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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

24 मई, 2019

कहानी




रोटी की महक

 सुभाष पंत


उसके पास बेचने के लिए कुछ भी नहीं बचा था। बदन पर एक खस्ताहाल कमीज़ और पैंट थी और पैरों में टूटी चप्पल। जाहिर है, इसमें से कोई भी चीज़ बिक नहीं सकती थी।


सुभाष पंत


   शहर अपने पूरे विस्तार और गहमागहमी के साथ पसरा हुआ था। अगर शहर कुछ दबा-सिकुड़ा-सा होता तो संभव है कि उसकी भूख भी कुछ सिकुड़ जाती, लेकिन एकदम दूर दूर तक फैले महानगर में उसकी भूख भी फैलकर चौड़ी हो गई थी, जैसे उसके अनेक मुहाने खुल गए हों। इससे पार पाने के सिर्फ दो ही विकल्प उसके पास थे। भीख और चोरी। भीख मांगने की कलात्मक बारीकी उसे नहीं आती थी। निश्चय ही भीख मांगना एक कलात्मक खूबी है, जो किसी के भीतर संवेदनाएं जगाकर उसकी जेब तक पहुँचती है। वह लूला, लंगड़ा, अंधा या अन्य शारीरिक विकृति-सम्पन्न भी नहीं था औेर न ही उसके पास कोई धार्मिक कौशल था। दूसरा विकल्प था चोरी, जो उसे भीख मांगने की तुलना में अधिक सम्मानजनक और उत्तेजनापूर्ण लगा।



 बहुत तेज़ धूप थी, जिसमें पूरा शहर पिघलता हुआ लग रहा था। सहसा वह अजीब से खौफ से भर गया। अगर भट्टी पर पिघलते इस्पात की तरह यह पिघलता हुआ शहर ढहना शुरु कर देगा, तो क्या होगा? उसके शरीर का हर हिस्सा पानी उगल रहा था और उसका कंठ प्यास से जल रहा था। शहर में या तो नल नहीं थे और अगर कोई भूला-भटका नल दिखाई पड़ जाता तो उसमें पानी नहीं था। पानी ठेलियों में कैद था और पचास पैस प्रति गिलास की दर से बिक रहा था। बाहर गर्मी की ज्वाला जितनी तेज़ थी, उसके भीतर इससे भी तेज़ ज्वाला धधक रही थी। पिछले अड़तालिस घंटों से उसने कुछ नहीं खाया था। उसने पहली बार गहराई से अनुभव किया कि भूख सिर्फ पेट ही अनुभव नहीं करता....आँख, नाक, कान और त्वचा भी इसे शिद्दत के साथ अनुभव करते हैं.....यहाँ तक कि नाखून और बाल भी....

 अड़तालीस घंटे पहले जब वह अपनी बची-खुची पूँजी खर्च करके खाना खा रहा था, तब उसे पूरा विश्वास था कि आगे भूख लगने तक इस नितान्त अपरिचित शहर में भी वह खाने की कोई न कोई व्यवस्था कर ही लेगा। वह भयानक आशावादी किस्म का प्राणी था। लेकिन अड़तालीस घंटे बीत चुके थे और अब तक वह कोई जुगाड़ नहीं कर पाया था। उसका पेट एकदम खोखला हो गया था। चटख धूप में भी आँखों के सामने काली परछाइयाँ थरथरा रही थीं। फिर भी, एक बनैले किस्म का आशावाद उसमें अब भी जिन्दा था कि वह रोटी चुरा सकता है। उसके हाथ-पैरों में अभी ऐसा करने की ताकत मौजूद है, लेकिन वह पानी के लिए परेशान था। पानी तो चुराया नहीं जा सकता।



 

