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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

25 दिसंबर, 2024

सुनील कुमार की कविताऍं


एक 


स्त्री का जाना 


साधारण नहीं है 

स्त्री का जाना मानों 

हरे पेड़ पर 

गाज का गिर जाना हो

पहाड़ का टूट जाना हो 

आकाश का टूट जाना हो

सूरज का डूब जाना हो 













स्त्री का जाना 

साधारण नहीं है 


स्त्री का जाना मानों 

खिले हुए कमल का 

सरोवर सूख जाना हो

नदी का प्रवाह रुक जाना हो 

हवा का टूट जाना हो

सुबह में घनी धुंध का छा जाना हो 


स्त्री का जाना 

साधारण नहीं है 


स्त्री का जाना मानों 

घूमती हुई पृथ्वी की 

कील के पहिए का उतर जाना हो

मर्द की छाती का उखड़ जाना हो

संसार का उजड़ जाना हो


स्त्री का जाना 

साधारण नहीं है

०००


दो


शहर



पान खा रहा 

पगुरा रहा

शहर 


मार रहा जहर की

लंबी पीच

नदियों पर 

शहर 


धुल रहा हर सुबह 

घाट पर अपना मुंह 

शहर 


दे रहा तिलांजलि अपनी

हर रोज आंसुओ से 

 शहर 

०००


तीन 


गीत 


बतियाती नदी थी

हंसती गाती जेठ में 

आती नदी थी 

गेहूं धान सरसों से 

बतियाती नदी थी


चिरइ चुरुंगु चउआ

आके प्यास बुझाते

रेत खोद के किनारे 

पंख तानके नहाते 


अपना आंचल खेत में

ओढ़ाती नदी थी


मंथर मंथर नाव चलती

मोड़े धारा से पतवार

क्लांत श्रांत पथिकों को 

पार कराता था घटवार


गांव नगरी की तासीर को

जान जाती नदी थी


कट गयी जड़े उद्गम की

सूख रहीं हैं सारी नसें 

छटपटाये रह-रह कर

कांकर के बीच धंसे 


चिरचुप्पी हो गयी तब से 

उफनाती नदी थी

०००


चार


वृक्ष गीत



चल रही आरी

जंगल से भागे बाघ सभी 

चल रही आरी

मच गया हाहाकार वहां 

पेड़ मारे गोहारी


पत्ता-पत्ता डाली-डाली 

तना खून से रंग गये

अंडे फूटे बच्चे बेघर 

जंगल छोड़ विहंग गये 


कांपते पेड़ सोच रहे हैं 

अब मेरी बारी


चित्ती कोबरा अजगर 

गांव शहर सरक गये 

मेघ सूखे पवन मरी 

नग्न पर्वत दरक गये


नभ में छेद बढ़ता जा रहा है 

दिखे नाशकारी


विछी पेड़ो की लाशे 

मानों हुआ नरसंहार 

अपनी सांसें काट रहा

यही मानव की हार


ताकतवरों के सामने 

विवश धनुषधारी

०००










पॉंच 


विंटीलेटर में है पहुज नदी



पहले दौड़ती थी अंधेरे में 

दिया लेकर हथेली में गुनगुनाती पहुज नदी

पेड़ में अटके हुए सूरज को उतारकर 

खिलाती रोज चीनी भात

चूमकर माथा 

करती विदा 


चलता था झांसी का इंजन 

भोर की भाप से 

दिखता था चुल्लू में सूर्याकाश की परतें 

झुंक कर पानी पी लेते पेड़ पत्तों को 

दोना बनाकर 

नहा लेते पखेरू पंखों से बूंदे उछालकर 

 

भरी थी पहुज नदी घिनौची घड़ों में 

झांसी की नसों में 

बह‌ जाती आंखों से भी 

किरकिरी समेटकर


झांसी की थी श्वासनली

अब बन गयी संकरी गली 

बिंटीलेटर में है पहुज नदी

सुसुक रही है 

धीमी है धड़कन 

बोल नहीं पा रही

लुंज हो गई धार 

गल गया आकार


दबी है पहुज नदी की छाती और मुंह 

कूड़े की बोरियों से

माटी की मूर्तियों से 

मानों कोई हत्यारा 

कत्ल कर रहा हो तकिया से मुह दबाकर 

जहरीला इंजेक्शन लगाकर


बजबजा रही 

बन गयी कूड़ागाह

मानो उग आया हो कूड़े का पहाड़

जिसमें तलाश रहे हैं संजीवनी बूटी 

कूड़ा बीनने वाले बच्चे


घिनाते हैं छूने से 

मुंह बनाते

बिचकते हैं 

पहन लेता है मास्क 

सभ्य समाज पहुज नदी को देखकर 

बना दिया अछूत 

बसा दिया 

दक्षिण में बसी बस्ती की तरह 

०००


छः 


पियरा माटी


चला जाता है ओदार के 

चउमास हर साल

चउटी

अंगनाई

दीवारें

पटनई फोर के भर जाता पानी बरोठ में


भखल जाती दीवारें 

उधिर जाते पपरा

छपट जाते छपरा

सरक जाते खपरा

खुल जाता मथौथ

सांसा हो जाते ठाठ में

जहां से झांकने लगता सूर्याकाश 

 

