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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 सितंबर, 2024

विनोद शाही की कविता


बच्चा किसी से नहीं डरता


▪︎ विनोद शाही


बच्चे की

खिलौनों की टोकरी में

जंगल के पशु हैं


न तो वे ही डरते हैं एक दूसरे से

न बच्चा ही किसी से डरता है

 

एक-एक करके तमाम पशुओं को बच्चा

अपनी टोकरी से निकाल कर 

फिर से ज़मीन पर उतारता है



चित्र से फेसबुक साभार 







गाय ऊंट जिराफ हाथी घोड़े कुत्ते और बिल्ली जैसे

कितने प्यारे पशु हैं उसके पास

शेर, चीते, मगरमच्छ, छिपकली, सांप और बिच्छु जैसे

उतने ही खतरनाक भी

मगर कोई किसी को डराता नहीं

हमला तो बिल्कुल नहीं करता


ज़मीन पर आते ही पशु

उछलने लगते हैं

लोटपोट होते, लुढ़कते और पलट जाते हैं

हैरत अंगेज़ कलाबाजियां करते

करतब दिखाते है

खुश है बच्चा

हंसती है मां 

गुरूर से ऐंठते पशु 

गर्दन उठा कर थोड़ा उचक जाते हैं


खतरनाक जीव अचानक 

मुंह खोलते हैं

दांत दिखाते हैं

पंजों से उनके

तीखे नख-सूल बाहर निकल आते हैं

खाने को दौड़ते हैं शेर, चीते, मगरमच्छ

डंसना और डंक मारना चाहते हैं बिच्छु और सांप

सांस रोक कर मां 

डरने का अभिनय करती है 

बच्चा और ज़ोर  से हंसता है


जब देखो ऐसे ही झूठमूठ डरती रहती है मां 

बहादुर बच्चा कहता है मां से

देखो मैं किसी से नहीं डरता 


पशु पहचान लेते हैं अपनी औकात

लोगों को डराने के लिये

बाहर सड़कों पर निकल जाते हैं


लौटते हैं 

बख्तरबंद गाड़ियों, तोपों और टैंकों की तरह

बुला लेते हैं टिड्डी, भिड़ों, उल्लुओं और बाजों को

मिज़ाइल, ड्रोन, हेलिकॉप्टर, हवाई जहाज बना कर

समुद्र में युद्ध-पोत, पनडुब्बी और मोटर बोट बन जाते हैं

तमाम मगरमच्छ, ब्हेलें और शार्क


डरने का अभिनय करती करती मां 

सचमुच डरी हुई लगने लगती है


बच्चा किसी पशु से अब भी नहीं डरता

फिर भी जाने क्यों उसे  

मां के डरने से डर लगता है


▪︎ संपर्क: 9814658098

मौत उनके लिए नहीं, फ़िलिस्तीनी कविताएं- ग्यारह



मेरा वजूद

तौफ़ीक़ जियाद



अगर 

तुम्हें पाने के बाद भी 

न झूम उठूं ख़ुशी से मैं 

तो, इजाजत दो 

कि ख़ुश रहूँ 

तुम्हारे दिये दर्द में


तुम्हारी धुंधली होती तस्वीर 

और ख़ामोश पड़ जिस्म को 

चूमता हूँ

और हो जाता हूँ तुम जैसा 

दीवानगी की हद तक


तूफ़ान उठा है वहशत की तरह 

तूफ़ान में चक्कर खाता 

मैं कौन हूँ 

इस तरह का अहसास करने वाला ?


फिसलता है पैर 

मैं भी, 

बैंगनी अँधियारा 

ख़ुश हो, उड़ाता है हँसी 

तार तार हो गयी 

इन पागलपन भरी यादों के लिए


इस सुबह से उस सुबह तक 

हम हैं अकेले 

तुम और फ़रिश्ते 

देते हैं सहारा मेरी हिम्मत को 

फिर भी, मैं बिल्कुल अकेला 

क्या यही है मुहब्बत ?


चित्र 

फेसबुक से साभार 









तुम्हारी गर्दन मेरी बाँहें 

गर्मी बदन की और सरकती रेशमी जुल्फें 

जगा देती हैं मुझे 

चमेली सी महकती साँस 

इबादत जैसी 

मैं गड़ा देता हूँ चेहरा तुम्हारे बदन में 

भर जाता हूँ आँसुओं से 

चिड़ियाँ और तितलियाँ 

हों गवाह हमारी जिन्दगी की 

दरवाज़े और खिड़कियाँ 

नीबू के दरख़्त और बाग 

जान जाये सारी दुनियाँ 

कि जी रहे हैं हम, बखुदा 

दिये हाथ में हाथ 

करिश्मा कर दिखाया हमने


लोग मुस्कराते हैं 

मेरी बड़बड़ाहट और हँसी पे 

शायद हों परेशान 

इस तनहा इन्सान के लिए 

शायद हों समजदा 

जवानी के इस पागलपन पर 

हमें माफ़ कर देना चाहिए उन्हें 

देख नहीं पाते वे 

मेरा तुम्हारे पास होना 

माफ़ कर दो उन्हें, तुम भी



एक शाम से दूसरी शाम तक 

रहती हैं हर वक़्त मेरे पास 

गोलियाँ नींद की 

हर तमाशा है मेरे अन्दर 

फिर भी हूँ एकदम तनहा


रहती हो हर वक़्त तुम मेरे दिल में 

मेरी रूह में है तुम्हारी ही छाप 

है ऐसा ही 

जैसे हो तुम, हरदम 

जैसे हो तुम, कभी नहीं 

यही है इश्क़, यही है इएक 

०००


कवि का परिचय 

तौफ़ीक जियाद

आधुनिक फ़िलिस्तीनी कविता के एक महत्त्वपूर्ण कवि ।समोह-अल-कासिम-रोमा में, 1939 में जन्म। अनेक कविता संग्रह प्रका- शित । इनमें प्रमुख हैं- 'सुरज का क़ाफिला', 'रास्ते के गीत', 'मेरा खून मेरी हथेली पर', 'ज्वालामुखी का धुआ', 'बेनकाब', 'तूफ़ानी चिड़िया', 'मौत और चमेली का कुरान', 'शानदार मौत', 'खुदा क्यों मार रहा है मुझे ?" 'मैं चाहता हूँ तुझको मौत की तरह' और 'नामुराद शब्स' आदि। इन्होंने उपन्यास, नाटक तथा लेख भी लिखे हैं। एक महान कवि और फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के एक जुझारू योद्धा । 

०००

अनुवादक 

राधारमण अग्रवाल 

1947 में इलाहाबाद में जन्मे राधारमण अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम कॉम तक पढ़ाई की , उनकी कविताएं लिखने में और तमाम भाषाओं का साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उन्होंने विश्व साहित्य से अनेक कृतियों का अनुवाद किया। 1979 में पारे की नदी नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। 1990 में ' सुबह ' नाम से उनके द्वारा अनूदित फिलिस्तीनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ । 1991 में फ़िलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' मौत उनके लिए नहीं ' नाम अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के लिए 

पहल द्वारा प्रकाशित किया गया था।

15 सितंबर, 2024

रमेश शर्मा की कहानी

  

