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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

23 दिसंबर, 2018




अनिला राखेचा की कविताएं





अनिला राखेचा 





ख्वाब की पुकार
     
यादों के महकते गाँव से
उम्र की ढ़लती छाँव पे
ख्वाबों का दरिया पार कर
मन की गंगा के घाट पर
चल आ, हम जी ले जरा
सच के पल दो पल...  ...

तू मेरी हकीकत, मैं तेरी सच्चाई
तू मेरा साया मैं तेरी परछाई
फिर क्यूँ बढ़े हैं, दोनों में फासले
क्यूँ न हम एक दूजे को जाँच ले औ
बनूँ मैं फिर से तेरी वही मुरली
तू फिर से लबों से एक नई राग ले
चल आ, हम जी ले जरा
चाहत के पल दो पल...  ...

सुख-दुख की गलियों के फेरे में
औरों के साँझ - सवेरे में
कुछ खो कर के कुछ पाने में
भूले तुम जिसको इस जमाने में
वह राज आज फिर लौट आए हैं
बैठे जीवन यामिनी के सिरहाने में
चल आ, अब जी ले जरा
खुद ही खुद में खोकर पल दो पल...  ...

यादों के महकते गाँव से
उम्र की ढलती छाँव पे
ख्वाबों का दरिया पार
कर मन की गंगा के घाट पर
चल आ हम जी ले जरा
सच के पल दो पल...  ...!!





गाजर का हलवा

भूली नहीं हूँ,मुझे सब कुछ याद है .....
आज फिर मैंने गाजर का हलवा बनाया है,
मगर तुम नहीं हो ....
हाँ.... पूरे घर में, इस हलवे की खुशबू
आहिस्ता -आहिस्ता तैरती जा रही है
और तैर रही है मेरे मानस पटल पर
तुम्हारी यादें .....  .....  .......
हलवे की खुशबू पाते ही, तुम्हारा दौड़ कर
कमरे से रसोई में आना.... और कहना-
मम्मी, क्या गाजर का हलवा बना रही हो ..?
मेरा मौन, नि: शब्द मुस्कुराना और
तुम्हारा खुश हो कर भाँगड़ा करना ......
कुछ भी भूली नहीं हूँ,सब कुछ याद है .....

याद है मुझे वह लम्हे भी,
जब सबसे छुपा कर
तुम्हें सरप्राइज देने के लिए
एक रात मेरा गाजर का हलवा बनाना,
और तुम्हारा आधी रात को ही
उसे चट कर जाना....
सरप्राइज मैं तुम्हें करना चाहती थी मगर
सरप्राइज तुमने ही मुझे कर डाला था
सुबह नाश्ते की टेबुल पर
खाली कटोरा दिखा कर
हाँ भूली नहीं हूँ,मुझे सब कुछ याद है ....

याद है मुझे वह बात भी,
जब एक बार मैंने तुम्हारे दोस्तों को
खाने पर बुलाया था औऱ
गाजर का हलवा भी बनाया था
हलवे को देख सभी बच्चे
खुशी से नाचने लगे थे,
मगर तुमने सबकी प्लेटो में
प्रसाद के रुप में एक-एक चम्मच
हलवा परोसा था
जिसे देख कर सभी दोस्तों का मुँह
ऐसे बना जैसे कोई जला समोसा था
मगर तुम इस बात से बेखबर
पूरा कटोरा अपने हाथ में ले
निश्चितता से खा रहे थे, औऱ
वे सब तुम पर गुर्रा, चिल्ला रहे थे।

आज फिर हलवा बना रही हूँ
मगर तुम नहीं हो...
इस दूध की तरह मेरी भावनाओं में भी
उबाल आ रहा है ,आ रही है उसमें से
तुम्हारी यादों की सौंधी मीठी महक
क्या खूब रंगत आई है हलवे की
बिल्कुल खुशी से दमकते,
तुम्हारे चेहरे की तरह...
मगर आज तुम नहीं हो,
भांगडा करने के लिए...
मगर आज तुम नहीं हो,
हलवा चट करने करने लिए...
मगर आज तुम नहीं हो,
अपने दोस्तों से झगड़ने के लिए...

