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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

28 अप्रैल, 2019

कहानी 


पुरूष विमर्श

कुसुम भट्ट






‘जो हो रहा है वह सही है जो हुआ है वो सही है जो होने जा रहा है वह भी सही होगा... वक्त का तकाजा है कि वह एकाएक नहीं बदलता कुछ, वक्त लग सकता है चीजों को बदलने में....।‘‘
वकौल नारायण



कुसुम भट्ट 


रात भर उनके भीतर का जमा पानी उनकी मन्द रोशनी वाली आंखे बूंद....बूंद उलीच चुकी है। अब  पानी की जगह नमक गिर रहा है- सूखा नमक....। आँखें जलन करने लगी है। रात अपने तमाम अंधेरे को समेट कर गायब होने की फिराक में हैं।... कुछ देर बाद उगते उजाले में चीजें साफ नजर आनी हैं... वे धीरे से उठी, देह पर ओढ़ा कम्बल बेआवाज हटाया और खिड़की के पास खड़ी हो गई, खिड़की के पास मन्दिर का कलश चमक रहा था मन्दिर के चारों ओर छोटी-छोटी लाल बत्तियाँ झिलमिला रही थी, रात अपनी कालिमा के भीतर कितना कुछ गायब किये रहती है। खोजने पर धरातल में शंशय के सिवा कुछ हाथ नहीं आता। वही दिन अपनी रोशनी में दबी ढकी चीज़ों को उघाड़ने पर आमादा,             
कितना अच्छा होता रात उन पर कुछ वक्त और मेहरबान रहती.... भुला देती- भूत भविष्य सिर्फ वर्तमान पर अगोरे रखती उन्हें....। उन्होंने कस कर पकड ली सीखंचे.... गोया सारा दोष खिड़की का हो...। तहखानों में रैनबसेरा करने वालों के लिए सुहाना अंधेरा पर्याप्त हो कि चेहरे न दिखाई दें, गर भूल से दिखाई भी दे तो उनमें लगे हो जालें। जीवन का गणित कहाँ गड़बड़ा गया... उन्हें पता ही नहीं चला। उन्हें तो बस सीधी गिनती ही आती थी दो और  दो चार ही होता है, पाँच तो नहीं, नीचें के घर में दिनचर्या शुरू होने की आहट आने लगी है। ओऽम... ओऽम.... शिव... शिव.... ठीक चार बजे मन्दिर का घन्डियाल बजने लगा। पुजारी नहान के पत्थर पर बैैठ चुके तो उन्होंने आवाज लगाई खरखरी आवाज  ‘ ओऽ सिद्धू की माँ! ‘आवाज की सुई जितनी कोमलता हाथ में थमाये कपड़े को देखकर उड़ गई उनके दिमाग में क्रोध के गरम-गरम बुलबुले फूटने  लगे‘‘ कच्छे पर नाड़ा क्यों  नही डाला‘ ओऽ रांड... ?

‘ओऽ सिद्धू की माँ ‘‘पत्नी को ऐसे ही सुनाई दिया, वह धुआं देती लकड़ियां में बार-बार फूंक मार रही थी, आवाज बम के गोले की तरह उनके कानों में पड़ी हर बार ऐसा ही होता है जब पुजारी कहते ‘रांड‘ उसको सुनाई देता सिद्धू की माँऽ! ‘‘वह कमरे को धुंए में छोड़कर वापस लपकी और धुंए से मिचमिचाती आँखों का पानी पोछने लगी, पुजारी ने कच्छे को गोल-गोल मोड़ कर उसके रोते मुखड़े पर दे मारा‘‘

‘‘नाड़ा क्यों नहीं डालती इस पर... ?’’ पत्नी ने हड़बड़ी में बालों की क्लिप निकाली ‘‘अभी डाल देती हूँ.. सिद्धू के पिताजी...’’

‘‘भली औरत! तौलिया दे जल्दी तू ठहरी भुलक्कड़‘ पत्नी नाड़ा डालती भीतर लपकी अलगनी से तौलिया लेकर थमाया,
‘‘और धोती?‘‘
‘‘ये रही सिद्धू के पिता जी...‘‘
‘‘अब चा बना दे जल्दी...‘‘
‘‘बना चुकी सिद्धू के पिता जी...‘‘
‘‘चल बेशर्म... अब फूट यहाँ से...‘‘
‘वह खिल-खिल हँसी, ‘‘अब...कहाँ फूटूं.... सिद्धू के पिता जी. ?’’

उनके राख पुते चेहरे पर बीमार हँसी झरी, उस वार्तालाप में वह क्षण भर खुद को भूल चुकी थी। तभी ‘चीेंऽ... चींऽ... चींऽ... चींऽ... पंख झपकाते खिड़की के ऊपर आकाश पथ पर भोर का पंछी उड़ने लगा, गोया कह रहा हो ‘उठो सोने वाले सवेरा हुआ है...’






‘‘सबेरा हो गया .. ? मगर उनके पास तो पैने नाखूनों वाली काली बिल्ली सी रात ही ठहर गयी है, जो नोच रही है जीवन का चेहरा...! बाहर हल्का-हल्का उजाला फूटने लगा है धरती के गर्भ से..., वे मुड़ी तो उनके सामने पीठ थी। अंधेरे की अभ्यस्थ उनकी आँखे उस पीठ को पहचानने की जद्दोजहर करने लगी... जिस पर अब पठार बन चुका था। पहले यहाँ एक छतनार पेड़ था - हरी पत्तियों से झपाझप छतनार पेड़ ... जिस की छाया तले वे देह मन की थकान का पसीना सुखाती। ताजी हवा से भरी हरी पत्तियां उन्हें जिन्दगी की खुराक पिलाती रहती, पठार पर आँखें गढ़ाये की लगा कि इस की ओट में मांद है। जिसमें बाघ, भेड़िया, लोमड़ी कुछ भी छिपा हो सकता है ... रंग सियार  भी छिऽ... भीतर से नफरत का लावा फूटने को हुआ, सामने भूतकाल के दृश्य फड़फड़ा रहे थे.... गोया अब तक वे सब सपने में देखे गये हो.....

एक क्षण पूरी जिन्दगी बदल सकता हे... कब सोचा था उन्होंने, वे माँ की इकलौती सन्तान थी। लाडप्यार में अघाई, चारों कोने से प्यार में भीगी गौरया सी खुद को नुकीली चट्टान पर खड़ी देख रही थी, कितनी उम्र होगी  उनकी-जब वह यहाँ लाई गयी थी, इतना भर याद है कि उन्हें ‘वो‘ नहीं हुआ था, जिसके होने से लड़की औरत होती है। सुरमा के मुख से निगलने को आतुर जिम्मेदारियों का बोझ ढोती पाँच कुमारियों की इकलौती भाभी एक-एक कर ननदों के हेतु विवाह का सामान जोडती, जिन्दगी के मायने सखियों के संग हँसी ठिठोली करने नहीं रहे गये थे, अब तो करवट बदल चुकी थी जिन्दगी...। सामने एक चक्रव्यूह था, वे अभिमन्यू का बना ओढ़कर खड़ी थी....। सातों, द्वारो पर धुरन्धर योद्धा थे- उन्हें पराजित करने का प्रण लिये, भिन्न-भिन्न कुटिल चालों से उन्हें घेरते....। वंे लड़खड़ाती गिर पड़ने को होती फिर उठती, सभी चालों को ध्वस्त करते हुए मुस्तैदी से डट जाती.... इस तरह गृहस्थी की गाड़ी को गन्तव्य की ओर ले जाने में सफल रही। उनके तीनों बच्चे पढ़ लिख कर योग्य बन गये थे। लड़की पी0सी0एस0 चुन ली गयी थी, दोनों लड़के एक्सपोर्ट इंपोर्ट का बिजनेस बखूबी कर रहे थे। तीनों ने अपनी पसन्द से जीवन साथी चुनने चाहे तो उन्हें सहर्ष अनुमति दे दी थी वे सती अनुसूया सावित्री के आदर्शाे को जीने वाली स्त्री थी। जाति के मामले में उनकी अँाखों में पूर्वाग्रह थे, तो भी छोटी जातियों में विवाह करने में उन्होंने ना नुकर न की थी,  वें अपने बच्चों की विशिष्ट मां थी, बच्चे भी उनका दखल अपनी जिन्दगी में जरूरी समझते थे, उनकी वर्षों की तपस्या का फल था जिसे अहोभाव से वे खुद को संसार की सुखी स्त्रियों में पाती। वें मानती थी कि उन्हें यह दृष्टि भी इसी पीठ पर उगी आँखों ने दी थी जो अब पठार बन चुकी थी। क्या निर्दोष होने की इतनी बड़ी कीमत चुकाई जाती है कहाँ सोचा था उन्होंने....।

