हम बड़कोट पहुँच गये। बड़कोट -गंगनानी  में यमुना के किनारे ही हमारा टेंट लगा  था। रोमांच के साथ साथ एक आशंका  भी उभर आयी थी कहीं केदारनाथ जैसी दुर्घटना हुई तो] हम सब नींद में ही . ?यमुना की  हहराती धारा और इस आशंका के चलते देर रात तक नींद नहीं आयी। 





 अलसुबह हम यमुनोत्री की ओर चल पड़े थे।हम  खरादी ,फिसाला ,फूल चट्टी ,हनुमान चट्टी होते हुये जानकी चट्टी की ओर बढ़ रहे थे।रास्ते में  यमुना के  दोनों ओर सुर्ख बुराँस के वन मन लुभाते रहे। सुबह का समय था बच्चे स्कूल जा रहे थे। कुछ ने खाखी पैंट और नीलीशर्ट पहनी थी। लड़कियों ने सफेद सलवार कमीज, नीली स्कर्ट और सफेद शर्ट। ये पैदल जा रहे थे। ये सरकारी स्कूल के बच्चे थे। कुछ बच्चे कान्वेंटी भी थे। उनकी टाई उन्हें सबसे अलगा रही थी। वे पैदल न जाकर अपने अभिभवकों की सायकल या मोटर सायकल पर थे। राह में भेड़ों के रेवड़ भी नज़र आये जो शायद  किसी बुग्याल की तलाश में निकले थे ।जानकी चट्टी पहुँचे तो पता चला खच्चर और पालकी वाले थे ही नहीं।सब यमुना की पालकी की  यात्रा में शामिल थे । बड़ी मुश्किल से खच्चर मिल पाये थे.जानकी चट्टी से आगे बढ़ते ही हिमाच्छादित चोटियों के काँधे से लगे देवदार मन को बाँधने लगे थे.अब  हमारे साथ  साथ  बुराँस की एक श्रृंखला सी चल रही थी। और उन्हें देखने को तरसती नज़रें  अपलक देख रही थीं उन्हें । ऊपर पहुँच कर हमारे साथियों ने गर्म पानी के कुंड में स्नान किया, पूजा अर्चना की पर मैं  यमुनोत्री के सौंदर्य में ही खोये रही .हिम शिखरों से निकल कर उछलती कूदती अल्हड़ यमुना को देखना भी तो  आल्हादकारी  था। नज़रें हट ही नहीं रही थीं। तभी एक पंडित ने घेरना चाहा था। उसके पास मेरे पूर्वजों की पूरी फेहरिस्त थी। मना करने पर भी वो देर तक लगा रहा फिर कलियुग  को कोसते हुये  चला गया था। फिर यमुना की पालकी आ गयी थी. सो स्त्री पुरुष ,बच्चे और बूढ़ों का एक सैलाब सा उमड़ पड़ा था।श्रद्धा के उस सैलाब में किसी को अपने प्राणों की परवाह भी नहीं थी। मैंने देखा पहाड़ी औरतों को ,उनके पहनावे से लेकर जेवर तक में आधुनिकता नज़र आ रही थी। प्राचीन गढ़वाली लिबास और गहने तो बड़ी बूढियों तक सिमट गये थे।भीड़ छँटने के बाद के मैं भी मंदिर की ओर बढी  तो फिर एक पंडे ने घेर लिया -"आइये मैडम आपको यमुना जी की कथा सुना दें। यहाँ हाथ रखिये। देखिये ये स्थान इस ठंड में भी कितना गर्म है। यही गर्भ गृह है। यमुना जी तो सूर्य पुत्री हैं न। सो पिता से उन्हें दहेज  ढ़ेर सारा ताप मिला है ।इसी लिये तो ये जगह इतनी गर्म है।इग्यारा सौ चढ़ाइये।   "
  दहेज !जन्म के साथ ! मेरी आँखों में उतरे आश्चर्य को देख वो कुछ देर चुप रहा फिर "-अच्छा मत चढ़ाइये , माथ तो नवाइये। "
मैंने  उस वेदी के समीप बैठ प्रणाम किया उस स्थान को जिसने  इस अमृत दायिनी को जन्म दिया था ।" कहाँ से हैं आप ?"
बनारस। वेदपाठी ब्राम्हण हैं हम। पर अब ये शिक्षा कउनो काम की नहीं। सब पढ़े लिखे लोग। धरम करम म बिसवासे नाहीं हय । ऊपर से पन्डन की गुटबाज़ी !बड़ी मुश्किल से अपना  खर्चा निकलता है.घरे  बिधवा माई  दुइ दुइगो बहिन।बियाह खातिर दाइज कइसे जुटेगा भला ?"
मैंने देखा उसकी आँखें छलछला आयी थीं। हम पंडितों के विषय में सोचते हैं कि वे लोगों को लूटकर ऐश करते हैं। पर ये पूरी हकीकत नहीं है। सो मैंने कुछ रूपये उसकी ओर बढ़ाये।" नहीं मैडम हमारा ई मतलब नहीं था। "ले लो ये रूपये तुम्हें नहीं तुम्हारी बहन को दे रहे हैं। उनके ब्याह पर ये मेरा उपहार है। " 
तब तक  हमारे सहयात्री भी आ चुके थे.सो अब हम लौट रहे थे। अब सूरज महराज किसी चोटी के पीछे जा छिपे थे। जल्दी ही शाम उतरने लगी थी और ठंड गहरा चली  थी.उतराई और भी कठिन थी। पग पग पर लगता रहा अब खच्चर गिर देगा ही देगा।जैसेतैसे रास्ता कटा। डेरे पर पहुँचकर खाना खाया और सीधे बिस्तर पर जा पड़े। आज नींद में न तो यमुना हरहराहट ने बाधा दी और न ही किसी आपदा के भय ने। सो ऐसी नींद आयी कि सुबह ही आँख खुली। हमारे सहयात्री तो  तैयार खड़े थे। सो जल्दी जल्दी तैयार होकर निकल पड़े उत्तर काशी की ओर। रास्ते में हमें पत्थरों का सीना चीरकर ऊगा  बलिस्त भर का बुराँस नज़र आया। उस पर एक सुर्ख फूल भी खिला था । उसके साहस को सलाम करके हम आगे बढ़ चले थे। हम जैसे जैसे उत्तर काशी की ओर बढ़े बुराँस कम होते गये और उनकी जगह हल्के बैगनी रँग के सुंदर गुरियाल के  फूलों ने ले ली.अब जँगली गुलाब भी नजर आने  लगे थे और उनकी खुशबु से सनी हवा मन को प्रफुल्लित कर रही थी। शाम को उत्तर काशी पहुँचे तो बाढ़ से लुटा पिटा शहर और मलबे से कुरूप हुआ गंगा तट नज़र आया। इंसानी हवस के चलते पर्यावरण संतुलन इस कदर बिगड़ रहा है कि हादसे पर हादसे हो रहे हैं पर हम तो कुछ  समझना ही नहीं चाहते। 