बsssसsss....
है तो इस सुने घर में
"मैं" ये "हलवा" औऱ तुम्हारी "यादें"....

भूली नहीं हूँ, मुझे सब कुछ याद है .....





तलाश


जी करता है
तुम्हारे साथ
किसी बात पर
इतना खिलखिलाऊँ कि...

हँसते - हँसते पड़ जाए पेट में बल
गाल दर्द करने लगे हँसते-हँसते और
आँखों से झरने लग जाए आँसू
और... और धरती और आसमान
एक कर दूँ मैं हँसते - हँसते
लोटपोट हो जाऊँ पूरे जहाँ पर
बिछ जाऊँ चादर सी अपने ख्वाब पर
उस ख्वाब पर जो पनाह लिए हुए है
दिल के किसी कोने में
ढूँढ रहा है वजूद अपना
होने या न होने में...
खींच लाऊँ उसे मैं
अपने एहसासों की नर्म चादर तले
पाकर स्नेह - नमी वह फूले-फले
फूले - फले वो इतना कि
शाखों - शाखों पर
लहराए उसके फूल
और पत्ते - पत्तों पर लिखे
उसकी कहानी जो अनकही है
फूले--फले वो इतना कि
ढक दूँ उसके फूलों से पूरा जहाँ
इस जहाँ के हर शख्स को मैं
उसके फूल भेंट कर आऊँ
उसकी कहानी अपनी जुबाँ से
सबको सुना आऊँ
सुनकर जिस कहानी को
सारा जहाँ भी खिलखिलाए
सब के पेट में बल पड़े
आँखों से पानी झरने लग जाए
लोट पोट होने लग जाएँ
सब एक-दूजे पर...
मरने लग जाएँ
सब एक - दूजे पर...
उनके एक - दूजे पर मरते ही
यह सारा जहाँ जी उठेगा...
यह जमीं खिल उठेगी
आसमाँ खिल उठेगा...
बस... मेरे मौला - ताला
मुझे दे - दे एक ऐसी वज़ह कि
उस बात पर
मैं इतना खिलखिलाऊँ
इतना खिलखिलाऊँ
कि हँसते - हँसते
पड़ जाए पेट में बल
गाल दुखने लगे और
आँखों से झरने लग जाए आँसू
हाँ...
तलाश है मुझे उस एक वजह की....!!










बूंद-बूंद भी अक्षर-अक्षर

नहीं...!
आज नहीं झर रहें है,
उस झरने से
बूंद-बूंद भी अक्षर-अक्षर
नहीं तो मैं
उन बूंदों को जोड़-जोड़
बना लेती कुछ शब्द
फिर शब्दों-शब्दों को मिला
रचती कुछ वाक्य
वाक्यों पर वाक्यों की तहे लगा
बुन डालती एक नई कविता
ऐसी कविता जैसी तुम चाहते हो
ऐसी कविता जिसमें दर्द हो पीड़ा हो
हो भरा जिसमें नारी का शोषण
तृप्त मन-माटी का अतृप्त बीजारोपण
है ना... यह अजीब सी बात
कैसे करूँ इसे पूर्ण मेरे नाथ
हालांकि, वर्षों से परिचित हूँ मैं
“निराला जी” की उस नीरा से
जो तोड़ती थी पत्थर
स्वीकारी हुई पीरा से..
और हाँ रूबरू हो चुकी हूँ मैं
अपनी कवि मित्र की,
‘रधिया' से भी कई बार,
मर चुकी सड़क को जो
खिलाती थी,
जिंदगी का कोलतार
मगर...
मगर मेरे मखमली जीवन पर
नहीं अब तक कोई टाँट की रेखा है
इन आँखों ने अभी तक कभी
नहीं उस दर्द को देखा है
वातानुकूलित वातावरण में रह
कैसे उनके वातायन को देख पाऊँगी
धरी नहीं कभी तगारी सर पर
तो कैसे कविता की रीढ़ बनाऊँगी...
कहाँ सुनी कभी मैंने उस
गुरु हथौड़े की वो काँपती झंकार
झुके माथे से ढ़ुलकते मोती
और दृष्टि के वे छिन्न तार
नहीं....
नहीं, मैं कुछ भी तो
नहीं गढ़ पा रही हूँ
इस ऊँचे गढ़ में बैठकर
आज नहीं झर रहें हैं
उस झरने से
बूंद-बूंद भी अक्षर-अक्षर...!!