खोद लाती है अम्मा

भीटा से 

ताला से 

पियरा माटी

जिसे गोबर में सानकर

छापती/लीपती /पोतती है

दीवारें

चउटी

अंगनाई 

पटनई 

बनाती है पुतरा कुंआर में

मुहारा के अगल बगल 


लगने लगता है पियार 

अपना माटी का महल सोंधाई लिए 

कातिक की उंजेरिया रात में

अंगनाई लेती है अंगड़ाई

उतर आता है आकाश 

जी जुड़ाने 

चुंबन लेने


जड़ जाती हैं सगल

तैरने लगती हैं तरईया घिनौची में 

टंग जाती है शीशे की तरह ओरिया में जुंधईया

जिसमें दिखाई देता है जीवन सौंदर्य साफ-साफ 

सतर से तर कर देती गंध मीठी नीम/गेंदा की


लेटे -लेटे खटिया में गिनते थे तरईया

आगे बढ़ते तो भटक जाते

पीछे आते तो अटक जाते

कोई नहीं गिन पाया अभी तक तरईया

फेल हैं सब गणितबाज इस गणित में 


खेलमंडल था सबसे बड़ा 

जिसमें कई खेल समाये थे

चंदापउआ

बड़ीमार

खेल‌ लेते थे

मन और आंखों से तरईया उछालकर

पहेलियां जनाते

'टाठी भर लाई, सगल बिथराई'


