बचपन के कुछ खेल
1
लुकाछिपी
आँखें मूँदे पूरी गिनती
करनी होती इक से सौ की
इतने में सबको छुप जाना
वापस उन्हें ढूँढ़ कर लाना
हर गिनती इक साल बराबर
कहाँ भला इस बात की खबर
आँख खुली तो बस अँधियारे
किधर समाये अपने सारे
सूरज चंदा जुगनू तारे
पत्ते फूल परिंदे प्यारे
आसपास अब किसे बुलायें
छूकर फिर जिसको जी जायें
जयी कहायें...?
०००
2
घुघुआ मन्ना...
घुघुआ मन्ना
उपजे धन्ना
कल की रीत गयी
उठती भीत नयी
बच्चे
सँभाले रहना
दुनिया
दोनों हाथों से...
०००
3
बचपन के झूले
झूले का यह खेल
खेल का झूला
सावन के आवन की
आस भरी
सूखी यह धरती
हो जाय हरी
कुछ बूँदों से
मिल सकती
तरसे को कहीं तरी
डाली पर
डाले झूला
पहले पहले
नन्ही मुन्नी
इक चींटी
उस पर रखती
झूल गयी
यह जान अगर नन्ही
तो फिर
झूल जायेगा कोई
*सभी बच्चियाँ
नव किशोरियाँ
लगन लगाये
सब सुहागिनें
बड़ी बूढ़ियाँ*
एक साथ सब मिलकर गातीं
एकमेक होकर यह पाती --
झूले चिउँटी झूले पिपरी
झूले सास ननद भौजाई
कोउ न जाने
किस डाली पर
किस झूले पर
झूलें हम री माई...
०००
4
शून्य अनंत और कट्टमकुट्टी
जब अपने हाथ कुछ नहीं
साथ कुछ नहीं
तो ऐसे ही
खाली दो मिल कर
शुरू कर देते एक खेल
दो खड़ी
दो पड़ी रेखायें
खींचते
एक दूसरे से गुजरती
स्लेट पर पन्ने पर
धूल मिट्टी में या कहीं और
नौ खाने बनते इस तरह
तीन तीन जिनमें
एक सीध में
जो मिल सकते आपस में
एक सरल रेखा के मिलाये
अब भरना होता
उन खानों को
बारी बारी
इस सोच से
कि मिल जाये
अपने भराव को
वह तारतम्य
वह सीधाई
किसी तरह से
खड़े पड़े
या आड़े तिरछे
कोई शून्य चुनता
अपने लिए
तो दूसरा निशान काट का
जब तक बच्चे थे
हम सीधे सादे
लक्ष्य पाने की धुन में अकसर
दे बैठते अवसर
सामने वाले को
उस तीन मिलान का
यह तो आगे चल कर जाना
मंत्र जीत का सधा सयाना --
औरों के आड़े आना
और अपनी राह बनाना
बचपन जब तक रहा
बचपना
खेल खेल की तरह
नहीं कुछ दुनियादारी
फिर हो गये बड़े
सब चतुर
न कोई हारे
नहीं जीतने ही दे
खेल बराबर
अनिर्णीत हर
हाँ
और आगे चल कर
होकर बड़े
हुई यह खबर
शून्य ही
है अनंत भी
और गुणा का चिह्न
दरअसल
काटकूट का वही निशान...
०००
5
अंधातोपी
वह खेल अंधातोपी का
जिसमें होती बाँधनी
आँखों पर पट्टी
फिर यार सारे
जिनमें दुश्मन भी
कुछ मिले जुले
लगाते चपत इधर उधर से
और आघात से
होता पहचानना
कि वह हाथ किसका
मुक्ति का मार्ग एकमात्र यही
कि पहचान हो सही
कभी वह होती भी
तो सब मिलकर
मिली भगत कर लेते
सीधे की सिधाई का
उठाते भरसक फायदा
सही को कह कर नहीं
छोड़ने के बदले
तोड़ते उसे रहते
रखते जारी
यातना उसकी
और मारामारी और कहकहे
अटूट अनवरत सतत निरंतर
अब भी
किसी सीधे सादे के लिए
यातनायें यंत्रणायें उतनी ही
या शायद कुछ और बढ़ गयीं
फर्क यही
कि आँखें हों खुली
तब भी पड़ती तड़ी
तो पता लगता नहीं
कि मार कौन रहा
और पहचान लेने पर भी
चोट पहुँचाने वाले को
सही सही
पकड़ा जाता नहीं
न ही
मिलती
सच्चे को मुक्ति
सरलता और सच्चाई
उस खेल की तरह ही
ऐसे भी
रहतीं बनी
भुक्तभोगी ही...
