पिताजी
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मेरे पिताजी कम बोलते हैं
उन्हें कभी खुलकर
हँसते हुए नहीं देखा
अक्सर वे धूप और बारिश में
बाहर होते हैं
मैं कई बार मन ही मन सोचता हूँ
पिताजी अकेले ही
धूप और बारिश से लड़ रहे होंगे
घर आने पर वे चुप रहते हैं
और एक ही कुर्सी पर
बैठे-बैठे घण्टों किताब बांचते रहते हैं
उस वक़्त मानो कोई पुजारी हों
बाहर जाते समय
उनका ध्यान बार- बार
घड़ी पर ही रहता है
शाम को देखता हूँ उनकी आँखों पर
दिन भर की धूल घर बना बैठी है
मुझसे रोज पूछते हैं
आज पढ़ाई की थी..?
मैं कहता हूँ..जी हाँ
उनका कम बोलना
मुझे बहुत सालता है
फिर एक रोज माँ से पूछा था
पिताजी हँसते क्यों नहीं?
माँ ने बताया
पिताजी ऐसे ही होते हैं
ऐसे ही क्यों..?
यही सब तो मैं जानना चाहता हूँ
यकायक मुझे ख़्याल आया
अपने जन्मदिन पर पिताजी के साथ
चार्ली चैपलिन की फ़िल्म देखूँगा
तब वे ज़रूर हँसेंगे
लेकिन! नहीं
उस दिन भी सामान्य
हर रोज की तरह
आख़िरकार एक दिन
मन बांधकर पूछ ही लिया
पिताजी आप हँसते क्यों नहीं?
मेरी बात सुनकर
पिताजी हँसे थे
और मेरी पीठ थपथपाकर कहा था
बरखुरदार वक़्त को पहचानना सीखो
मैं देर रात तक
वक़्त को पहचानने का
अर्थ खोजता रहा
कुछ हाथ नहीं लगा
उस समय निरा बालक था
बाहर की धूप और बारिश से बेख़बर
जब खुद पिता बना
अब समझ पाया हूँ
पिताजी की चुप्पी का कारण
और वक़्त को पहचानने का अर्थ ।
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खुशी
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बच्चा काफी देर से
बर्फ़ का गोला लेने की ज़िद पर अड़ा है
पिताजी बालक की माँग को
अनसुना कर रहे हैं
लेकिन!शायद वो भूल रहे हैं
बच्चें रुचियों के राजा होते हैं
जो एक बार ठान लेते हैं उसे पाकर रहते हैं
बच्चा बर्फ़ का गोला लेकर खुश है
पिता बच्चे को देखकर खुश हैं
गोला बेचने वाला बेचकर खुश
ख़ुशी किसी एक रूप में नहीं
अलग-अलग रूपों में जन्म लेती है
किसी को लेकर
किसी को देकर
और किसी को देखकर ही खुशी मिलती है।
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रिश्ता
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थाली सामने आने पर
भोजन के लिए
जब भी रोटी का टुकड़ा तोड़ता हूँ
अपने किसान पिता का चेहरा याद आता है
क्या रिश्ता है?
रोटी और पिता का
उनके जाने के वर्षों बाद भी
आज तक जिंदा है।
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कद
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मेरे पिता ऊँचे कद के थे
मैं उनके कद तक
पहुँच नहीं पाया
पिता को
मेरा कद देखकर
मलाल होता था
मुझे फ़ख़्र होता
पिता के ऊँचे कद को देखकर।
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रोना
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पिता के संसार से जाने के बाद
वह पहली बार मिला
अपने जिगरी दोस्त से
देखते ही गले मिलकर
फूट-फूटकर रोने लगा
दोस्तों को गले लगा देखकर
आँसू भी एक-दूसरे के गले जा लगे
दो दोस्त संसार से विदा हो चुके
अपने-अपने पिताओं की स्मृति में
खड़े-खड़े देर तक भीगते रहे
जबकि दोनों खुद पिता थे
और बच्चों की तरह रो रहे थे।
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जतन
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दोस्त के पिता
कुछ समय पूर्व ही दुनिया से विदा हुए थे
एक दिन उसने मुझसे कहा-
यार जब भी तुम्हें देखता हूँ
मुझे तुम्हारे पिता याद आते हैं
तुम्हारी कद-काठी,अंदाजेबयां,हाव-भाव
सब अपने पिता पर है
उसकी बात सुनकर
मुझे बरसों पहले संसार से गये
अपने पिता याद आये
और पिता का जिक्र आते ही
दोस्त को भी गुमसुम
किसी अज्ञात की तरफ झाँकते हुए पाया
जीवन में जो बिछुड़ता है एक बार
इंसान उसे
न जाने किस-किस तरह पाने के जतन करता है।
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हाथ बँटाना
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जब कभी
घर में मरम्मत का कोई काम होता
पिता मजदूर के साथ काम में लग जाते
लोग कहते-
जब मजदूरी देनी है
तो काम भी मजदूर को करना चाहिए
पिता कहते-
क्या घटता है मेरा?