सुकुवा जब उगता तो

पंडित पुरोहितों के पत्रा फड़फड़ाने लगते

ऐसे दिखता मानों 

पास के पेड़ में दिया जल रहा हो


हन्नी हन्ना का रागरस छिटक जाता 

घुल जाता पियरा माटी में

गदरा जाती 

गमक उठती लेकर सोंधाई

जिसके सामने फीके हो जाते उपवन और सब्जबाग 

समा जाती हमारे सांसो में

लेकर महासुख 

०००


सात


सीला


बाजरा अंट पाता तो कभी नहीं 

बनी से 

अगहन पूस माघ तक

खाने के लिए 


महुआ की डोभरी खा-खाकर 

होरा भूंज-भूजकर

शिलिया काट लेती थी

फागुन के रंग में बदरंग घरी 

जठराग्नि के अंगार में चलकर


पेट दाबकर अपना शिलिया 

दो चार झापड़ मारकर बालकों को

सुला देती थी

छूंछ स्तनों को

चुभुर -चुभुर करता था दुधमुंहा 

सुबह होते ही छिटवा लेकर

डहरा ले जाती साथ में बालकों को

महुआ बीनने और चूसने 


चैत में पहुंचते ही

मिलने लगता अधियां बंटाई में 

सीला बीनने को 

चना की घेंटी

कठिया की बाली 

बिनती मांग पकड़कर

जुहाती 

लगा देती ढेर बरोठ और चउपार में

जब तक चना और कठिया कटता


कूट फटककर 

पीसकर जांत में 

प्याज और डरा नून से

जो हीरे की तरह था

पहले निवाले से बच्चों का पेट भरती

फिर आधा पेट अपना 

टांचके एक लोटा पानी पीती 

पेट डम्म


अगली सुबह फिर वहीं ले जाती

साल भर अंटाने के लिए

सूनी मांग लिए 

शिलिया को सीला बीनने

मांग पकड़कर

०००

आठ


तुम्हारी स्मृति ही तुम हो 


एक


तुम्हारी स्मृति ही 

अब संसार है 

जीवन है 

दुःख का सागर कहो 

या सुख का पोखर


तुम्हारी स्मृति ही 

पहिया है जिसकी गति 

अपने पहिया में करके समाहित 

करुंगा तेज सूर्य की तरह 

चलूंगा 

दौड़ूंगा 

चल रहा था जिस रास्ते में 


तुम्हारी स्मृति ही 

मेरे पंख हैं

उड़ूंगा आकाश में 

तुम्हारी तीनों निशानी लेकर 


तुम्हारी स्मृति ही 

शक्तिसौंदर्य है 

गढ़ूंगा स्वपन 

जो तुमने देखे थे मेरे साथ मिलकर 

उसी में खोजूंगा 

अपनी और तुम्हारी मनात्म की शांति 


तुम्हारी स्मृति ही 

तुम हो

जिसे दबा कर छाती में 

रहूंगा जिंदा अपने समय तक 

क्योंकि तुम्हारा प्रेम 

अथाह से आगे उतर गया 

अनंत प्रेमकुंड में 

०००












दो


तुम्हारी देह गयी है 

तुम नहीं 

मिली हो मुझमें 

पानी में पानी की तरह

सांसों में पायल खनका के

निरंतर आवाजाही है तुम्हारी 

छाती में खनकती हैं चूड़ियां 


रात में खाली विस्तर 

पर दिखती हो 

शाम सुबह शांत किचेन में 

दिखती हो

बच्चों के तेल काजर कंघी के वक्त 

खालीपन में दिखती हो

कालेज जाते वक्त 

टिफिन भूल जाने पर दिखती हो 

कालेज से आकर तखत पर ढह जाने बाद 

दरवाजे मे दिखती हो


दिखती हो 

बाजार जाते- आते 

थके हारे समय 

जब जाड़े में 

पसलियों में ठंड का होता हमला

किसी परेशानी में होता

दिखती हो हर वक्त 


किससे कहूं अपना दर्द 

लिखता हूं इसलिए 

कविता से कह देता हूं 

किंतु बच्चे न लिखते 

न कह पाते 

स्कूल से आने बाद 

मां की छाती न मिलने से 

चीर कर अनंत सन्नाटे में भांय-भांय की ध्वनि

मेरी छाती में खोजते मां की अनुभूति

फिर भी तुम निरंतर उनके साथ हो

मां की तरह अदृश्य निराकार 

जिससे वे खेलते खिलखिलाते हैं

०००



परिचय 

पिता-श्री मुंशीलाल, माता -कुसुम देवी,पत्नी -कृतिका देवी,ग्राम -अतरौली माफी जनपद चित्रकूट में जन्म। शिक्षा: स्नातक ,इलाहाबाद
विश्वविद्यालय, इलाहाबाद, स्नातकोत्तर (हिन्दी) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी, पी-एच.डी. , महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय, चित्रकूट (म.प्र.),

 यू.जी.सी. नेट, नई दिल्ली।

शोध प्रबंध : संजीव के कथा साहित्य में चिंतन के विविध आयाम: एक अध्ययन।

रचनाकर्म: कविता, गीत, कहानी, नाटक, उपन्यास, संस्मरण आदि।

काव्य संग्रह: 'वेंटिलेटर में है नदी' (प्रकाश्य)

गीत संग्रह: 'चल रही आरी'( प्रकाश्य)

बघेली गीत संग्रह: 'दारू मा डूब गे गांव रे' (प्रकाश्य)

संस्मरण: 'माटी का महल' (प्रकाश्य)

कहानी संग्रह: पंगत (प्रकाश्य)

 'पंगत', 'परिकथा' पत्रिका में जनवरी 2025 अंक में प्रकाशित। 

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर अनेक लेख एवं रचनात्मक साहित्य प्रकाशित। झांसी आकाशवाणी में कविताओं 

का प्रसारण।

अध्यक्ष, प्रगतिशील लेखक संघ जिला इकाई चित्रकूट। इप्टा से जुड़ाव

मई 2023 में तिरहार जनपद चित्रकूट में 'नशा छोड़ो शिक्षा जोड़ो' अभियान चलाकर दस गांव की पैदल यात्रा की। एक जगह हमले का शिकार भी हुआ।

हाशिए में पड़े लोगों को मुख्य धारा से जोडने के लिए  सामाजिक संगठनों में सक्रिय भूमिका।‌

'कृतिका कोख सुरक्षा फाउंडेशन' का संचालन। सर्जरी प्रसव उन्मूलन अभियान 

संप्रति: हिन्दी शिक्षक, श्री गांधी ग्रामोद्योग इंटर कॉलेज, भरोसा, झांसी(उत्तर प्रदेश)

मोबाइल:9219301138

 sunilchitrakooti80@gmail.com

1 टिप्पणी:

  1. ताज़गी भरी, उद्वेलित करती बेहतरीन कविताएँ. लालच के कारोबार में आकंठ डूबा मनुष्य पर्यावरण का कितना नुकसान कर चुका है कवि ने इस पीड़ा को 'वेंटीलेटर में है पहुज नदी' में गहरे व्यक्त किया है. स्त्री का जाना मर्मस्पर्शी कविता है. सुनील कुमार की इन कविताओं को ठहरकर और बार -बार पढ़ा जाना चाहिए.
    इस महत्वपूर्ण प्रस्तुति के लिए बिजूका टीम को हार्दिक बधाई.

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