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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

25 नवंबर, 2018

हूबनाथ की कविताएँ 


हूबनाथ 


चश्मा

उस दिन
गांधीजी ने
अपना चश्मा उतारकर
पनीली आंखें पोछते
कहा था
हिंदू और मुसलमान
मेरी दो आंखें हैं
उसके बाद से
सिर्फ़ चश्मा बचा रहा
और उनकी दोनों आंखें
पता नहीं कहां चली गईं





 अस्पताल

अपना शरीर
पूरे भरोसे से
कुछ लोगों को
 सौंप कर
लेट गए
हाइजेनिक
 सफ़ेद चादर पर
बिना सोचे
कि इसी सफ़ेद चादर से
बचने के लिए ही
दाख़िल हुए थे
अस्पताल में




 बुढ़ापा

अपाहिज सीने पर
पत्थर की सिल
न सांस चल रही
न थम रही
कबीर कहता था
देह ही दंड है
पर किस जुर्म का
बताया नहीं
एक एक कर
देह के साथी
साथ छोड़ कर
खिसक रहे हैं
आंख कान
हाथों पैरों की
शक्ति पिघलकर
बिखर रही है
दर्द अकेले
साथ चल रहा
रोम रोम में
वास कर रहा
रिश्ते नाते
संगी साथी
अंधियारे की
परछाईं बन
कहां खो गए
ईश्वर जाने
देह रहा जब
नहीं काम का
कौन अगोरे
दर्द पराया
सांझ ढल रही
अब जीवन की
रात का आंचल
पत्थर की सिल
पिघल पिघल कर
कायनात में बिखर रही है




 हश्र

यह जो जंगल
पसरा पड़ा है हरसूं
फलों से लदे
गदराए दरख़्त
लहलहाते फूलों के बगीचे
माशूकाओं की तरह
बेतहाशा लिपटीं बेलें
हरियाली की बाढ़
जनी है
उस सूखे दरख़्त ने
जिसके जिस्म से
उसकी छाल भी
साथ छोड़ गई है
चींटियां तक नहीं रेंगती
कोढ़ से गली देंह पर
परिंदे डर के मारे
फटकते तक नहीं
बच के निकलते हैं
मुसाफ़िर मनहूस पेड़ से
ज़मीन तक धीरे धीरे
जड़ों की उंगली
छुड़ा रही हौले हौले
कहीं दूर थोड़ी सी आग
राह तक रही है
हरियाली का हश्र
आग होता है
कभी किसी ने
बताया ही नहीं।





तुम और हम

तुम जनमे
तब देश ग़ुलाम था
हम जनमे
आज़ाद देश में
तुम थे कमज़ोर
पर अपनी कमज़ोरी को
अपनी ताक़त बनाते रहे
हम अपनी ताक़त
बदलते रहे कमज़ोरी में
तुम होते गए निरंतर निर्भय
हम डर की खोल में
कछुए जैसे
तुमने सच को साथी माना
हमने संकुचित स्वार्थ को
तुम जोड़ रहे थे
हम तोड़ रहे हैं
अहिंसा तुम्हारा धर्म
हिंसा हमारी आदत
तुम क्षमा करते रहे
हम नफ़रत
तुम निश्छल थे
हम चंचल हैं
तुमने आंख मूंद कर
विश्वास किया हमारी
अच्छाइयों पर
और हमने सिर्फ़
इस्तेमाल किया
तुम्हारे सिद्धांतों को
तुम कण कण बढ़ते गए
हम तिल तिल घटते रहे
तुम हमें जिलाने के
सार्थक बनाने के
 रास्ते तलाशते रहे
और हम तुम्हें मारने के
जड़ से उखाड़ने की
तरकीबें ढूंढ़ते रहे
तुम ख़ुशबू की तरह
पसरते रहे
सारी क़ायनात में
हम अपनी दुर्गंध में
होते रहे क़ैद
जबकि एक बार
तुमने ही हमें कराया आज़ाद
हमारी कमज़ोरियों से
आज तुम हो गए
डेढ़ सौ वर्ष के
और ज़िंदा हो
हम मर रहे हैं रोज़
तलाश रहे
ज़िंदगी के बहाने
और शर्मिंदा हैं
कि नहीं पहचान पाए तुम्हें
वक़्त रहते
वरना शायद बचा पाते
जीवन अपना भी
और अपनों का भी
अब तो सिर्फ
अफ़सोस रहेगा
कि तुम्हें तस्वीरों में
जड़ने की जगह
मन में जड़ते
पुस्तकों में पढ़ने की बजाय
जन में पढ़ते
तो कितना अच्छा होता
पर अब तो देर हो चुकी है।