चोरी

कितनी सफाई से चुराते हो तुम
अपनी कविताओं के लिए
हमारे वाचाल वाक्यों में से शब्द और
रच लेते हो एक खूबसूरत सी कविता
जिसमें भरी होती है सरसता-सरलता
बिल्कुल हमारे ही व्यक्तित्व की तरह

जानते हो तुम्हारी कविताएं मुझे
इतनी प्यारी क्यों लगती है
क्योंकि उन कविताओं के कतरे कतरे में
मौजूद रहता है अस्तित्व हमारा
मौजूद रहती है हमारी आत्मा
हमारी रूह.. हमारा हर लम्हा..
हमारा अतीत, हमारा भूत, हमारा वर्तमान
हम... हम... और सिर्फ हम....

हमारे अलावा वहाँ
कोई भी मौजूद नहीं होता है
वहाँ भी हम नितांत अकेले होते हैं
होते हैं बिल्कुल तंहा खुद की ही तरह
हमारी ही तरह तुम्हारी कविता के शब्द भी
खुद ही खुद से बातें करते हैं
समझाते हैं खुद को ही जीवन का दर्शनशास्त्र
मगर इस बात से बेखबर तुम
हमारे वाक्यों से निकालते हो
अपनी कविताओं का ब्रह्मास्त्र...
छोड़ते हो उसे लोगों के जेहन पर
तीर सी जाकर चुभती हैं उन्हें तुम्हारी कविताएं
मगर कहाँ समझ पाते हैं वे तुम्हारा यह वैशेषिक शास्त्र

मानती हूं मैं... मानती हूँ
तुम अपनी कविताओं के ब्रह्मा हो
उसके कर्ता-धर्ता संघार हर्ता हो
मगर ख्याल में रखना
बस हमारी इतनी सी बात
अगर हम ना होते तो ना मिलती
तुम्हें ब्रह्म होने की सौगात

इसलिए ऐ कवि महाशय खुद पर न इतना गुरुर करो
चोरी तो की है तुमने अब बस जुर्म अपना कबूल करो !!






जज्बात - ए - दीवार


कहते हैं....
दीवारों के कान होते हैं,
मगर "साँसे" उनकी भी
थमती हैं जब बंद कमरे के
झगड़े सरे - आम होते हैं...

है दिल दीवारों में भी, फक्त
हम दिले-नादान होते है
"धड़कता" है वो भी जोरों से जब
दो मासूम दिल एक जान होते हैं...

देखिए वो दीवारें भी
बेहद "शर्म-सार" होती है,
जहाँ काले कामों में
काली रात होती है...

"हया" उन्हें भी आती है,तभी
वो पर्दे में रहती हैं, मगर
पर्दे के पीछे ही हमारी
बेहयाई बातें करती है...

"दर्द" उन्हें भी होता है
तभी तो वे भी रोती है
तंगहाली के आलम में
वे भी बिस्तर भिगोती हैं...

एक घर को बनाने में
शामिल कई दीवारें होती हैं
तभी तो हम यह कहते हैं
दीवारों में भी “एकता” होती है


ये बेज़ुबान दीवारें भी
कितनी जुबाने बोलती है
समझे उन्हें हम कितना हैं
निगाहें उनकी तौलती है.... !!





झूठा दंभ

उस दिन दीवारों को
हो गया था गुमान ....

