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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

22 सितंबर, 2024

मौत उनके लिए नहीं, फ़िलिस्तीनी कविताएं- सोलह

 

सम्भावनाएँ

(कवि ताहिर रियाध के नाम)

यूसुफ अब्दुल अज़ीज़


सपनों के मारे 

एक भेड़िये की मानिन्द 

टिका दूंगा अपनी कोहनियाँ 

लकड़ी की पट्टी पर 

रख दूंगा इस पर 

दो सिगरेटें और दो जाम 

पुकारूँगा सिसिल ! 

गोल मुँह वाली वह शै 

फिर माँगूगा दो देसी बीयर की बोतलें

उफ़, 

बला की इस रात में 

सो रही दुनियाँ 

धुॅंये के बिस्तर पर 

एक नंगे लिली के फूल की तरह 

ख़ामोशी उतर रही 

झीना लिबास पहने 

दूर वक़्त की सरहदों से आगे 

उड़ा ले जाता है हवा का तेज झोंका 

अब, इस वीराने में 

गाऊँगा अपने गीत 

मैख़ाने की महफिल में 

पर, तुम्हारी शुरुआत 

कर देगी दीवाना

साक्री 

गुज़रती है इधर से उधर फुर्ती से 

जुल्फ़ों से झाँकती हँसी लुभाती उस फल की ख़ुशबू से 

जो मना है छूना एकदम 

चाहत रह जाती लरजती हमारे हाथों में 

वह कमबख़्त सिसिल 

गुज़री यकायक बग़ल से 

ख़ूबसूरत पिडलियाँ देखते ही 

बुत बन गये सबके सब 

छींटा सा पड़ गया हो आबे-हयात का 

मनाओ ख़ुशियाँ 

करिश्मे होते हैं, यक़ीनन


सबकी सब आग उँडेल दो मेरे अन्दर 

पाक हैं पीने वाले 

मैं तैरता हूँ ख़ुदाई नेमत के तहत 

बाँहे हो गईं शहतूत की शाखें 

और पत्थर का एक टुकड़ा 

या ख़ुदा ! 

