एक
स्त्री का जाना
साधारण नहीं है
स्त्री का जाना मानों
हरे पेड़ पर
गाज का गिर जाना हो
पहाड़ का टूट जाना हो
आकाश का टूट जाना हो
सूरज का डूब जाना हो
स्त्री का जाना
साधारण नहीं है
स्त्री का जाना मानों
खिले हुए कमल का
सरोवर सूख जाना हो
नदी का प्रवाह रुक जाना हो
हवा का टूट जाना हो
सुबह में घनी धुंध का छा जाना हो
स्त्री का जाना
साधारण नहीं है
स्त्री का जाना मानों
घूमती हुई पृथ्वी की
कील के पहिए का उतर जाना हो
मर्द की छाती का उखड़ जाना हो
संसार का उजड़ जाना हो
स्त्री का जाना
साधारण नहीं है
०००
दो
शहर
पान खा रहा
पगुरा रहा
शहर
मार रहा जहर की
लंबी पीच
नदियों पर
शहर
धुल रहा हर सुबह
घाट पर अपना मुंह
शहर
दे रहा तिलांजलि अपनी
हर रोज आंसुओ से
शहर
०००
तीन
गीत
बतियाती नदी थी
हंसती गाती जेठ में
आती नदी थी
गेहूं धान सरसों से
बतियाती नदी थी
चिरइ चुरुंगु चउआ
आके प्यास बुझाते
रेत खोद के किनारे
पंख तानके नहाते
अपना आंचल खेत में
ओढ़ाती नदी थी
मंथर मंथर नाव चलती
मोड़े धारा से पतवार
क्लांत श्रांत पथिकों को
पार कराता था घटवार
गांव नगरी की तासीर को
जान जाती नदी थी
कट गयी जड़े उद्गम की
सूख रहीं हैं सारी नसें
छटपटाये रह-रह कर
कांकर के बीच धंसे
चिरचुप्पी हो गयी तब से
उफनाती नदी थी
०००
चार
वृक्ष गीत
चल रही आरी
जंगल से भागे बाघ सभी
चल रही आरी
मच गया हाहाकार वहां
पेड़ मारे गोहारी
पत्ता-पत्ता डाली-डाली
तना खून से रंग गये
अंडे फूटे बच्चे बेघर
जंगल छोड़ विहंग गये
कांपते पेड़ सोच रहे हैं
अब मेरी बारी
चित्ती कोबरा अजगर
गांव शहर सरक गये
मेघ सूखे पवन मरी
नग्न पर्वत दरक गये
नभ में छेद बढ़ता जा रहा है
दिखे नाशकारी
विछी पेड़ो की लाशे
मानों हुआ नरसंहार
अपनी सांसें काट रहा
यही मानव की हार
ताकतवरों के सामने
विवश धनुषधारी
०००
पॉंच
विंटीलेटर में है पहुज नदी
पहले दौड़ती थी अंधेरे में
दिया लेकर हथेली में गुनगुनाती पहुज नदी
पेड़ में अटके हुए सूरज को उतारकर
खिलाती रोज चीनी भात
चूमकर माथा
करती विदा
चलता था झांसी का इंजन
भोर की भाप से
दिखता था चुल्लू में सूर्याकाश की परतें
झुंक कर पानी पी लेते पेड़ पत्तों को
दोना बनाकर
नहा लेते पखेरू पंखों से बूंदे उछालकर
भरी थी पहुज नदी घिनौची घड़ों में
झांसी की नसों में
बह जाती आंखों से भी
किरकिरी समेटकर
झांसी की थी श्वासनली
अब बन गयी संकरी गली
बिंटीलेटर में है पहुज नदी
सुसुक रही है
धीमी है धड़कन
बोल नहीं पा रही
लुंज हो गई धार
गल गया आकार
दबी है पहुज नदी की छाती और मुंह
कूड़े की बोरियों से
माटी की मूर्तियों से
मानों कोई हत्यारा
कत्ल कर रहा हो तकिया से मुह दबाकर
जहरीला इंजेक्शन लगाकर
बजबजा रही
बन गयी कूड़ागाह
मानो उग आया हो कूड़े का पहाड़
जिसमें तलाश रहे हैं संजीवनी बूटी
कूड़ा बीनने वाले बच्चे
घिनाते हैं छूने से
मुंह बनाते
बिचकते हैं
पहन लेता है मास्क
सभ्य समाज पहुज नदी को देखकर
बना दिया अछूत
