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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

22 जून, 2015

मिथिलेश श्रीवास्तव की कविताएँ

चप्पल झोला पर्स घड़ी 
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चप्पल झोला पर्स घड़ी अक्सर कहीं छूट जानेवाली चीजें हैं
अब यही मेरे जीवन के आधार हैं
इन्हीं को बचाए रखना मेरे जीवन का मकसद है साथी
यही हैं वे चीजें जो मुझे बचाए हुए हैं
चीजों की मनुष्यता को अब जाना है मैंने
कंधे से लटका हुआ झोला
अक्सर मुझे याद दिलाता है एक खोए हुए संसार का
जहाँ पहुचने से पहले बदल बरस जाते हैं
झोले के भीतर एक पैसे रखनेवाला पर्स है बिना चेहरे की तस्वीरें रहती हैं उसमें
बच्चा पूछता था पर्स तुमने खो तो नहीं दिया दिखाओ मुझे
साफ करता हूँ झोले को तो जिन्दगी की सारी गंदगी
मेरी आत्मा पर जम जाती है
मैं इतना काला तो नहीं था जितनी काली होती है कोयल
कुहुकती हुई पुकारती है किसी अदृश्य काल्पनिक असहाय प्रेमी को
उसे कोई कुछ नहीं कहता
कौन जानता पंख उसके कटे हों
चलते चलते भटकते भटकते
चप्पल के तलवे घिस गए हैं जैसे मेरी आत्मा
चप्पल तो ऐसे चरमरा रहा है जैसे मेरा शरीर
घड़ी टिक टिक करती है मेरे कानों में
जैसे कोई रहस्य बोलना चाहती है
जैसे कोयल की कूक में होता है
घड़ी जब बंद होती है तो एक पुरजा एक बैटरी एक बेल्ट
बदल जाने से चलने लगती है
चप्पल को सिलवाने की जरूरत अभी नहीं है
झोले के सीवन अभी उधरे नहीं हैं
झोले की ताकत मेरी चीजें सँभाल लेती हैं
मेरे कंधे पर लटका वही मुझे कन्धा देता है साथी
नश्वर हैं सब चप्पल झोला पर्स घड़ी
जैसे नश्वर है मेरा शरीर पंचतत्वों मै विलीन होने को व्याकुल
कोयल कब तक कूकेगी मेरे लिए उसका शरीर भी तो व्याकुल होगा
पंचतत्वों में विलीन होने के लिए
०००

घोड़े 
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(मकबूल फ़िदा हुसेन के कैनवास को देख कर)

घोड़ों के खुरों से धरती नुचती नहीं है
लगाम के बगैर वे बेलगाम नहीं हुए
घोड़ों के पैरों में नाल नहीं ठोंके
दाँतों के बीच लोहे की जंजीरें नहीं बनाईं
मजबूत धमनियों में लाल खून दौड़ा दिया
देखो एक लय में दौड़ते घोड़ों को देखो उनकी गति को देखो
देखो वह गति मुझे अपनी धमनियों में महसूस होने लगी है
मैं घोड़ों की तरह सपनों की लकीरों पर उड़ने लगा हूँ
यह गति मोनालिसा की मुस्कान की तरह रहस्यमयी नहीं है
०००

ईश्वर
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ईश्वर वह दीवार कहाँ है
मैंने जहाँ पिछली दफा एक प्रार्थना लिखी थी
ईश्वर गाछ का वह तना कहाँ है
जहाँ मन्नतों के धागे मैंने बाँधे थे
आँखें मूँदे हाथ जोरे सिर झुकाए मैंने तुमसे क्या माँगा था
मुझे तो याद नहीं है तुम्हें याद हो तो देख लेना
मन्नतें पूरी होने लगती हैं तो
तुममें मेरी श्रद्धा अपार हो जाती है
इस गरीब देश में तुम्हारी बहुत जरूरत है
यह खापों पंचायतों कबीलों की दुनिया है
एक बाप अपनी बेटी की हत्या कर देता है
वह जब अपनी इच्छाओं के अनुरूप मन्नतें माँगती है
ईश्वर वह दीवार कहाँ है
मैंने जहाँ पिछली दफा एक प्रार्थना लिखी थी
देखना याद आए तो बताना
मेरी बेटी कहती है यहाँ
इतनी सारी दीवारें क्यों हैं
वह न कोई मन्नत माँगती है
न कोई प्रार्थना करती है
उसकी भी रक्षा करना ईश्वर |
०००
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टिप्पणियाँ:-

ध्वनि:-
आज की कविता थोड़ी हट कर लगी मुझे। लिखने वाले का दर्द दिखता है इनमें।
पहली कविता में कवि अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से उब गया लगता है चप्पल झोला पसॆ घड़ी ही जैसे शरीर का सवरुप हो गया हो।
उसके जीवन का जैसे बस यही एक बहाना रह गया हो।

दूसरी कविता मुझे कम पसंद आई ।

ब्रजेश कानूनगो:-
आत्म चिंतन और स्वाध्याय से परिपूर्ण कवितायेँ।कवि की प्रतिबद्धता अंतर्धारा की तरह समाहित है।सुंदर कवितायेँ।

अनुप्रिया आयुष्मान:-
बहुत अच्छी कविताये हैं ।बहुत ही कॉमन सी विषय वस्तु को लेकर लेख़क ने अपनी बातों को खूबसूरती से कहा है।
जैसे घडी टिक टिक करती है मेरे कानो में जैस कोई रहस्य बोलना चाहती है।ईश्वर कविता की last तीन lines बहुत उम्दा लगी मुझे।

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
कविताएं अच्छी हैं। तीनों ही कविताओं की भावभूमि एक दूसरे से सर्वथा भिन्न है। अंतिम कविता मुझे अधिक पसंद आई। सुबह सुबह अच्छी रचना पढ़ने पर लगता है कि दिन अच्छा गुजरेगा। साधुवाद।

गीतिका द्विवेदी:-
अच्छी कविताएँ हैं।बहुत मामूली चीज़ों में गहराई ढूंढती पहली कविता अच्छी लगी।अंतिम कविता के कुछ शब्दों से ऐसा प्रतीत होता है कि कवि बिहार या पूर्वी उत्तर प्रदेश के हैं ।ईश्वर कविता मुझे भी अधिक अच्छी लगी....

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