०००
6
चाईं चूड़ी
टूटें तो
बस बंधन कारा
जंजीरें सलाखें दीवारें
चूड़ियाँ न कोई तोड़े
चूड़ियाँ किसी की न टूटें
पर अगर टूट ही गयीं
किसी तरह फिर भी
तो खेल लो उनसे
खेल सकते
जैसे
किसी भी टूटी हुई चीज से
टूटे को तोड़ कर और
करो टुकड़े बराबर
साथ में इमली के
बीये रख लो दोफाड़ कर
तिनके या चूने से
चिचरियाँ पार कर
तैयार कर घर
हाथों में लेकर
मिलाओ अच्छी तरह
और डालो घर में
फिर निकालो
एक एक कर
इस तरह
कि कोई दूसरा न हिले
खलल किसी को न पड़े
अन्यथा फिर बारी अगली
होगी दूसरे की
निकलेंगे टुकड़े जितने
बाहर
हासिल होंगे तुम्हारे
जो टूटे चुके पहले
पर तुमने नहीं तोड़े
उन्हीं चूड़ियों के हैं ये
दिल के टुकड़े थोड़े
दिल से भूले कोई न खेले
दिल तो कोई कभी न तोड़े
कहीं किसी का दिल ना टूटे
मगर टूट गया
अगर टूट गया
तो खेल ही लो
खेल सकते हो
उन टुकड़ों से भी
जुड़ तो नहीं सकेगा
जी इस तरह
लग जरूर जायेगा
चाईं बनाने के लिए
बीज इमली के
ढूँढ़ें क्या...?
०००
7
हम पहलवान
बचपन में सुना एक गान
संभवतः माँओं का था मनमान
हमें खिलाने बहलाने
या हमारे जरिये
धोड़ा खुद बहलने खेलने के लिए
नेह लगाती
रोम रोम पोर पोर गत्तर गत्तर
नन्हे हाथ पैरों को सटाती
कोमल तन कर सात जतन
बनाने को बलवान
गाती हमारी ओर से अकसर
मीठी तोतली जुबान
हम पहलवान हम पहलवान
मार मुट्ठी के
पापड़ तोड़ूँ
तोड़ूँ कच्चा सूता
मरी मक्खी के
टाँग उखाड़ूँ
मैं हूँ बाप का पूता
समझ न पाते हम नादान
करती इतने जतन अधापन
निस दिन यूँ ही जान खपाती
अपनी सारी शक्ति लगाती
फिर क्यों उसका नाम लगाती
सपूत पिता का हमें बताती
अपना किये बिना कुछ मान...?
०००
8
ओक्का बोक्का
ओक्का बोक्का
तीन तरोक्का
चंदन काठी
लउआ लाठी
चंदन का हो
नाम हमेशा
क्यों इजयी
क्यों विजयी
जीवन के हैं
रंग कई
जीने के तो
ढंग कई
घबरा मत जो
हार हुई
सिखलायेगी
जीत नयी...
०००
9
रंग रंग रंग
बचपन के खेलों में
एक यह भी था
रंग रंग रंग
तुझे कौन है पसंद ?
पूछता कोई
और दूसरा
जो दरअसल होता अपना ही
लेता एक रंग का नाम
फिर सब जो खेल में शामिल
आसपास अपने
छू लेना होता कहीं वह रंग उन्हें
इसके पहले
कि उस रंग का नाम लेने वाला
बढ़ कर छू ले
वह बचपन कबका बीत गया
और वे खेल भी
रंग कोई रह नहीं गया
सच्चा उस तरह
और अब छूने को पीछे
संगी साथी नहीं
समय है पड़ा
जो हुआ कहाँ
कभी किसी का
उसका छू लेना
उसकी जद में आना
यानी खेल से जाना
जीवन के इस खेल से
बचाव यही है
कि वह छुए इसके पहले
कोई रंग कहीं मिल जाये
मुश्किल बड़ी
कि अब रंग कोई मिलता भी कहीं
तो छूते ही
मान जाता बुरा...
