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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 मार्च, 2025

ललन चतुर्वेदी की कविताऍं

 

एक 


टूटपुंजिआ कवि


बहुत लज्जा होती है स्वयं को कवि कहने में 

घिर जाता हूं अनेक सवालों के घेरे में 


हताश होकर बैठ गया हूं जीवन के समर में 

केवल लंबी-लंबी सांसें खींच रहा हूं 

क्या यही है जीवित होने का प्रमाण ?









यह अंट - संट जो बक रहा हूं 

कहां है इसमें जीवन का श्रम

कहां  है इसमें जीवन का सौन्दर्य ?


जो लिख रहा हूं कविताओं में 

वही क्या जी रहा हूं जीवन में ?

लोक से अलग होकर 

लोकप्रियता कमाने का भूत  सिर पर सवार है

उतरता ही नहीं जो यह कविता का बुखार है 


अकारण लोग नहीं हंसते मुझे देखकर 

जब तथाकथित किसी ब्रह्म बाबा के स्थान पर 

दशहरे या नागपंचमी को कविताई का भूत खेलाने लगता हूं 

तब कोई श्रोता मजाकिया लहजे में पूछ बैठता है - कविता कहां है कवि जी?

ओझा की तरह वह मेरा भूत उतार देता है 

कांख में दबाए कविताओं की डायरी

मैं चुपचाप खिसक लेता हूं 

बैठकर कोठरी के कोने में 

अपनी कविताओं की निर्मम सर्जरी करने लगता हूं 


देखता हूं

ये  समंदर के सीप  हैं 

जो तट पर बिखरे हुए हैं लहरों के वापिस  लौटने के बाद 

सारे रतन तो छिपे हैं उसकी अतल  गहराइयों में 

समंदर में उतरने  का कभी साहस ही नहीं जुटा पाया 

समुद्र मंथन का विचार तो  कभी मन में भी नहीं आ पाया 

बस्स तट पर बैठ सीपियों से खेलता रहा 

पागलों की तरह इन्हें झोलों में भरता रहा 

दुनिया के बाजार में इन्हें मोती कह बेचता रहा 

श्रोताओं को, पाठकों को क्यूं ठगता रहा ?

सच पूछो तो अपने को कवि कहना बार - बार डंसता रहा।

०००


दो

दुःख का नीड़ 

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सुबह सूरज आंखों में अंगार की तरह उतरता है 

रात में कोई जुगनू दिखाई नहीं देता दूर- दूर तक 

छुटते जा रहें हैं लोग जैसे चलती ट्रेन से दिखते हैं छूटते हुए दरख़्त 

दुःख एक अर्जी है जो बिना पढ़े फेंक दी जाती है कूड़ेदान में 

हैरत है कि दिलचस्प होता जा रहा है दुःख 

दैनिक अखबार की तरह  समाप्त हो जाता है उसका सफर

किसी का दुःख नहीं उतरता दूसरे की आंखों में 

यह इस समय का सबसे बड़ा दुःख है 


तमाम तूफानों के बावजूद 

धरती पर नहीं गिरता दुःख का घोंसला 

आखिर कैसी हुनरमंद है वह चिड़िया 

जिसने बड़े जतन से सुख के तिनके - तिनके जोड़ बनाया है यह नीड़ 

यह वही नीड़ है जो धीरे - धीरे बन गया दुःख का स्थायी बसेरा 

यह सब सोचते हुए योजन भर की हो जाती  है रात  


जिस सुबह की आस लगाए बैठा रहता है रात भर आदमी 

उस दिन सूरज हरगिज नहीं निकलता 

छा जाती है पूरे आकाश में धुंध 


आदमी कहां निकल पाता है इस  जाल से 

जैसे कोई चिड़िया झरोखे से  घुस जाती है बंद‌ घर में 

जहां से निकलने के सारे रास्ते बंद हैं 

और एक तय समय के दरम्यान  तड़प - तड़प कर दम तोड़ देती है ।

०००


तीन 

गैर मुलाकाती समय में किताबें 

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मुझे बहुत से लोगों से मिलना है 