सुबह हम गंगोत्री की राह पर थे अब सड़क के किनारे  घने चीड़ वनों का साथ था तो ऊँचाई पर खड़े देवदार हमें निहार रहे थे। फिर  हरसिल आया जहाँ कभी राम तेरी गंगा मैली का सैट लगा था.आगे चलकर सेब के बगीचे भी मिले ,सारा बगीचा सफेद छोटे छोटे फूलों से भर उठा था।  गंगोत्री तक वाहन जाने की सुविधा है तो तट पर दुकानें  ही दुकानें हैं। सो हम जल्दी लौट आये। अगले दिन हम रूद्र प्रयाग की ओर बढ़ चले। रूद्र प्रयाग अलकनन्दा और मन्दाकिनी का संगम। जहाँ दोनों नदियाँ मिल रही थीं ,वहाँ से कुछ दूरी तक दोनों का पानी बिलकुल अलग नजर आ रहा था। मंदाकिनी का रँग गहरा नीला और अलकनन्दा का हल्का हरियर। संगम के बाद भी बहुत दूर तक मंदाकिनी की धारा अलग ही नजर आ रही थी। लग रहा था जैसे वो अपना अस्तित्व विलीन नहीं करना चाह रही हो। पर ये संभव कहाँ था। संगम तो पूर्ण समर्पण माँगता है न । सो अंततः मंदाकिनी भी अलकनन्दा में समा गयी थी। संगम स्थल से लौटते हुये हम उस दुकान पर गये जहाँ बुराँस का शर्बत मिल रहा था। बिल्कुल रूह आफजा, वैसा ही रँग.वैसा ही स्वाद। दुकानदार उसकी अनेक खासियतें गिना रहा था।सो हमारे सहयात्रियों ने खरीदा भी। 
सुबह हम केदार नाथ की यात्रा पर थे ।अब हम मन्दाकिनी के साथ थे फर्क इतना था कि मन्दाकिनी जिधर से आ रही थी हम उधर जा रहे थे।बादलों वाला सुहाना मौसम था और राह जँगली गुलाबों से भरी भरी।गुलाब की  झाड़ियाँ इतनी सघन थीं कि लग रहा था मानों गुलाब की बाड़ लगायी गयी हो।  सो सफ़र में भी मन  प्रफुल्लित था। सुबह का समय था पहाड़ी  औरतें पीठ पर कंडी बाँधे घास की तलाश में निकल पड़ी थीं।गुप्तकाशी,धौली  होते हुये हम गौरीकुंड पहुँचे।वहाँ से हमें पालकी ,खच्चर और कंडी मिलती। मगर  हमें कोई साधन नहीं मिला। प्रकृति का दुरूपयोग करने का दुष्परिणाम हमारे सामने था। गौरी कुंड का नामोनिशान ही मिट गया था । पूछने पर पता चला कि केदार नाथ की आपदा में अधिकांश लोग मर गये.न जाने कितने घर और गाँव पुरुष विहीन हो गये थे। बहुत ऊपर जाने के बाद खच्चर मिले थे । आगे की यात्रा और कठिन हो चली थी। एकदम खड़ी चढ़ाई थी। पेड़ पौधे अब कम हो चले थे। पर हमें चकित करते हुये बुराँस वहाँ भी मौजूद थे.खच्चर पर बैठ कर, उतनी ऊँचाई पर खिले बुराँस को  देखना सुखद अनुभूति थी। हमारे सर पर  हल्के रानी और सफेद रंग के बुराँस का एक  चँदोबा सा तना हुआ था.फिर धीरे धीरे पेड़ पौधे पीछे छूटने लगे थेऔर बुराँस भी। अब हमारे सामने बर्फ के पहाड़ थे। हमने मुड़कर बुराँस की  जिजीविषा को याद किया और बर्फीली राह पर आगे बढ़ चले।
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रायपुर -छत्तीसगढ़ 
मो -98932 94248

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