 वसीयत

गांधी के मरने के बाद
चश्मा मिला
अंधी जनता को
घड़ी ले गए अंग्रेज़
धोती और सिद्धांत
 जल गए चिता के साथ
गांधीजनों ने पाया
राजघाट
संस्थाओं ने आत्मकथा
और डंडा
नेताओं ने हथियाया
और हांक रहे हैं
देश को
गांधी से पूछे बिना
गांधी को बांट लिया हमने
अपनी अपनी तरह से





 मौत

तुम्हारे लिए
विषय हो सकता है
दर्शन का
अध्यात्म का
मनोवैज्ञानिक रहस्य
सामाजिक संबंधों
भावनात्मक आवेगों
वैद्यकीय असमर्थताओं
धार्मिक असफलताओं
कभी न ख़त्म होनेवाली
बहसों का
पर जिसकी बीमारी के आगे
घुटने टेक चुकी है
मानव प्रज्ञा की
तमाम उपलब्धियाँ
सारी पैथियों ने
डाल दिए हथियार
जो हर डूबते सूरज के साथ
डूबती जा रही
अथाह अंधेरे के
भयावह समंदर में
और टटोलती है
अपने सीने में बची हुई सांसें
मानव इतिहास का
समस्त ज्ञान भंडार
दुनिया भर की खुशियाँ
सुख के साधन
रेत खिसकी मुट्ठी में
चिपचिपाते पसीने की
गलाज़त से ज़्यादा
कुछ नहीं
जिसके साथ
डूब जाएगा सूरज
हमेशा के लिए
मर जाएंगे सारे रिश्ते
इस पृथ्वी का भी
 नहीं रहेगा अर्थ
फिर उसके लिए
तुम्हारे ईश्वर
स्वर्ग नर्क
 आख़िरी सांस के साथ
खो जाएंगे महाशून्य की
रहस्यमय गोद में
वह नहीं मरेगी अकेले
एक पूरी दुनिया मर जाएगी
उसके साथ
और बची रहेगी
एक दूसरी दुनिया
जिसमें हम करेंगे उसकी बात
अपनी सुविधा से
तब तक
जब तक उसे भूल न जाएंगे
पूरी तरह





 इंतज़ार

वह योद्धा नहीं
एक बीमार माज़ूर मुसम्मात है
इसलिए
मौत से लड़ नहीं रही
समर्पण कर दिया है
अब किसी को भी देख
उसकी आंखों में
नहीं आती चमक
ख़्वाहिशों
तमन्नाओं ने
तोड़ दिए हैं दम
नर्स निकाले जाती है ख़ून
डॉक्टर पढ़ते हैं रिपोर्ट
विशेषज्ञ करते हैं बहस
रिश्तेदार देते हैं
खोखली सांत्वना
झूठी दिलासा
अशांत मन वह
न तो सोच पा रही
न समझ पा रही
न कुछ कह पा रही
बस कर रही इंतज़ार
मौत का
जिसका जल्द ही आना
तै तो है
पर कब
न हम जानते हैं
न वह जानती है