अधूरेपन के उस पार 

रमेश शर्मा 


रात ढलान पर थी बावजूद इसके अन्धेरा अब भी अपने पूरे शबाब पर था |सुबह के यही कोई चार बजने को थे | मुर्गे बांग देने की तैयारी ही कर रहे थे कि अचानक उसकी नींद खुल गयी |उसकी आँखें एकदम लाल दिख रहीं थीं |उसके चेहरे से ही लग रहा था कि उसकी नींद आज फिर अधूरी ही रह गयी | सिर्फ नींद की ही कौन कहे, देखा जाए तो अधूरेपन की एक लम्बी फेहरिस्त है उसके हिस्से ! उसके जीवन में तो बहुत कुछ ऐसा है जो अधूरा ही रहा आया है अब तक | उसने अब तक जो उम्र बिताई क्या वह उसकी मर्जी से बीत सकी ? शायद नहीं ! उसकी मर्जी भी जीवन में अधूरी ही रह गयी |  उम्र के इस बीतने पर भी उसका पूरा हक कभी नहीं रहा | उसे तो घर में हर वक्त पति और बच्चों की खातिरदारी में ही खटते हुए अपनी उम्र बितानी पड़ी  | ऑफिस में बॉस की हुकुम बजानी पड़ी और इस तरह घर और घर के बाहर बिताई हुई उम्र दूसरों के नाम ही चढ़ गयी | उसकी देह भी पूरी तरह  कभी उसकी मर्जी की देह कहाँ रही ! उस पर तो पति ने ही अपना अधिकार जमाए रखा मानो वह मिट्टी का कोई बेजान पुतला हो | और उसका मन... वह तो हमेशा उसके काबू से बाहर ही होता रहा | आज उसकी नज़र जहाँ तक जाती है   ... यहाँ से वहां तक हर जगह एक पसरा हुआ अधूरापन ही नज़र आता है उसे  ! ठहरे वक्त में वह अक्सर सोचती है ....उसके हिस्से ऐसा क्या है अब तक, जिसको लेकर वह कह सके कि मुकम्मल तौर पर वह उसका अपना ही है !

नींद से जागते ही कमरे का झरोखा खोलकर उसने बाहर झांका | उफ्फ ... बाहर अब भी कितना घना अन्धेरा है |

उसने आसमान की तरफ देखा   ..चाँद आसमान में अब भी चहलकदमी करता हुआ दिख पड़ा उसे | उसने झट से झरोखा बंद कर दिया, पर चाँद का चेहरा अब भी उसके भीतर आता जाता रहा | उस समय उसके भीतर इच्छा उत्पन्न हुई कि कोई उसके सामने आकर उसके लिए यह गीत गा दे ...चौदहवीं का चाँद हो या आफताब हो, जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो ! उसे कभी पता ही नहीं चला कि उसके भीतर की इच्छाएं एक-एक कर किस तरह उसके जीवन से रुखसत होती चली गयीं | पर आज अचानक मन के भीतर इस तरह की इच्छा उत्पन्न होने से उसे भीतर से थोड़ी गुद्गुदी होने लगी | उसे एहसास हुआ कि उसके भीतर अब भी इच्छाएं जीवित हैं | वर्षों बाद अपने भीतर आए इस तरह के अप्रत्याशित बदलाव से उसे थोड़ा अजीब सा अनुभव भी होने लगा |

कहीं वह शुचिता के मार्ग से विचलित तो नहीं हो रही ? इस तरह के सवालों का सामना भी उसे अपनी ही दुनिया के भीतर करना पड़ा | जिन्दगी के एक ही ट्रेक पर चलती हुई मन की गाड़ी को उसी ट्रेक पर चलने की आदत सी हो जाती है | कुछ समय के लिए उसे दूसरी ट्रेक पर ले जाने की इच्छा मात्र से मन में तरह तरह की आशंकाएं उठने लग जाती हैं |मन की गाड़ी अनियंत्रित सी होने लग जाती है | शुचिता के उल्लंघन को लेकर ऐसा तो कुछ हुआ नहीं उसके जीवन में कभी कि इस तरह उसे अशांत होना पड़े  ! वह सोचने लगी कि शुचिता के नाम पर स्त्रियाँ इतनी अपराधबोध से क्यों ग्रसित होने लग जाती हैं ? यह शब्द आखिर गढ़ा किसने है कि स्त्रियाँ इस शब्द से इतना भय खाने लग जाती हैं ? 

उसे रह-रह कर यह बात उद्वेलित करने लगी है कि कोई उससे आज मिलने आने को कहकर गया है | इसे लेकर मन के अवचेतन में कोई कौतूहल रहा हो इसलिए भी उसकी नींद आज जल्दी खुल गयी है  | नींद खुल जाए सुबह-सुबह फिर दोबारा लौटती कहाँ है | उसके लिए तो फिर रात की प्रतीक्षा करनी पड़ती है |

उसने थोड़ी देर के लिए फिर झरोखे को खोलकर बाहर झांका | झरोखे के उस पार की ठंडी हवा ने इस बार जब उसकी देह को छुआ तब आभास हुआ कि बाहर कितना सर्द मौसम है|उसने झट से कमरे का झरोखा फिर बंद कर दिया और कुछ देर तक कमरे में यूं ही टहलती रही | अटेच बाथरूम के  वाश बेसिन के पास जाकर नल की टोंटी खोलकर चेहरे और आँखों को पानी के छींटो से धोने की उसकी इच्छा हुई | इस बीच घड़ी का अलार्म बज उठा | आँखों को धोने के बजाय उसका ध्यान घड़ी की तरफ अचानक चला गया |

घड़ी देखकर उसे याद आया कि यह घड़ी तो उसे वर्षों पहले किसी ने गिफ्ट किया था | वह उसे 'किसी ने' कहकर आखिर क्यों याद कर रही है? क्या उसका नाम भी उसे अब याद नहीं रहा ? आज उसके जेहन में सवालों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा था |  

गिफ्ट देने वाले को याद करते हुए धीरे-धीरे उसके मन में नए-नए सवाल आने लगे ... आखिर वह उसकी क्या लगती है कि उसने उसे इतनी महंगी घड़ी गिफ्ट की थी ? क्या रिश्ता है आखिर उससे उसका कि आज उसकी मुलाकात होने भर की संभावना से वह भीतर से इतनी बेचैन होने लगी है ? उस रिश्ते को वह टटोलने की कोशिश करने लगी ? सोचने लगी कि आज उससे मिलकर वह क्या कहेगी ? उसे समझ में नहीं आ रहा था कि बातों का सिरा जिसे वह पकड़ना चाह रही है आखिर वह कहाँ गुम हो गया है |

वह नल की टोटी खोलकर अपनी अंजुरियों के सहारे चेहरे पर पानी का छींटा मारने लगी | ओह्ह..पानी कितना ठंडा है | देहरादून में ठण्ड के महीने में सुबह सुबह नल की टोटी से निकल कर बाहर आ रहे पानी को छूना कितना चेलेंजिंग होता है | उसे याद आया ...कभी-कभी ठण्ड के दिनों में वह उसके साथ देहरादून की सडकों पर मोर्निंग वाक पर निकल जाया  करती थी |उसके मोबाइल पर रफी के सुन्दर-सुन्दर गाने बजते रहते थे और वे दोनों आपस में कदम ताल करते हुए  झील तक कब पहुँच जाते थे पता ही नहीं चलता था | वे दोनों आपस में दोस्त थे या और किसी  रिश्ते के तार उनके बीच धीरे धीरे जुड़ने लगे थे, इसका खुलासा उनके बीच कभी हो नहीं पाया |