इस वक्त वह बुलंद हौंसले के साथ दुकानों की छाया में चल रहा था, जो सजी-सँवरी औेर अलसाई दुल्हनों की तरह लग रही थीं। कभी वह चलते हुए राहत महसूस करता, खासकर जब वह किसी वातानुकूलित दुकान के पास से गुजरता और एक ठंडी-सी लहर से आन्दोलित हो जाता। कभी वह एकदम नाराज़ हो जाता। आश्चर्य और आक्रोश से भर जाता। सौन्दर्य-प्रसाधन की दुकानों में सैकड़ों किस्म के पाउडर, लिपिस्टिक, सेंट वगैरह देखकर। जूतों की दुकानों पर इतने किस्म के और कीमती जूते थे....कि एक जोड़ी जूते की कीमत में वह महीने भर गुजारा कर सकता था। इस देश के भीतर एक और देश है.....लेकिन यह किन लोगों का देश है, उसकी समझ में नहीं आता। आखिर वे कौन लोग हैं, जो इतने कीमती जूते पहन सकते हैं....उनके पास इतना पैसा कहाँ से बरसता है? और उन्हें यह नैतिक हक़ कैसे प्राप्त हो गया कि वे आदमी के पेट से बना जूता  अपने पैर में पहन सकें?

   वह बुरी तरह से थक गया था। लगता था जैसे धूप, गर्मी और लू ने उसका सारा सत खींच लिया है। वह किसी भी समय लड़खड़ाकर गिर जाएगा, लेकिन वह इस तरह सड़क पर गिर पड़ने को तैयार नहीं था। हर विरुद्ध परिस्थिति के बावजूद वह खड़ा रहना चाहता था। क्षणभर सुस्ता लेने की वजह से वह एक दुकान के सायबान के नीचे रुक गया। छत के नीचे सुरक्षित कोने में एक चिड़िया सुस्ता रही थी, बाहर चटख धूप में एक लड़का गीत गाते हुए चने-मुरमुरे बेच रहा था। सूरज जंगली सुअर की तरह बौखलाया हुआ था, जो कहीं भी और किसी भी वक्त घात कर सकता है, लेकिन आमदरफ्त जारी थी....यात्री डंडे पकड़कर बसों के पाएदानों पर लटके हुए थे। जिन्दगी लस्त-पस्त जरूर थी, थकी हुई नहीं थी।

   क्षणभर सुस्ता लेने के बाद चिड़िया ने अपने पंख फैलाए और गहरे आत्मविश्वास के साथ आसमान का सीना चाक करते हुए अपनी यात्रा पर उड़ गई। वह भी खड़ा हो गया। थोड़ी दूरी पर एक बड़ा होटल था, जिसमें रंग-बिरंगी ध्वजाएं फरफरा रही थीं। सहसा उसके मन में विचार आया कि उसे जबरदस्ती होटल में घुसकर अपने लिए लंच ऑर्डर कर देना चाहिए। पैसे उसकी जेब में नहीं थे, ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि बिल अदा न किए जाने की स्थिति में उसकी पिटाई की जाएगी अथवा उसे जूठे बर्तन साफ करने को विवश किया जाएगा। वह तैयार था, लेकिन वह अपने विचार को कार्यरूप में परिणित नहीं कर पाया। दरबान ने उसे गेट पर ही रोक लिया और डपटकर भगा दिया। इस तरह एक सिनेमाई संयोग नहीं हो सका, जिसके होने की कल्पना में वह क्षणभर पहले उत्साह से भर गया था। वह सतर्क निगाह से इधर-उधर देखते हुए और दरबान को मन ही मन गालियां बकते हुए आगे बढ़ गया। एक बेकरी के पास उसके पैर ठिठक गए। वहाँ काँच की अलमारियों में अन्य बेकरी के सामन के साथ डबलरोटियाँ रखी हुई थीं। एकदम गुदगुदी रोटियाँ, जिनके गुदगुदेपन को वह अपारदर्शी रैपर के बावजूद महसूस कर रहा था और जिसकी सुगंध शीशे को भेदकर उसकी नाक तक पहुँच रही थी। उसे लगा कि यहाँ से रोटी चुराया जाना काफी सुरक्षित है। बेकरी का मालिक एक मोटा, थुलथुला आदमी था। उसके सिर पर पंखा पूरी गति से घूम रहा था और वह तब भी पसीने से लथपथ था, जिसके कारण उसके चेहरे पर नाराज़गी का भाव था।

