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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 दिसंबर, 2018

परख इक्कतीस

यहाँ चौपाल से गायब हैं बातें !


गणेश गनी



नवनीत


उन दिनों गांव में मनोरंजन के कोई आधुनिक साधन उपलब्ध नहीं थे। बच्चों को सांझ का इंतज़ार रहता था। मिट्टी से बनी छतों पर या खेतों में खेलने का यही समय होता था। बड़े लोगों को भी काम से फुर्सत शाम को ही मिल पाती थी। शाम को ही छतों पर चौपाल सजते तो ज़ाहिर है अफ़साने भी चलते। किसी किसी घर से रेडियो की आवाज़ भी सुन जाती। सर्दियों में बर्फ़ के बीच कोई काम नहीं होता, सिवाए इसके कि मवेशियों को चारा पानी देना और मेले त्योहार मनाना। चारों तरफ़ बर्फ़ ही बर्फ़ होती और केवल छतें ही मनोरंजन का मंच होतीं। मेलों के समय दिन भर महिलाएं और पुरूष इन्हीं छतों पर हाथ गांठकर घुरेई गाते और नाचते। कदम से कदम और ताल से ताल मिलाकर गोल गोल घूमते तो लगता जैसे पृथ्वी भी अपनी गति धीमी कर इनके साथ साथ घूम रही है-

बर्फ़ में जीते लोग
बर्फ़ में नहीं मरते
उन्हें भी रहता है धूप का इंतज़ार।
बर्फ़ में दबे घरों के
बच्चों का सपना होता है
कि आँगन में भले न उगे घास
बन जाए उनके खेलने जितनी जगह
ताकि बर्फ़ में लगातार खेलने से ऊबकर
वे नंगी ज़मीन पर भी
कुछ खेल सकें।

साँझ ढलते - ढलते आज इन्तजार तब खत्म हुआ जब धौलाधार में रचे बसे कवि मित्र नवनीत शर्मा की किताब एक पत्रकार मित्र शम्भू प्रकाश ने मुझ तक पहुंचाई । मैं उतावला था कि एक ही सांस में पढ़ डालूं । यह असम्भव है कविता में भीतर तक उतरने के लिए।
नवनीत कहते हैं -

ढूँढना मुझे
बावड़ी के किनारे रखे पत्थरों के नीचे ।

नवनीत की कविताएं अपने को पढ़वाती चलती हैं । कवि पहाड़ के करीब रहता है। वो जानता है पहाड़ कितने खूबसूरत दिखते हैं दूर से। कवि पहाड़ के झरने, जंगल, खेत, घर और संस्कृति में रचे बसे संगीत को महसूस करता है और उन्हीं पलों को जीना चाहता है। एक कविता की ये पंक्तियाँ देखें -

मिलूंगा मैं
उस खास पल में
जहां बोल को तेजी से दौड़ कर छू लेती है
तबले की थाप ।

कवि छोटी छोटी घटनाओं में संवेदनशीलता से जीता है। नवनीत की कुछ कविताओं में एक जादू है, एक आकर्षण है जो बरबस अपनी ओर खींचता है-

तुमने वही सुना
जो मैंने नही कहा था
मैंने वही सुना
जो तुमने नहीँ कहा था
देखो कितनी बातें की हमने ।

कवि चाबुक चलाते हुए कह रहा है -
यहाँ चौपाल से गायब हैं बातें ।

पाठक सुन्दर बिम्बों से मुलाकात करते हुए पाठक प्रेम कविताएँ  और लोक से जुड़ी बातें पढ़ते हुए आगे बढ़ता है। कवि अपनी अलग भाषा में प्रतिरोध के स्वर भी मुखर करता है-

आए देवता पर क्रोध
तो सदियों का गुस्सा भर सकते हैं शहनाई में
सदियों का आवेग पटक सकते हैं ढोल पर
नरसिंघा के हवाले कर सकते हैं गुब्बार ।

यह समय कठिन जरूर है पर कवि अपने समाज में घट रही घटनाओं की महीन पड़ताल करता है । उसे पता है यह भी कि क्या माँगना है और कितना । यह महत्वपूर्ण है । एक जगह नवनीत कहते हैं-

इतनी भीड़ ...
इतना शोर ...
काश कोई दिलाए
दो पत्ते छाँव
एक खिड़की उजाला
दो पेड़ तन्हाई
एक गजल सांस ।

नवनीत की कविताएँ प्रकृति के बेहद करीब हैं । कवि संवेदनशील होने के साथ साथ एक ईमानदार जीवन जीना चाहता है। उसकी चाह निश्छल उड़ान भरने की होती है जबकि चारों ओर उलझनें और पेचीदगियां फैली हुई हैं । कवि मासूमियत में कह उठता है -