एक दिन उनमें  शर्त लगी थी कि एकदम सुबह-सुबह ठंडे पानी से जो पहले नहा लेगा तब दूसरा उसे महंगी घड़ी गिफ्ट करेगा | उसका घर उसके घर के बगल में ही था | वह वहां किरायेदार के रूप में कुछ दिनों से आकर रहने लगा था | 25 की उम्र का हंसमुख जवान | बेंक में प्रोबेशनरी ऑफिसर था वह | बातचीत में किसी को अपनी ओर आकर्षित कर लेने की कला शायद उसे विरासत में मिली हो | वह भी उनदिनों 23 की थी और कालेज में पीजी करके नौकरी की तलाश में निकल पड़ने वालों की जमात में शामिल होने की तैयारी ही कर रही थी | उनके घरों के छत इस तरह आपस में भौगोलिक रूप से संलग्न थे कि दोनों अगर एक साथ अपने-अपने घर की छत पर चढ़ें तो उनका चेहरा एक दूसरे के एकदम आमने सामने इस पोजीशन में आ जाए जैसे कि कोई आईने में अपना ही चेहरा देख रहा हो | उनकी पहली मुलाकात इसी छत पर हुई थी जब वह एक दिन छत पर धूप सेंकने के लिए बैठी थी | 

'धूप सेंकना सेहत के लिए लाभदायक होता है' यह कहते हुए उस दिन पहली बार वह उससे मुखातिब हुआ था |उसे उसका इस तरह मुखातिब होना बुरा नहीं लगा था | पड़ोसी होने का एक धर्म भी होता है, जिसका उसने पालन किया था| बातचीत की शुरूवात उसने की थी फिर उस सिलसिले को आगे बढाने की जिम्मेदारी अब उसके ऊपर आ गयी थी| और फिर इस जिम्मेदारी को वह निभाती चली गयी थी | उन दिनों सुबह सुबह छत पर आकर घंटों बातचीत करना उनके दिनचर्या का एक हिस्सा बन गया था |

कड़कड़ाती ठण्ड में एक दिन सुबह-सुबह छः बजे नहा धोकर तैयारी के साथ जब वह छत पर पहुंची तो छत पर आँखें मलते हुए उसे उसका चेहरा दिख पड़ा था  |

'अरे तुम इतनी सुबह तैयार हो गयी ?' -आँखें मलते-मलते ही उसने पूछ लिया था

'और क्या ! मैं तो एकदम ठन्डे पानी से नहा धोकर सीधे छत पर आ गयी हूँ!' उसने मुस्कराते हुए उससे कहा था |

'तो क्या आज कहीं जाने की तैयारी है ?' पूछते हुए उसकी आवाज थोड़ी धीमी हो गयी थी  

'न ...आज नहीं ! बिलकुल नहीं ! आज तो तुम्हारा भी छुट्टी का दिन है ' - उसकी ओर से एक चहकता हुआ जवाब आया था 

'तो फिर इतनी सुबह नहाना धोना ?'

'ओह्हो.... कितना जल्दी भूल जाते हो तुम ! ठन्डे पानी में पहले नहाने और घड़ी गिफ्ट करने वाली बात भी तुम जल्दी भूल गए!'

 " ऎसी बेवकूफी न किया करो , तुम्हें कहीं सर्दी लग गई तो ?" उसकी बातें उसे उस दिन अच्छी लगीं थीं क्योंकि  उन बातों में उसके सेहत को लेकर एक चिंता का भाव था |

वे भी क्या दिन थे जब सुबह-सुबह ठन्डे पानी में नहा लेने की हिम्मत इस देह के भीतर मौजूद थी | देह की हिम्मत कहें या मन के भीतर का उत्साह ! .. पर वे दिन सचमुच कितने खूबसूरत दिन थे | अब आलम यह है कि इस भारी ठण्ड में

चेहरे पर पानी का छींटा मारने में भी आज उसे कितनी परेशानी महसूस हो रही है मानो मन के भीतर का उत्साह और देह के भीतर हिम्मत की मौजूदगी दोनों जीवन से जैसे विदा हो गए हों |उसने आज उस घड़ी की ओर जी भरकर निहारा | टिक-टिक करती घड़ी की सुईयां जैसे उससे बातें करने लगीं हों | घड़ी के भीतर बैटरी चार्ज अवस्था में हो तो वह चलती रहती है | उसने इस घड़ी के भीतर लगने वाली बैटरी का ध्यान हमेशा रखा |बैटरी डिस्चार्ज होने से पहले ही उसने नयी बैटरी लाकर उसके भीतर लगा दिया | घड़ी के बंद हो जाने की चिंता ने उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित किया था या बात कुछ और थी , इस पर उसका ध्यान कभी गया हो उसे याद नहीं | पर आज उसे लगा कि उससे जुड़ी कोई तो बात थी, जो उसके अवचेतन में बसी रहकर उसे ऐसा करने के लिए निर्देश देती रही | हरेक चीज की उम्र होती है , इस घड़ी की भी उम्र अब 24 के पार जाने को थी | उसे आश्चर्य हुआ कि यह घड़ी आज भी चल रही है |बहुत सी चीजें उम्र के पार जाकर भी अपने अस्तित्व को बचाए रखती हैं ! उसे लगा कि देहरादून में आज भी सबकुछ वैसा ही है , बस उसके युवावस्था के जोश से भरे हुए दिन कहीं उड़कर अब दूर जा चुके हैं | कहते हैं दिन जो उड़कर चले जाते हैं फिर लौटकर कभी नहीं आते | कोई पूछे कि वह उन दिनों को आखिर क्यों नहीं बचा पाई तो उसके पास अब कोई जवाब नहीं है | इसका जवाब तो ज्यादातर इंसानों के पास नहीं होता है | कुछ सवालों के जवाब आखिर क्यों नहीं होते ? आखिर आज वह उसे 'किसी ने' शब्द से क्यों संबोधित कर रही है ? ..वह आज सोचती चली जा रही थी |  

वह अब पचास को छू रही है  | वह चकित है कि पूरे 24 वर्षों के बाद उसे इस तरह भी वह प्रपोज करेगा जबकि उसे अच्छी तरह मालूम है कि वे दोनों शादीशुदा हैं, और अपने अपने परिवारों की गाड़ी का बोझ कांधे पर लादे हुए जिन्दगी की सीधी और सपाट ट्रेक पर चले जा रहे हैं | क्या किसी से प्रेम का इजहार करने के लिए भी किसी को इतने बरस लग जाते हैं? इस सवाल का भी उसके पास कोई जवाब नहीं है | उसने मन ही मन सोचा ... " जीवन ही तो है ! यहाँ कुछ भी संभव है | किसी अधूरी कहानी की टूटी हुई डोरी हवा में कब लहराने लगे कुछ कहा नहीं जा सकता | संभव है कुछ लोगों के जीवन में ऐसा भी कभी होता हो| पर उन कुछ लोगों में एक दिन वह भी शामिल हो जाएगा उसने सोचा तक नहीं था !"  

और उस दिन की घटना से एक अजीब तरह के अनुभव का दौर उसके जीवन में चलकर आया था |

"अचानक 24 वर्षों बाद यूनिवर्सिटी कैंपस में कोई परिचित अफरा तफरी में मिले, उससे उसकी बातचीत बस कुछ ही देर की हो , और इसी कुछ देर की बातचीत के दरमियान ही वह पूरी हिम्मत के साथ उससे कह दे .... "आई लव यू मंजू ! मैं तुम्हें चौबीस वर्ष पहले यह कहना चाहता था, पर कभी हिम्मत न कर सका | शायद तुम्हें याद हो न हो पर मुझे याद है सबकुछ आज भी , हमारे बीच बातचीत का सिलसिला लंबा जरूर था पर इस तरह की बातचीत के लिए अपने आपको हम कभी तैयार नहीं कर सके और मन की बातें मन के भीतर ही रह गयीं | माफ़ करना मंजू  ...उन दिनों की बातें जो मेरे मन में ही रह गयी थीं आज मैंने उसे हिम्मत के साथ कहकर अपने मन का बोझ उतार लिया है | मंजू तुम अब भी वैसी ही लगती हो मुझे ! एकदम कमसिन और खूबसूरत!" बस पांच मिनट की बातचीत में उसने सबकुछ एक ही साँस में कह दिया था |

उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर वह उसके साथ किस तरह का व्यवहार करे | एक बार मन में आया कि वह उसे डांटकर इस तरह कुछ भी कहने से मना कर दे |


आखिर आज वह एक शादीशुदा स्त्री है और एक शादी शुदा स्त्री से कोई इस तरह की बातचीत कैसे कर सकता है? इस तरह का सवाल भी उसके जेहन में उस समय आने लगा था | पर उस दिन वह उससे कुछ कह नहीं पाई थी | जीवन में उसकी तरह अब तक कोई उसे नहीं मिला था जिसने इस तरह उसकी सुन्दरता की तारीफ़ की हो | उसके पति ने उसकी सुन्दरता को लेकर कभी इस तरह उसकी तारीफ नहीं की थी और अंततः एक अधूरेपन की चोंट उसके मन के भीतर वर्षों से आकार लेती रही थी | अपनी सुन्दरता का जिक्र आते ही अमूमन औरतें भीतर से खिल उठती हैं |  एक शादी शुदा औरत होते हुए भी न जाने क्यों उसे उसकी बातें उस दिन अच्छी लगी थीं  | पचास को छूने की उम्र में उसकी सुन्दरता का जिक्र उसके कानों को गुंजित कर गया था | एक औरत अपने जीवन में बहुत कुछ सुनने की इच्छा लिए इस धरती पर आती है | कई बार लम्बे इन्तजार के बाद भी चीजें कानों में सुनाई ही नहीं पड़ती और उसे सुनने की इच्छा लिए ही एक स्त्री का जीवन समाप्त होने  लगता है | यह जीवन है बड़ा विचित्र ! सुनने की इच्छा भी रखो तो कई बार कोई सुनाने वाला ही नहीं मिलता | पर उसे यह चमत्कार की तरह लगा कि 24 वर्ष बाद ही सही पर इच्छित चीजों को कोई सुनाने वाला उसे  मिल ही गया था | वह भलीभांति जानती-समझती है कि उसकी संगत या उसके साथ किसी रिश्ते को लेकर कुछ सोचना-विचारना आज उसके लिए बिलकुल बेमानी है , पर जब से यह प्रसंग उसकी स्मृति में जीवित होकर सामने आकार लेने लगा है वह जीवन में पसरे अधूरेपन के दर्द से थोड़ी राहत महसूस करने लगी है | उसे अच्छी तरह मालूम है कि अपने जीवन में किसी दूसरे के लिए अब कोई स्पेस ही नहीं बचा है , फिर भी लगता है उसे कि इस 'किसी ने' नामक शख्स ने उसके जीवन की घड़ी के भीतर वर्षों से डिस्चार्ज पड़ी बैटरी को बदलकर जैसे नयी बैटरी लगा दी है | उसका मन इसी बात को सोच सोचकर आज उद्विग्न है- "अधूरेपन की नदी को पार कराने वाले शख्स, कई बार जीवन में  अचानक मिलते  हैं, और फिर मन के भीतर मृत पड़े उत्साह को पुनर्जीवित कर  दूर चले जाते हैं|"

०००

92 श्रीकुंज , बोईरदादर, रायगढ़ (छत्तीसगढ़)

मो.7722975017

मौत उनके लिए नहीं, फ़िलिस्तीनी कविताएं- दस

 


सिर्फ़ एक बार


ज़कारिया मौहम्मद 


सिर्फ़ एक गोली बन्दूक में 

ताकि मौत इन्तज़ार कर सके 

छुप कर दरवाज़े के पीछे


सिर्फ़ एक फेफड़ा पसलियों के पीछे 

ताकि साँस 

रौशन कर सके अँधेरे को


सिर्फ़ एक चाभी घर की 

ताकि सिवाय भूतों के 

कोई दाख़िल न हो सके


सिर्फ़ एक शहर 

जागता है दिल में 

कसकती है उससे बेदखली


सिर्फ़ एक उम्र, 

अकेली वही एक उम्र, 

दहशत पैदा करती है 

वजूद के लिए

०००


चित्र 

फेसबुक से साभार 










वाह !


अगर 

चारे के लिए कलियाँ और कोंपलें हों, 

अगर 

खुरों में जड़ी हों चाँदी की नाल, 

अगर 

हो काठी सोने की


पर, 

पर गले के लिए तो होनी ही चाहिये 

चमचमाती ख़ूनी लाल लगाम

०००


वक़्त, चाबुक और घोड़े


मैं ठीक कर देता हूँ 

घंटे वाली सुई 

फिर, मिनट और सेकण्ड वाले काँटे


हाथ की बेसब्र चाबुक 

चीख़ती है 

तेज, तेज और तेज 

घोड़े दौड़ पड़ते हैं सरपट 

पागलों की तरह

०००


चरागाह


घास का लुभावना, 

बहुत ऊँचा होना 

नहीं है सच, उतना ही 

जितना पानी का बरसना, न बरसना 

बादलों का होना, न होना


घास का क्या 

हो सकता है पहुँच जाये 

तुम्हारी कमर की ऊँचाई तक 

पर क्या लुभा लेगी वह 

और चरते रहोगे वहीं जीवन भर 

मान कर उसे आखिरी सच 

मत चरो, उसी अकेले चरागाह में 

दुनियाँ में और भी बहुत से सच है 

उस चरागाह के सिवा

०००


कवि का परिचय 


जकरिया मोहम्मद युवा फ़िलिस्तीनी कवि । फ़िलहाल फ़िलिस्तीनी पत्रिका 'अल-हुरियाह' के सम्पादक-सचिव । इनका अब तक एक कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ है और ये फ़िलिस्तीनी लेखक एवं पत्रकार संघ के सदस्य हैं।


०००

अनुवादक 

राधारमण अग्रवाल 

1947 में इलाहाबाद में जन्मे राधारमण अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम कॉम तक पढ़ाई की , उनकी कविताएं लिखने में और तमाम भाषाओं का साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उन्होंने विश्व साहित्य से अनेक कृतियों का अनुवाद किया। 1979 में पारे की नदी नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। 1990 में ' सुबह ' नाम से उनके द्वारा अनूदित फिलिस्तीनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ । 1991 में एयरफ़िलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' मौत उनके लिए नहीं ' नाम अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के लिए पहल द्वारा प्रकाशित किया गया था।

14 सितंबर, 2024

 अक्कै पद्मसाली की कविताएं 


हम सब भारतीय हैं 

अक्कै पद्मसाली


वो हिंदू

है ये मुसलमान

मैं क्रिश्चियन

तुम बौद्ध, जैन, और कुछ

कहने वाले धर्मों से परे 

हमारा धर्म है मानव धर्म

हम सब भारतीय हैं।


उसकी जात वो है

इसकी जात है ये

मैं हूँ उस जात का

तुम हो इस जात के, और बहुत कुछ 

अन्य जातिओं से परे

हमारी जाति है मानव जाति

हम सब भारतीय हैं।


वो काला है

ये गोरा

मैं कांस के रंग का

तू भूरा, पीला, और न जाने क्या-क्या

रंगों से परे 

है हमारा सच्चा रंग

हम सब भारतीय हैं।


वो है ब्राह्मण

ये क्षत्रिय

मैं वैश्य

तुम शूद्र 

इन वर्णों से परे है

हमारा भावनाएं हैं एक

हम सब भारतीय हैं।


वो है पुरुष

ये स्त्री

वो लैंगिक अल्पसंख्यक पुरुष 

वो लैंगिक अल्पसंख्यक स्त्री से परे

हमारी आत्मा में लिंग है

हम सब भारतीय हैं।

०००

चित्र 
आसमा अख़्तर
 








तिरस्कृत 


बेटा होगा हमें बेटा

हमारे वंश का चिराग होगा हमारा बेटा

परिवार का नाम रौशन करे हमारा बेटा


हे भगवान!

