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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 जून, 2015

प्रदीप मिश्र की कविताएं

॥ मुलाकात की उम्र॥

तुम नहीं जानती हो मुझे

और मैं भी नहीं जानता तुमको

लेकिन हमारे बीच की हवा इतनी सुगंन्धित क्यों है

क्या है जो तुम्हारे स्पर्श से

गुलमोहर की तरह खिल रहा है

और मुझ तक पहुँचते-पहुँचते पतझड़ में बदल जा रहा है

हम प्रेमी नहीं हैं

न हमने कभी दस्तक दी एक दूसरे के स्वप्न में

हम कभी भी नहीं मिले ऐसी जगह पर

जहाँ सिर्फ हम थे

और प्रेम में उमड़ते सागर की बेचैनी

चंद्रमा कभी नहीं उतरा

हमारे मन में एक साथ

हमारी आवाज में कभी नहीं गूंजा

चकोर का प्रेम गीत

हमारे शरीर

एक दूसरे की जरूरत की तरह हैं उपस्थित हैं यहाँ

जिनको मिलना है

उत्तेजना के शीर्ष पर टंगी हुई है

एक घण्टी

जिसको बजा कर लौटना है हर बार

फिर भूल जाना है एक दूसरे को

हर मुलाकात की

तय होती है उम्र ।

 
॥ हमारी सुबह॥

अपने संशयों और निराशा से घिरा

आपनी आत्मा की सुरंग में गिर गया था

जहाँ खुद के जलने से रोशनी हो रही थी

और ध्वनि भय बनकर चीख रही थी

 इतना उदास कि

अमावस्या की रात में चकोर

 पिघल रहा था अंदर ही अंदर

अपनी असफलताओं की आग से 

सुरंग में आक्सीजन खत्म होने ही वाला था

कि तुमने हटा दिया उस पहाड़ से पत्थर को

खुल गया दूसरा सिरा

दूसरे सिरे पर खड़ी तुम

मुस्करा रही थी

मैं दौड़ रहा था तुम्हारी मुस्कान की तरफ़

मेरी दौड़ खत्म हो चुकी है

मैं हाँफ रहा हूँ तुम्हारी गोद में ।

 
॥ उड़ान पर है प्रेम ॥

मैंने अपनी बाहों में भर लिया है  आकाश

जिसमें उड़ रही हो तुम

तुम्हारी उड़ान 

मेरे स्वप्नों की उड़ान है

बादलों के फाहे से पोछते हुए

तुम्हारी पुतलियों को

हटा रहा हूँ नमी का धुंधलका

चाहता हूँ उड़ते हुए

पार कर जाओ मेरे बाहों में भरे हुए आकाश को

तलाश लो अपना आकाश

लेकिन स्थगित मत करना अपनी उड़ान पूनम !

उड़ते–उड़ते थक जाओ तो

उतर जाना चंद्रमा पर

वहाँ हमारी बेचैनी और इंतजार के

सबूत स्वागत करेंगे

अंतरिक्ष के किसी भी गलैक्सी में

उतर जाना बेहिचक  

हर जगह मिलेगा हमारा प्रेम

स्वागत में खड़ा

मैंने कह दिया है सूरज से

अब तुम्हारी चमक और बढ़ जाएगी

नहीं करोगे तुम  

प्यास और जलन से व्याकुल

मेरा प्रेम उड़ान पर है

आ रहा है तुम्हारी तरफ़ ।

॥ तुम्हारी तलाश ॥

 
तुम्हारी तलाश में

सैकड़ों प्रकाश वर्ष तक छानता रहा

ब्रहमाण्ड का चप्पा-चप्पा

पूरा ब्रहमाण्ड खाली था प्रेम से

प्रेम सिर्फ मेरे हृदय में था

जिसमें तुम चमक रही थी हीरे सा

सारे आकाशीय पिण्ड डूबे हुए थे

अपने निज अंधकार में

अपने दुःखों में बुझते हुए

बदल रहे थे राख में

प्रेम दुःख को पी जाता है

निज के अंधकार में जल उठता है

दीपक की तरह

सारे आकाशीय पिण्डों पर जला आया हूँ

तुम्हारे नाम के दीपक

हमारे प्रेम का दीपक ही जलता है

इन चाँद-सितारों में

और वे चमकते हैं

घृणा और नफ़रत के खिलाफ़

वह पूर्णिमा की रात

मेरी तलाश की अंतिम रात थी

जब तुम मिली पहलीबार

नदी की तरह बहती हुई

जिसमें बह गया मैं

हमेशा के लिए।

 
॥ छलता रहा मुझे प्रेम ॥

प्रेमिकाएं पूर्णिमा की तरह चमकीं एक बार

और गायब हो गयीं

मैं जुगनुओं से पूछता रहा उनका पता

कभी नहीं मिलीं दुबारा

उनका विरह ही पालता रहा

अपने सीने में

 विरह में छुपा हुआ था

प्रेमसुख का एक कतरा

जो लौटाता रहा बार-बार जीवन में

 मैं लौटता रहा

प्रेम की तरफ़ बार-बार

बार-बार छलता रहा मुझे प्रेम।

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टिप्पणियाँ:-
 
संजना तिवारी:-
बहुत अच्छी कवितायेँ है । कवि ने प्राकृतिक उपमाओं का संवेदनशील उपयोग करने में सफल हुआ है । बेहद प्रेममय कविताये।
दूसरी कविता हमारी सुबह थोड़ा जल्दबाजी में खत्म हुई अंत में और कविता तुम्हारी तलाश में " हीरे सा नहीं हीरे सी होना चाहिए ।
ये मेरे विचार है ।
कवि को शुभकामनाओं के साथ बधाई
मनीषा जैन :-: आज समूह के साथी प्रदीप मिश्र जी की कवितायेँ साझा की गई थीं। बेहद खूबसूरत बिम्बों और भावों से सजी ये प्रेम कवितायेँ प्रेम को एक अलौकिक धरातल पर ले जाती हैं। जहाँ समस्त ब्रम्हांड प्रेम का साक्षी है प्रेम मय है। प्राप्त प्रतिक्रियाओं में भी इसे महसूस किया जा सकता है।