हाथ पर हाथ धरे रहने से
किसी का हाथ बँटाना अच्छा है।
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चोट
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मनुष्य की मन की अंधेरी भरी कोठरी में
न जाने क्या-क्या बिखरा पड़ा रहता है?
दीवाली से कुछ समय पहले की बात थी
आठ-दस साल का रहा हूँगा मैं
पिता जी सीढ़ी पर चढ़कर
घर में सफेदी कर रहे थे
पता नहीं कैसे,फिसल गई सीढ़ी?
पिता जी फर्श पर आ गिरे
उनके घुटनों से बहता खून देखकर
मैं जोर-जोर से रोने लगा
पिता जी अपनी चोट भूलकर
मुझे चुप कराने लगे
समय की मरहम ने भर दिये सारे घाव
पिता जी अब नहीं है संसार में
पता नहीं क्यों बरसों बाद?
पिता जी को लगी चोट का दर्द
कभी-कभी मेरे घुटनों में उठता है।
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मन ही मन कुछ बुदबुदाना
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पिता बनने पर
हम अपने पिता के बारे में सोचते हैं
और एक अपराध-बोध से भर जाते हैं
पिता बनने से पहले
हम पिता के बारे में
कितना कम जानते हैं
पिता एक पहाड़ हैं
हम पहाड़ की सिर्फ कठोरता देखते हैं
उसकी अडिगता
और हर मौसम को
हँसते-हँसते सहने की क्षमता को अनदेखा करते हैं
कोई पहाड़ एक दिन में निर्मित नहीं होता
न जाने कितने संघर्षों कितने तप-त्याग से
ठोस और मुकम्मल बनता है
पिता की सच्चाई जानने के बाद
हम जब पिता के लिए कुछ करने का प्रण लेते हैं
तब पिता पहाड़ से निकलकर
आसमान में रहने लगते हैं
और हम हर सुख-दुख में
ऊपर की ओर देखते हुए
मन ही मन कुछ बुदबुदाते हैं।
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बच्चा और पिता
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बच्चा पिता की अँगुली पकड़े
स्कूल जा रहा है
पिता बीच-बीच में
बच्चे को गिनती और पहाड़ा याद करवाते हैं
बच्चा धीरे-धीरे
सीख रहा है सामाजिकता का सबक
अभी वह कोई शब्द है
बनते-बनते बन पायेगा वाक्य
जब वह सार्थक वाक्य समझने लगेगा
तब पिता का जीवन में होना भी समझ जायेगा।
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लालटेन
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पिता एक लालटेन थे
सदा अंधेरा हरते रहे
खुद जलते हुए
जीवन में उजाला भरते रहे
एक दिन लालटेन बुझ गयी
हम चहुँ ओर से अंधकार में घिर गये
हमारी स्मृतियों में
लालटेन की रोशनी कौंधती है ।
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पिता और कविता
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पिता पर
अनेक कवियों ने कविताएँ लिखी हैं
हर कवि ने
अपने पिता को केंद्र में रखते हुए कविता रची है
पढ़ने वालों को लगता है
वे भिन्न-भिन्न पिताओं पर लिखी
अलग-अलग कविताएँ हैं
वास्तव में,वे सभी कविताएँ
एक ही पिता पर लिखी गयी हैं
फ़र्क़ इतना है
कविताओं में पिता एक है
और पिता को देखने वाली
आँखें अनेक हैं।
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आवाज
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नव ब्याहता बेटा-बहू के साथ रहते हैं
वृद्ध माता-पिता
बुजुर्ग पिता अक्सर नींद में उच्चारते हैं-
हे राम,हे राम
बीच-बीच में
कभी बत्ती जलाते-बुझाते हैं
कभी बेंत ढूँढते हैं
कभी अपनी दवा-गोली
सिरहाने जल भरा लोटा रखते हैं
रात में कई बार
पेशाब की शिकायत होती हैं उन्हें
पिता जब भी जगते हैं रात को
आहट और आवाज भी जगती हैं
उनके साथ-साथ
पिता की आवाज सुनकर
आश्वस्ति की चादर ओढ़े लेटी रहती हैं माँ
जबकि उसी आवाज को सुनकर
बेटा बहू करवट बदलते हैं बार-बार
और नींद में बड़बड़ाते हैं
एक दूसरे से कुछ कहते हुए ।
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श्रेष्ठतम समय
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पिता खेल-खेल में
तीन-चार साल के बेटे के लिए
बन रहे हैं घोड़ा
बेटा खुश है