हम से ही बना है यह घर
सजे हैं हमसे ही
सारे साजो सामान .....

हमसे ही छत ने
अपना स्वरूप पाया है
टिकी है हम पर ही
छत की यह काया है....

दीवारें, दीवारों से मिल
इतरा रही थी,
छत के अस्तित्व को
धता बता रही थी...

छत का अस्तित्व ही
दीवारों का सरमाया था,
दीवारों का वजूद इसे
कहाँ समझ पाया था...

दीवारें इस बात
इस सोच से थी बेखबर,
उनकी सलामती की खातिर ही
छत ने पीया हर मौसम का जहर...।

दीवारें खुद की परिपूर्णता पर
खुशियां मना रही थी, और
छत खुद से ही, खुद के
आँसू छुपा रही थी.....

खुद को समझाते, आँसू छिपाते
सदियाँ गुजर गई...
छत पर नजर आते थे
सूखे आँसुओं के दाग हर कहीं...

आँसुओं की नमी ने
एक दिन ऐसा कहर ढाया...
छत का संपूर्ण अस्तित्व
भरभराकर नीचे आया....

आज वह वस्त्र विहीन दीवारें
अपनी हालत पर लजा रही हैं,
हो खंडहर में तब्दील वे
जिंदगी जीने की सजा पा रही है....!!






तुमसे कुछ कहना है

सुनो...
तुम जहाँ कहीं भी हो सुनो...
दुनियाँ के किसी भी कोने में हो,
सुनो...
सुननी ही होगी,
आज तुम्हें हमारे मन की बात...

वर्षों पहले
एक अपराध तुमने किया था,
हमारे दिल को अपना घर बना कर...
कब आए... कब चुपचाप, उसमें अपने,
मजबूती से पाँव जमाए,
हम तो खुद भी समझ न पाए...

तुम एक हवन कुंड की मानिंद
जलते रहे हमारे हृदय में वर्षों तक...
और हमने भी समिधा बन कर
उस आग को जलाए रखा
अपने सीने में अर्सों तक...

धूनी रमा, तुम्हारे ध्यान में मग्न हो,
बैठ गई मैं, अपने ही दिल में,
तुम्हारे हवन कुंड के सामने...
लगी रही ईश्वर से मन ही मन
बस तुम ही को माँगने...

तुम्हारे यज्ञ की अग्नि से
मेरे मन का तेज बढ़ता गया
और तन उसकी आँच से
पल - प्रतिपल पिघलता गया
मन का मान बढ़ाती
देह को पल-पल गलाती
उम्र अपना रास्ता नाप रही थी...
और मैं कभी खुद में, और
कभी तुझ में झाँक रही थी...

वक्त खामोशी से
गुजरा जा रहा था
तुम संग, इस तरह जीना भी
मुझे भा रहा था, मगर...
मगर हो गई उस दिन वो
अनहोनी बात -
छा गई जीवन पर
गम की काली रात...

तुम जिस तरह मजबूती से
अपने पाँव जमाते आए थे
उसी तरह मजबूती से
अपने पाँव उखाड़ते हुए,
मुझे दरका - तड़का
मुझ पर ही अपने
पैरों की धूल झाड़ते हुए
न जाने कहाँ लोप हो गए...

तुम्हारे इस आघात से
बिन नेह की बरसात के
हमारे हृदय की हरियाली
कब, मरुभूमि में तब्दील हो गई
हमें पता ही ना चला...

हम तो अपने ही दिल में
धूनी रमा हवन कुंड के
सामने बैठे थे,
और जीवन समिधा बन
तिल - तिल जल रहे थे,

एहसास तो हमें तब हुआ
जब हवन कुंड की आँच
आहिस्ता-आहिस्ता मंद पड़ गई,
और... समिधा भी
गीली लकड़ी में बदल गई ...
वो गीली लकड़ी अब भी
धीमी-धीमी सुलग रही थी,
और हृदय परिसर को
धुएँ की लकीरों से भर रही थी...