हमारी गोद में जो है वो क्या बेटा नहीं!?

कोई बात नहीं बेटी तो है!?

ये कैसा है बच्चा

नहीं है ये यहाँ का 

हमारे द्वारा अस्वीकार्य बच्चा 

संसार द्वारा अस्वीकार्य बच्चा। ओह! 


क्यों चाहिए हमें ये तकलीफ़

क्यों चाहिए हमें ये भिखारी

क्यों चाहिए हमें ये दुर्भाग्य

क्यों चाहिए हमें ये अपमान

क्यों चाहिए हमें यह शापित जीव। ओह!


क्या बना दें इसे अनाथाश्रमों का गुलाम

छोड आऊं किसी मेले में

जहां हो मनुष्यों का सैलाब

फ़ेंक दूँ किसी दूसरे शहर के कूडे में 

गले में बांधकर लकडी कर दूँ इसका अंत

किसी कुंए में धकेलकर

मार डालूँ इसे! हे भगवन!


रेलगाडी की आग में डालकर इसे

उसका धुँआ बना दूँ

मीठी खीर में डालकर जहर,

हो जाऊँ मुक्त

परदेस के पाप के कुँए में झोंक दूँ

या बना कर एक गाँठ इसकी गर्दन में 

झुलाऊँ एक झूले की तरह।


जीवित मृतक हो जैसे

होकर भी न हो जैसे

बोलूँ मैं अगर जी लो ऐसे ही चोरी-छुपे

जगह-जगह भटकते हुए जाए जो ये

इसकी यात्रा कभी न लौटने वाली यात्रा हो। हाँ!

०००

कवि :- अक्कै पद्मसाली











अनुवादक 

डॉ. मैथिली प्र राव, गत 27 वर्षों से हिंदी के अध्ययन एवं अध्यापन से जुडी हैं। इस दौरान वो जैन संस्था समूह के

महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय में सेवारत थीं। इन्होंने अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में आलेख प्रस्तुति के अलावा, अध्यक्षता का निर्वहण किया है एवं बीज व्याख्यान दिए हैं। अनेक शोध पत्रिकाओं में इनके शोध परक आलेख प्रकाशित हैं। हिंदी एवं शिक्षण के प्रति इनके योगदान के लिए अनेक संस्थाओं ने सम्मानित किया है। संप्रति ये एक स्वतंत्र अनुवादक के रूप में कन्नड से हिंदी में साहित्यिक अनुवाद के कार्य में संलग्न हैं। कर्नाटक सरकार के स्नातक-पूर्व हिंदी के पाठ्यक्रम समिति की बाह्य सदस्य हैं एवं एनसीईआरटी के हिंदी के पाठ्यचर्या क्षेत्र समूह की सदस्य के रूप में इनका सक्रिय योगदान रहा है।

मौत उनके लिए नहीं फ़िलिस्तीनी कविताएं -नौ

 

मेरी आवाज़, मेरी खुशबू, मेरा जिस्म


तौफ़ीक़ जियाद


जहाँ जमी हैं मेरी जड़ें 

मैं लौटूंगा वहीं 

बस, इन्तज़ार करो मेरा 

मैं ज़रूर लौटूंगा


चट्टानों की दरारों में 

काँटों में, पत्तियों में 

रंगीन तितलियों में 

गूंज में, सायों में 

जाड़े की सोंधी मिट्टी में 

गर्मी की धूल में 

मस्त हिरनियों के रास्तों में 

चिड़ियों के घोंसलों में


गरजता तूफ़ान दिखायेगा रास्ता 

मेरी नसों में धड़कती है 

मेरे वतन की अज़ान 

पुकारती है हर घड़ी 

हाँ, मैं जरूर लौटूंगा


फूलों रखना तब तक बरक़रार 

मेरी आवाज़, मेरी खुशबू, मेरा जिस्म

०००




चित्र 

आसमा अख़्तर 









कोई कैसे करे बर्दाश्त


ऐ मेरे वतन

ऐ मेरे घर

ऐ मेरे लुटे ख़जाने

ऐ मेरे ख़ूनी इतिहास


जहाँ दफ़्न हैं मेरे अब्बा 

उनके वालिद 

उनके भी पुरखे 

पहुँच नहीं सकता उन तक 

कैसे कर लूँ बर्दाश्त 

कैसे कर दूँ माफ़ 

जकड़ दिया जाऊँ शिकंजे में 

फिर भी, 

नहीं कर पाऊँगा माफ़


उगलते थे सोना जो खेत

पड़े हैं उजाड़, वीरान आज 

पड़ी हैं यहाँ वहाँ 

हड्डियाँ पत्थरों के साथ 

जूझ रहे हैं अब भी 

कुछ मर्दाने 

कुछ दीवाने 

हौसला है उन दरिन्दों को फाड़ खाने का 

ख़ून पी जाने का 

कुछ न कहो, कुछ भी नहीं 

मक़बरों तक को नहीं बख़्शा 

रौंद डाला उन्हें भी बूटों तले

०००



सतह से नीचे



मुझे कुछ भी न बताओ 

कुछ भी नहीं


मैं आ गया हूँ उस जगह 

जहाँ न पीछे कुछ था 

न आगे कुछ होने की गुंजाइश 

जहाँ तौला जाता है एक एक लफ़्ज़ 

साया पीछा करता है साये का 

खुदाई हुक्म 

बदल जाते हैं सुविधाजनक क़ानून, धर्म में 

बंदा नेस्तनाबूद कर देता है खुदा को 

बस भी करो, 

मुझे कुछ और न बताओ


मैं आया हूँ वहाँ से 

जहाँ एक बाग सुलगती है सीने में, 

तेजाब बहता है विद्रोही नसों में, 

सड़कें उफनती हैं 

बेहिसाब आदमी औरतों से 

एक कभी न ख़त्म होने वाला सिलसिला, 

जहाँ पेड़ लहरा रहे हैं 

वतन के झंडे जैसे 

जायेंगे यहाँ से भला कहाँ, 

जहाँ हर हादसा 

ललकारता है और कुर्बानी के लिए, 

जहाँ शिकायत 

मानी जाती है कमजोरी,

जहाँ के बच्चों, शायरों 

और मजदूरों की आवाज़ें 

रौशन करती हैं दिलों को- 

जागती हैं आस, 

मत बतलाओ मुझे कुछ और


देखी है मैंने ज़िन्दगी भरपूर 

जी है मैंने ज़िन्दगी भरपूर


क्या जो दिख रहा है 

उसने बनाया बेवकूफ़ मुझे 

शायद बूढ़ा हो रहा हूँ 

रोओगे तो मरोगे 

जल्दी करो 

क्योंकि सच यह है 

कि जल्दी कुछ भी नहीं बदलता 

वक़्त बढ़ता जाता है आगे 

धीरे धीरे

हमेशा

०००

कवि 

तौफ़िक जियाद-आधुनिक फ़िलिस्तीनी कविता के एक महत्तवपूर्ण कवि।

०००


अनुवादक 

राधारमण अग्रवाल 

1947 में इलाहाबाद में जन्मे राधारमण अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम कॉम तक पढ़ाई की , उनकी कविताएं लिखने में और तमाम भाषाओं का साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उन्होंने विश्व साहित्य से अनेक कृतियों का अनुवाद किया। 1979 में पारे की नदी नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। 1990 में ' सुबह ' नाम से उनके द्वारा अनूदित फिलिस्तीनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ । 1991 में फ़िलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' मौत उनके लिए नहीं ' नाम अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के लिए पहल द्वारा प्रकाशित किया गया था।

13 सितंबर, 2024

मौत उनके लिए नहीं, फ़िलिस्तीनी कविताएं- आठ


शहादत

अब्दुर्रहीम महमूद


मैं रख लूँगा अपनी रूह

अपनी हथेली पर 

और घुमा के फेंक दूंगा उसे 

मौत की आरामगाह में


मेरी जिन्दगी को 

खुश करना चाहिये दोस्तों को 

या मिटा देना चाहिये दुश्मनों को ?


