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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

05 जून, 2015

सुधीर मौर्य की कहानी "खूबसूरत लड़की उर्फ़ बदसूरत अंजलि"

बहुत ख़ूबसूत थी वो लड़कपन में

लड़कपन में तो सभी खूबसूरत होते है। क्या लड़के , क्या लड़कियां। पर वो कुछ ज्यादा ही खूबसूरत थी। वो लड़की जो थी।

लड़कियां हर हाल में लड़कों से ज्यादा खूबसूरत होती है। ये मैंने सुना था। लोगों से, कई लोगों से। कुछ माना, कुछ नहीं माना। फिर लड़कियों की लड़कों से ज्यादा खूबसूरत होने की बात कहानियों में पढ़ी। उपन्यासों में भी। बस मैंने ये ये बात मान ली कि लडकियां हम लड़कों से कहीं ज्यादा सुन्दर होती है। आखिर क्यों न मानता वो सारी कहानियां और सारे उपन्यास साहित्यकारों ने लिखे थे। साहित्यकार तो समाज के दर्पण होते है। जो होता है वही दिखाते हैं। फिर लड़कियां, लड़कों से ज्यादा खूबसूरत होती है ये बात मैं न मानूं इसकी कोई वजह न रही।

वो लड़की थी। खूबसूरत लड़की। मेरी हमउम्र या मुझसे साल - छै महीने छोटी। जब लोग बोलते देखो कितनी सुन्दर बच्ची है मैं सुनता और फिर उसे देखता, उसकी सुंदरता देखता। पर मुझे निराशा हाथ लगती। वो मुझे सुन्दर नज़र नहीं आती।
मैं भी लड़कपन में था। खेलते - खिलाते मैं अक्सर उसके घर पहुँच जाता। कभी - कभी उसके साथ उसके खेल में भागीदार हो जाता। वो हर खेल में जितना चाहती। किसी भी तरीके से।

उस दिन वो खेल , खेल रही थी। गुड्डे - गुड़ियों। उनकी शादी - ब्याह का। अचानक वो भाग कर अपनी मुम्मी के पास गई और फ्राक लहराकर बोली 'मुम्मी - मुम्मी ये पति क्या होता है ?'

'जो अच्छी लड़कियां होती है उन्हें बड़े होकर एक पति मिलता है।' उसकी मुम्मी ने उसे समझाया था।

'और जो बुरी लड़कियां होती है ?' लड़कपन की उस सुन्दर लड़की ने अपनी मुम्मी के सामने जिज्ञासा रखी।

--माँ न जाने किस ख्याल में थी। शायद किसी बात पर गुस्सा भी। लड़कपन की उस सुन्दर लड़की पे या किसी ओर पे। तनिक गुस्से से बोली 'जो बुरी लड़कियां होती है उन्हें तो कई मिलते है। '

लड़की ने सुना। न जाने क्या समझा ? और भाग कर वापस रचाने लगी गुड्डे - गुड़ियों का ब्याह।

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लड़की अचानक मुझे सुन्दर लगने लगी।

पता नहीं मैं समझदार हो गया था और मुझे सुंदरता की पहचान करने की अक़्ल आ गई थी। या फिर वो लड़की थी ही सुन्दर। अब उस लड़की के घर के आस - पास लड़के मंडराने लगे थे। जो अपनी बातों में उसे बेहद सुन्दर बताते थे। मैं सुनता और खुद की कमअक्ली के लिए खुद को कोसता की कि मैंने एक सुन्दर लड़की को सुन्दर नहीं समझा।

लड़की अब लड़कपन को जीतकर टीन एज बन चुकी थी। अब वो फ्राक कभी - कभार ही पहनती। शर्ट और स्कर्ट उसके पसंदीदा लिबास थे। इस लिबास में वो जिस गली से गुज़रती उस गली के लड़कों को न जाने कितने दिन और कितनी रात बातें करने का मसाला मिल जाता। लड़की की तिरछी नज़र और होठों पे लरज़ती हंसी उन लड़कों की बातों के मसाले में इज़ाफ़ा करती रहती रहती।

कंधे पे स्कूल बेग टाँगे वो बतख चाल से गाँव से वो निकल कर पास के कसबे के स्कूल में पढने जाने लगी थी। फूल पे भंवरे मंडराते हैं और कली भंवरों की नींद उडा देती है। अब कली खुद अपनी खुशबू पर इतरा रही थी और अपने ख्वाबों - ख्यालों में उसे तलाशती जो उसकी खुश्बू को महके और उसकी खुश्बू में सराबोर हो कर उसे भी सराबोर कर दे।