बसा दिया
दक्षिण में बसी बस्ती की तरह
०००
छः
पियरा माटी
चला जाता है ओदार के
चउमास हर साल
चउटी
अंगनाई
दीवारें
पटनई फोर के भर जाता पानी बरोठ में
भखल जाती दीवारें
उधिर जाते पपरा
छपट जाते छपरा
सरक जाते खपरा
खुल जाता मथौथ
सांसा हो जाते ठाठ में
जहां से झांकने लगता सूर्याकाश
खोद लाती है अम्मा
भीटा से
ताला से
पियरा माटी
जिसे गोबर में सानकर
छापती/लीपती /पोतती है
दीवारें
चउटी
अंगनाई
पटनई
बनाती है पुतरा कुंआर में
मुहारा के अगल बगल
लगने लगता है पियार
अपना माटी का महल सोंधाई लिए
कातिक की उंजेरिया रात में
अंगनाई लेती है अंगड़ाई
उतर आता है आकाश
जी जुड़ाने
चुंबन लेने
जड़ जाती हैं सगल
तैरने लगती हैं तरईया घिनौची में
टंग जाती है शीशे की तरह ओरिया में जुंधईया
जिसमें दिखाई देता है जीवन सौंदर्य साफ-साफ
सतर से तर कर देती गंध मीठी नीम/गेंदा की
लेटे -लेटे खटिया में गिनते थे तरईया
आगे बढ़ते तो भटक जाते
पीछे आते तो अटक जाते
कोई नहीं गिन पाया अभी तक तरईया
फेल हैं सब गणितबाज इस गणित में
खेलमंडल था सबसे बड़ा
जिसमें कई खेल समाये थे
चंदापउआ
बड़ीमार
खेल लेते थे
मन और आंखों से तरईया उछालकर
पहेलियां जनाते
'टाठी भर लाई, सगल बिथराई'
सुकुवा जब उगता तो
पंडित पुरोहितों के पत्रा फड़फड़ाने लगते
ऐसे दिखता मानों
पास के पेड़ में दिया जल रहा हो
हन्नी हन्ना का रागरस छिटक जाता
घुल जाता पियरा माटी में
गदरा जाती
गमक उठती लेकर सोंधाई
जिसके सामने फीके हो जाते उपवन और सब्जबाग
समा जाती हमारे सांसो में
लेकर महासुख
०००
सात
सीला
बाजरा अंट पाता तो कभी नहीं
बनी से
अगहन पूस माघ तक
खाने के लिए
महुआ की डोभरी खा-खाकर
होरा भूंज-भूजकर
शिलिया काट लेती थी
फागुन के रंग में बदरंग घरी
जठराग्नि के अंगार में चलकर
पेट दाबकर अपना शिलिया
दो चार झापड़ मारकर बालकों को
सुला देती थी
छूंछ स्तनों को
चुभुर -चुभुर करता था दुधमुंहा
सुबह होते ही छिटवा लेकर
डहरा ले जाती साथ में बालकों को
महुआ बीनने और चूसने
चैत में पहुंचते ही
मिलने लगता अधियां बंटाई में
सीला बीनने को
चना की घेंटी
कठिया की बाली
बिनती मांग पकड़कर
जुहाती
लगा देती ढेर बरोठ और चउपार में
जब तक चना और कठिया कटता
कूट फटककर
पीसकर जांत में
प्याज और डरा नून से
जो हीरे की तरह था
पहले निवाले से बच्चों का पेट भरती
फिर आधा पेट अपना
टांचके एक लोटा पानी पीती
पेट डम्म
अगली सुबह फिर वहीं ले जाती
साल भर अंटाने के लिए
सूनी मांग लिए
शिलिया को सीला बीनने
मांग पकड़कर
०००
आठ
तुम्हारी स्मृति ही तुम हो
एक
तुम्हारी स्मृति ही
अब संसार है
जीवन है
दुःख का सागर कहो
या सुख का पोखर
तुम्हारी स्मृति ही
पहिया है जिसकी गति
अपने पहिया में करके समाहित
करुंगा तेज सूर्य की तरह
चलूंगा
दौड़ूंगा
चल रहा था जिस रास्ते में
तुम्हारी स्मृति ही
मेरे पंख हैं
उड़ूंगा आकाश में
तुम्हारी तीनों निशानी लेकर
तुम्हारी स्मृति ही