   वह काउंटर पर सबसे दूर की अलमारी के पास खड़ा हो गया। उसने अनुमान लगाया कि इस अलमारी का काँच तोड़कर रोटी चुराने में सफल होने तक, बेकरी का मालिक जितनी भी चुस्ती करे, उस तक नहीं पहुँच सकता। पूरी तरह आश्वस्त हो जाने पर उसने तेज़ी से मुक्का मारकर अलमारी का काँच तोड़ दिया, लेकिन उसका अनुमान गलत निकला। बेकरी का मालिक जरूरत से ज्यादा फुर्तीला था और उसकी आवाज़ इतनी बेचैन और हृदय-विदारक थी कि जैसे किसी सती नारी के सतीत्व पर डाका पड़ गया हो और वह रक्षा की गुहार लगा रही हो। हालांकि एक रोटी चुरा लिए जाने से बेकर की आर्थिक स्थिति मे रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ने जा रहा था, लेकिन उसके काँच पर मुक्का पड़ते ही वह चोर चोर चिल्लाते हुए इतनी तेज़ी से अपने थड़े से कूदा कि कार्निस पर रखी लक्ष्मी की मूरती फर्श पर गिर पड़ी और वह बड़ी मुश्किल से अपने को उसकी गिरफ़्त से बचा सका। हड़बड़ाहट में उसके हाथ जो कुछ भी आया, वह उसे लेकर भाग गया। उसके पीछे चोर चोर चिल्लाते हुए बेकरी के नौकर भी दौड़ रहे थे। सम्भवतः बेकरी का मालिक अपने नौकरों को पर्याप्त पैसे नहीं देता होगा, जिस वजह से वे कोई ख़ास जोखि़म लेने को तैयार नही थे। वे रस्मी तौर पर कुछ दूर उसके पीछे दौड़े और फिर खाली हाथ वापिस हो गए। उस धूप में बहुत दूर तक दौड़ते चले जाने के बाद जब उसे लगा कि वह पूरी तरह सुरक्षित है तो वह रुक गया। सामने एक पार्कनुमा जगह थी। वह उसमें घुस गया और एक बेंच पर बैठकर ताबड़तोड़ उस माल को खाने लगा, जिसे वह चुराकर लाया था। लू चल रही थी, जिसमें पेड़ और पौधे झुलस रहे थे, लेकिन वह बेहद खुश था।
   सामने सड़क पर दौड़ती कारों में से सहसा एक कार झटके से रुकी और उसमें से एक सम्भ्रांत आदमी, जो सोने के फ्रेम की ऐनक पहने था, और उसके साथ एक सुंदर लड़की बाहर निकले और चौकन्नी उत्सुकता के साथ उसे निहारने लगे।
   लड़की ताली बजाते हुए प्रसन्नता से चीखी, ‘‘मैं कह रही थी न वह चार्ली है।’’
   आदमी की बांछे खिल गईं, ‘‘यू‘र राईट बेबी, ही‘ज इण्डीड चार्ली।’’