मणि मोहन:-
प्रदीप भाई वाह!प्रेम की अलौकिक गहन अनुभूतियों की कविताएँ़कितनी सहज और सरल।खोजना पडेगा किस गहन समंदर का मंथन किया है आपने़़स्नेहमयी बधाईयाँ

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
प्रेम पर इतनी सुंदर और अलग स्वाद की कविताएं पढ़ कर बड़ा आनंद आया।
कवि को बधाई।
प्रस्तुतकर्ता को साधुवाद
डॉ राजेन्द्र श्रीवास्तव,  पुणे

ब्रजेश कानूनगो:-
प्रेमिका को संबोधित ये कवितायेँ भाव भीगीं हैं।प्रभावित करती हैं।थोड़ी सी संपादित हो जाएं तो और बेहतर होना सम्भव है।बधाई।

नयना (आरती) :-
आम बोलचाल की भाषा मे कही गई बात की मैं हिमायती हूँ.ये कविताएँ उन पर खरी उतरती है.
॥तुम्हारी तलाश॥ ने खास प्रभावित किया सिर्फ़ एक वाक्य मे "जिसमें तुम चमक रही थी हीरे सा"
की जगह "जिसमें तुम चमक रही थी हीरे सी" होना चाहिये था.(शायद टंकण की गलती हैं)
॥ मुलाकात की उम्र॥ दिल के करीब सी लगी.
॥ उड़ान पर है प्रेम ॥ भावो ने बडा प्रभावित किया.
॥ तुम्हारी तलाश ॥,॥ छलता रहा मुझे प्रेम ॥ अच्छी हैं
कुल मिलाकर यही कहूँगी लेखक/लेखिका लिखना जारी रखे
बधाई।
आश्चर्य की बात ये है की आज समूह चुप्पी क्यों बांधे हुए है.
लगता है अंलकृत शब्द और तोड-मरोड कर बंधे साचे मे की गई बात ज्यादा अच्छी लगती  सबको
जागिये सदस्यो लेखक/लेखिका का उत्साह बढाइये कुछ  सुझाव दीजिये,कुछ आलोचना किजीये

किसलय पांचोली:-
तुम्हारी तलाश में' कविता अच्छी लगी। सच है कि प्रेम दुःख को पी जाता है।
कवि/ कवियित्री ने  प्रेम को नापने  के लिये / उसकी संगति बिठाने के लिए नई उपमाओं को रचा है।....मैंने कह दिया है सूरज से/...सारे आकाशीय पिंडो पर जल आया हूँ तुम्हारे नाम के दीपक...

रूपा सिंह :-
अच्छी और सच्ची कवितायेँ।भावुकता अच्छी बात  है पर दर्द बड़ा देती हैं।विस्तार देने की कोशिश में भी यहाँ दुख उमड़उमड़ आ रहा जो अच्छा लगते हुए भी अच्छा नहीं है।लेकिन ऐसे ही आदमी भी पकता है और कवितायेँ भी।शुभकामनायें।

मिनाक्षी स्वामी:-
"अपनी आत्मा की सुरंग में गिर गया
जहां खुद के जलने से रोशनी हो रही थी"
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति।
भावनाओं से भरपूर छलकती, ताजगी भरी ये कविताएं अपना प्रभाव छोडने में समर्थ हैं।

कविता वर्मा:-
आज समूह के साथी प्रदीप मिश्र जी की कवितायेँ साझा की गई थीं। बेहद खूबसूरत बिम्बों और भावों से सजी ये प्रेम कवितायेँ प्रेम को एक अलौकिक धरातल पर ले जाती हैं। जहाँ समस्त ब्रम्हांड प्रेम का साक्षी है प्रेम मय है। प्राप्त प्रतिक्रियाओं में भी इसे महसूस किया जा सकता है।

आभा :-
वाह प्रदीप जी। आनंद आ गया। बड़ी बेचैन सी लगी कवितायें, जहाँ प्रेम को पाने के लिए और उसके बाद की भी छटपटाहट मुझे महसूस हुई।

प्रज्ञा :-
मुलाक़ात की उम्र और हमारी सुबह कविताएँ मन को अधिक भाईं। शेष प्रेम कविताएँ भी अच्छी लगीं। प्रेम के कई भाव हैं। प्रदीप जी को बधाई। लगातार कई कविताएँ समूह में पढ़ रहे हैं उनकी।
आज का संस्मरण बेहद मार्मिक। दो समकालीन लेखकों के अपनत्व के साथ निर्मम त्रासदी विडम्बनाएं सभी कुछ। पर सवाल यही है कि प्रेमचन्द इस उपेक्षित अंत को डिसर्व नही करते थे। सही कहा गरिमा जी। मुक्तिबोध के लिये भी अशोक जी के प्रयास काम आये थे। कितने साहित्यकार कलाकार रंगकर्मी अभिनेता समाज को सम्पन्न करके भी विपन्न और चरम उपेक्षा में दम तोड़ देते हैं।
जितना वास्तविक प्रसंग उतना ही मर्मस्पर्शी।

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