खिड़की पर खड़े उनके जे़हन के बन्द दरवाजें एकाएक खुलने लगे। ‘भाभी अन्नपूर्णा।‘‘ दृश्य परत दर परत खुलने लगा... आवाज संगीत की लहरों सी कानों में रस घोलने लगी ‘‘आपके हाथों में तो कमाल का जादू हैं....। घूट भरते दो प्यासे होंठ खुले, चाय का कप हथेली में थाम लिया, मोजनी आँखों से निहारने लगे थे उन्हें अल्मोड़ा के रमाकान्त पाण्डेय‘‘ मैं भी तो ससुरी ताज महल ही लाता हूँ, वह क्यों नही होती लाजवाब!‘‘ कमला देवी के सावलें चेहरे की दीप्ति में खोये मिश्री घुली आवाज का जादू आलीशान दिखते उस ड्राइंग रूम में विछलता... जिनमें नीलें काँच का चश्मे लगायें नारायण के वाम अंग में सकुचाई सी वह सांवली ग्रामीण बाला गोरे रंग की खौप से ढकी थी फोटो फ्रेम में....। रसोई से एकदम सामने उसी खौप पर उनकी दृष्टि टिकी रमाकान्त की आत्मा की तली से आते भावके साथ लिपटी उस आवाज ने उनके मन के किसी कोने को छू लिया था.... और अंधेरे कोने में एकाकए भक्क, जल उठी छोठी सी लालटेन.... जिसे नारायण जलाने में सर्वथा असमर्थ रहे थे। सांवले सलोने मध्यम कद काठी के गोल चेहरे घुंघराले बालों वाले मासूम रमाकान्त पाण्डेय की आत्मा की सतह से निकली आवाज का जादू उन्हीं दिनों बिछलने लगा था जब वे पैतिसवें वर्ष में प्रवेश करने जा रही थी और कुछ वाक्य अद्भुत शिल्प में गुथेें बराबर उनके कानों में टकराते रहतें‘‘ कमला तुम ब्यूटी पार्लर क्यों नही जाती? ‘‘आई ब्रो भी नहीं बनाती!‘‘

‘‘अरे भाई फेशियल वगैरह किया करो।‘‘ सभी औरतें करती हैं हमारे आफिस में मृदुला को देखो सांवला चेहरा भी कितना दीप्त रहता है। कभी ले आऊंगा उन्हें घर....। उन्हीं से सीख लेना सौन्दर्य के नुस्खे’’

फिर एक दिन आई थी मृदुला दोनों चहक चहक कर बाते कर रहे थे वे खिदमत में डूबी रही थी। दोनों बियर के गिलास भरते हुए एक दूसरे को देख रहे थे गोया जन्म जन्मान्तर के बिछुड़े प्रेमी है। कमला देवी की उपस्थिति तो वे भूल ही चुके थे....!

‘‘घर में नीबूं मलाई है उससे ही धोया करो कितना बासी चेहरा है... कभी आइना भी देख लिया करो कमला जी ...’’ तमाम शब्दों के बोझ तले वे दब रही थी।






उन्होंने सुनी थी वीराने की चिड़िया की चहक ‘भाभी मेरी पत्नी भी होती आपकी तरह सुघड़ तो मैं भी आज गजिटेड होता... वह तो ठहरी फूहड़ झगड़ालू मन होता है कि भाग जाऊं.... लेकिन बच्चों का चेहरा देखकर ठहर जाता हूँ।‘‘ रमाकान्त पाण्डेय का दुख का सोता बे आवाज गिर रहा था..., कोई था बीच में उपस्थिति दर्ज करवा रहा ...। उस दुख को हथेली में उठाकर ब्राहमांड के किसी कोने में फेंक देने को तड़प उठी थी उनके भीतर बैठी दुबकी एक और स्त्री... दूसरी शाम वह तीन कप चाय बना लाती तो उसमें मसाला डालना न भूलती। किताब में डूबे रहते नारायण.... एक और दुनिया उन्हें भिन्न-भिन्न कोंणों  से परिचय देती वे उस दुनिया के दरवाजे खोल कर दाखिल हो जातें..... इधर क्या हुआ... वे बेखबर थे, इस तरह की बातों के कोई मायने हैं भला? उन्हें तो दुनिया जहान, घट-अघट की जानकारी बटोरनी थी, तो जब रमाकान्त पाण्डेय उठते ही कहते ‘चलता हूँ तिवारी साहब...‘‘ तो उन्हें लगता गहरे कुंए से आवाज आ रही है।

‘जाओगे ही रमाकान्त... ठहरने के लिए तो नहंी आये...? कोई हिलोरता उन्हें रमाकान्त गेट से बाहर हो चुके होते। दिनांे-दिन नारायण साहब का फूलों से गच्छ बरामदा नव रस उड़ेल रहा था...चाय का कप लेकर वे बरामदे की छत की कीली पर टंगे झूले पर बैठे थे एक शाम, वहीं से उन्हें उस छोटी सी लालटेन का प्रकाश वृत दिखाई पड़ गया था। अनजाने ही अगली सुबह जब वे आफिस जाने के लिये तैयार हो रहे थे कमला देवी ड्राइनिंग टेबल पर अन्डा टोस्ट का नाश्ता रख रही थी। उन्होंने एकाएक अपने सिगरेट से जले हुए कमल सदृश्य होठों को बुदबुदाते सुना ‘‘बी... अलर्ट... नारा... यण...’’ गोकि फूट रहा हो बुलबुला! डसी सुबह से लगातार पाँच शामें रमाकान्त के जाने के बाद कमला देवी ने इस फुसफुसाहट के साथ काटी...बोझ से पस्त छटे दिन उन्होंने दोपहर में पांचवी कक्षा में पढ़ने वाली रिंकी से पूछ ही लिया मतलब...? रिंकी ने उछाला गेंद की तरह और होम वर्क करने में मशगूल हो गई।

आघात लगा था उन्हें क्या जताना चाहते हैं वे...? जानते हैं पत्नी टाट पट्टी वाली पाठशाला में कुल दर्जा तीन पास हैं बोलचाल वाली हिन्दी भी उन्हें अब जाकर थोड़ा ठीक ठाक आ रही है, लेकिन अच्छे बुरे की समझ उन्हें है...., सीधे कह देते तो वे उनका कहा न मानती? इससे आगे कहाँ पहुँचना चाहते हैं वे...? जहाँ उनको पहुँचा चुकी हैं.... उससे ऊँची भी कोई शिखर की चोटी हो सकती है...! भरे गले से उन्होंने लालटेन पर फूंक मारी थी...ए लेकिन लालटेन थी कि बुझने की बजाय तेज लौ में जलने लगी थी....! उन्हें अचरज हुआ कि जितनी तेजी से वे लालटेन को बुझाने बढ़ती उतनी ही मात्रा में उसकी रोशनी का फैलाव बढ़ता   जाता... गोया अजीब है यह दिलजली लालटेन...! उसी अचम्भे में उन्होंने उसे मन के किसी अंधेरे कोने में फेंक कर दरवाजा सख्ती से बन्द कर दिया था, सन्तुष्ट हो गये नारायण... कभी-कभी उन्हें कमला देवी के पास कुछ उजास दिखाई देता तो वे मीठा जहर पीकर बुदबुदाते ‘‘र...मा...का...न्त... पा...ण्डे...य...!






अगली शाम फूलों से सुवासित आंगन के बीच वाले गमले में कैक्टस को तेजी से उगता देखकर मायूस होकर उलटे पांव लौट आये थे रमाकान्त ...