पिता की पीठ के घोड़े पर बैठकर
मन मुताबिक दिशा में
वह हाँक रहा है अपना घोड़ा
पिता-पुत्र की चहचाहट की चमक
दर्ज हो रही है स्मृतियों की स्लेट पर
पिता और पुत्र
जीवन का श्रेष्ठतम समय जी रहे हैं।
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हौले से-जोर से
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जिनके माता-पिता हैं
वे उनके लाड़-प्यार के
लड़ाई-तकरार के
मान-मनुहार के
कथा-क़िस्से
कभी हौले से
कभी जोर से सुनाते हैं
जिनके माता-पिता
जा बसे दूर किसी अंतरिक्ष में
वे माता-पिता को पुकारते हैं
कभी हौले से
कभी जोर से।
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पिता दूर जाकर
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पिता अब नहीं है संसार में
पिता हैं अब विचार में
स्मृतियों में
स्वप्नों में
शब्दों में
लोग कहते हैं
पिता दूर
बहुत दूर चले गये हैं
मैं कहता हूँ
पिता अब
ज़्यादा करीब आ गये हैं।
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भरोसा
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माता-पिता को छोड़कर
पुत्र विदेश जा बसे
स्वदेश में स्मृतियाँ शेष हैं
एकाकी माता-पिता
लड़ते हैं शक्तिशाली स्मृतियों संग
फिर एक दिन वृद्ध दंपती ने
घर-आँगन में लगाये
कुछ छायादार,फलदार पौधे
रोज उन्हें दुलारते हैं
पुचकारते हैं,संतान की तरह
भरोसा भी बंधा है
बड़े होने पर
नितांत अकेला छोड़कर जायेंगे नहीं।
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खाली-स्थान भरो
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परीक्षा में
प्रश्न पूछा गया-
खाली स्थान भरो
उसने खाली स्थान को
भरते हुए लिखा-
माँ-पिता।
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गुड़ की डली
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पिता को खाना खाने के बाद
गुड़ की डली खाने की आदत थी
यही आदत
मेरे आचरण में भी उतर आयी
खाने के बाद
जब भी गुड़ की डली माँगता हूँ
घर के सदस्य कहते हैं-
तुम बिल्कुल पिताजी पर गये हो
यह सुनकर
मैं कुछ बोल नहीं पाता
बस मौन होकर
गुड़ में पहले से ज्यादा
मिठास महसूस करता हूँ।
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पहाड़ बनते पिता
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जब कभी जीवन में
आता है सुख-दुःख
बरसों पहले गये
पिता याद आने लगते हैं अनायास ही
उनकी अनेक छवियाँ
आँखों के आइने में
सजीव हो उठती हैं
यादों का कारवाँ
बहुत आगे निकल जाता है
और देखते ही देखते
पिता एक पहाड़ में
तब्दील होते हुए दिखायी देने लगते हैं
मैं खुद को
पहाड़ की गोद से निकलते हुए
किसी झरने की तरह पाता हूँ।
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परिचय
शिक्षा: एम.ए,एम.फील,पीएच.डी(दिल्ली विश्वविद्यालय)
सम्प्रति: प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, राजधानी कॉलेज(दिल्ली विश्वविद्यालय)राजा गार्डन नयी दिल्ली-110015
प्रकाशन: साप्ताहिक हिन्दुस्तान, पहल, समकालीन भारतीय
साहित्य, नया पथ,आजकल, कादम्बिनी,जनसत्ता,हिन्दुस्तान, राष्ट्रीय सहारा,कृति ओर,वसुधा, इन्द्रप्रस्थ भारती, शुक्रवार, नई दुनिया, नया जमाना, दैनिक ट्रिब्यून आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ व लेख प्रकाशित।
अभी भी दुनिया में- काव्य-संग्रह।
कुछ कविताओं का अँग्रेजी, गुजराती,पंजाबी,तेलुगु,मराठी,नेपाली भाषाओं में अनुवाद।
सचेतक और डॉ. रामविलास शर्मा (तीन खण्ड)का संकलन-संपादन।
रामविलास शर्मा के पत्र- का डॉ. विजयमोहन शर्मा जी के साथ संकलन-संपादन।
सम्मान: हिन्दी अकादमी दिल्ली के नवोदित लेखक पुरस्कार से सम्मानित।
संपर्क: WZ-12 A, गाँव बुढेला, विकास पुरी दिल्ली-110018
मोबाइल:9818389571
ईमेल: drjasvirtyagi@gmail.com
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