1.
इक लफ़्ज़-ए-मुहब्बत का अदना ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़, फैले तो ज़माना है
(लफ़्ज़-ए-मुहब्बत - 'मुहब्बत' शब्द; अदना - छोटा सा; फ़साना - कहानी)
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई, हँसने को ज़माना है
जो उन पे गुज़रती है, किसने उसे जाना है
अपनी ही मुसीबत है, अपना ही फ़साना है
क्या हुस्न ने समझा है, क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है
(ख़ाक-नशीन - खुले में बसर करने वाले)
या वो थे ख़फ़ा हम से, या हम हैं ख़फ़ा उन से
कल उन का ज़माना था, आज अपना ज़माना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
अश्कों के तबस्सुम में, आहों के तरन्नुम में
मासूम मुहब्बत का मासूम फ़साना है
(अश्क - आँसू; तबस्सुम - मुस्कराहट; तरन्नुम - गीत/लयबद्ध तरीक़े से)
आँसू तो बहुत से हैं, आँखों में 'जिगर' लेकिन
बिंध जाए सो मोती है, रह जाए सो दाना है
2.
हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हमसे ज़माना ख़ुद है, ज़माने से हम नहीं
बे-फ़ायदा अलम नहीं, बे-कार ग़म नहीं
तौफ़ीक़ दे ख़ुदा तो ये नेमत भी कम नहीं
(अलम - मायूसी; ग़म - दुःख; तौफ़ीक़ - सदबुद्धि/क्षमता; नेमत - उपहार)
मेरी ज़ुबाँ पे शिकवा-ए-अहले-सितम नहीं
मुझको जगा दिया यही एहसान कम नहीं
(शिकवा-ए-अहल-ए-सितम - सितम करने वाले से शिकायत)
या रब, हुजूमे-दर्द को दे और वुसअतें
दामन तो क्या अभी मेरी आँखें भी नम नहीं
(हुजूम-ए-दर्द - अपार दुःख; वुसअतें - बढ़ावा)
शिकवा तो एक छेड़ है लेकिन हक़ीक़तन
तेरा सितम भी तेरी इनायत से कम नहीं
(शिकवा - शिकायत; छेड़ - तअना/ताना; हक़ीक़तन - वास्तव में; इनायत - एहसान)
मर्गे-'जिगर' पे क्यों तेरी आँखें हैं अश्क-रेज़
एक सानिहा सही मगर इतना अहम नहीं
(मर्ग-ए-'जिगर' - 'जिगर' की मौत; अश्क-रेज़ - आँसू भरी; सानिहा - घटना)
3.
शायरे-फ़ितरत हूँ मैं, जब फ़िक्र फ़रमाता हूँ मैं
रूह बन कर ज़र्रे-ज़र्रे में समा जाता हूँ मैं
(शायर-ए-फ़ितरत - प्रकृति से कवि; फ़िक्र फ़रमाना - सोच विचार करना; ज़र्रा - कण)
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूँ मैं
जैसे हर शय में किसी शय की कमी पाता हूँ मैं
(शय - चीज़)
जिस क़दर अफ़साना-ए-हस्ती को दोहराता हूँ मैं
और भी बेगाना-ए-हस्ती हुआ जाता हूँ मैं
(अफ़साना-ए-हस्ती - जीवन की कहानी; बेगाना-ए-हस्ती - जीवन से अनभिज्ञ)
हाय री मजबूरियाँ! तर्के-मुहब्बत के लिए
मुझ को समझाते हैं वो और उन को समझाता हूँ मैं
(तर्क-ए-मुहब्बत - प्रेम छोड़ देना या भुला देना)
मेरी हिम्मत देखना, मेरी तबीअत देखना
जो सुलझ जाती है गुत्थी, उसको उलझाता हूँ मैं
तेरी महफ़िल, तेरे जलवे, फिर तक़ाज़ा क्या?, ज़रूर
ले उठा जाता हूँ ज़ालिम, ले चला जाता हूँ मैं
(तक़ाज़ा - ज़रुरत)
वाह रे शौक़े-शहादत कू-ए-क़ातिल की तरफ़
गुनगुनाता, रक़्स करता, झूमता जाता हूँ मैं
(शौक़-ए-शहादत - शहीद होने का शौक़; कू-ए-क़ातिल - क़ातिल की गली; रक़्स करना - नाचना)
एक दिल है और तूफ़ाने-हवादिस ऐ 'जिगर'