 हत्यारे


ऐसे कठिन समय
जब कोई बचा रहा
धन संपत्ति
कोई परिवार
कोई अपनी जान
कोई बचा रहा सरकार
कोई भगवान
कोई मकान
कोई दुकान
कोई बेटा बचा रहा
तो कोई बेटी
कोई पत्नी तो कोई मां
तो कोई बाप
कोई देश बचा रहा
तो कोई किसान
तो कोई झूठी शान
और सबको यकीन है
कि वे बचा लेंगे वह सब
जो बचाने की कर रहे
पुरज़ोर कोशिश
पर वह
जो नदी बचाने
उतरा है नदी की गोद में
वह.जानता है
कि उसके बचाने भर से
नहीं बचेगी नदी
सिर्फ़ उसके चाहने से
नहीं बचेगी नदी
सिर्फ़ उसके डूबने से
नहीं बचेगी नदी
जब सब जुटे हों
नदी को कत्ल करने
तो उस जैसे
मुट्ठी भर दीवाने
कैसे बचा सकते हैं नदी
नदी बचे या ना बचे
वे नदी की धार में उतरकर
उतारना चाहते हैं
एक सच
सभी क़ातिलों के दिल में
कि नहीं बची नदी
तो नहीं बचेगा कोई भी
नहीं बचेगा धरती पर
बचाए रखने जैसा कुछ भी
वे बताना चाहते हैं
बचाना है ख़ुद को
और आने वाली पीढ़ियों को
 तो बचा लो नदी
नदी बची रही
तो बचा रहेगा सब कुछ
वरना
नदी तो बचा ही लेगी ख़ुद को
पर बची हुई नदी देखने
कोई नहीं बचेगा






 मन ना रंगायो

मुग़ल सराय
दीनदयाल उपाध्याय
इलाहाबाद
प्रयागराज
उर्दू बाज़ार
हिंदी बाज़ार
एलफिंस्टन रोड
प्रभादेवी
विक्टोरिया टर्मिनस
छत्रपति शिवाजी महाराज
बंबई
मुंबई
मद्रास
चेन्नै
इंडिया
जंबूद्वीप
दिल्ली
हस्तिनापुर
गणपति
प्रजापति
शंकर
रुद्र
विष्णु
वरुण
सत्यनारायण कथा
अश्वमेध यज्ञ
प्रधानमंत्री
महाराजाधिराज
गृहमंत्री
सेनापति
राष्ट्रव्यापी दौरे
आखेट
राजनीति
 संन्यास
कोट और सूट
कौपीन वस्त्रम्
मेवे मिठाई
ढूंढ़ी
छप्पन भोग
जौ का सत्तू
मिसाइल बम
धनुष बाण
व्यापार
कंदमूल संग्रह
जवानी में
बचपन की लंगोटी
बड़ी तकलीफ होगी
पृथ्वीआगे बढ़ रही
ब्रह्मांड फैल रहा
सृष्टि का कण कण
हो रहा विकसित
पर कुछ सड़े दिमाग
सृजन के विपरीत
बेतहाशा भागे जा रहे
अतीत के अंधेरे खोह में
जिसका कोई छोर नहीं
वे जाएँ
उन्हें हक़ है
अतीत के कीच में लोटने का
पर उसकी दुर्गंध
और गलीज़ छींटें
हमारे दामन तक न पहुंचे
बस
इतनी सी इल्तिज़ा है
आख़िर हम भी
इस महाजनपद की
तुच्छ प्रजा हैं





उधार

उन्होंने
नगर बसाया
रेलें चलाईं
बिजली और ट्रामें दीं
राजस्व व्यवस्था दी
बिरियानी पुलाव
खिचड़ी खिचड़ा
जलेबी बरफ़ी
बालूशाही
पराठे कबाब
क़ीमा दिया
शिक्षा व्यवस्था
जल व्यवस्था
शासन व्यवस्था
और दिया संविधान भी
अप्रत्यक्ष
उन्होंने बनाई संसद
दी चुनाव व्यवस्था
मुग़लों ने बनाईं
शानदार इमारतें
जानदार तहज़ीबें
अंग्रेजों ने
ढंग के कपड़े पहनाए
जो अब
उतरते ही नहीं
तन से मन से
उन्होंने दी
ज़बाने उर्दू
अरबी फ़ारसी अंग्रेजी
पुर्तगाली फ्रेंच डच
अलमारी अचार
संदूक बंदूक
चाक़ू चमचा
अनार अंजीर
गिनने जाओ
तो गिनती भूल जाओ
मानव सभ्यता
लेन देन की एक
प्यारभरी व्यवस्था है
अगर पसंद नहीं
तो चलो
लौटाते हैं सब कुछ
उन परायों का और
चलते हैं
नैमिषारण्य में
लंगोट लगाए
करते हैं गोमेध यज्ञ
रचते हैं
ऋग्वेद
फिर एक बार
बिना एक शब्द समझे