ध्यान रत नैनों का नीर, झर-झर
समिधा को भिगो रहा था...
खाली हवन कुंड अब किसी
जल कुंड में तब्दील हो रहा था...

उसका जल न कमता था, न बहता था,
आठों आयाम एक सा ही रहता था...
उस ठहरे हुए, जमे हुये जल पर
काई सी उग आई थी
बस... ऐसी ही हरियाली
हमारे जीवन पर भी छाई थी...

वक्त के साथ हरियाली की यह चादर
परत-दर-परत मोटी होती गई
और मैं उस चादर को ही
ओढ़ती-बिछाती, उसमें ही
ख्वाब संजोती गई...

मगर.. मगर आज एक अनहोनी बात
मैं भी तुमसे फरमा रही हूँ
कभी किया था तुमने जो अपराध
वह आज, मैं भी करने जा रही हूँ...

तुम तो चले गए
मुझे दरका-तड़का कर
यादों की काई में,
मुझको सजा-बसा कर
उसी काई को मैं अब,
खुरच कर हटा रहीं हूँ
उलीच उस जल को,
कुंड को सुखा रही हूँ....
है विश्वास कि अब,
कोई अपराधी न आएगा,
धुँए की लकीरों से अब,
कोई ना मुझे सजाएगा
छायेगा मुझ पर भी देखो
फिर से अंतहीन बसंत
क्योंकि, आ बैठा है मन में मेरे
अब कोई अनजाना मासूम संत...!!!




मेरी बातें

कफन मत पहनाना अभी ,दफन नहीं होना चाहती मेरी बातें........
जीनी है उसे तुम संग जाने, कितने दिन और कितनी राते..........!!

कभी अमावस कभी पूनम कभी तारों की बारात हैं बातें ,
हरी घास पर ओस की बुंदे, इन्द्रधनुषी सतरंगी बातें .........!
कभी थमी कभी जमी कभी दरिया सी बहती हैं बातें,
पलकों की कोरों से गिरकर,  किस सागर से मिलती हैं बातें .........!

फूलों सी खिल जाती है जब होठों पे सज जाती है,
मन की खुश्बु बन कर ये जीवन को महकाती हैं .........!
कभी लगे नवजात शिशु सी,कभी यौवन अपना छलकाती है ,
कभी बेबस लाचार बन ये, किसी अबला की याद दिलाती है .........!

बाणों की औकात कहा जब, तानों में तब्दील हो जाती हैं बातें ,
शब्दों का लावा बन कर, ज्वालामुखी बन जाती है बातें ........!
तपते रेगिस्तानी तन पर, सावन- सुकून बन बरसती हैं बातें ,
दिल पर पड़े हुए जो छाले, कभी उनका मरहम बनती है बातें .......!

यहाँ -वहाँ, इधर- उधर की, कुछ नई- पुरानी बीती बातें ,
हाँ- तुमसे  करनी है मुझको, अपने ख्वाबों की हर बातें ......!

तभी तुम्हीं से कहती हूँ कफन मत पहनाओ
दफन नहीं होना चाहती मेरी बातें ,
जीनी है उसे तुम संग जाने, कितने दिन और कितनी रातें.......!!







पंच भूति प्रेम

ऐ धरती तुझे
मेरे और उनके प्रेम को,
अपने हृदय में अंत तक स्थान देना होगा।

ऐ आकाश तुझे -
मेरे और उनके प्रेम को,
अपनी बाँहों में अनंत विस्तार देना होगा।

ऐ अग्नि तुझे -
मेरे और उनके प्रेम को,
अपनी  नाभि में अखंड दीप सा जलाना होगा।

ऐ जल तुझे -
मेरे और उनके प्रेम को ,
अपने दृगों से भी अतल गहरा बनाना होगा।

ऐ वायु तुझे -
मेरे और उनके प्रेम को,
अपनी खुश्बू से असीम व्योम में बहाना होगा।

और अंत में ........