०००
10
डेंगा पानी
डेंगा
बहुत ऊँचा
होता नहीं था
न पानी ही बहुत गहरा
बल्कि सच कहें
तो दोनों होते
मन में हमारे
जिसे हम ढूँढ़ लेते
बाहर कहीं
जो चढ़ पाता
डेंगे पर झटपट
बच जाता
लुत्फ असल
पानी में था
पर रहते वहॉं
कोई आकर
छू ले तो
खेल खतम उसका
ऊँचाई तक आज भी
मुश्किल से पहुँचता पानी
जो लोग बड़े ऊँचे
पानी उनके
चेहरे पर न आँखों में
न भीतर ही कहीं
जबकि तीन हिस्सा पानी
खुद हमारी धरती
पर कोई डर
लिहाज अफसोस कहाँ
बल्कि फक्र उन्हें इसका
और मुगालता
कि हर तरह से
सुरक्षित है वे
और यह दुनिया चल रही
उन्हीं के चलाये
उन्हें अहसास नहीं
कि बचायेंगे
इस जहान को वही
जलने टूटने बिखरने
डूबने से
वे जो पानी में हैं
भीगे हुए अभी
और भीतर जिनके
तर है पानी...
०००
11
कबड्डी
खाली जमीन पर नंगे पाँव
खेला जाना वाला यह खेल
जिसमें छूने भर से
मरता जी उठता कोई
रणनीति या कहिये क्रीड़ानीति यह
कि जो छूने के लिए आये
मिलकर उसे
पकड़ लिया जाये
इस तरह के छूटकर जाने न पाये
या मुड़कर वापस घर को अपने
छू न सके
लौटने के लिए लाजिमी है
कि दम हो भीतर
और होठों पर
अटूट गीत का मंत्र
बस यही है
इस खेल में
कि दूसरी तरफ
कोई मरता है
तो जिंदा होता
इधर अपना
यह खेल के मैदान को बदल देता
किसी तिलस्मी जंगल में
छूटता छिटकता हाँफता आता
कोई अपने दल का
तो उस पार जिन जिन का
संसर्ग उससे रहा
जाना होता सबको
जान से जीवन से
मरना मगर इस खेल में
बैठना होकर बाहर
खेल से हलचल से
रोशनी के दायरे से
कुछ देर के लिए
बाजी पलटने तक
हो सकत कमर कसने भर
फिर कहीं खेल सकते यह खेल
दल बना कर
अपना ओर और छोर तय कर
समझ बूझ कर
और प्राणवायु भरपूर भर
उससे पहले
रचयिता से
उम्मीद है
कि गीत ऐसे रचे
जिनमें साँस न टूटे
देर तक रहे...
०००
12
अँगोछा खींचने का खेल
पर्व त्योहार के दिन निकट आते शहर के धुनी उछाही लड़के
अकसर शरारत ये करते
सब बंदोबस्त होता पहले से
ऊपर तार से लटकता महीन धागा
सिरे पर जिसके अंकुश नन्हा सा
जैसे ही कोई सीधा साधा
किसान मजदूर गृहस्थ
दीखता आता
लड़कों में से कोई
दबे पाँव पीछे लग जाता
और बहुत सँभाल कर
अटका देता चुपचाप
धागे से लगा अँकुशा उस बेचारे
भले आदमी के अँगोछे में
उसी समय साथी कहीं छुपा
खींच लेता सिरा दूसरा
सब मिलकर हँसते इक साथ
बस उस आदमी के सिवा
अँगोछा जिसका लहराता
नजर आता ऊपर तार पर झूलता
कभी अपने खाली कंधे
कभी उस जमात को देखता
वह करता अरज निहोरा
पर वापस नहीं मिलता अँगोछा
गाँठ ढीली किये बिना
इस तरह होता जमा चंदा त्योहार का
कुछ बेचारे तो चले जाते
खीज बेबसी ग्लानि या अफसोस में
छोड़कर उसी तरह अँगरखा अपना
मायूस लाचार बुदबुदाते बड़बड़ाते
लड़के इंतजार करते
कि वे लौट कर आयेंगे
पैसे देकर अँगोछा अपना छुड़ाने
मगर होती नहीं वापसी उनकी
देर तक हवा में झूलते
रह जाते अँगोछे
बतौर बानगी
लाचारी बेफशी और मजबूरी की निशानी
इस महामायानगर में
अब लगता ऐसा
जैसे हम भी कोई वैसे ही बस
भुच्च गँवार
नये नये आये
कोई जश्न या मेला देखने
अँगरखा जिनका
खींचकर इस तरह
उछाल दिया गया
जो अब वापस मिलेगा नहीं
सब कुछ खाली किये बिना
गुंजाइश ही नहीं
किसी रियायत या छूट की
क्योंकि डोर का सिरा दूसरा
हाथ में जिनके
वे नहीं बचपने से भरे
नटखट शरारती बच्चे
बल्कि मँजे
शातिर खिलाड़ी बड़े
सयाने पहुँचे हुए...