  वह चार्ली नहीं था, लेकिन बाप-बेटी को अपने में रुचि लेते देखकर आशंकित हो गया। वह तेज़ी से हाथ में पकड़े माल को निगलने लगा ताकि उसे ज़रूरत पड़ने पर भागने में सहूलियत हो। वे बड़े उत्साह और उछांह में उसकी ओर लपक रहे थे। उसने अपने हाथ की सामग्री तो निगल ली, लेकिन ऐन वक्त पर उसके पावों से भागने से इनकार कर दिया और वह उनकी गिरफ़्त में आ गया। सबसे पहले वह एक सुगंध की गिरफ़्त में आया, जो लड़की की देहगंध थी। फिर लड़की की गिरफ़्त में। फिर पुरुष की।
   लड़की उसकी बांहों में समा जाने को आकुल थी। वह प्यार से चिहुंकी, ‘‘चार्ली, माई डियर चार्ली।’’
   उसने गौर से देखा। लड़की वाकई खूबसूरत थी। कमलनाल-सी लचकती हुई। उसकी आँखें तो ऐसी थीं जैसे हवा में तैर रही हों.... ऐसे कोमल क्षणों कठोर नहीं हुआ जा सकता था, फिर भी उसने रूखेपन के साथ कहा, ‘‘मैं चार्ली नहीं हूँ।’’
   लड़की एकाएक सुबकने लगी, ‘‘देखो, झूठ मत बोलो। प्लीज....तुम समझते हो कि झूठ बोलकर अपने को छुपा सकते हो। नेवर....’’
   ‘‘मैं चार्ली नहीं हूँ,’’ उसने झल्लाहट के साथ कहा, ‘‘सही बात तो ये है कि मैं किसी चार्ली-वार्ली को जानता तक नहीं।’’
   ‘‘तो तुम चार्ली नहीं हो!’’ लड़की के चेहरे पर व्यंग्य उभरा।
   ‘‘हां, मैं चार्ली नहीं, छविनाथ हूं।’’
   ‘‘छविनाथ...’’ लड़की असमंजस में उलझ गई।
   ‘‘जी, छविनाथ। मैं इस शहर में रोजी-रोटी की तलाश में आया था, लेकिन मेरा सामन और रुपए चोरी हो गए और मैं गहरी विपत्ति में फँस गया। इतने बड़े शहर में न मेरे पास सिर छुपाने की जगह है...और न....’’
   ‘‘तुम इस समय यहाँ बैठे क्या कर रहे थे?’’ सोने के फ्रेम की ऐनकवाले ने पूछा।
   ‘‘मैं यहाँ बैठकर डबलरोटी खा रहा था।’’
   ‘‘रोटी?’’
   ‘‘जी हाँ, रोटी जिसे मैंने अपोलो बेकर्स के यहाँ से चुराया था। उससे फिलहाल मेरी भूख तो कम हो गई है, लेकिन मेरा गला प्यास से जल रहा है। रोटी चुराई जा सकती है और मैंने उसे चुरा भी लिया, लेकिन पानी...’’
   ‘‘उसकी तुम फिक्र मत करो डियर चार्ली....पानी मैं अभी लाई।’’ लड़की ने कहा और उत्साह के साथ कार की ओेर दौड़ी। वह वापस लौटी तो उसके हाथ में मिल्टन की वाटर बॉटल थी, जिस पर बेहद खूबसूरत सीनरी बनी हुई थी।
   वह गटागट सारा पानी पी गया। पानी बहुत ठंडा था, जैसे अमृत हो। पानी पीकर वह तरोताज़ा हो गया।
   ‘‘छविनाथ तुम रोटी नहीं खा रहे थे।’’ पुरुष ने मजबूती से कहा।

   ‘‘मैं रोटी ही खा रहा था,’’ उसने पूरे यकीन के साथ कहा, ‘‘वह मैंने अपोलो बेकर्स की अलमारी का काँच तोड़कर चुराई थी। बेकरी का मालिक बेहद मोटा आदमी है, लेकिन वह अपने मोटापे के बावजूद गजब का चुस्त है। मैं उसकी पकड़ में आते आते बच गया। संयोग से उसके नौकर कामचोर हैं, जो थोड़ी मेहनत करके मुझे पकड़ सकते थे। अगर ऐसा हो जाता तो कहानी ही दूसरी होती और मैं इस तरह पार्क में बैठकर आनन्द से रोटी नहीं खा रहा होता।’’