करनी है उनसे ढेर सारी बातें 


एक आदमी भी आएगा तो अनेक लोगों को साथ लेकर आएगा 

जैसे कोई चिड़िया धरती पर एक बीज डाल देती है 

और धरती उसे वृक्ष में बदल देती है 

फिर हजार वृक्ष तैयार हो जाते हैं एक वृक्ष से 


इस गैर मुलाकाती समय में इंतजार का मौसम बदलता ही नहीं 

हम एक से जलवायु में रहने के आदी हो चुके हैं 

कहीं घूमने का कार्यक्रम  बना सकते हैं ?

आसपास के फूल पौधों से बतिया सकते हैं ?

पर कहां कुछ संभव हो पाता है केवल सोचने से 

अपनी लाइब्रेरी की परिक्रमा करते हुए 

उठा लेता हूं एक प्यारा सा उपन्यास 

दूसरी किताबें गौर से देख रहीं हैं कि कब करोगे मुझसे वार्तालाप 

अनेक लोगों से मिलने की साध पूरी हो जाती है 

एक दूर देश के सफर पर निकल चुका हूं 

मन का मौसम बदल गया है 

देर रात तक दुधिया रोशनी में नहाये हुए मेरे कमरे में महफ़िल जम गई है 

यह कितनी खुशनुमा रात है 

जब अक्षरों के दीप जल रहे हैं और फैल रहा है मेरे चेहरे पर उजाला।

०००


चार

जहाॅं होना चाहिए 

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जहाॅं जिसे होना चाहिए 

इस वक्त वह गायब है वहाॅं से 

ऑंखें बिछीं थी इन्तजार में 

और वह अभी तक नहीं आया 

कोई दूरी भी बहुत नहीं थी 

और यातायात के साधन भी थे सुगम 

पल- पल की सूचना थी कि कौन कहां है 

जैसे मरीज अस्पताल में,घायल सड़क पर 

छटपटाती हुई लड़की अपराधियों के चंगुल में 

पर मौके से पुलिस ,अस्पताल से सारे परिजन 

पहुंचे एक- एक कर सारे 

पर बहुत देर हो चुकी थी 

जहाॅं जिसे होना चाहिए 

वह वहाॅं क्यों नहीं होता है उपस्थित?

०००


पाॅंच

अपने ही बारे में 

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"कब करोगे मेरा विवाह?"

पुत्री पिता से कभी नहीं पूछती 


आंख से निकलते नहीं आंसू 

पर दिल रोता है जार- जार

किसी से दो रुपए मांगते हुए 


कोई कवि ही पढ़ सकता है 

खदूका* का मन

जब आ धमकता है तगादे में महाजन 


अपने ही सामने 

जब कोई गढ़ता है प्रशंसा के कसीदे 

कैसे कोई प्रफुल्लित हो जाता है ?


हजार किताबें पढ़ने के बावजूद 

कहां हुआ हमें ज्ञान-बोध 

जबकि ज्ञान तो मिल सकता था पीपल की छांव में 

वह तो लोट रहा था ब्रज की धूल में ,

गोपिकाओं के पांव में 


और मेरा कवि संपादकों की अस्वीकृति से नहीं मरा 

मरा तो अपने ही एक कातर प्रश्न से कि 

हुजूरे आलम ! कैसी लगी मेरी कविता?

*कर्जदार

०००


छः 

दूसरे देस चले जायेंगे 

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मैंने पूछा - कहां से आया?

उसने धीरे से बंगाल बतलाया 

इसके आगे नहीं कोई हाल‌ बतलाया


ठंड शुरु हो गई है ,कहां रहोगे ?

सड़क किनारे कब तक बंद दूकान के शेड में पड़े रहोगे ?

क्या खाते हो,क्या पीते हो ?