इन पंचभूतों से निर्मित प्राणी -
तुझे मेरे और उनके प्रेम को ,
युगों का गीत बना गुनगुनाना होगा ......!!




तुम्हारी कविता

जब भी पढ़ती हूँ तुम्हारी कविता
पढ़ने के बाद पसर जाता है मौन
शब्द जो हरकतें कर रहे थे बड़ी देर से
हो जाते हैं वे खामोश,  गौण
और हृदय के अतल में उतर वे
करने लगते हैं नाना प्रकार के नाद
तब मूकता का नीरवता से
होने लगता है संवाद
एक ऐसा संवाद जिसे
तुम मेरे बिना कहे ही सुन लेते
मेरे बिना लिखे ही जिसे तुम
मेरी आंखों में पढ़ लेते
मेरे ये अनकहे, ये अनलिखे शब्द
तुम्हारे पढ़ते ही झरने लगते
मेरी पलकों की कोरों से
मेरी अलकों के छोरों से
गूंथने आ जाते फिर तुम उन्हें
अपनी फुर्सतों के डोरों से
चुन-चुनकर अक्षरों-अक्षरों के फूल
और शब्द-शब्दों की पाती
तुम्हारी रचनाधर्मिता फिर एक
नई कविता रच पाती
जिसे आज मैं
फिर से पढ़ने बैठ रही हूँ
जानती हूँ, जिसे पढ़ने के बाद
फिर से पसर जायेगा मौन
छा जाएगी खामोशी और
शब्द हो जाएंगे गौंण...!!
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संक्षिप्त परिचय-
                         
 अनिला राखेचा कोलकाता निवासी हैं। जन्मतिथि - 23 अप्रैल को पश्चिम बंगाल के कूचबिहार जिले के माथाभांगा गाँव में जन्म।

 छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिला के भिलाई नगर में सम्पूर्ण बाल्य काल व्यतीत हुआ और यही से रविशंकर यूनिवर्सिटी के तहत कल्याण महाविद्यालय से स्नातक की उपाधि भी प्राप्त की।

स्कूली छात्रों को घर पर ही हिंदी की शिक्षा देना व हिंदी साहित्य का अध्ययन व मनन करना।

"वागर्थ", "पुस्तक संस्कृति", "मधुमती", "किस्सा" "अभिनव प्रयास", "पहला अंतरा","अनुकृति", "छत्तीसगढ़ मित्र" "राजस्थली" “संवदिया” “प्रतिमान” आदि पत्र- पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। स्वतंत्र लेखन।

आकाशवाणी कोलकाता से कई कविताओं, कहानियों का प्रसारण।

स्थाई पता-

Anila Rakhecha
124 A Motilal Nehru Road
Ashirwad Bldg.
Flt - 2B 2ND FLR
Kolkata (W.B.)
Pin.- 700029
Mob.no. - 9051806915
















6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुंदर ...हृदयस्पर्शी ..भावपूर्ण सृजन है अनिला जी का ..! ! ..विषय की विविधता ..और ...परिपक्वता ..दोनों ही देखने को मिलती है ...इनकी रचनाओं में ...! ! ..सहज ...सरल ..किन्तु प्रभावशाली ..शब्दों के चयन से ..रचा होता है ...इनका काव्य संसार ..! ! ...हार्दिक शुभकामनाएं ..! !

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  2. बहुत सुंदर ,भावपूर्ण रचना 👌👌

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  3. आपकी हर रचना बहुत प्यारी है दीदी

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  4. हर रचना... बेहद खूबसूरत

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  5. बेहद खूबसूरत...💐💐💐💐

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  6. अनिला जी इन सुंदर भावपूर्ण रचनाओं के लिए आप को बहुत बहुत बधाई.
    गाजर का हलवा पहले भी पढ़ी थी.
    ह्रदय में गहरे पैठी हुई है... असाधारण स्थितियों में ही ऐसी रचनाएँ जन्म लेती हैं...

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