   ‘‘तुमने रोटी चुराने के लिए अलमारी का काँच जरूर तोड़ा होगा, लेकिन बेकरी के मालिक के अचानक कूद पड़ने, चिल्लाने और नौकरों की चिल्ल-पों से घबराकर तुम रोटी नहीं चुरा सके। उसकी जगह तुम्हारे हाथ में काँच का टुकड़ा आया, जिसे तुम रोटी समझकर ले भागे। घबराया हुआ आदमी कुछ भी कर सकता है। तुम पार्क में बैठकर वहीं काँच का टुकड़ा खा रहे थे।’’
   ‘‘नहीं साहब, आपको भ्रम हुआ होगा। मैंने रोटी ही चुराई थी और मैं वहीं खा रहा था। उसका स्वाद अब भी मेरे मुँह में बाकी है और उसका गुदगुदापन अब तक मेरी उंगलियाँ महसूस कर रही हैं।’’
   ‘‘चलो मान लिया तुम रोटी खा रहे थे,’’ पुरुष ने चालाक कांइयांपन से कहा, ‘तो उसका रैपर आसपास कहीं न कहीं होना चाहिए?’
   ‘‘बिल्कुल होना चाहिए।’’ उसने उत्साह से कहा और इधर उधर नज़रें दौड़ाकर रैपर ढूँढ़ने लगा। पार्क की गंजी घास में उसे कई चीजें दिखाई दीं। मसलन कोल्ड ड्रिंक्स के डिब्बे और साइफन, चनाजोर गरम के कागज के कोन और पुड़के, टूटा पैन....कंघा, हेयर पिन, और यहाँ तक कि झाड़ के पास रबड़ की गुब्बारेनुमा चीज भी....लेकिन डबलरोटी का कोई रैपर वहाँ नहीं था। वह निराश हो गया और घबरा भी गया। ‘‘तो क्या मैं....’’ वह बड़बड़ाया।
   ‘‘हां, तुम काँच ही खा रहे थे।’’ पुरुष ने जोर देकर कहा।
   ‘‘आदमी काँच कैसे खा सकता है?’’ वह अब भी अविश्वास में झूल रहा था।
   ‘‘भूख में आदमी कुछ भी खा सकता है।’’ इस बार लड़की चहकी, ‘‘चार्ली ने ‘गोल्ड रश’ में भूख में जूते और उसमें जड़ी कीले उबालकर खाई थी, जैसे गोश्त खा रहा हो और हड्डियाँ चबा रहा हो। तुम ऐसा क्यों नहीं कर सकते?’’
   वह आश्चर्य और आतंक से भर गया। क्या उसने सचमुच रोटी की जगह काँच खाया था। उसने कई जगह यह बात पढ़ी और सुनी जरूर थी कि अमुक अमुक आदमी ने काँच खाया है या लोहे की छडं़े चबाई हैं, लेकिन उसने उस पर कभी विश्वास नहीं किया था। कैसे आश्चर्य की बात है कि ऐसा वाकया आज उसी के साथ हो गया। क्या वाकई जीवन में कोई क्षण ऐसा भी आता है, जब मनुष्य की सारी शक्तियां एकाएक अपने उद्रेक पर पहुँच जाती हैं और वह कुछ भी कर सकता है। शक्तियों उद्रेक के ऐसे क्षणों में ही शिव ने विषपान किया होगा।’


   ‘‘तो क्या सोच रहे हो छविनाथ!’’ पुरुष ने शुद्ध व्यवसायिक लहजे में कहा, ‘‘देखों मेरे पास ताक़त है और तुम्हारे पास अनोखी कला है। मैं तुम्हारी इस कला को प्रकाश में ला सकता हूँ। अगर हम मिलकर काम करें तो दोनो को फायदा होगा। बोलो मंजूर है।’’ 

   ‘‘पहली बात तो यह है कि मुझे यकीन ही नहीं हो रहा कि मैंने काँच खाया है और अगर खाया भी है, जैसा कि आप कह रहे हैं, क्योकि आप ने इसे सोने के फ्रेम की ऐनक से देखा है, तो वह मजबूरी में खाया है....जरूरी नहीं कि मैं आगे भी काँच खा सकूँ। फिर मजबूरी में किया काम कला की श्रेणी में नहीं आ सकता।’’ उसने असमंजस में सिर हिलाते हुए कहा।

पुरुष ने अपनी आँखों से सोने के फ्रेम की ऐनक उतार ली। उसकी नंगी आँखें ऐसे दिखाई पड़ीं जैसे उनमें विषधर बैठे जीभ लपलपा रहे हों। प्यार से उसके कंधे पर हाथ रखते हुए उसने कहा, ‘‘कला का जन्म ही मजबूरी से होता है। इसके अलावा दूसरी और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि तुम अपनी स्थिति और औकात को अच्छी तरह समझ लो। जनाब तुम खाली जेब हो और खाली जेब आदमी को यह शहर उठाकर कूड़े के ढेर में फेंक देता है। याद रखो अवसर सिर्फ एक बार ही आदमी का दरवाज़ा खटखटाता है। जो उसकी आवाज़ सुन लेता है, वह सफल है। जो उसकी आवाज़ नहीं सुनता, वह जिंदगीभर रोता रहता है। सोच लो, फ़ैसला तुम्हारे हाथ में है।’’
   वह असमंजस में फँस गया।
   उसे उलझन में फँसा देखकर लड़की बोली, ‘‘मान जाओ न डियर चार्ली....’’
   लड़की के व्यवहार में इतना अपनत्व-भरा आग्रह, मनुहार और कशिश थी और उसकी चम्मपई आँखों में ऐसा आमंत्रण था कि वह एकाएक परास्त हो गया।