एक शीशा है कि हर पत्थर से टकराता हूँ मैं
(तूफ़ान-ए-हवादिस - विपत्तियों के तूफ़ान)
प्रस्तुति:-फ़रहत अली खान
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टिप्पणियाँ:-
प्रज्ञा :-
बहुत अच्छी ग़ज़लें। शुक्रिया फरहत जी ग़ज़लों के इंतखाब और शब्दार्थ के लिये। शायरे फितरत बहुत अच्छी है। बाकी दो अनेक रूपों में दिल के करीब। एक और बात जो मन में आई। एक ज़माने में फ़िल्मी नगरी में ग़ज़ल और कविता का क्या साहित्यिक और ऊँचे दर्जे का पैमाना था। आज तो भाषा ही नहीं ग़ज़ल कविता कहाँ होगी। अभी परिवार के लिये तीनों ग़ज़लों का पाठ किया तब भी अंतिम ही दिल को और छू गयी। सभी ने पसन्द की। शुक्रिया फरहत।
ब्रजेश कानूनगो:-
क्या बात है वाह।समूह पाठ हो रहा है चाय के साथ।बेहद जानी पहचानी शायरी से बार बार गुजरना बहुत आनन्द दायक है।शुक्रिया फरहत भाई।शुक्रिया कविता जी।
वसुंधरा काशीकर:-
बहोत ख़ूब! मशहूर ग़ज़ल गायिका चित्रा सिंगजी ने सबसे पेहलीवाली ग़ज़ल गायी है।पर उसकी शुरूआत , ये किसका तसव्वूर है। ये किसका फँसाना है। एेसी है. मुझे जितना याद है ये ग़ज़ल उन्होंने ग़ालिब साहब की बतायी है। फ़रहत जी से इसके बारे में विस्तार से जानना चाहूँगी। इस ग़ज़ल में और भी अलग शेर उन्होंने गाये है। कुछ लिखने में ग़लतियाँ हुई हो तो माफ़ कीजियेगा मुझे हिंदी में लिखने की प्रॅक्टिस नहीं।
आभा :-
नशिन का इस्तेमाल लफ्ज़ के आखिर में adjective बनाने के लिए किया जाता है या इसका अपना अलग वजूद भी है?
फ़रहत अली खान:-
वसुंधरा जी।
पहले एक ही ज़मीन(प्लेटफॉर्म) पर अलग अलग शायरों द्वारा ग़ज़लें कहने का चलन आम था और ऐसा करना बुरा नहीं समझा जाता था; हालाँकि आज भी है लेकिन आज की तरह पहले कॉपीराइट जैसे नियम भी नहीं हुआ करते थे।
एक ही ज़मीन पर दो ग़ज़लें कही जाएँ तो इसका अर्थ है कि दोनों में क़ाफ़िया-रदीफ़-बहर या एक आध पंक्ति भी मिलती जुलती हो सकती है।
जिगर की पहली वाली ग़ज़ल से मिलती जुलती कोई ग़ज़ल ग़ालिब के नाम से किसी ऑथेंटिक सोर्स से मुझे नहीं मिली। हो सकता है कि ऐसी कोई ग़ज़ल हो भी लेकिन ऐसा मैं यक़ीनी तौर पर नहीं कह सकता।
'नशीं' या 'नशीन' का अर्थ होता है 'रहने वाला'
ख़ाक-नशीं - ख़ाक में रहने वाला
पर्दा-नशीं - पर्दे में रहने वाला
इसी से मिलता जुलता एक शब्द होता है 'नशेमन' जिसका अर्थ होता है: 'रहने का स्थान' या 'घर'
फ़रहत अली खान:-
अली सिकंदर 'जिगर' मुरादाबादी (1890-1961) का जन्म यूपी के पीतल नगरी मुरादाबाद के मुहल्ला लाल बाग़ में हुआ था; हालाँकि इनकी ज़िन्दगी मुरादाबाद और गोंडा दोनों ही ज़िलों में गुज़री।
बक़ौल सरदार जाफ़री: 'जिगर' ग़ज़ल के सबसे मशहूर और मक़बूल शायर हुए हैं। इनकी प्रसिद्धि का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ख़ुद नेहरू जी ने इन्हें 'ग़ज़ल सम्राट' की उपाधि से नवाज़ा और पाकिस्तान में होने वाले एक मुशायरे के लिए इन्हें भारतीय शायरों का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजा। मुशायरों का इनके जैसा सफ़ल शायर शायद ही इतिहास में कोई रहा हो। ये कहा जाता है कि ग़ज़लों को तरन्नुम(लयबद्ध तरीक़े से) में गाने की शुरुआत 'जिगर' ने ही की थी।