०००
13
दिल निकालने का खेल
बचपन के शहर में
अकसर चलता
यह खेल उस्ताद और जमूरे का
मैदान में या विद्यालयों के आगे
या फिर किसी नाके पर सड़क किनारे
डुगडुगी बजा कर आवाज लगा कर
मजमा लगा लेता मदारी
और खेल अपना शुरू करता जिसमें करतब कौशल जितना
उतनी ही संवादों की अहम भूमिका
संवाद चुस्त पैने
गोया मुखातिब देखने वालों में
हर एक से
यूँ तो तमाशे होते और भी
पर असल में जो सबसे रोमांच भरा
और चरम उस प्रदर्शन का
वह होता खेल दिल निकालने वाला
पहले से ही भूमिका उसकी
रचता रहता उस्ताद
और फिर आता वह मौका
धड़कते दिल से रहता इंतजार जिसका
जमूरे को एक मैला सा ओहार ओढ़ा
जिसके नीचे कितनी बार न जाने
इस वाकये को होगा जिया उसने
भावनाओं को उत्कर्ष पर ले जाकर
देता मदारी स्वर
अंतरतम सबका जगाता
हाथ का चाकू झलकाता
पेट की खातिर काट दूँ क्या कलेजा इस मासूम का ?
ऐसा कोई बच्चा आपका
आपके घर पर भी तो होगा...
'नहीं-नहीं...!' मजमें में जुटे लोग कहते
समवेत स्वर आर्द्र हृदय से
उस ध्वनि को करतल ध्वनि मान जब पुकार हर ओर से उठने लगती
बच्चे के लिए और जीवन के पक्ष
जोश के साथ एकबारगी चाकू लहराता
ओहार के अंदर ले जाता
सुर्खी के कुछ छींटों के साथ
जस्ते की तस्करी में आ जाता एक दिल फड़फड़ाता
देख जिसे सब होते विह्वल
फिर उसी तश्तरी में
जिससे जितने बन पड़े
डालते सब पैसे
कि पेट की खातिर
या किसी अभाव में
सचमुच किसी बाप या बेटे
किसी उस्ताद या जमूरे को
यह तो न करना पड़े
कलेजा वापस बच्चे के भीतर डालते
कहता उस्ताद कि दिल से करें दुआयें
मन ही मन दुहरायें
सच्ची प्रार्थनायें
क्योंकि यह कोई आसान काम नहीं
थोड़ी भी रह गयी
कमी कोर कसर कहीं
तो दिल से हाथ धोने का जोखिम
खतरा जान से जाने का भी...
अपने अपने शहरों में
आप भी देखते होंगे
खेल कई तरह के
पर यह खेल अब कोई
दिखलाता नहीं
सुना है
एक बार जब तमाशबीन भीड़ से
जब चिल्ला कर पूछा उस्ताद ने
बोलो क्या पेट की खातिर
दिल निकाल दूँ
खंजर उतार दूँ
इस निर्दोष के सीने में
अपने हाथों अपने कलेजे के टुकड़े को
कर हलाल दूँ अपने हाथों
'नहीं-नहीं' की प्रत्याशा के बीच इरादतन या बेइरादा
चुहल या कि शरारत में
या बस यूँ ही बेपरवाह
कर दी किसी ने हाँ
और चाकू लगने के पहले ही कलेजा जमूरे का
मुँह को आ गया
कहते हैं तभी से
यह खेल अब
किसी चौक चौराहे पर
होता नहीं दिखता
न दिखते वैसे उस्ताद जमूरे
दिल और उसकी तड़प इस दौर में
रखती नहीं मायने
देह की मशीन के एक पुर्जे के सिवा
कोई मोल कहाँ उसका
देखो शब्दकोश में कहीं
इस लफ्ज का अब मतलब नहीं
कभी इस खेल के बारे में
बात करता शहर के लोगों से
तो बस एक फीकी सी
हँसी उनके चेहरे पर उभरती
जैसे वे सब इस खेल से गुजर चुके
और कब के इस सदमें से उबर चुके...