शाम के खुले आकाश तले कोई आदमजात नहीं बल्कि उनके हिय में अचानक तेजी से घुमड़ आये काले मटमैले बादल ने उनकी आँखों की तलैया में डबक-डबक नमकीन पानी का डबकना देखा था! कोई हो न हो... इस कमबख्त बादल के साथ उनके बांये पांव का अंगूठा इस कारण का गवाह था... लम्बे अन्तराल के बाद उनके भीतर मौसम ने करवट बदली थी (वे तो अपने भीतर पत्थर का फैलाव ही देखते रहे थे वर्षों तक) कोमल किसलय पव पल्लव अंकुराने के बाद एकदम बरसात...! अंगूठे पर ठण्डी बूंद की सिहरन ..’’ ‘‘ये क्या हो रहा है  रमाकान्त.?’’ भीगे रमाकान्त घर पहुँचे थे तो झगड़ालू बीबी की आवाज की लाठी की कई मर्तबा चोट लगते हुए भी उफ तक न कर सके थे ‘‘आखिर ... इस देह की आवाज कैसे अनसुनी कर दूँ... महिनों हो गये इसे स्पर्श भी नहीं किया ठहरा..!’’ झगड़ालू बीबी से परे उस कमरे में कई महिनों से सुकून पाने को फोल्ड़िग चारपाई पर सो रहे होते रमाकान्त...! कहते हैं स्त्री कभी भी अपनी देह की भूख को अनावृत नहीं करती। यह कैसी स्त्री है जो मन की भाषा से अधिक देह की का सम्मान करती है...! रमाकान्त को लगा यह बिल्ली अभी झपट पड़ेगी... उन्होंने आँखें शून्य में छोड़ दी... बीबी जब - जब उन पर चिपटती... रमाकान्त के भीतर का हरा पानी सूख कर कीचड़ में तब्दील होने लगता तब उन्हें कमला देवी के सलोने चेहरे का नमक अपनी ओर खींचता.. और रमाकान्त की आत्मा से एक पवित्र किस्म की रोशनी निकल उन्हें अपनी परिधि में लेती...। झगड़ालू बीबी बड़ बड़ करती रहे कितनी भी देर.., उन्हें परवाह नहीं... लेकिन अब..?

मछली खरीदने आई एन ए की मार्किट स्कूटर से जा रहे थे नारायण... लौटते हुए पैदल दिख गये रमाकान्त, स्कूटर रोकना पड़ा उन्हें, उन्होंने गौर किया रमाकान्त के चेहरे पर नमक विहीन चेहरा...! ‘‘शाम की चाय फीकी हो गई रमाकान्त...‘‘

पाण्डेय ठहरे घर द्वार से सताये, दुरदुराये, उदासी जिनके हिय में चिर स्थायी ठसक के साथ रहती थी थोडे़ से स्नेह परस से पिघल गये। संकोची स्वर में बुदबुदाने लगे’’ कल शाम को आता हूँ भाई साहब.....’’ सूखी टहनी पर चिड़ियाँ चहकी, बगीचे की फुलवारी दिखाने लगे थे नारायण कुछ देर घूमने के बाद अपने साथ झूले पर बिठाया उन्हें, बिटिया के हाथों चाय आई, लेकिन कमला जी की छाया के भी दीदार न हुए! ‘‘कहाँ विला गई देवी’’ एक झलक देखने को तरस गये रमाकान्त... ‘‘आखिर क्या है उस चेहरे में ऐसा... जो तुम्हारी सिकुड़ती आत्मा ऐसे खिल रही है गोया सूरज की किरणें पड़ने से अलसुबह खिल रही है बंद कमल की पंखुड़ियाँ...! उन्होंने खुद से कहा उनके चेहरे की एक-एक भाव भंगिमा को देखकर रहस्यमयी मुस्कान से भर गए।

कुछ अलग किस्म के जीव थे नारायण, उनकी लाइफ स्टाइल में हर कोण से नफासत झलकती, कामदेव सा रूप उनका अन्दर बाहर से किसलय कोमल, बोलते तो होठों से पराग झरता ... गीत गजल गुनगुनाते तो वातावरण संगीतमय होने लगता, मितभाषी नारायण अपने में ही झूबे रहते। कमला देवी उन्हें विरल व्यक्ति समझती, जब वे सूफियाना अन्दाज़ मंे कोई राग छेड़ते ... जिन्दगी को कुछ न कुछ अद््भुत देने को लहकते ... सुख क्या होता है...? कोई पूछता उनसे ... पूरा ग्रन्थ ही लिख डालते, उनका जीवन दर्शन बेमिसाल होता... पास आने वाला वहाँ आता रोनी सूरत लिये... लौटता तो मुट्ठी में खुशियों के फूल लिये... ठिठक कर सोचने पर विवश होता.... और अपनी दृष्टि को खंगालता ‘‘इस तरह .... तो मैंने सोचा ही नहीं कभी....!

सौन्दर्य की पराकाष्ठा को छूते महानायक थे नारायण.....रिश्ते नाते परिचितों के बीच हर किसी को वे कुछ न कुछ जरूर देते...., दुनियाँ से भी वे वही लेने के आदी हुए-जिन से जिन्दगी में नफासत आती... वे जिधर का रूख करते.... सुगन्धि महक उठती...!

‘‘तुम्हारी नाभि में कस्तूरी है नारायण....?’’ आॅफिस के लोग कहते। साफसाफ रास्ते पर चलते उन्हें पता ही न चला, कि उनके वक्त का तिहाई हिस्सा बीत चुका है... अब वे रिटायर्ड गजिटेड थे।


अभी जुम्मा-जुम्मा चार दिन नही हुए थे। खाली हुए उकताने लगे नारायण। उनके अवचेतन पर हलका सा पाप बोध जड़ें जमाता आधी रात को भयंकर रूप में प्रकट होने लगा......। उनकी नींद उचटने लगी कहीं कुछ छूट गया है....। तीन रातें लगातार उन्हें जागते देख कर चिन्तित हो उठी उनकी अद्धांगिनी ने डिनर का नानवेज बन्द कर हल्के मिर्च मसाले वाली सब्जियाँ रखी, गुनगुना दूध पिलाकर पांवों के तलुओं में ठण्डे तेल से मालिश करने लगी। लम्बे समय पश्चात् सांवली अधेड़ देह को नदी होती देख उत्ताल लहरों पर पाल नौका में उतर रहे थे नारायण.... उसी समय आत्मा की तली से फूटककर एक छाया आकर फटकारने लगी उन्हें ‘‘बूढ़ी माँ की आँखें बाट जोहते पथरा चुकी है। नारायण! वह माँ जिसने नौ महीने गर्भ में तुम्हारा बोझ ढोकर प्रसव पीड़ा का प्राणान्तक वेदना झेली! जो तुम्हारी फीस जुटाने के वास्ते खेतों में पसीने से छलबलाई आधी कोदे की रोटी पर दिन काट लेती थी। पिता ठहरे मजदूर गाँव भर के खेतों में हल जोत कर तुम्हारे लिये सपने देख रहे थे- पत्थर तोड़ते हुए भूखे नंगे जलालत सहते हुए, समय के धरातल पर एक बड़ा आॅफीसर.....! उन्हें जिन्दगी के अन्तिम पायदान पर अकेला छोड़ कर तुम साठ साल के बाद भी....! कुछ सोचो नारायण .....?’’ रेत सा मुट्ठी से रीतता समय................पश्चाताप के सिवा कुछ आयेगा हाथ बेटे ........? गोया पिता का प्रतिविम्ब मुखर   हो ...’’ वही आवाज अन्तिम साँसें गिनते .... उनके हथेली ने चप्पू छोड़ दिया ... काठ हो गई देह...

आनन फानन में सप्ताहान्त तक ताम-झाम समेट कर सारा, उन्होंने गाँव का रूख लिया। ‘‘गाँव में सुविधाओं का अकाल ... बोतल लेकर खेतों में जाना पड़ता है, तुमसे हो सकेगा नारायण? ....’’ गाँव उनसे मुखातिब हुआ।

घर क्या थे, मिट्टी पत्थर की क्षरित होती जर्जर दीवारें थीं, जिनके भीतर अच्छे पड़ोसी की तरह चूहे, छिपकली, चमगादड़, मकड़ी, तिलचट्टे एक दूसरे की स्वतन्त्रता का हनन किये बिना आराम से बसर कर रहे थे, कोई नहीं था कहने वाला कि ‘‘ओऽ! तुच्छ प्राणियांे, हमारे घरों पर क्यों बैठ गये कब्जा जमाकर! अभी तो हम जिन्दा हैं, कमबखतों!’’ तो जो किसी ने नहीं कहा उसे खच्चरों की पीठ पर लदे सामान को गिराकर कह दिया ....

