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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 अक्तूबर, 2018


शोषण से मुक्ति पा लेना भी विरोध ही है
(   सृजन संवाद’ की गोष्ठी में अनघ शर्मा की कहानी पर चर्चा )




जमशेदपुर. ‘सृजन संवाद’ की मासिक गोष्ठी में अनघ शर्मा की कहानी 'खारे पानी के पुलपर चर्चा की गयी। आभा विश्वकर्मा ने अनघ शर्मा का परिचय पढ़ा। कहानी का पाठ डॉ. वैभव मणि त्रिपाठी ने किया। मस्कट में रह रहे पेशे से अध्यापक अनघ शर्मा ने इस गोष्ठी के लिए विशेष रूप से यह कहानी भेजी थी। यह कहानी एक मैनेजमेंट कॉलेज में पढ़ाने वाली युवा प्रोफेसर मुनेश की है। कॉलेज प्रबंधन के आंखों की किरकिरी बनी इस प्रोफेसर को मैनेजमेंट के आला अधिकारी किसी भी तरह बाहर का रास्ता दिखा देना चाहते हैं। उसका कसूर सिर्फ इतना है कि एक टूर के बिल में वह रिक्शे के खर्च का बिल नहीं दे पायी है। टूर जिसमें वह गई भी नहीं थी। वह कहती भी है कि रिक्शे वाले भला बिल कहां देते हैं। इस पर खर्च हुई रकम मात्र 700 रुपये की है लेकिन उसकी सैलरी रोक ली जाती है। मुनेश को पता है कि उसे निकालने के लिए पीछे पड़ा मैनेजमेंट कोई न कोई बहाना ढूंढ रहा थाकुछ न मिला तो यही सही। दरअसल,वह खुद भी इस प्राइवेट कॉलेज में पढ़ाते हुए बेवजह की कागजी कार्रवाइयों से परेशान रहती है। ऐसे-ऐसे काम करने पड़ते हैंरोजनामचा भरना पड़ता है कि उसे लगता है कि यह सब न तो एक शिक्षक के लिए जरूरी है और न ही किसी छात्र के लिए हितकर। इसी नौकरी की बिना पर उसकी शादी तय हुई है। कॉलेज प्रबंधन उसे लॉन्ग लीव में जाने का नोटिस थमा देता है। अंतत: वह नौकरी छोड़ने का फैसला करती है। उसके परिवार वाले इसमें उसकी मदद करते हैं। 
न्यू सीतारामडेरा में आयोजित गोष्ठी में कहानी पाठ के बाद डॉ. आशुतोष कुमार झा ने अपने मंतव्य में कहा कि यह कहानी उन्हें इस मायने में कमजोर लगी कि कहानी का मुख्य पात्र जो युवा हैइतना जल्दी हार कैसे मान लेता है, संघर्ष नहीं करता है, सिस्टम को बदलने का कोई प्रयास नहीं करता है। डॉ. संध्या सिन्हा ने मोबाइल द्वारा भेजी टिप्पणी में इसे विडम्बनाओं की कहानी कहा। संदेश को डॉ. विजय शर्मा ने पढ़ा। अखिलेश्वर पांडेय ने कहा कि यह एक प्रैक्टिकल एप्रोच वाले आज के युवा की कहानी है, सिस्टम को बदलने के लिए संघर्ष करते लोग कहाँ नजर आते है? अभिषेक गौतम ने कहा कि यह कहानी शिक्षा जगत में भ्रष्टाचार की कहानी है। अशोक शुभदर्शी ने कहा कि यह सही मायने में आज की कहानी है। शैलेंद्र अस्थाना ने कहानी में मुनेश के अंतर्द्वन्द्व को ठीक से नहीं उभर पाने की बात कही। डॉ. ज्योत्सना अस्थाना ने कहा कि साहित्य का काम समाज को आगे बढ़ाना है। डॉ. क्षमा त्रिपाठी ने कहा कि मुख्य पात्र महिला की जगह कोई पुरुष होता तो वह इतना उहापोह में नहीं होता। प्रदीप कुमार शर्मा ने कहा कि यह शिक्षा जगत में माफियागिरी की कहानी है। वैभव मणि त्रिपाठी ने इसे आज के स्मार्ट युवा की कहानी बताया, जो जानता है कि नेक्सस से लड़ना खुद को खत्म कर देना है। कहानी का केंद्रीय पात्र यदि चाहता तो प्रशासन की करतूतों का मीडिया पर प्रसारण करया था। आभा विश्वकर्मा ने कहा कि कहानी हमें किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचाती। विजय शर्मा ने कहा कि मुनेश मानसिक रूप से प्रताड़ित है इसलिए उसका नौकरी से इस्तीफा देना ही विरोध है। अस्तित्व को बचाना सबसे पहली जरूरत है। यह शोषण से बाहर निकलने की कहानी है। शोषण से मुक्ति पाना भी विरोध है। प्रशासन द्वारा शोषण दिखाए जाने के कारण श्रोताओं को यह कहानी बहुत अपनी-सी लगी।
गोष्ठी का संचालन डॉ.विजय शर्मा ने किया। गोष्ठी में विजय शर्मा, वैभवमणि त्रिपाठी, आशुतोष कुमार झा, शैलेंद्र अस्थाना, ज्योत्स्ना अस्थाना, क्षमा त्रिपाठी, अखिलेश्वर पाण्डेय, प्रदीप कुमार शर्मा,  आभा विश्वकर्मा, अभिषक गौतम, अशोक शुभदर्शी ने कहानी पर अपनी-अपनी बात रखी।
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