खुशनसीब जनम लेते हैं दुनियाँ में 

फूलों को, सपनों को हथियाने के लिए


जिन्दगी क्या है 

क्या है मक़सद इसका 

मैं नहीं चाहूँगा जीना एक भी पल 

अगर ताक़तवर न समझें मुझे 

मेरे वतन की एक नामुमकिन चारदीवारी 

सुनते हों सब मेरी बात, ग़ौर से 

गूंजती हो मेरी आवाज, मेरे बाद


क़सम खुदा की, 

जिम्मेदार होऊँगा अपनी मौत का मैं खुद ही 

बढ़ता हूँ इसकी तरफ़ 

हिम्मत और जल्दी से



एम एफ हुसैन 








मारा गया है हक्क, इसलिए 

चाहता हूँ अपने वतन को, इसलिए 

तलवारों की झनझनाहट 

है सबसे मीठी आवाज़ 

ख़ून नहीं जगाता कोई दहशत 

मुर्दा जिस्म पड़ा हो 

किसी वीरान, सूखे रेगिस्तान में 

परिदों के नोंच खाने के लिए 

बच रहता है फिर भी, एक हिस्सा 

ज़मीन और जन्नत के शेरों के लिए 

सिंच गई है ज़मीन, शहीद के ख़ून से 

महक उठी है फ़िजा, शहीद के ख़ून से 

खूनी हवा 

सहलाती है शहीद का चेहरा धूल से 

चलो, एक मुस्कराहट तो आई होठों पर


इस तरह बेज़ार दुनियाँ से 

बोझिल हो जातीं हैं पलकें नींद से 

सो जाता हूँ, फिर से, उसी सपने की तलाश में


ख़ुदा गवाह है, 

यह मौत होगी वाक़ई एक मर्द की मौत 

जो चाहते हैं मरना इस तरह 

वे मर ही नहीं सकते किसी और तरह 

मैं नहीं पैदा हुआ 

उन बदज़ातों की सज़ा भुगतने के लिए 

कैसे 

कोई कर लेता है 

इनकी ज्यादतियाँ बर्दाश्त 

डर से ? 

शर्म से ? 

पर, क्या मैं नहीं हूँ ऊपर से नीचे तक 

शान ही शान ?


घुमा के फेंक दूंगा अपना दिल 

सीधा, दुश्मन के चेहरे पर 

दिल है मेरा फ़ौलादी, आग का गोला 

मेरी तलवार की धार 

देख रही है पूरे वतन को


मेरे हमवतन 

क़द्र करते हैं 

मेरी हिम्मत की 

०००


 

कवि का परिचय 

अब्दुर्रहीम महमूद- 1913 में जन्म। 1948 में अँग्रेजी और जिओनिस्ट फौजों के खिलाफ लड़ते हुए शहीद हुए। अबू सलाम और इन्नाहिम तूकान जैसे दिग्गज कवियों के साथ इनका नाम भी आधुनिक फ़िलिस्तीनी कविता के आधार स्तम्भों में गिना जाता है।



०००

अनुवादक 

राधारमण अग्रवाल 

1947 में इलाहाबाद में जन्मे राधारमण अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम कॉम तक पढ़ाई की , उनकी कविताएं लिखने में और तमाम भाषाओं का साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उन्होंने विश्व साहित्य से अनेक कृतियों का अनुवाद किया। 1979 में पारे की नदी नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। 1990 में ' सुबह ' नाम से उनके द्वारा अनूदित फिलिस्तीनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ । 1991 में एयरफ़िलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' मौत उनके लिए नहीं ' नाम अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के लिए पहल द्वारा प्रकाशित किया गया था।

वनिता बाजपेई की कहानी

 


 मैनेजमेंट और दुधारू गाय

 वनिता बाजपेई

 शाम का धुंधलका है ,कॉलेज परिसर में मरियम की मूर्ति के सामने रंग बिरंगी लाइट जल रही हैं ,लगभग पूरा परिसर वीरान है, एक अजीब सी चुप्पी  है वातावरण में ,तभी दूर एक साइकिल नजर आती है ,पुरानी  सी साइकिल पर कोई कॉलेज से निकल कर बाहर जा रहा है, पास से देखने पर एक शिखा धारी सज्जन नजर आते हैं जो साधारण से कपड़े पहने हुए हैं, व्यक्तित्व में कोई महत्वपूर्ण बात नजर नहीं आती बस अपने चेहरे से मेहनतकश दिखते हैं , आंखों में बौद्धिकता की एक चमक सी दिखाई देती है, गेट पर पहुंचते हैं, दरबान एक उचटती सी  दृष्टि से उन्हें देखता है और बड़े से लोहे के गेट का एक संकरा  सा रास्ता खोल देता है ,उसे पता है साइकिल ही तो है निकल पजाएगी ,निर्लिप्त भाव से गेट लगा लेता है । साइकिल पर जा रहे सज्जन श्री चतुर्वेदी हैं, नाम ? नाम में क्या है, अपना नाम ही वह लगभग भूल गए हैं ,सब उन्हें चतुर्वेदी जी ही कहते हैं।

 किसी चिंता में दिखाई देते हैं ,अमूमन तो वो  चिंता या चिंतन में ही होते हैं, अब नौकरी से उकता  गए हैं या कहना चाहिए थक गए  हैं, यह थकान शारीरिक से लेकर मानसिक तक है ,अपने से भिन्न  संस्कृति वाले  इस कॉलेज में वैसे तो उनकी बहुत इज्जत बहुत है  पर बस इज्जत ही इज्जत है, अब इस कठिन समय में इज्जत से काम नहीं चलता ,अब राशन की दुकान पर इन चीजों का कोई मोल नहीं ,वहां तो नोट चलते हैं नोट, जो उन्हें गिन गिन कर दिए जाते हैं, इन्हीं गिने गिनाए नोटों से अनगिनत काम करने होते हैं, घर में बीवी है जो गृहिण है, दो बच्चे एक लड़का एक लड़की हैं, लड़का सवाल नहीं करता परंतु लड़की सवाल पूछती है,  उसकी आंखों में सपने कम और सवाल ज्यादा हैं । वह उससे बचे बचे फिरते हैं ,शायद इसीलिए खुद को झोंक रखा है कॉलेज में, यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि 