   इनकी बात मान ली जानी चाहिए, उसने सोचा। उसमें इतनी उद्दाम जीवनेच्छा है कि वह काँच को रोटी की तरह खा सकता है तो निश्चय ही उसका जन्म एक बड़ा और सफल आदमी बनने के लिए हुआ है। संयोग से सोने के फ्रेम की ऐनकवाला और उसकी सुभग लड़की उसकी मदद करने को तैयार हैं तो उसे इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए। अगर उसने काँच नहीं खाया है और उन्हें गलतफ़हमी हुई है, जिसकी सम्भावना कम है क्योंकि उन्होंने सोने के फ्रेम की ऐनक से ऐसा करते देखा है, तो भी इस सुभगा की प्रेरणा के सहारे वह काँच खाकर दुनिया को हैरान कर सकता है।
   उसने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।







 प्रिय श्रोताओं, आपको लग रहा होगा कि कहानी कुछ कह ही नहीं रही है। आप किसी ट्विस्ट की कल्पना कर रह होंगे, जो कि वाजिब भी है। निश्चय ही इस कहानी में भी एक ट्विस्ट है और अगर मैं बारीकियों में न उलझते हुए उस ट्विस्ट तक पहुँचने का उतावलापन दिखाऊँ तो आप नाराज़़ नहीं होंगे। मुझे लगता है कि आप ऐसा चाहते भी हैं।
   तो आगे का किस्सा-कोताह यूँ है--

   सोने की फ्रेम की ऐनकवाले और उसकी सुभग बेटी ने हमारे नायक का नाम छीन लिया। अब वह छविनाथ नहीं, चार्ली था। शहर में बड़े बड़े पोस्टर लगाए गए--‘काँच खानेवाला अनोखा आदमी प्रोफेसर चार्ली’ और टिकट लगाकर जगह जगह उसके प्रदर्शन किए गए। जब वह पार्क में कुछ खा रहा था, मुझे नहीं मालूम कि वह क्या खा रहा था, रोटी या काँच? लेकिन अब वह काँच खाने लगा था। उसे काँच खाते देखकर प्रदर्शन-कक्ष तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज जाता। लोग आश्चर्यचकित रह जाते। आयोजनों में इतनी भीड़ टूटती कि वह संभाली न जाती। चार्ली पूरे देश का क्रेज़ बन गया। रेलों और जहाजों में उसकी चर्चा होती। अख़बारों और पत्रिकाओं में उस पर लेख प्रकाशित होते। विज्ञापन-एजेंसियाँ उसे मॉडल बनाने के लिए कोई भी कीमत अदा करने को तैयार रहतीं और यहाँ तक कि दूरदर्शन भी उसका कार्यक्रम दिखाने को बेताब था।

   इतनी प्रसिद्धि पाकर कोई भी आदमी पागल हो सकता है, लेकिन चार्ली बहुत दुःखी था। और वह इस तंत्र को तोड़कर भाग जाना चाहता था। सोने की फ्रेम की ऐनक वाले ने उसे बंदी बना रखा था। उसके चारों तरफ पहरा था और खिड़कियों पर सलाखें जड़ी हुई थीं। पंछी भी वहां पंख नहीं मार सकता था। यूँ, उसकी देख-भाल की पूरी व्यवस्था थी। उसे पूरे आराम से रखा जाता। उसे छींक आ जाती तो देश के बड़े-बड़े डॉक्टर उसके उपचार के लिए मुहैय्या कर दिए जाते। सोने के फ्रेम की ऐनक वाले की लड़की उसकी खातिरदारी में रात-दिन एक किए रहती। उसे अति विशिष्ट व्यक्ति का आदर और सुविधाएं दी जातीं। वह जो कुछ भी चाहता, उसे मिल जाता। बस उसे रोटी नहीं दी जाती थी। रोटी की जगह प्रतिदिन लड़की मुस्कुराते हुए एक तश्तरी काँच उसके लिए लाती।