शक्तिसौंदर्य है
गढ़ूंगा स्वपन
जो तुमने देखे थे मेरे साथ मिलकर
उसी में खोजूंगा
अपनी और तुम्हारी मनात्म की शांति
तुम्हारी स्मृति ही
तुम हो
जिसे दबा कर छाती में
रहूंगा जिंदा अपने समय तक
क्योंकि तुम्हारा प्रेम
अथाह से आगे उतर गया
अनंत प्रेमकुंड में
०००
दो
तुम्हारी देह गयी है
तुम नहीं
मिली हो मुझमें
पानी में पानी की तरह
सांसों में पायल खनका के
निरंतर आवाजाही है तुम्हारी
छाती में खनकती हैं चूड़ियां
रात में खाली विस्तर
पर दिखती हो
शाम सुबह शांत किचेन में
दिखती हो
बच्चों के तेल काजर कंघी के वक्त
खालीपन में दिखती हो
कालेज जाते वक्त
टिफिन भूल जाने पर दिखती हो
कालेज से आकर तखत पर ढह जाने बाद
दरवाजे मे दिखती हो
दिखती हो
बाजार जाते- आते
थके हारे समय
जब जाड़े में
पसलियों में ठंड का होता हमला
किसी परेशानी में होता
दिखती हो हर वक्त
किससे कहूं अपना दर्द
लिखता हूं इसलिए
कविता से कह देता हूं
किंतु बच्चे न लिखते
न कह पाते
स्कूल से आने बाद
मां की छाती न मिलने से
चीर कर अनंत सन्नाटे में भांय-भांय की ध्वनि
मेरी छाती में खोजते मां की अनुभूति
फिर भी तुम निरंतर उनके साथ हो
मां की तरह अदृश्य निराकार
जिससे वे खेलते खिलखिलाते हैं
०००
परिचय
यू.जी.सी. नेट, नई दिल्ली।
शोध प्रबंध : संजीव के कथा साहित्य में चिंतन के विविध आयाम: एक अध्ययन।
रचनाकर्म: कविता, गीत, कहानी, नाटक, उपन्यास, संस्मरण आदि।
काव्य संग्रह: 'वेंटिलेटर में है नदी' (प्रकाश्य)
गीत संग्रह: 'चल रही आरी'( प्रकाश्य)
बघेली गीत संग्रह: 'दारू मा डूब गे गांव रे' (प्रकाश्य)
संस्मरण: 'माटी का महल' (प्रकाश्य)
कहानी संग्रह: पंगत (प्रकाश्य)
'पंगत', 'परिकथा' पत्रिका में जनवरी 2025 अंक में प्रकाशित।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर अनेक लेख एवं रचनात्मक साहित्य प्रकाशित। झांसी आकाशवाणी में कविताओं
का प्रसारण।
अध्यक्ष, प्रगतिशील लेखक संघ जिला इकाई चित्रकूट। इप्टा से जुड़ाव
मई 2023 में तिरहार जनपद चित्रकूट में 'नशा छोड़ो शिक्षा जोड़ो' अभियान चलाकर दस गांव की पैदल यात्रा की। एक जगह हमले का शिकार भी हुआ।
हाशिए में पड़े लोगों को मुख्य धारा से जोडने के लिए सामाजिक संगठनों में सक्रिय भूमिका।
'कृतिका कोख सुरक्षा फाउंडेशन' का संचालन। सर्जरी प्रसव उन्मूलन अभियान
संप्रति: हिन्दी शिक्षक, श्री गांधी ग्रामोद्योग इंटर कॉलेज, भरोसा, झांसी(उत्तर प्रदेश)
मोबाइल:9219301138
sunilchitrakooti80@gmail.com
ताज़गी भरी, उद्वेलित करती बेहतरीन कविताएँ. लालच के कारोबार में आकंठ डूबा मनुष्य पर्यावरण का कितना नुकसान कर चुका है कवि ने इस पीड़ा को 'वेंटीलेटर में है पहुज नदी' में गहरे व्यक्त किया है. स्त्री का जाना मर्मस्पर्शी कविता है. सुनील कुमार की इन कविताओं को ठहरकर और बार -बार पढ़ा जाना चाहिए.
जवाब देंहटाएंइस महत्वपूर्ण प्रस्तुति के लिए बिजूका टीम को हार्दिक बधाई.