उसने आकाश की ओर देख हाथ उठाया 

मैंने कुछ समझा, कुछ समझ नहीं पाया 


दूसरे दिन सुबह की सैर पर मुलाकात हुई 

मन नहीं माना फिर से वही बात हुई 

मैंने सर्द मौसम की चर्चा की और कंबल देने का प्रस्ताव रखा 

उसने सिरे से अस्वीकार कर दिया और उदासीन होकर बोला- 

यहां बर्फ की चादर बिछने के हैं आसार 

हम दूसरे देस में निकल जायेंगे 

मैं उसका मुंह ताकता रह गया 

वह कैसी बात कह गया।

०००












सात

किस -किसको समझोगे 

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सब एक दूसरे पर निर्भर हैं 

बावजूद इसके सबका अपना अस्तित्व है 

अपनी इयता से नावाकिफ सबका अहं कभी न कभी 

नाग की तरह फुफकारने लगता है 

एक तृण को तीली भर की जरूरत है 

आग फैलाने के लिए हवा वायुमंडल में हमेशा मौजूद है 

पानी जमीन की कोख में छिपा बैठा है 


आंखों का पानी जैसे ही समाप्त होता है 

आग लगने का संकेत मिलने लगता है 

तुम्हें स्वयं अग्निशामक यंत्र की भूमिका संभालनी होगी 

यह देह का भवन एक ही बार नहीं जलता अग्नि में 

कितनी बार लोग चुपके से मन के कोने में आग लगाते रहते हैं 

कितनों का हिसाब - किताब रखोगे 

वे अनगिनत ख्वाब जो भस्मीभूत होकर उड़ रहे हैं हवाओं में 

उनकी गंध भी तो अब मयस्सर नहीं 


वह तितली जो बैठी है फूलों पर 

उसके इरादे तुम नहीं भांप सकते 

वह सारी रात पंखुरियों को कुतरती रहती है 

जैसे ही छाने लगता है अंधेरा 

माली उपवन छोड़ देता है 

रात पर तितलियों का एकछत्र राज है 

सुबह होने के पहले ही फूल की मौत हो जाती है 


जो बोये ग‌ए थे सपने 

वे लौटते हैं आंसू के शक्ल में 

एक तो समय से समझ आती नहीं 

और आती भी है तो हम नासमझ की तरह व्यवहार करते हैं 

तृण, तितली,आग,पवन सबकी भाषा अबूझ है 

किस - किस को समझोगे एक छोटे से जीवन में।

०००


आठ

दोनों के दुःख का एक ही स्वर है 

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उस स्त्री का दुःख समझो 

जिसका बिहारी पति असाम में कमाता है 

साल में एक बार होली या दीवाली पर  घर आता है 

निन्यानबे प्रतिशत उसकी उमर प्रतीक्षा में गुजर जाती है 

वह काले अक्षर नहीं चीन्ह पाई कभी 

उसकी चिट्ठी चलती तो कैसे 

आज भी वह मोबाइल में नंबर सेव नहीं कर सकती 

राम नाम की तरह उसे कंठस्थ है दसों अंक 

वह बोलती है बबुआ जी!मिला दो नंबर


उस स्त्री का दुःख समझो 

जिसका पति नहीं लौट पाया कारगिल या डोकलाम से 

उसे क्या सुख - संतोष मिला शोहरत से,नाम से 


उस स्त्री का दुःख समझो 

जो साथ रहकर भी अकेली है अनाथ है 

उसकी यातना दारुण, प्रतिपल मन पर आघात है


बरक्स उसके किसी पुरुष का भी दुःख भी समझना जरूरी है 

जो छाया गृह की अगन में अहर्निश झुलस रहा है 

यह कैसा चांदनी सफर है जिसमें तप रहा है 


एक पुरूष का दुःख कत‌ई अलग नहीं होता स्त्री के दुःख से 

कैसे करते हो बचाव और किस मुख से 

इसके पहले कि दुनिया देखे उसके आंसू 

वह पी जाता है नीर का क्षार 

मत समझो इसे कपट,कुटिलाचार


दोनों पलड़े पर साथ - साथ रखना दोनों का दुःख 

कांटा बिल्कुल दिखेगा समकोण पर 

कविता झूठ के पक्ष में गवाही नहीं देती 

उसे नष्ट होने का कोई डर नहीं है 

उसके पास दोनों के दुःख के लिए एक ही स्वर है।

०००


नौ

अमानुष 

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शांत सरोवर में उच्छृंखल लड़कों की तरह फेंकता रहता है कंकड़ 