गोया अजूबा थे नारायण!

‘‘वो साब जी!.... निकालो बोतल सोतल... अपने खच्चर भी प्यासे हंै जी ... ‘‘खच्चरों का मालिक रिरियाने लगा उसकी जाले लगी चुचकी आँखों में कत्थई रंग की धार तैरने लगी।

‘‘क्यों वे खच्चर पीते हैं दारू...? धर्म दत्त चाचा दन्त विहीन मुँह से सीटी बजाते जीभ में वही चिरमिरा नशीला स्वाद पाने लगे..... ‘‘बाँस की खपच्चियों पर जाने को तैयार बूढ़ा...आग लगे तेरे नशे को ... ‘‘बूढ़ी चाची रामी लाठी टेकती हँपनी चठाकर बड़बड़ाती आई ‘‘इस गांव में तो देश का बाबू भी नी ठैरा ... अपना नारैण कहाँ ठैरेगा भला....? एकटक घूरने लगी रामी चाची।







‘‘....लेकिन मैं ठहर जाऊँगा....’’

मंद-मंद मुस्कराते पांव छूने बढ़े नारायण। सात महिने में छिपकली, चूहे, चमगादड़, मकड़ी के कब्जे़ वाला घर ईंट सीमंेट का खूबसूरत लिबास पहन चुका था, लैट्रिन, बाथरूम दो कमरे रसोई नीचे, एक कमरा छत पर जिसमें दो बूढ़े जंग लगी काया को सर्दी की धूप में सुखाने लगे और गरम दिनों की शाम को ताजी हवा पीते हुए अतीत के पेड़ से टपके खट्टे मीठे तीते फल चूसते।

अपने प्यारे घर को दूर से देखकर आनंदित होते रहे, घर क्या था गोया हिल स्टेशन का मिनी डाकबंगला बना गये थे नारायण, जिसके बांयी ओर काफल का और देवदार का पेड़ पीछे बुरांस का पेडद्व लाल सुर्ख बुरांश खिल कर टूटता तो आंगन में लाल गलीचा बिछ जाता। चिड़िया पेड़ की टहनी पर बैठ कर हवा को अपनी वेदना बाँटनी ‘‘काफल पाको मिन नी चाखो’’ (काफल पक गया पर मैंने नहीं चखा) सुख की नदी का कोई ओर छोर नहीं था.

फिर भी जब वे पत्नी को सिर पर कनस्तर और उसके ऊपर एक भगोना पानी लाता देखते तो उन्हें लगता उनके सुख पर अभी कहीं से कोई कील चुभ गई है। उनका मन होता नीचे घाटी में इठला रही अलकनन्दा को उठाकर गांव में पटक दें.., उन्होंने आव देखा न ताव एक धारा को लोहे के पाइपों के बीच से लाने की कवायद शुरू कर दी......, ताकि पत्नी को कनस्तर और भगोना सिर पर न लाना पडें, कमला देवी कोई आम स्त्री थोड़े थी एक गजिटेड की पत्नी ठहरी! ज्ल-कल दफ्तर के चक्कर काटते-काटते थक चुके नारायण को विवश होकर स्वीकार करना ही पड़ा कि इस पानी को अपने घर में बसाने की इजाजत भली सरकार नहीं दे सकती। यह साझा पानी था सभी का साझा, जैसे धूप सभी की साझी, कोई मजदूर हो या अफसर बसा नहीं सकता इसे अपने ही घर में केवल.........फिर आहत हुए नारायण।

चिड़िया अपने घोंसले में सोई रहती उनसे पहले उठ जाते नारायण, पत्नी की आँख खुलती.. वे विटिर-विटिर देखती....., वे फुसफुसाते ‘‘सो जाओ देवी.... रात अभी बाकी है...।’’ कोने में रखी छड़ी उठाकर वे बाहर नीले आकाश तले, टिमकते तारों की छवि का दृश्य आँखों में भरकर आगे बैठते... छड़ी से धरती के अवरोध तत्वों को हटाते हुये वे बढ़ते जाते, अंधेरा भी छटने लगता, चिड़ियों का कलरव वे एकाग्र होकर सुनते ‘‘आदमी चिड़ियों से क्यों नहीं सीखता जीवन की परिभाषा... ‘‘सोचते हुए मंदिर के पास पहाड़ी से सूर्योदय का दृश्य मंत्र-मुग्ध होकर देखते- मंदिर की ओर पीठ करके, ‘‘ईश्वर बकवास है’’ माक्र्स की माँ का दूध पीकर मानसिक स्वास्थ्य में इजाफा करते हुए पुजारी का खूब मजाक उड़ाते नारायण गांव के लिये अजीबो गरीब प्राणी थे’’ जिसे भगवान से डर नहीं लगता, कैसा है यह आदमी!

‘‘तुम्हारे दिमाग में कीड़ी घुस गया है नारायण...?’’ पुजारी कहते।

‘‘कीड़ा नहीं पुजारी जी, मधु मक्खी पराग जमा कर रही है’’ वे हँसते पारदर्शी हँसी खिल-खिल’’ पुजारी का जिया जल भुन जाता, बैलों के पास का बड़ा घड़ियाल उनके हाथों की त्वरित उर्जा पा कर जोर-जोर से हुँकारने लगता हूँ टन टन टन टन .... ।

‘‘जो है ही नही उसके लिये हाथों, दिमाग दिल को क्यों इतना कष्ट दिये जा रहे हो पुजारी ..? दृश्य को भरपूर जीकर वे पुजारी के पास आकर ठहाका लगाते... 

पुजारी उन्हें मन ही मन कोसते हुए, उनका चेहरा न देखने की भगवान की कसमें खाते हुए पूजा की थाली लेकर उन्हीं के साथ आगे बढ़ते फिर तेज-तेज कदमों से चलकर उन्हें पीछे छोड़ देते, उनके साथ सम्बन्ध न रखने का संकल्प लेकर ‘‘एसे आदमी से दूरी भली जो ईश्वर पर विश्वास न करता हो’’ फिर किसी शाम पुजारी के पांव प्यास की तड़प लिये नारायण के आंगन में एकाएक आकर रूकते ‘‘यह प्यास भी बड़ी कुत्ती चीज है नारायण... मान अपमान से परे...!‘‘

रहस्यमयी हँसी बिखेरते हुए गिलास और बोतल निकालते नारायण ‘‘आइये पुजारी जी कितनी प्यास है भला...? बोतल का ढक्कन खुलते ही पुजारी की भूरी बिल्ली जैसी आँखों में चमक कौधने लगती’’ बस एक पैग...! कमला देवी कलेजी भून कर रख देती, एक नशीला घँूट भर कर ईश्वर के न होने के प्रमाण देता। दूसरा नशीला घूँट भरकर ईश्वर के होने का प्रमाण देता....., लेकिन नारायण की माक्र्स मार्का तलवार से पुजारी के सारे प्रमाण खच-खच धराशायी होने लगते..., पुजारी कई मर्तवा ईश्वर के होने के प्रसंग को शून्य में ठेल देते ताकि उनकी भटकती प्यासी आत्मा में विला नागा नशीली धार गिरती रहे....

नारायण तिवाड़ी जब मार्निंग वाक से लौटते पत्नी पानी का स्टाक जमा कर चुकी होती, उनके घर पहुँचते देहरी पर पांव धरते ही गाय का निखालिस दूध सेर भर के गिलास लिये आती। दूध के घूंट भरते ही वे पत्नी को देखते जो चाय पीने के लिये समय चुरा रही होती। कोई नहीं पूछता उनसे कि कहो नारायण ग्लोब पर अंकित कोई घर ऐसा है, जिसमें एक गजिटेड की पत्नी को चाय का घूंट भरने के  लिए समय नहीं ठहरा!