रिटर्न गिफ़्ट

हिंद
फ़ारसी
इंडिया
यूनानी
भारत मेरा देश है
बनारसी साड़ी
मुस्लिम बुनकर
लखनवी चिकन
युसूफ़ मियाँ
बनारसी शहनाई
बिस्मिल्लाह ख़ान
मुरादाबादी लोटे
मंसूर मियाँ
चूड़ियाँ, चूड़िहारिने
हदीसवा की अम्मा
जुलाहा
कबीर
सूफ़ी
जायसी
आशिक़
रसखान
गायक
रफ़ी
मौसिक़ी
नौशाद
शायर
मजरूह
लेखक
नवाब राय
राही मासूम रज़ा
अब्दुल बिस्मिल्लाह
सबको
अलविदा
अब रहेगा एक ही नाम
जय श्रीराम
क्षमा
नाम शब्द फ़ारसी है







डरना चाहिए

बाद में मुझे लगा
कि मुझे डरना चाहिए
एक पत्नी है
जो पढ़ाती है
सरकारी स्कूल में
मैं ख़ुद भी हूं
अदना सा सरकारी मुलाज़िम
एक नन्हा सा बेटा भी है
प्रायमरी स्कूल में पढ़ता है
घर के पास ही मंदिर है
शिवसेना की शाखा है
सुबह जिस बगीचे में
टहलता हूँ
वहाँ शाखा लगती है
आर एस एस की
मोड़ पर मस्जिद भी है
नुक्कड़ पर गिरिजाघर
यूनिवर्सिटी के पहले
गुरुद्वारा भी है
नगरसेवक
मेरी ही बिल्डिंग में
रहता है
ऐसे में
ऊपरवाले
या नीचे के ऊपरवालों से
सीधे सीधे
तू तड़ाक अच्छी नहीं
वे कोई मुझे तो
नुकसान पहुंचाते नहीं
और मेरी कोई निजी
अदावत भी तो नहीं
अब मोदी झूठ बोलते हों
अडानी देश लूटते हों
अंबानी की बीवी
लाख रुपये के कप में
चाय पीती हो
ट्रंप का कमोड
सोने का हो
मेरा पेट क्यों दुखना चाहिए
 निहायत मामूली आदमी को
मामूली मामलों में भी
बिना पूछे
दखल नहीं देना चाहिए
देश का लोकतंत्र
 अकेले मेरे दम पर तो है नहीं
देश में
अमिताभ बच्चन जी हैं
अमर सिंह जी हैं
मायावती जी हैं
ममता जी हैं
सोनिया जी हैं
अरविंद जी हैं
कितने सारे जी हैं
वे देखेंगे लोकतंत्र
जी में आएगा तब
मुझे फ़िक्र होनी चाहिए
इन्क्रीमेंट की
प्रमोशन की
बेटे के होमवर्क की
दीवाली की छुट्टियों में
घूमने जाने की
मां की बीमारी की
रिटायरमेंट के बाद के
इन्वेस्टमेंट प्लान की
एक्सटेंशन की
पुस्तकें छपवाने
लोकार्पण करवाने
पुरस्कारों के लिए
सेटिंग करने की
या किसी अकादमी
या पीठ पर सवार होने की
तिकड़म लगाने की
इतने सारे
महत्वपूर्ण कामों को
ताक पर रख कर
आग मूत रहे हूँ उन पर
जो बर्फ़ की सिल्लियों में
महफ़ूज़ हैं
जैसे ही अहसास हुआ
हक़ीक़त का
सच कहता हूँ
सबसे पहले मुझे लगा
कि अब मुझे डरना चाहिए
०००

हूबनाथ और कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/08/1_23.html?m=1

2 टिप्‍पणियां:

  1. गांधीजी पर हुबनाथ जी की कविताएं वेहतरीन है।

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  2. बेहतरीन कवितायें ......
    तंज और सिसकी साथ चलते है कविताओं में ।जो शब्दो मे नही भावों में निहित है उस कविता और उसके कवि को सलाम ।

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