०००
14
पानी में पैसे डालने का खेल
पानी से भरी बाल्टी होती
तल में जिसके बीचो बीच
रखी रहती एक डिबिया
बस इतने से था चलता
मेले का यह खेल लुभावना
जो पैसा उसमें समा गया वह दुगना
पानी बिलकुल साफ झलकता
और उतना ही सरल लगता
यह दाँव देखने में
लक्ष्य साध कर हम
डालते अपना सिक्का
पर बावजूद हमारी प्रार्थना के
वह चलता नहीं सीधा
भटक जाता राह
और जाकर बैठ जाता पेंदे में
अपने डूबे हुए पैसे
दिखाई देते नींद में
सपनों में करते बेचैन
हाथ देकर पुकारते उबारने के लिए
फिर भागते हम उधर लिये आधी नींद
जाकर डालते नये पैसे
इस कोने उस टोने से
कि अपनी अजानी चाल में
वे उस डिबिया तक जायेंगे
और लौटा लायेंगे पहले खोये हुए
अपने साथियों को
मगर हमसे ज्यादा सुनी जातीं
मनौतियाँ उनकी
जो चलाते यह खेल
दाँव खत्म होते
अहसास होता
सीधी राह दूभर
बनना क्या
बचना भी पैसों का
बड़े हुए तो देखा
वे जो पानी के पात्र थे
हो गये विशाल
अपने पैसे दाँत से पकड़े
लोग आप लगाते छलाँग
तल में उस अंधे कूप तक जाने के लिए
जहाँ पहुँच कर दुगने हो जायेंगे उनके पैसे
फिर धीरे धीरे जाहिर हुआ
कि आसपास जो लोग हैं जितनी भीड़
सब खोये सब डूबे हुए इसी में
बचपन के उस मेले मे तो
पानी था पारदर्शी
दिखाई देते थे डूबे हुए पैसे
अब कुछ भी दिखता नहीं गँदले जल में
बस सतह पर तैरते बुलबुले
जो हाथ लगते खत्म हो जाते...
०००
सभी चित्र फेसबुक से साभार
संक्षिप्त परिचय
देश के सर्वाधिक सशक्त, नवोन्मेषी और बहुआयामी रचनाकारों में अग्रगण्य
जन्म 1968 में आरा (भोजपुर), बिहार में
बचपन से ही साहित्य कला संगीत से जुड़ाव, विविध विधाओं में अनेक पुस्तकें प्रकाशित
कविता हेतु भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार तथा 'एक मधुर सपना'
और 'पानी पानी' सरीखी कहानियाँ शीर्ष सम्मान से सम्मानितकविता संग्रह : मिट्टी के फल, कोई नया समाचार, संगत, अँधेरे में अंताक्षरी, बिना मुँडेर की छत, संक्रमण काल,
माँ के साथ, स्त्री सूक्त आदि बहुचर्चित
*ईबुक : 'अच्छे आदमी की कवितायें', 'अमराई' एवं 'साइकिल पर संसार' ईपुस्तक के रूप में ( क्रमशः 'हिन्दी समय', 'हिन्दवी' व 'नाॅटनल' पर उपलब्ध)
अनेक बड़ी कविता श्रृंखलाओं के लिए सुविख्यात
कहानी संग्रह 'एक स्वप्निल प्रेमकथा' ('नाॅटनल' पर उपलब्ध) तथा 'एक मधुर सपना' पुस्तकनामा से प्रकाशित, 'लड़की जिसे रोना नहीं आता था', ''थमी हुई साँसों का सफ़र', 'पानी पानी', 'नटुआ नाच', 'उसने नहीं कहा था', 'रात की बात', 'अबोध कथायें' आदि शीघ्र प्रकाश्य ।
उपन्यास' 'माई रे...', 'स्त्रीगाथा', 'परदे की दुनिया', ' 'दि हिंदी टीचर', आदि
बच्चों के लिए कविता संग्रह 'माँ का जन्मदिन' प्रकाशन विभाग से प्रकाशित, 'आसमान का सपना' प्रकाशन की प्रक्रिया में।
संस्मरण, नाटक, पटकथा, आलोचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद तथा गायन एवं संगीत रचना भी । अलबम 'माँओं की खोई लोरियाँ, धानी सा', एक सौग़ात'।
ब्लॉग: 'अखराई' (akhraai.blogspot.in) तथा 'बचपना' (bachpna.blogspot.in)
स्थायी आवास: 'जिजीविषा', राम-रमा कुंज, प्रो. रमाकांत प्रसाद सिंह स्मृति वीथि, विवेक विहार, हनुमाननगर, पटना 800020
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