अनधिकृत प्रवेश कर मदमस्त गज की तरह रौंद डालता है पुष्प वन 

डाल-पांत विहीन कर देता  है वसन्त का वैभव -समृद्ध वृक्ष 

पछुआ हवा की तरह सुखा देता है चतुर्दिक व्याप्त नमी 

काबिज हो जाता है किसी के अस्तित्व पर अमर बेल की तरह 

निकटतम  पर करता है विकट  प्रहार  


थोड़ी सी जगह मिलती है और फैल जाता है पूरे बर्थ पर 

भूल जाता  है कि वह भी  मुसाफिर है औरों की तरह 

कोई उदास स्टेशन कर रहा है उसका भी  इंतज़ार 

जहां  से आगे नहीं जाती  किसी की  गाड़ी 

दंभ इतना  कि आदतन  विस्मृति का शिकार हो जाता है 

ऐसे किसे मालूम नहीं कि जीवन‌ के सफर में 

वापसी टिकट का  प्रावधान नहीं होता 


वे कृतज्ञ होते हैं जो अतीत को भी संजोए रखते हैं हृदय के सुरक्षित कोने में अनमोल धरोहर की तरह 

और वैसे भी लोग कुछ  कम नहीं हैं इस दुनिया में 

जो सुंदर वर्तमान के चेहरे पर पोत देते हैं कालिख 

बड़े शान से सभ्य  समाज में मनुष्य का मुखौटा पहन घूमते रहते हैं ऐसे अमानुष।

०००


दस

शीतल आग

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कोई फर्क नहीं पड़ता किसी मौसम से 

जब एक बार आग लग जाती है तो बुझती नहीं 

धुआंता सा जिस्म जलता रहता है एक सोग में 

कभी बहती है तेज बयार तो उठने लगती हैं लपटें 

कभी हल्की सी बारिश होती है तब गीली लकड़ी सा धुआंने लगता है मन 


शनै : शनै सुलगता मन देह को एक दिन बदल देता है राख की ढेर में 

एक वक्त मुकर्रर है जीवन का सत्य की संज्ञा के रूप में प्रचारित 

जबकि यहां  जीने और मरने का खेल चलता रहता है अनवरत 


ओह! कितना क्षणजीवी होता है  वसन्त 

और उससे भी क्षणजीवी उसके उन्माद में लिखे गए गीत 

विराग ही तो है जीवन - राग का अंतिम सत्य 

कहते हैं कि दो से बनती है दुनिया 

पर लाख कोशिशों के बावजूद 

दुनिया क्यों नहीं बनती संसार 


दाहकता ही एकमात्र धर्म नहीं होता पावक का 

समझने वाले ही समझ सकते हैं 

पावन प्रचंड लपटों में  होती है कितनी शीतलता!

०००


परिचय 

जन्म:  10म‌ई 1966 को नारायणी नदी के तट पर स्थित मुजफ्फरपुर (बिहार) के बैजलपुर ग्राम में 

शिक्षा: एम.ए (हिन्दी), यू जी सी नेट जेआरएफ,बी.एड

प्रकाशित कृतियां:  प्रश्नकाल का दौर(व्यंग्य संग्रह)

ईश्वर की डायरी,यह देवताओं के सोने का समय है और आवाज घर( तीन कविता संग्रह) के साथ- साथ 

स्तरीय पत्र - पत्रिकाओं एवं प्रमुख वेब पोर्टलों पर कविताएं , आलोचना एवं व्यंग्य प्रकाशित।

संप्रति: सहायक निदेशक ( राजभाषा) पद से सेवानिवृत्ति के बाद पूर्णकालिक लेखन एवं रांची में निवास 

संपर्क: lalancsb@gmail.com

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