वह है कोई शायर या पैग़म्बर


मेरा साथी 

उसकी पतली बाँहें 

पकड़ती हैं एक जाम 

चेहरा 

तक़रीबन तीस साल के आदमी जैसा 

धुंयें के गुबार में 

शाख से झुका हुआ एक फूल 

रात में क़ैद 

सितारे सुनाते क़िस्से मीठे बचपन के 

भुला देना चाहा सब कुछ 

रुई जैसे बादलों की भूल-भुलैया में


वह हंसा

पर मैं देख सकता था 

ठीक उसकी आंखों के बीच

सलीब पर लटके हज़ारों ईसाओं को

और उसकी पसलियों में 

एक नन्हा छेद 

०००



चित्र 

फेसबुक से साभार 







याद आता है यही सब


लौटा घर 

देर रात 

घूम गया सिर 

एक बार फिर


देख सकता था मैं 

पत्थरों से बना घर 

फैला था छितराया 

बोरे से गिरे कोयले सा


देख सकता था मैं 

रौशनी से नहायीं खिड़‌कियाँ 

लग रहीं थी एक बड़ा छेद 

बियाबान में


और तो और, 

दिख रहे थे फूल 

लाँघते चारदीवारी 

पंखुड़ियाँ उठाये सिर शान से 

घने अँधेरे में 

किसी अंधे की फैली उँगलियों की तरह


लग रहा था 

सारी की सारी दीवारें 

मिलकर हो जायेंगी एक 

किसी साज़िश के तहत


और झुका देगी अपना सिर 

मेरी तरफ़ 

घबड़ाहट और डर 

जैसे हो गया होऊँ पागल दहशत से 

जैसे उभार दिया गया होऊँ 

ख़ामोश, पत्थरों में आयतों की तरह


जुटायी हिम्मत 

दिमाग़ किया ठिकाने 

जलायी एक लौ राख के ढेर में 

झटक देता हूँ सिर अजीब तरह से 

किसी बदहवास कंगारू जैसा


हाँ, यही है घर मेरा 

यहीं गुज़ारी जिन्दगी मैंने 

मशक़्कत करते 


यहीं दिल की राख ने 

जान डाली मेरे नग़मों में यहीं खड़ी की मैंने 

मीनारें ख़्वाबों की 

जिस पर चढ़ कर 

कुरेद सकता था बादलों को 

तैर सकता था बादलों में


हाँ, यही है घर मेरा 

लगता है उड़ जायेंगी छतें इसकी 

किसी पंख फैलाये बाज़ की तरह 

और झपट्टा मार कर 

बैठ जायेंगी मेरे ऊपर


हाँ, यही है घर मेरा 

यही है वह चारदीवारी 

इसके पत्थर 

हो गये हैं खुरदुरे दाँत की तरह


बंद कर देता हूँ दरवाज़ा 

नहीं समझ पा रहा कुछ भी 

जब, रात की परछाईं 

करती है सियापा मुर्दा जिस्म पर


जब, चलती है हवा 

मौत की बदबू लिये, 

बस एक क़दम और 

थम जाते हैं क़दम


या खुदा ! 

किस वक़्त को चुना तूने 

मेरे दिमाग़ को नाकाम करने के लिए

०००


कितना अजीब लगता है


दो बैल 

गूँथे 

एक दूसरे में 

फैला रहे बदबू हवा में 

गोबर की


खण्डहर सा घर 

मैं दौड़ा कमरों में 

भेड़ें, बकरियाँ और गायें 

खेलती, सोतीं क़ालीनों पर 

अलसायी बिल्ली कुर्सी पर 

घूंसा सा लगा पसलियों में 

पसलियाँ रहीं ख़ामोश 

चीख़ उठी नस नस 

फटने लगे कान के पर्दे


लेटा बिस्तर पर 

जोंक घुस गई हो चमड़ी के अंदर 

चीख़ा 

ख़ामोशी...


एक मोटा कम्बल पड़ गया बदन पर 

घूमती, निगाहें ठहरी आईने पर 

मुश्किल थी ख़ुद की पहचान 

अगर मिलती थी शक्ल मेरी किसी से 

तो वह था एक दाढ़ी वाला बकरा 

मितली से बेज़ार 

दौड़ पड़ा मैं खिड़की की तरफ़

०००


पुराना धुआँ


दो फूल सजे हैं 

मेरी मेज पर 

एक तुम्हारे लिए 

दूसरा कौवे के लिए


मैं कभी नहीं रहा 

पत्थर किसी बाग़ का 

मैं कभी नहीं रहा 

तारा आसमान का 

मैं कभी नहीं रहा 

पंख किसी बादल का


मैं हमेशा रहा 

धुएँ जैसी रूह 

तमाम ज़िन्दा रूहों से ऊपर 

घुस गया तमाम दिलों में, आँखों में


मेरे पास न ज़मीन है न और कुछ 

बराबर है 

मेरा होना या न होना


मैं रहा हमेशा 

बंद फ़व्वारे की चुप्पी सा 

एक ढेला 

जो टूट जाता है घास के उगते ही 

मैं हूँ चश्मदीद गवाह 

किसी बीरान, उजड़ी जगह का


छोड़ दो मुझे 

बिल्कुल अकेला 

बंद कर दो मुझे 

किसी किताब की तरह


सजा के रख दिए हैं मैंने 

दो फूल मेज पर 

एक तुम्हारे लिए 

दूसरा कौवे के लिए 

०००


कवि का परिचय 


यूसुफ अब्दुल अज़ीज़- एल-कोड के कतना क्षेत्र में 1956 में जन्म। पाँच कविता संग्रह प्रकाशित । इनमें 'राख हुए शहर से बाहर', 'पत्थरों के नगमे' एवं 'बादलों के काराजात' प्रमुख हैं।


अनुवादक 


राधारमण अग्रवाल 

1947 में इलाहाबाद में जन्मे राधारमण अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम कॉम तक पढ़ाई की , उनकी कविताएं लिखने में और तमाम भाषाओं का साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उन्होंने विश्व साहित्य से अनेक कृतियों का अनुवाद किया। 1979 में पारे की नदी नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। 1990 में ' सुबह ' नाम से उनके द्वारा अनूदित फिलिस्तीनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ । 1991 में फ़िलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' मौत उनके लिए नहीं ' नाम अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के लिए 

पहल द्वारा प्रकाशित किया गया था।

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