तो जब किसी ने पूछा नहीं तो उन्होंने सोचा भी नहीं। उनके जहीन मष्तिष्क में एक ही शिलालेख अंकित रहा - छूट गई इच्छाओं की पूर्ति कर लो नारायण... वरना कचोटने लगती है कुंठायें....। जीभ जलाकर सुड़क-सुड़क चाय पीती पत्नी की एक आँख रसोई भेदती रहती...., सास खाती है दलिया, ससुर खिचड़ी। अपने श्री आमलेट पराठा, समय बचा तो अपने लिए सब्जी बना लेगी वरना सूखी रोटी अचार की फाँक के साथ पानी का घूंट भरते गटक जायेगी। पराठा कब्ज करता है, अन्यथा बचा खुचा ही ठूँस लेती, गुसलखाने में कपड़ों का ढ़ेर है ऊपर भी उतना ही ढ़ेर। सास को पेटीकोट में पेशाब उतरता रहता है, कपड़ें भक-भक बास मारते हैं, ससुर का पेट चलता ही रहता है कच्छे में ही कर देते हैं... कपड़ों में थूक बलगम छिऽ...छिऽ...छिऽ...! गरम पानी करना है, दूध गरम करके थर्मस में भेजना है। झाडू-पोछा बर्तनों का ढ़ेर, दोपहर के वास्ते मसाला रांधना है। सप्ताह में पांच दिन नानवेज बनता है। मटन, चिकन या अण्डा करी एक दो दिन मछली भी आ जाती है, सरसों पीस कर मसाला बना कर पकाई गई मछली का स्वाद दोनों बूढ़ों की भी भूख दुगनी कर देता है। माँस खाने के बेहद लोभी बूढ़े पूरा बकरा ही कर गये हड़प। उनकी रसोई से मसालों की खुशबू उड़ाकर देहरी-देहरी बाँटा करती, लोगों की जीभ लार टपकाने लगती, वे बहाने से आना शुरू कर देते ‘‘ऐसा क्या पक रहा है बेटा नारैण...?’’



‘‘फिस्स करी’’ वे फिस्स... को दबाकर करी धीमें से कहते।

‘‘फिस्स माने क्या?’’ चाची बीड़ी के बंडल से बीड़ी खीचती, सुलगाकर सुट्टा मारती।

‘‘फिसकरी माने माछे का झोल, तुम खाओगी चाची...?’’ वे भी सिगरेट सुलगाते।

सुलक्षणा बहू की आँखे रसोई में रहती और कान बैठक में...., पति का इशारा समझ कर झटपट गरम भात की थाली सजाती कटोरे में माछे का एक टुकड़ा और खूब सारा झोल लेकर इठलाती ‘‘चखो तो छोटी सासू जी कैसा बना है झोल...’’। बूढ़ी ‘सीऽ... सीऽ....’ फूंक मार कर गड़प जाती, आत्मा के तृप्त होते ही आशीष देती...। चाची की तरह कुछ और लोग बूढ़े या जवान उनकी रसोई पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ कर चाय, नाश्ता, मटन की कटोरी, मछली का एक टुकड़ा, मुर्गे की टांग का बेहिचक स्वाद लेते!

श्री नारायण की प्रशंशा में गांव की धरती अभीभूत थी। भली सरकार की दया पर आश्रित कुछ बेरोजगार युवाओं ने अपने मन की आवाज को गीतों में पिरो दिया था’’

‘‘गौं मां जबबटि आयो बल नारैण भाग!
हमरा त बल भैजी जागी गैनि’’

(गाँव में जब से आये नारायण हमारे तो भाग्य ही जाग गये) औजी ढ़ोल बजाते ढम ढम ढमक! बाँके यार ढोल की तान पर गीत गाते, नाचने लगते, कच्ची पक्की शराब की धारायें गिरती बोतलों का ढेर लगता फिर भी प्यास थी कि बुझती ही नहीं कम्बख्त!

गाँव की तंग सोच का पंच अपनी दरियादिली से खोल रहे थे नारायण, ‘‘देखो गाँव वालों इसे कहते हैं जीना ... ‘‘वे मधुर आवाज में कहते, इसी वाक्य को पी डब्लू डी के बाबू सुदामा प्रसाद ने और जोड़ दिया था ’’तुम क्या जानो ओऽ मकड़ी के जाले लगे दिमाग वालों! जितना उलीचोगे हथेली से... उतने ही भरते जाओगे हृदय से ... ओऽ मक्खी चूसों!’’ ऊपर की कमाई से ठस ठस कीसे भरें हुए सुदामा सेमवाल रोतड़ी आवाज में कहते ‘‘अपनी तो साली एक धेले की कमाई   नहीं...! अपने तो साले बाबू ही रहेंगे जिंदगी भर...। हमें भी बताइये महाराज ऊपर की सीढ़ी पर चढ़ने का हुनर...’’। दो पैक के बाद वे नारायण के पाँव को दबाने लगते ‘‘रोज सोचता हूँ कि भाई साहब के वास्ते एक अद्धा ही ले आऊँ... कम्बख्त अपनी तो मैमोरी ही खलास हो गयी भाई साहब.....!’’ वे अपने सिर पर नारायण की चप्पल मारते हुए रोने लगते, नारायण भी पहले पैग का अन्तिम घूंट भरते ‘‘बड़ा भाई होकर तेरी पिऊँगा साले...?’’ रोते हुए उनके मुँह में भुनी हुई कलेजी का टुकड़ा ठूंस कर हसने लगते। यहाँ से सुदामा प्रसाद के साथ गाली भी सीख गये थे नारायण।



विला नागा एक दिन भी पहाड़ी उतर कर ठीक दस बजे बाजार में होते नारायण, कभी जीन्स कुर्ते में कभी कमीज पैन्ट में सजे आँखों पर नीले कांच का चश्मा, पावों में स्पोर्ट शूज़ या चमडे़ के चेरी ब्लास्म से पौलिश किये जूते जिन पर कमला देवी की सुघड़ उंगलियों की छाप देखी जाती, गरम मौसम में हाथ में छतरी काँधे पर खादी का बड़ा झोला लटकाये गांव के बीच वाली राह पर निकलते हुए उनकी आवाज का जादू विछलने लगता ‘‘शरबी मौसी....! ओऽ शरबी मौसी कहाँ ठहरी हो...? दुकान जा रहा हूँ चीनी, चाय पत्ती लानी है...?

भाभी ओऽ रामप्यारी भाभी! चप्पल टूट गई थी न... लाओ मोची को दे दूँ...’’

‘‘सोना बहू! तुम्हें भी कुछ चाहिये...? जल्दी कहो...देखो न धूप बढ़ने लगी है, चाची ओ चाची। खाँसी की दवा और ला दूँ...? अपनी मोहनी आवाज को उछालते हुए वे आगे जाकर पीपल चैरीं पर पीठ की टेक लगाते, कुछ ही देर में उनकी हथेली सिक्कों और नोटों से भरी मिलती, कई बार केवल थैलियाँ पकड़ाई जाती, कोई बात नहीं पैसे भी आ जायेंगे ... सोना बहू... मनिआर्डर आ जायेगा तो देते रहना आराम से .... अभी जरूरत है तो मुझसे ले लेना थोड़ा बहुत.... ‘‘सोना बहू की लाचारी चेहरे पर झलकती देख वे अत्यन्त स्नेहिल हो जाते। सोना बहू की हिरनी जैसी आँखंे मटकने लगती’’ आप तो ससुर जी देवता हो सच्ची! मनखी (मनुष्य) ऐसे थोड़े ना होते हैं...’’

वे गाँव में किसी की भी छोटी - छोटी चीजें लाना न भूलते। कुली भाट जैसे बोझा लटकाये पसीने से तरबतर पहाड़ की सीधी खड़ी चढ़ाई चढ़ते, इधर-उधर रमणीय पहाड़ों को देखते हुए पत्थर की चोटियों में पीपल की छाँह तले पसीना सुखाकर दृश्यों से अभीभूत पुनः उसी पथ पर चलते हुए आवाज देते ‘‘चाची! ये रही तुम्हारी दवा’’ बूढ़ी काया लपर झपर सीढ़ियाँ उतरती ‘‘तू थका नहीं बेटा नारैण...? आ बैठ थोड़ी देर...’’ बूढ़ी नीम छाँह में पीढ़ा खिसकाती वे मुड़ने लगते ‘‘थकान कैसी चाची... जब तक जीवन है थकान भगाने का जुगाड़ करते रहना चाहिये....’’  उनका कोमल दूधिया हाथ बियर, जिन की बोतलों पर झोले के अन्दर घुस जाता ‘‘भाभी।’’ वे आगे बढ़ते ‘‘चप्पल तो बनी नहीं...., थोडे दिन मेरी चप्पलों से काम चला सको तो ... जी जाऊँगा तुम्हारी कसम...!’’ इसी बहाने वे अपनी फालतू चप्पलों का सदुपयोग करना चाहते।