पूरा कॉलेज उनके मजबूत कंधों पर टिका है ,कंधे कितने मजबूत हैं यह तो सिर्फ वही जानते हैं। साइकिल पर पैडल मारते मारते सोच रहे हैं ,अचानक उनकी सोच को विराम लग जाता है, पीछे कोई बेसब्री से बार-बार हॉर्न  दे रहा है ,बड़ी सी कार में कोई किशोर है, इस युवा पीढ़ी के पास ना तो समय है ,और ना सब्र । पता नहीं कहां पहुंचने की इतनी जल्दी है, वह साइड में हो जाते हैं ,सड़क किनारे कोई बुजुर्ग महिला भुट्टे बेच रही है और सामने खड़ा व्यक्ति चिक चिक कर रहा है, कपड़े से तो अभिजात्य लगता है पर कपड़े और सोच दोनों में अभिजात्य  हो यह महत्वपूर्ण है, अम्मा सड़क के किनारे लगभग नाली के पास बैठी है, बेहद कम रौशनी है ,जबकि थोड़ी ही दूरी पर बिग बाजार रोशनी से जगमगा  रहा है, कुछ लाइट तो अनावश्यक ही दिखती है, चलो ट्रैफिक  कुछ कम हुआ वह फिर निकल पड़ते हैं ,हल्की बूंदाबांदी है पर उन्हें आदत है, मौसम की अनुकूलता या प्रतिकूलता उन पर असर नहीं करती ,उनका जीवन ही इतनी प्रतिकूलताओं  से भरा हुआ है कि उन्हें अब फर्क नहीं पड़ता, शहर में सब उन्हें गाय कहते हैं ,गाय। चतुर्वेदी जी आप तो सीधी साधी गाय हो ,और आपका मैनेजमेंट आपको दुह रहा है ,जैसे गाय हर रूप में कुछ ना कुछ देती अवश्य है ऐसे ही वह निचोड़ रहे हैं आपको ,मरने पर चमड़े का भी प्रयोग कर लेंगे ,आप निकलिए इनके चंगुल से ,पर क्या करें उनके आदर्श उनके संस्कार इन सब पर भारी है ,एक बार नौकरी कर ली और नमक खा लिया तो बस उसी के जाकर बन बैठे, कहीं और जाना उन्हें नमकहरामी  जो लगता है, घर आ गया है, साइकिल खड़ी करते हैं ,हाथ पैर धो कर सीधे पिछवाड़े पहुंचते  हैं,यहां पर ही ऐसी दो आंखें हैं जो उनका बेसब्री से इंतजार करती हैं,बाकी घर में तो उनका आना मात्र एक दिनचर्या है ।रोज आते हैं तो आज आ गए, उसमें क्या है ,वैसे भी क्या लाए होंगे साथ में ,जिसके लिए बच्चे उनके पास दौड़े-दौड़े जाएं ,पर ये आंखें जो पिछवाड़े मैं उनका इंतजार करती मिलती है उसकी बात कुछ और है ,यूपी से जब आए थे तब यह घर ले लिया था लोन लेकर, वरना आज के समय में खुद की छत बनाना उन जैसों के लिए एक सपना है ,घर के पीछे और आगे दोनों तरफ दालान भी बना लिए थे ,और पीछे के दलाल में बंधी है उनकी गंगा जो उन्हें देखते ही आगे पीछे होने लगती है, और अपने हाव-भाव से प्रेम प्रदर्शित करती है, वह भी रोज कॉलेज से आ कर इससे दुलार करते हैं, गंगा मूक  प्राणी है ,परंतु आंखों से अपने हाव भाव से ,और रंभा कर अपनी बात कहती है, दोनों की स्थिति लगभग एक सी है, दोनों खूटे से बंधे हैं, वह बोल नहीं पाती और यह बोल नहीं सकते, संध्या आरती कर भोजन करने बैठते हैं पत्नी बताती है कि बच्चों की फीस भरनी है ,बिजली का बिल और फलां  सामान कल लेकर आना है, वह जानती है कि यह  समय सही नहीं  है, यह सब कहने का ,पर मजबूर है ,खाने के समय ही दोनों की ठीक से भेंट हो पाती है ,पत्नी को हां बोल कर उठते हैं ,कॉलेज से बहुत सारा काम लेकर घर आए हैं वह निपटाना है ।बस कुछ इस तरह ही जिंदगी चल रही है ।

एक दिन की  घटना से वह परेशान हो जाते हैं परेशान क्या  लगभग टूट से जाते हैं ,उनकी गाभिन गाय गंगा को कोई चुरा ले गया ,खूब ढूंढा दिन रात भटकते रहे परंतु कहीं नहीं मिली ,पत्नी बता रही थी कि सामने मैदान में बांधा था थोड़ी देर के लिए ,तभी से गायब है ।घर की गति जैसे रुक सी गई है, सब कुछ चल रहा है ,पर सब यंत्र वत ,वह थाने में भी रिपोर्ट लिखा आए  हैं पर उन्हें पता है कुछ नहीं होगा, उनकी रिपोर्ट लिखते समय बंकिम दृष्टि से देख रहे थे उन्हें सभी पुलिसवाले ,उनके पास गंगा की फोटो भी थी ,क्यों ना होती वह तो परिवार का एक सदस्य ही तो थी, अब पता नहीं कहां होगी, कुछ खाया पिया होगा या नहीं चिंता में हो करवटें बदलते हैं ।पत्नी भी यंत्र चालित काम निपटाती  है, दिनभर गंगा से चलने वाला उनका वार्तालाप थम गया  है।शाम को जब वह वापस आते गंगा से अपनी सारी बातें कहते एक वही तो थी जो उन्हें टका सा  जवाब नहीं देती थी ,बल्कि अपनी  नीली आंखों से देखती और सिर हिलाती  थी ,जीवन लगभग थम गया है, पर नौकरी ,और नौकरी में उनका दोहन चल रहा है ,कॉलेज में विद्यार्थियों की संख्या बढ़ानी है इसीलिए सब को निर्देश दिए गए हैं कहीं से भी लाओ वरना तनख्वाह कम कर दी जाएगी। उन्हें बार-बार वह बात याद आती की मैनेजमेंट उनको दुह रहा है पर क्या करें ।

परिवार में एक शादी आ गई है भोपाल जाना है, उनके लिए त्यौहार या उत्सव उल्लास लेकर नहीं तनाव लेकर आते हैं, जीवन की उत्साह धर्मिता उत्सव धर्मिता लगभग समाप्त हो गई है, बच्चे दोनों बड़े हो गए उनके सपने उनकी उम्र के अनुपात से दोगुने बड़े हो रहे हैं ,गंगा की याद अब कम हो गई है उनके जीवन मैं अकेलेपन के सिवा कुछ नहीं है यूं तो घर में 3 सदस्य और भी हैं परंतु वह ऐसे प्रश्न बनकर उनके सामने आते हैं जिनके उत्तर उनके पास नहीं है, हारे थके साइकिल खींचते घर पहुंचे हैं आज गंगा को गुमे  लगभग डेढ़ साल हो गया उन्होंने जीवन से समझौता सा कर लिया है ,वैसे गंगा  ने सपनों में आना नहीं छोड़ा है, वह हमेशा उन्हें सपनों में दिखती रही, पर अब जब आती है तो ऐसा लगता है जैसे कुछ कहना चाहती है  वह समझ नहीं पाते ,आदतन पिछवाड़े जाते हैं और चुपचाप वापस आ जाते हैं। शादी से लौट आए थे जीवन वैसे ही मशीन की तरह चल रहा था मन में इतनी उलझनें  लिए रहते हैं कि कई बार आसपास नहीं देख पाते ,कॉलेज से लौटे हैं साइकिल खड़ी  हैं और घर का गेट खोलते हैं ,तभी पीठ पर कुछ टहोका  सा लगता है कुछ परिचित स्पर्श पाकर  वह पलटते  हैं पीछे गंगा खड़ी है, कृष काय , घर से गई थी तो गाभन थी अब लगभग बुड्ढी  लग रही है, लोगों ने लगता है दूध के साथ साथ उसका खून भी चूस लिया है उसके गले में हाथ डाल देते हैं बार-बार एक ही बात उन्हें याद आती है चतुर्वेदी जी आप तो गाय हैं गाय और मैनेजमेंट आपको दुह हो रहा है।