   वह चीखता, ‘‘मेरी बदौलत आप लोगों ने जो कुछ भी कमाया है, मैं उस पर अपना अधिकार छोड़ता हूँ। मैं कुछ नहीं मांगता। मुझे सिर्फ रोटी चाहिए।’’

   लड़की मोहिनी मुस्कुराहट के साथ उसके कंधे पर झूल जाती, ‘‘नाराज मत होओ डियर चार्ली, तुम्हें सब कुछ मिल सकता है, जो तुम चाहो। लेकिन रोटी नहीं मिल सकती। जिस दिन तुम्हें रोटी मिल जाएगी, उसी दिन तुम काँच खाना भूल जाओगे और एक सामान्य आदमी बनकर भीड़ में खो जाओगे। तुम्हारा सारा यश और प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगा। हम तुम्हें अब सामान्य आदमी नहीं बनने दे सकते। अभी तो तुम्हें अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि के शिखर पर आसीन होना है। कल तुम्हारा डिमांस्ट्रेशन है, जिसे देखने के लिए मुख्यमंत्री जी आ रहे हैं।’’
   लड़की ने चमचमाती मेज पर, जिसमें वह अपनी शक्ल भी देख सकता था, एक तश्तरी में काँच रखा और विदाई में आना नाज़ुक हाथ हिलाया और कमरे से बाहर निकल गई।


   वह बेचैन और उद्विग्न-सा कमरे में घूमने लगा, जिसमें इतना मोटा कालीन बिछा हुआ था कि उसमें उसके पैर धंस रहे थे। दीवारे थीं जो अव्वल ईंटों की बनी हुई थीं और जिन पर मंहगी पेंटिग्स लटक रही थीं। खिड़कियाँ थीं, जिन पर इस्पात की सलाखें थीं। दरवाज़ा था, जिस पर बाहर से ताला लटक रहा था और पहरा था। सहसा उसके भीतर एक विश्वास जागा, अगर आदमी में हौसला है और मुक्ति की कामना है तो कोई भी कारा उसे बंदी नहीं रख सकती। वह काँच खा सकता है तो इस्पात भी खा सकता है। इस्पात की उन सलाखों को भी खा सकता है, जिन्होंने उसे कैद कर रखा है।

   और सचमुच पिछली रात वह इस्पात की सलाखों को खाकर और उनके तंत्र में सूराख करके अंधेरे में कही गायब हो गया। सोने के फ्रेम की ऐनक वाला आदमी, उसकी सुभग लड़की, उनका सारा तंत्र और पुलिस-व्यवस्था शिकारी कुत्ते की तरह उसे ढूँढ रहा है। वे उसे किसी भी कीमत पर वापस पाना चाहते हैं।
   मैं भी यह कहानी यहीं खत्म करके इसी वक्त उसकी खोज में निकल रहा हूँ। आप में भी अगर थोड़ी-सी व्यावसायिक बुद्धि है....तो आप भी मेरे साथ हो लीजिए। हम उसे पकड़ सकते हैं...मुझे मालूम है, वह कहाँ मिल सकता है। चलिए, आप को बता ही दूँ। रोटी की महक उसे अपोलो बेकर्स तक जरूर खींच लाएगी, जिसका मालिक मोटा और थुलथुला होने के बावजूद जरूरत से ज्यादा फुर्तीला है और जो एक रोटी चुराए जाने की आशंका से ऐसा आर्त्तनाद करता है, जैसे सती नारी के सतीत्व पर डाका पड़ गया हो।
   और एक बार फिर वह यहाँ की अलमारी का काँच तोड़कर रोटी चुराने की कोशिश करेगा।

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सुभाष पंत की एक कहानी और नीचे लिंक पर पढ़िए

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