गरीब लाचार रामप्यारी, बेटा पूछता नहीं, पति है नहीं, पेंसन है नहीं! पति हलवाहा था, नारायण ने विधवा पेंशन भाग दौड़ करके लगा दी।

वे भानुमति के पिटारे से कागज का पूड़ा निकालते उसमें से एक-एक पेड़ा गाय और बछिया के मुँह में रखते बाकी झोले में माँ के वास्ते खट्टी-मिट्ठी चीजों पर एक (ललक) जाती है बेटा.....।

‘‘जीता रह दयूरा (देवर) ‘‘आशीष के फूल झरते हृदय से, दृष्टि नारायण की पीठ टिकती देर तक.....,

‘‘सोना बहू....!’’ वे सोना की सीढ़ी पर पांव रखते ‘‘ये रहा तुम्हारा ब्लाउज़ और ये मुन्ने की कापी पेंसिल’’। सोना गोठ में गाय बैंस का गोबर निकाल रही होती’’ थोड़ा उपर ठेल दो न ससुर जी... हाथ गन्दे हैं।

माँऽ माँऽ बाहर खूँटे पर गाय और बाछी सिर हिला कर रंभाने लगी ‘‘हमारे लिये भी कुछ लाये हो नारैण ...? ‘‘हाँ भई हाँ लाये हैं तुम्हारे लिये भी ..... वाक्य उनके जेहन में अंकित रहता, दोनों माँ बेटी सिर हिलाकर पनीली आँखों से उनका आभार प्रकट करती, लगभग सभी प्राणियों को छोटे-छोटे सुख देकर वे आवाज लगाते ‘‘कमलाऽ.....ओऽ डार्लिंग! देखो तो यही मंगाया था न तुमने.......? वे फर्श पर उड़ेलते भानुमति का पिटारा- मछली या मुर्गा दूध के पाउच घी का डिब्बा दलिया बीड़ी के बंडल और भी अटरम बटरम चीजें......

बीड़ी के इतने बंडल क्यांे? ’’कमला देवी पानी लेकर आती वे मुस्करा कर देखते पत्नी को’’ रहने दो कमला जी ... सुख मिलता है न तुम्हंे भी जब कोई एक बीड़ी के सहारे जिन्दगी के कश लगाता है... क्या फर्क पड़ता है दो चार पैसे खर्च हो जाने में ...? समय कुसमय आकर उनके घर में डेरा जमा लेना कई बार पत्नी को नागवार गुजरता, फिर बतकहियांे से लोगों की सुख भी मिलता।

खाना लगा दूँ...? वे पूछती।

कुर्सी में धंस जाते नारायण ‘‘माता पिता श्री ने खा लिया?’’

उनके सिर हिलाने पर वे कहते ठहरो जरा नहा लूँ ... उफ! कितनी गर्मी है।

वे दो थाली लगाकर रसोई समेट लेती, दोनों खाना खाते हुए बच्चों की, गांव जवार की चर्चा करते, यही थी उनकी दिनचर्या और ऐसे ही चलती रफ्ता मंजिल तक जिन्दगी की गाड़ी यदि अपने ही आँगन की चिड़िया ने तूफान की तरह आकर एक्सिल लेटर पर पंख न फड़फड़ाये होते तो...... ऐसे ही बीत जाता गाँव का सांेधा - सोंधा समय, श्री नारायण के नाम का जाप करते - करते यदि नन्हीं चिड़िया के पंखों से गाँव के नीले आकाश में सप्तरंग न बिखरने लगते तो ......





रात खतरनाक थी टीवी सैट खोले उंगलियों में सिगरेट फंसाये थे नारायण गरम राख उनके झक्क सफद पजामें में झरी ‘‘आ...उच...’’ कहते हुए उन्होंने झाड़ी राख और एक गहरा कश लेकर आँखों की पुतलियों टिका दी स्क्रीन पर ..., राखी सावंत चिल्ला रही थी ‘‘मेरी इज़ाज़त के बगैर मुझे चूमा क्यों उसने...? दुनिया सिमट कर बाइस इंच के परदे पर थी मीका अकबका कर सफाई पेश कर रहा था ..., हल्ले गुल्ले में किसी बात का ठीक से पता नहीं लग पर रहा था, कैमरा राखी सावंत के गाल पर बार-बार फोकस हो रहा था एक आध बार मीका के जलते सांवले होठों पर भी .....।

‘‘माई गाॅड़! यह सैक्सी लड़की! इसका शोलेदार बदन! जो होगा मर्द का बच्चा इसे देखकर होश रहेगा उसे...?’’ वे पत्नी को सुनाने लगे। पत्नी रोटी बेल रही थी एक रोटी तवे मे थी उसे उतारना भूल कर आ गई ‘‘कौन मर्द का बच्चा’’

‘‘डार्लिंग! देखो न इस स्टुपिड लड़की को.....’’ उन्होंने पत्नी की बाँह पकड़ कर बगल में बिठाया। पत्नी ने देखा लड़की के चेहरे पर हवाइयाँ उड रही थीं... ‘‘जरा देखे आपका आई क्यू....’’ वह बुदबुदाये ‘‘लड़का किस भी न करता तो लड़की क्या समझती उसे...? बोलो.... बोलो....?

‘‘लड़की उसे शरीफ समझती और उसका आदर करती’’ पत्नी मासूमियत से बोली,

धत, तेरे की! तुम्हारा आई क्यू एकदम निल है कमला जी....!’’ वे सिगरेट सुलगाने लगे, रोटी जलने की बास आई पत्नी रसोई की ओर भागी. उस रात वे पत्नी से रात्रिक्रीड़ा का भरपूर सुख लिये, चैन की नींद सोये थे कि चार बजे के करीब उन्हें अजीबो गरीब सपना आया वे नित्य की भाँति उगते सूरज को देख रहे थे, जिस बैंच पर बैठे थे धर्मद्वार पर पुण्य लूटने वालों ने बनाया था, जिसकी एक जंग लगी कील उन पर चुभ गई थी! कराह निकली थी कि उनकी पीड़ा को बाल सूरज ने मुठ्ठी में कैद कर लिया था। वे दृश्य से अभीभूत थे पृथ्वी से शिशु सूरज का उदय होने पर वे अकबका कर इधर-उधर देखने लगे थे कि शून्य से आवाज गूँजी ‘‘कालिख लगने की प्रतीक्षा करो    नारायण ... ‘‘फिर विद्रुप हँसी हा.......... हा........... हा............                                       

‘‘कौन हो तुम?’’ वे घबराये थे, आवाज फिर गूँजी ‘‘मुझे ही नहीं जानते नारायण? कमाल है!’’ फिर ठहाका ....

बदहवास उनकी नींद खुल गई उन्होंने टेबल लैम्प का बटन दबाया सामने दीवार पर चार और बारह के अंक के बीच टिक-टिक ध्वनि करता बैठा था वह ....

‘‘होश फाख्ता हो गये नारायण...?’’ उनके भीतर से कोई बोला था डर को पोछते हुए उन्होंने सपने को जहरीले कीड़े सा झटकना चाहा था।
‘‘चार बजे का सपना सच होता है बेटा.....’’ वह वाक्य उनके जेहन में वर्षों से जड़े जमा चुका था।
बेआवाज उठे नारायण.....

कमला देवी के खर्राटों के बीच फ्रिज से पानी की बोतल निकाली, उडेल दी गले में ....., गोया प्यास थी जन्मों की उल्लू सी फड़फड़ा रही...। उनके हाथ ने छड़ी खोजी, नीले आसमान में शुक्रतारा चमक रहा था एक बार मन हुआ पत्नी को उठा दें, पति पर वज्रपात हुआ है और पत्नी कम्बख्त खर्राटे भर रही हैं।

‘‘इतनी छोटी सी बात के लिये उसे कष्ट देना उचित होगा...? उन्होंने खुद से कहा और चलते... चलते मन्दिर की चैखट पर पाया खुद को....., मूर्तियों को निहारने लगे नारायण......। पुजारी ने शंख बजाया तो उन्हें बोध हुआ खालिस पत्थरों की मूर्ति...। ‘‘क्यों खड़े हैं वे वहाँ....?
‘‘सपने से डर गये नारायण...?’’
वे आगे चलकर चिर-परिचित जगह पर बैठ गये, सपना हरियल सांप की तरह उनके जेहन में रेंगने लगा...!
‘‘जब जवानी रीत गई अब क्या कालिख लगेगी रिन्की के पिताजी ...?’’ पत्नी की आवाज भोर की चिड़िया सी चहकी पवित्र आभा लेेकर...। एक अंतराल बीत चुका ऐसा सपना जब आया था, शून्य में खो चुके समय को रेत सा मुट्ठी में पकड़ने लगे, रेत रीत कर उनकी आत्मा पर गिरने लगी उम्र का चैथा दशक उनकी नींद के दरवाजे पर दस्तक दे रहा था...........