अगली बार
अपने पंख देना उधार
तुम्हारे पंखों से देखूंगा पौंग झील का विस्तार
देखना है धौलाधार के उस पार बसा चम्बा
तुम मुझे सिखाना
आकाश में बिना मील पत्थर
कैसे पता चलती हैं मंजिलें
कैसे कटते हैं जाल।

गाँव से कवि का रिश्ता अटूट है । यानि जड़ों से जुड़ाव के कारण कविताओं में गाय , गौरैया , खेत , किसान , पहाड़ , नदी आदि आसानी से आ जाते हैं । एक जगह कवि पूछता है -

क्या तुम्हारा शहर भी उदास होता है
जब कभी पहुँचती है
मेरे गांव का सवेरा लेकर
तुम्हारे शहर की शाम में कोई बस
थकी- मांदी ।

नवनीत शर्मा सम्वेदनशील कवि है। समाज में घट रही घटनाओं को वो बारीकी से देखते हैं, समझते हैं और फिर चुप नहीं रहते। एक कवि को चुप रहना भी नहीं चाहिए। एक जरुरी बयान में कवि कहता है-

सुन बेटी!
खूब पढ़ना तुम
भीड़ से डरना नहीं
रास्ता भीड़ को चीर कर ही निकलता है।

कवि ने भीड़ से अलग कविता का सृजन किया है। कविता में नए मुहावरे गढ़े हैं। नवनीत की भाषा सरल है। कोई मुश्किल बिम्ब नहीं हैं। इसी सरलता के कारण ये कविताएं आसानी से पाठकों तक सम्प्रेषित हो जाती हैं। नवनीत शर्मा प्रचार प्रसार से दूर रहकर धौलाधार की वादियों में चुपचाप रचनाकर्म में रमे रहते हैं। कविता के साथ जीने के लिए रोटी भी चाहिए। हृदय का भोजन कविता है, तो पेट के लिए रोटी ज़रूरी है-

आज फिर वही हुआ
क्या बड़ा, क्या मंझली, क्या छोटी
आज फिर सबके हिस्से आई
आधी आधी रोटी
पर चूंकि भूखे बच्चे के लिए रोटी का विकल्प
एक सुंदर कहानी से ज़्यादा कुछ नहीं होता
और कहानी में परियों से ज़्यादा कुछ नहीं होता।

कविताएं बड़े बड़े दावे नहीं करतीं, लेकिन छोटी छोटी घटनाओं और साधारण सी दिखने वाली चीजों पर लिखी बात बड़ी ही सहजता से बहुत महत्वपूर्ण बात कह जाती है। यह नवनीत की लिखी कविताओं में देखा जा सकता है और यही कुछ बातें हैं जो उन्हें गम्भीर कवि बनाती हैं-

गैस का चूल्हा साफ करते करते
घिसने से बच जाते हैं
शब्द के जो हिस्से
वे कुछ सालों बाद
लोकगीतों में मिलते हैं।

पिता पर कविता कम लोगों ने लिखी हैं, जिहोंने लिखी भी हैं तो पिता की भूमिका को कम आंका है या कुछ शब्दों के प्रयोग में कंजूसी की है। कवि पिता से सम्वाद करते हुए पाठक को भी वही अनूभूति दिलवाता है-

मेरे पास उम्मीद थी
आपके पास समय नहीं था ।

नवनीत शर्मा की कविता में जीवन की छोटी छोटी घटनाओं का दिल छू लेने वाला वर्णन होता है। इनमें जीवन की जरूरी बातें छिपी होती हैं जिन्हें अक्सर नजरअंदाज किया जाता है-

शिकायत करती हैं दो सहमी आंखें
अर्से से नहीं देखा चौखट के बाहर का सूरज।

कवि उस भाव को भी व्यक्त करना नहीं भूलता जो बातों बातों में छूट जाता है। कई बातें तब रह जाती हैं जब हम सोचते हैं कि अभी समय नहीं आया है। अधूरी और अनकही बातें जब छूट जाती हैं तो बड़ी पीड़ा होती है-

कहना हवाओं से
मैं फिर आऊंगा
इस बार नहीं कहा जा सका सबसे सब कुछ
नदियों से कहना
पहाड़ याद करता है
बादलों को देना
धूप में तपती भाषा का पता।

नवनीत शर्मा एक आखिरी ख़त लिखना चाहते हैं, एक अंतिम सन्देश देना चाहते हैं-

कोयल से कहना
कोई सुने न सुने
गाती रहे
ठीक वैसे जैसे बाँसुरी चुप नहीं बैठती।


गणेश गनी


एक आखिरी बात अपने खत में जब कवि लिखता है तो वो पढ़कर सुनाने लायक है और बात यदि कही गई है तो फिर सुनी जानी चाहिए-

समाजशास्त्रियों से कहना
अभी बैठे रहें
रात बीतते ही
अकेलेपन से ठिठुरे लोग आएंगे
उनके लिए रख लेना
संबंधों का थोड़ा ताप।
००





परख तीस नीचे लिंक पर पढ़िए

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