प्रसिद्ध शायर असग़र गोंडवी इनके क़रीबी दोस्त और रिश्तेदार थे। शुरू में इन्होंने अपनी शायरी की इस्लाह(त्रुटियों की जाँच) दाग़ देहलवी से करवाई। मजरूह सुल्तानपुरी जैसे बहुत से बड़े शायर इनके शागिर्द हुए।
जिगर अपनी भूलने की आदत के लिए भी मशहूर थे।
ग़ज़ल संग्रह 'आतिश-ए-गुल' के लिए इन्हें साहित्य अकादमी पुरुस्कार से सम्मानित किया गया।
गोंडा और मुरादाबाद में इनके नाम पर कई स्थलों के नाम रखे गए, जैसे- मुरादाबाद में जिगर मंच, जिगर कॉलोनी, जिगर द्वार, जिगर पार्क आदि। मैं ख़ुद मुरादाबाद से हूँ इसीलिए इनके बारे में इतना सब कुछ जानता हूँ। फ़िलहाल इतना ही; बाक़ी बातें फिर कभी इंशाअल्लाह।
बलविंदर सिंह:-
"Jigar" aur "AsGhar"GonDavi ka rishta baRaa pechida thaa..."Jigar" kii biivii "Nasiim" "AsGhar" kii biivii kii baRii bahan thiiN..."Jigar" bahut zyaadah sharaab-noshi karte the..un kii is lat ko chhuRvaane ke liye "AsGhar" aur un kii biivii ne "Nasiim" ko salaah dii kii vo "Jigar" se kaheN ki vo sharaab aur un meN se kisii ek ko chun leN.. bad-qismatii se "Jigar" ne sharaab ko chuna aur apnii biivii ko talaaq de diya..is par "AsGhar" aur un kii biivii ne ise apna apraadh samjha aur is kii sazaa ke taur par donoN ne aapas meN talaaq liya aur "AsGhar" ne "Jigar" kii biivii "Nasiim" se shaadii kii...lekin "Jigar" "Nasiim" se muhabbat karte the aur in kii muhabbat meN naya moR tab aaya jab "AsGhar" ne apnii maut se pahle "Nasiim" ye kahaa ki agar "Jigar" sharaab chhoR deN to un se nikaah kar lenaa...aur aaKhir muhabbat ne sharaab par fatah paa
आशीष मेहता:-
आबाद रहें फरहत भाई। उम्दा प्रस्तुती । आत्मसात करने में थोड़ा वक्त लगेगा मुझे, पर तहेदिल शुक्रिया। पहली ग़ज़ल के पहले अशआर का कुछ बिगड़ी शक्ल में मेरी जिंदगी का फलसफा रहा है: "मुहब्बत जो शब्द है, बस इतना अफसाना है। सिमटे तो मेहबूबा है, फैले तो ज़माना है।।" बिगाड़ कब/कहाँ /कैसे हुआ ध्यान नहीं, पर असल "पा" कर धन्य हुआ । बहुत खूब।
अलकनंदा साने:-
हमेशा की तरह फरहत का शानदार चयन ...कुछ चीजें ऐसी होती हैं कि दोबारा पढ़ने पर भी उतना ही आनंद देती हैं ...
राहुल वर्मा 'बेअदब':-
हाय री मजबूरियाँ तर्के-मुहब्बत के लिए
मुझ को समझाते हैं वो और,उनको समझाता हूँ मैं
बेहतरीन फ़रहत भाई जिग़र साहब का बहुत उम्दा कलाम
शेयर करने के लिए
प्रदीप कान्त:-
ये जिगर साहब ही हैं जो दिल को दिल बनाने की बात इस सलीके से करते हैं कि
लाखों में इंतिख़ाब के क़ाबिल बना दिया
जिस दिल को तुमने देख लिया दिल बना दिया
पहले कहाँ ये नाज़ थे, ये इश्वा-ओ-अदा
दिल को दुआएँ दो तुम्हें क़ातिल बना दिया
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