पहाड़ी चढ़ रहे थे नारायण, पहाड़ी थी कि फिसल पट्टी बन गई थी, जितना ऊपर चढ़ने का हौसला रखते नीचे गिरते जाते, गंदले पानी में छपाक् कीचड़ से लथपथ आँख खुली थी उनकी .......। ये माँ के आँचल तले अबोध शिशु थे माँ दिल्ली आई थी मोतियाबिन्द का आॅपरेशन कराने ‘‘ऐसा कोई काम न करना बेटा नारैण...’’ माँ ने उनके काले बाल अपनी खुरदरी हथेली से सहलाये’’ जैसे कि बेटा नारैण ... अब तक खरी नौकरी की ... वैसे ही घूस न लेते हुए न बेटा ना लालच में न पड़ना.......

एहतियात बरतने लगे थे नारायण, ग्यारवें दिन शुक्रवार को लंच टाइम में हो गया था सपना साकार, वे पत्नी के हाथों कागजी रोटी मलाईकोफ्ते के साथ खा रहे थे कि नीलम दूबे अचानक आकर सहमी चिड़िया सी उनके सामने वाली कुर्सी पर दुबक गई थी, ‘‘तुम खा चुकी नीलम...? ‘‘नीलम दूबे की बड़ी - बड़ी आँखों में बादल घुमड़ आया’’ मैं क्या खाऊँ, सर... मेरी तो जिन्दगी खाई जा रही है....

‘‘ ए! क्या कहती हो?’’ वे चैंके।

नीलम दुबे का बादल मोटी - मोटी बूदें उसके गालों पर बरसा चुका था ‘‘मैं सु-साइड कर लुंगी सर....’’

‘‘पर बात क्या है नीलम?’’ उन्होंने लंच बाक्स खिसका लिया, हाथ का कौर भी छूट गया। वे पानी भरी दृष्टि से उस तीस साला युवती को देखने लगे जो उनकी स्टेनो थी और जिसका विवाह हुए कुल तीन महिने हुए थे, जो मृदुला की जगह आई थी, वह मृदुला, जो देवी की देह में अंधेरी में उतरती थी...। वह मृदृला जिससे नारायण कभी-कभी सरकार के गेस्ट हाउस में मिलते थे और वह प्रमोशन पाकर दूसरे प्रतिष्ठित संस्थान में चली गई थी, जिसके पति ने उसे प्रमोशन मिलते ही डाइवोर्स ले लिया था। उसी की जगह आई इस नीलम दूबे को सिगरेट से जलाया जा रहा था। कैसे कहें नीलम कि सर मेरी नाभि नितम्ब और स्तनों पर जलती सिगरेट के घाव रिस रहे हैं, कैसे कहे नीलम कि उंगों पर जितने जख्म हैं उससे भी ज्यादा मन और आत्मा पर........। नीलम की कंपकपाती आवाज के साथ उनका ध्यान उसके होंठ के जख्म पर गया वे द्रवित हो उठे इस मासूम लड़की का दुःख पृथ्वी के बाहर फेंकने को छटपटाने लगा था उनका संवेदनशील मन....

‘‘कार की मांग वाले घर के लिये स्कूटर देने की कूवत भी नहीं है सर’’ नीलम की हहराती आवाज के बीच उनका ध्यान गाल के जख्म पर गया वे द्रवित हो उठे, वे अपनी जगह से उठे नीलम दूबे भी उठी लपक कर गले लगा लिया उन्होंने ‘‘इस तरह हिम्मत नहीं हारते नीलू....’’ नीलू सुबकियाँ भरती हुए एकाएक देखने लगी थी उनका चेहरा ‘‘मैं क्या करू सर....? खुद न मरी तो कल मारी जाऊँगी ...’’

वे रूमाल से उसके आँसू पोंछने लगे... रूमाल जाने कैसे छूटा कि उनकी उंगली उसके गाल के जख्म को सहलाने लगी....

‘‘काफी सर।’’ ठीक उसी वक्त दरवाजा खोल बंडू चपरासी थोड़ी दूर खड़ा आँखें फाड़ कर उन्हें देखने लगा......हड़बड़ाये से पीछे हटे नारायण ‘‘अरे भाई बंडू!’’ नीलू की काफी भी तो ले लाओ न...’’

‘‘सरऽ!’’ वह विजूका सा खड़ा रह गया उन्होंने काफी का प्याला नीलम दूबे को थमाया और बंडू को लताड़ते हुए भेज दिया था।

एकाएक बंडू चपरासी के चेहरे पर रहस्यमयी उजास फूटने लगा उसे लगा उसकी हथेली में मणि आ गई हों..........।       

अगले दिन सपना अपना प्रभाव दिखा रहा था............

रोज की तरह आॅफिस आये नारायण को हर कोई ऐसे देख रहा था जैसे वे अजायब घर मंे रखी दुर्लभ वस्तु हों....... अजीबोगरीब नजरें...... फुसफुसाहटे.... खिल-खिल हँसी पीठ पर गिरे फिकरे......, उनका सिर भन्ना गया। सप्ताह के अंत तक मछली जाल के भीतर फंसे रहे थे नारायण, कभी लगता तबादला करवा दें अपना....... और एक दिन उन्होंने खुद को अजूबा पा लिया। वे सभी चेहरे एकाएक उनका पहले से ज्यादा आदर करने लगे हैं। फिर उनके खरगोश कानों ने सुना कि नीलम दूबे कह रही थी ‘‘सर मनुष्य नहीं देवता हैं! उन्हांेने किस तरह उसकी बीच भंवर में फँसी जिन्दगी की किश्ती को किनारे लगा दिया, वरना सहकर्मी उसकी चिता के फूल चुनते ही रह जाते.....। ‘अब पूरा स्टाफ नीलम दूबे की दुख की धारा में बह रहा था.......।
‘‘यह दुनिया भी अजब तमाशा है यारों!
कभी पान की पीक तो कभी कंवल है यारों!’’ उनके होंठ फुसफसाते.
‘‘कितनी भली होती हैं स्त्रियाँ...........’’ उनकी आत्मा फुसफुसाती।




इस बीच एक दोपहर नीलम दूबे होटल गोलार्ड के कमरा नम्बर सोलह में उनके साथ हत्यारों से मुकाबला करने की संजीवनी पा चुकी थी! इस दोपहर प्रकृति के जाने कितने रंग बिखरे थे - उसके रेत हो चुके मन के धरातल पर कि वह अपने नारायण सर, में कृष्ण की छवि देखने लगी थी..........!

‘‘ताऊ जी!’’ स्वर ने उन्हें वर्तमान में ला पटका बाल सूरज घुटनों के बल चलते थोड़ा आगे बढ़ गये थे। पंखुड़ी उन्हें खोजते हुए आकर किलकती ध्वनियों का सम्मोहन परस रही थी। आपने मार्निंग वाक के वास्ते हमें क्यों नहीं उठाया...?

वे बदन की धूल झाड़ कर उठे अचरज से ताकने लगे ‘‘तुम कब आई...?’’

‘‘रात को आई थी। ताई को बता दिया था’’ उसने उनका हाथ पकड़ कर चिरौरी की ‘‘अभी बैठते हैं ताऊ जी.....’’

‘‘अरे नहीं भाई देखो तो धूप खिल उठी हैं आज तो देर ही हो गई!’’

वे उसका हाथ झटक कर रफ्ता-रफ्ता आगे बढ़ने लगे थे। पंखुड़ी चार कदम तेज चल कर उनकी पीठ पर ‘‘झूलने लगी नाराज हो गये...?’’

‘‘पंखुड़ी अच्छा बताओ पेपर कैसे हुए...?’’

‘‘बहुत अच्छे’’

‘‘आगे क्या इरादा है.......’’

‘‘पी॰सी॰एस॰ की तैयारी करूँगी या बी॰एड॰ की’’

‘‘बैरी गुड!’’