000



डॉ वनिता बाजपेई 

सह प्राध्यापक हिंदी

प्रधानमंत्री कॉलेज ऑफ़ एक्सीलेंस

शासकीय महाविद्यालय विदिशा मध्य प्रदेश ।

दो काव्य संग्रह रंग बेरंग तथा सहलेखन में महाकाव्य रक्षेन्द्र पतन प्रकाशित 

त्रिपथ काव्य संकलन में कविताएं प्रकाशित।

दो साझा काव्य संकलन प्रकाशित

विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में लेख कविताएं तथा व्यंग्य प्रकाशित जैसे समावर्तन, सुबह सवेरे,क़िस्सा कोताह, पत्रिका इत्यादि

आकाशवाणी से कविताओं का प्रसारण ।  

स्थानीय सम्मान

पता , इंद्रप्रस्थ कॉलोनी अहमदपुर रोड विदिशा 

464001

vanita.bajpai@yahoo.in

9425451564

12 सितंबर, 2024

सुनील कुमार शर्मा की कविताएं

 सुनील कुमार शर्मा की कविताएं 


सम्यकपन- १


झाँका भीतर 

तो पाया 

एक नया सा सच

निकल आया ।

हाथ अक्सर रुक

जाता है देते वक़्त 

करुणा भी सिर्फ

क्या महज 

एक वासना है 

जो उत्तेजित होती 

कोई अवसर देखकर   

०००


सम्यकपन- २


ऐस्कीमों की तरह 

हो जाना संतोषी 

जीवन की 

क्रान्ति है 

या समझ है 

जीवन के 

सम्यकपन की ...

०००

केनवास 


सीख जाते हैं 

खुद ब खुद 

कलियों को बचा लेना 

लेकिन कुचल देना 

सर्प का मुख 

दबा देना 

संपोलों की पूंछ  

जबकि दुनिया 

सिर्फ तितलियों से 

नहीं बनी है  ...

नहीं जान पाए

कितना  बड़ा है 

जिंदगी का केनवास..

हाँ भजते रहे जरूर

जीववहो अप्पवहो

जीववहो अप्पवहो

०००


चित्र 

फेसबुक से साभार 







एक ख्वाहिश  


चाहतें बदल देती हैं

चेहरा और अनुभूतियां

शब्द बदल देते हैं परिणाम 

उजड़ी इमारतें करती हैं 

अनुवाद घटनाओं का 

घास ढक देती है 

सब गुनाहों को 

अब मैं घास होना चाहता हूँ ...

०००


शक्ति-१


दुनिया बड़ी विचित्र है ।

धर्म है, अध्यात्म है,

दर्शन है फिर भी

उपस्थित विभिन्न 

विस्तृत तंत्रों में 

शक्ति ही हो रही सिद्ध 

सबसे सफल मंत्र ।

जैसे सांप सीढ़ी के खेल में 

चल रहे सभी अंधे दांव 

और नित खो रहीं अगणित संभावनाएं,

कौन किस की नज़र में 

कितने खाने चढ़ गया  

कब कैसे कौन गोद से उतर गया 

इस डाह में, दाह में  

अनुमानों के अनंत से प्रवाह में 

अब अंधेरों की मौज है ।

 ०००


शक्ति-२


दोराहे पर खड़ा आदमी

असमंजस में है 

शांति चाहिए या शक्ति

या दोनों एक साथ  ।

शांति से नहीं हो रही

हासिल शक्ति ।

नहीं अब हाथ की रेखाओं पर भरोसा 

आज जो रेखा सबसे बड़ी है

वह कल मझोली हो जायेगी

या फिर छोटी !

चक्र, मछली और त्रिभुज

बनते और बिगड़ते रहेंगे ।

शक्ति से खींची जाती रही है ,रहेगी 

हथेली पर सफलता की लकीर, 

कटी है छिली है महत्वाकांक्षी हथेलियाँ 

फफक रहा अंतर्द्वंद

स्वयं के प्रति भी 

जैसे स्वयं ही हिंसक हो रहा 

शक्ति कर रही ऐसे भी आत्म विस्तार ...  

०००



परछाई


परछाई,

छोटेपन की,

ओछेपन की ,

आड़ेपन की,

तिरछेपन की,

रुखेपन की ,

सूखेपन की ,

और उथलेपन की भी


विष क्रियाओं से निकाल 

सच ले आती है सामने 

अधूरेपन को आईना

दिखाती है


बोझ बन जाती है

गाहे-बगाहे 

सामने आकर

कर जाती है दुखी भी 


कविता की आंखों से

 देखो तो ...

परछाई के बोझ से 

रोज बौना हो रहा है इंसान

हर साल सिकुड़ रहा है


फिर भी, 

रील चला कर 

शॉर्ट्स बना कर अपने 

हर कोई खुश है

आत्म मगन भी है 

और आत्म मुग्ध भी 

आत्म मुग्धता का नशा

नहीं शायद अब दौर है ..

०००


बिटिया का पिता


स्कूल,

ऑफिस,

मेला या 

सिनेमा से अगर 

घर ना आये 

समय से 

बिटिया 

तो मन में  तमाम तरह की आशकाएं 

कर जाती हैं घर ...


ढाई इंच की स्क्रीन 

पर आता एक शब्द शब्द  

'अनरीचेवल'

खीच जाता है ढेरों बिम्ब ..

कोई दुर्घटना

तो नहीं हो गई

सड़क पार करने में

कहीं दोस्त 

या कोई अनजान शख्स 

जानवर तो नहीं बन गया 


आक्रोश - हताशा- भय के

निरंतर उठते चक्रवात  में छटपटाता है पिता 

निशब्द 

हो कर स्तब्ध .. 

 बिना मरे ही कितनी 

मौत मर जाता है पिता 


वो चालीस की उम्र 

में यूँ ही नहीं 

पचपन का 

हो जाता है ...


आसान नहीं होता 

बिटिया का पिता होना

सचमुच नहीं होता  ...

०००


हज़ार ऑंखें 


हर हफ्ते अब लग रहा  

ऑनलाइन त्यौहारी बाज़ार ..

सब घर पर ही डिलीवर होगा 

जेब के कद के हिसाब से 

सुविधा का निर्धारण हो रहा है   ।

विज्ञापन और छूटों की 

लंबी फेहरिस्त बता रहे हैं ,

आप कैसे बनाइये अपनी 

इच्छाओं की लिस्ट  ...

नहीं चाहिए उन्हें नकद 

समय भी बचाइये 

बाज़ार और बैंक की दूरी भी 

सिमट गयी है ।

आपकी जेब में आकर 

बैठ गये  है वह,

रंग-बिरंगे कार्ड के रूप में ।

किस्तों से किस्तों में 

लग रही है उधार लेने की लत ।

अब उधार माँगने में 

कोई शर्मिंदा नहीं होता ,

उधार अब उधार जैसा 

कतई नहीं लगता ...

बैंक निचोड़ना चाहता है बाज़ार को,

और बाज़ार बैंक को ।

रहस्य ही है आम जन के लिए 

कौन बदल रहा है किसका आचार  ...

व्यवहार पढ़ रहा है 

ना खरीदने वालों का भी,  

जैसे हर किसी का पीछा करते हुए

अनिच्छाओं के मन के 

भीतर झाँक रही हैं ,

टटोल रहीं है जेब, 

किराये पर रखी

हज़ार ऑंखें 

और लोग बेमतलब ढूंढ रहे थे 

बाज़ार के अदृश्य हाथ ...

०००



कवि का परिचय 

डॉ सुनील कुमार शर्मा 

भारतीय रेल में उच्च पदासीन अधिकारी 


कोलकाता Mob: 8902060051

Email: sunilksharmakol@gmail.com