‘‘ताऊ जी, अच्छा इधर ही बैठते हैं’’ वे खेत की मुंडेर पर इशारा कर रही थी।

‘‘नहीं पंखुड़ी हर चीज का वक्त होता है ताई परेशान होगी, उन्हें पता है मैं वक्त का कितना पाबन्द हूँ।’’ पंखुड़ी का चेहरा बरसाती बादल हो गया ‘‘पापा आयेंगे तो मुझे आपकी कम्पनी नहीं चाहिए।’’

चिहुक उठे नारायण ‘‘अच्छा! कब आ रहा है सुबोध......? सुबोध की याद आते ही मन कच्चा सा होने लगता है उनका। दो बीवियों के बीच मारे गए गुलफाम.....! किसने कहा था स्टुपिड दो नागिनों को पालो हरम में........? मन ही मन संवादरत होने लगे थे ‘‘नारायण फिर उन्हें लगा जिसने अपने स्तनों को निचोड़ कर रख दिया उनके मुँह में उसी ने बर्बाद किया है सुबोध को..........। पहली पत्नी की लड़कियांे पैदा करने की झकास देख कर वंशवेल हेतु चाची ने चुपके से सुबोध के हरम में नई नागिन छोड़ दी थी। सुबोध तीसरी रात को भाग खड़ हुये कारण कि पहली नागिन का विष उन पर पारी हो गया था। उसे पता चल गया था.... वह एकाएक बदल गई थी और अपना ही जहर देकर उनकी जिन्दगी को सींचना चाहती थी।

सौतिया डाह बड़ी बुरी चीज है नारायण.......... वे सोचने लगे।

दो रातों की पैदावार थी यह नन्ही चिड़िया। सुख सुविधाओं से भरपूर इंजीनियर बाप के स्नेह को तरसकी पंखुडी। पंखुड़ी और ताऊ का स्नेह दिनांे दिन प्रगाढ़ होता गया। ताऊ के साथ बतियाना ताऊ के साथ खाना ताऊ के साथ घूमना गोया शहद के साथ लिथड़ती मधुमक्खी।

‘पंखुड़ी तू बड़ी हो गई बच्ची! ताऊ पर इस कदर लिपटना चिपटना ठीक नहीं’ कमला देवी के दिमाग में बेदों के सुभाषित अंकित थे। स्त्री को एकान्त में भाई पिता से भी नहीं मिलना चाहये। इन्द्रियाँ कब लगाम छोड़ दें......



‘‘बड़ी कहाँ हुई हूँ ताई अभी सत्रह की तो हूँ........।’’ पंखुड़ी ठिनकने लगती. ‘‘इसी बच्ची को फादर काम्पलेक्स हो गया है डार्लिंग तुम समझती क्यांे नहीं’’ नारायण पत्नी की ओर आहिस्ता स्वर उछालते। अब क्या कहें कमला देवी सोचने लगती - वह अनपढ़ हैं शायद ठीक कह रहे हो - उनके नारायण। समय बदल गया है। प्रगतिशीलता की हवा गांव के चैबारों में तेज गति से फैल रही है। उनके समय में तो पिता के चेहरे पर भी नजरें नहीं ठहर सकती थीं। स्त्री होने का अहसास साँस भी खुलकर नहीं लेने देता था! उन्हें ग्लानि हुई थी खुद पर..., उनकी सोच के दरवाजे वक्त ने क्यों नहीं खोले और बेखबर हो गई थी कमला देवी।

पंखुड़ी और ताऊ दूध-पानी जैसे हो गये! पंखुड़ी ने ग्रेजुएशन कर लिया। होस्टर छोड़ गाँव में रहने लगी। कम्पीटीशन की तैयारी कराने लगे नारायण। चार बजे मार्निंग वाक करके दोनों सात बजे लौटते। कमला देवी की दिनचर्या में कोई अन्तर नहीं आया। देहरी में गाय के दूध का गिलास लिये प्रतिक्षा करती आज भी खड़ी थी कमला देवी.....। लेकिन कहीं भी आहट नहीं थी श्री नारायण की, साढ़े सात बज चुके थे, उन्होंने दूध का गिलास थक हार कर मेज पर रख दिया।

एकाएक आँधी की तरह आई थी वह औरत......! घास के गट्ठर को पत्थरों की दीवार पर पटक कर पानी के बहाने घुसी - दूसरे गाँव की राजपूतानी रामेश्वरी कठैत - पथ भ्रष्ठ होते विश्वामित्र को बचाने की चाहत लिए .....।

वह घास का गट्ठर लिये अपने गाँव जाने के लिये पहाड़ी उतर रही थी कि उसने देखा पेड़ों के झुरमुट के बीच ताऊ जी बिटिया का ब्रा का हुक लगा       रहे थे......................!

उसने माथे पर हाथ मारा ‘‘पृथ्वी क्यांे नहीं चली गई रसातल में ..........!!’’

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कुसुम भट्ट की एक और कहानी पढ़िए

हिटलर की प्रेमकथा
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/blog-post_76.html?m=1

परिचय

कुसुम भट्ट

 जन्म ः
 पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड।
 शिक्षा ः एम॰ए॰ हिन्दी साहित्य। 
 सृजन - सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं हंस, कथादेश, वागर्थ, कादम्बिनी, जनसत्ता, अमर उजाला, दैनिक जागरण, जागरण सखी, परिकथा, इंद्रप्रस्थ भारती, आऊटलुट, इण्डिया टुडे, उत्तर प्रदेश, हिन्दुस्तान, साक्षात्कार, पाखी, कथाक्रम, उदय जागरण, राष्ट्रीय सहारा, सहारा समय, युद्धरत आम आदमी, कथाबिम्ब, पुष्पगंधा, सहारा समय, राष्ट्रीय सहारा, गृह नन्दनी, मसूरी टाइम्स, युगवाणी एवं और भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ कवितायें लेख साक्षात्कार आदि प्रकाशित।

 कृति - जेम्स वाट की केतली (सामायिक प्रकाशन) खिलता है बुरांश कहानी संग्रह (ज्योति प्रकाशन) लौट आओ शिशिर (अरू प्रकाशन) एक कविता संग्रह ‘बचा लो उसकी आँख का पानी’ प्रकाशित तथा मेरी प्रिय कथाएं एवं दो कहानी संग्रह क्रमशः नदी की उंगलियों के निशान, पिघल रही है बर्फ प्र्रकाशाधीन। एक कविता संग्रह बचा लो उसकी आँख का पानी शीघ्र प्रकाशित। कुछ कहानियों का कन्नड़, उर्दू, उड़िया एवं अंग्रेजी में अनुवाद,

 कहानी ‘‘नदी तुम बहती क्यों हो...?’’ पर मुंबई में मंथन नाट्य संस्था द्वारा मंचन, दूरदर्शन, आकाशवाणी (नजीबाबाद, शिमला, दिल्ली, जयपुर, पौड़ी, देहरादून) से कविता - कहानी, विचारवार्ता आदि का प्रसारण कवि-सम्मेलनों में शिरकत। राष्ट्रीय कवि सम्मेलनों में शिरकत। 

 शोशल मीडिया भारत नेपाल मैत्री सम्मेलन में विशेष प्रतिभा के तहत सम्मानित मेरठ क्रान्तिधरा साहित्य कुंभ में विशेष प्रतिभा के तहत सम्मानित। मशाल संस्था की अध्यक्ष। (संस्था महिला जागरूकता के तहत निर्धन बालिकाओं की शिक्षा के प्रति प्रतिबद्ध है तथा पर्यावरण के क्षेत्र में पहाड़ सहित जगह-जगह खाली स्थानों पर पौधारोपण का कार्य नियमित रूप से कर रही है। 
 सम्प्रति - स्वतन्त्र लेखन शोशल वर्क। 

 अभिरूचि - प्रकृति के भिन्न-भिन्न स्थलों के रमणीय क्षेत्रों में नदी, पहाड़, पेड़ों और आम जन से मुखातिब होते हुए चिन्तन मनन करना,ं फोटोग्राफी एवं पृथवी, ब्रह्माण्ड और जीवन के रहस्यांे को जानने की तीव्र जिज्ञासा। 
 पता - कुसुम भट्ट, बी-39, नेहरू कालोनी, देहरादून उत्तराखण्ड।
 मो॰ - 9760523867 
 Email: bhatt.kusum6@gmail.com

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