उस महकती कली की खुशबू को सबसे पहले महका था हमारे ही गांव के एक भंवरे ने। नाम प्रशांत। लड़की और लड़के मिले। बातें हुई। हाथ पकडे। कलाईयाँ थामी। चुम्बन लिए। गले मिले। पति - पत्नी बनने के कस्मे - वादे हुए। अब जब पति - पत्नी बनने की सोच ली तो फिर पति - पत्नी की तरह हक़ मांगे गए। ऊपरी मन से लड़की ने न - नुकुर की। फिर लजाते - शरमाते मान गई। कैसे न मानती उसकी बात जिसे पति बनाने का वादा किया हो। लड़की की रज़ामंदी उसकी न - नुकुर में रहती ही है ये बात शायद लड़का जनता था। कपडे उतरे। लड़की पे लड़के का रंग पड़ा और लड़की चटख कर कली से अधखिला फूल बन गई।

अधखिला फूल बनते ही उस लड़की की चाल मोरनी सी हो गई। और अधखिले फूल पे मंडराने वाले भंवरों की संख्यां भी बढ़ गई। उन्हीं में से एक भंवरे ने पहले भंवरे से मार पीट कर दी। मारपीट के वक़्त वो भंवरा कह रहा था कि अधखिले फूल ने खुद उसे निमंत्रण दिया था अपना रस पीने के लिए।

पहला भंवरा जब तक दूसरे भंवरे की बात समझ पाता अधखिला फूल गांव से चला गया अपनी बुआ के पास गोरखपुर। लोगों ने कहा लड़की पढ़ाई के लिए गई है। मैंने लोगों की बात मान ली ठीक उस तरह जैसे लड़की के सुन्दर होने की बात मान ली थी।
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लड़की को लोग ओर ज्यादा खूबसूरत कहने लगे थे। यकीनन वो सच कहते होगें। उनके पास झूठ बोलने की वजह भी कहाँ थी।

पर लड़की जानती थी वो अभी पूरी तरह खूबसूरत कहाँ। अभी तो उसकी खूबसूरती का चरम आना शेष है कहीं अधखिला फूल भी पूर्णतया सुन्दर होता है ? पूर्णतया सुन्दर होने के लिए फूल का पूर्णतया खिलना जरुरी जो है।

कमल की मोटरसाइकिल पर कमल की पीठ पर जब वो अपने वक्ष दबा कर बैठती तो उसे लगता कि अब की बसंत उसे पूरी तरह खिला कर ही मानेगा। बसंत में फूलों का खिलना तय है। सो इस अधखिले फूल की भी बारी आई।

फूल खिल चुका था। अब अगर फूल खिला है तो उसकी महक का भी बिखरना लाज़मी है। महक भी बिखरी। अब महक बिखरेगी तो शहद पीने वाले भी आएंगे। सो वो आये। फूल गुलज़ार होने लगा। महकने लगा। और खूबसूरत हो गया । ये शहद के पीने की ललक लिए लोगों ने कहा मैंने मान लिया। मेरा मानना लाज़िमी भी था।

लड़की जानती थी। उसने जानना, समझना तो तभी जान लिया था जब गुड्डे - गुड़ियों का ब्याह रचाती थी। कि केवल सुन्दर होना पर्याप्त नहीं है। सुंदरता तब तक अधूरी है जब तक उसके साथ उच्च शिक्षा का प्रमाण पत्र सगलंग्न न हो।

उच्च शिक्षा के लिए पैसा जरुरी है। और पैसा पाने के लिए उसके पास उसका गठीला - गुदाज़ जिस्म और मोहक मुस्कान उसके साथ थी। लड़की ने कोशिश की। और कहते हैं भगवान भी कोशिश करने वालो का साथ देते हैं। सो भगवान ने उसका साथ दिया।

एक बड़ी कंपनी का बड़ा इंजीनियर था वो। चटखते फूल की किस्मत यूँ बुलंद थी कि उस इंजीनियर ने उसी केम्पस में ठिकाना किया जहाँ वो तथाकथित वो खूबसूरत लड़की रहती थी।

लड़की ने जांचा - परखा और उस धीरज नाम के इंजीनियर पे अपना पैंतरा चला दिया। धीरज जवान था। उसके पास पैसा था। अच्छी नौकरी थी। बस कमी थी तो एक अदद सुन्दर प्रेमिका की। लड़की और लड़के के नैन मिले। होठं मिले। और फिर गोरखपुर के होटल में जिस्म मिले। लड़का खूबसूरत प्रेयसी पाके निहाल हो गया। और लड़की पैसे वाला प्रेमी पाके मचल उठी।

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कहते हैं, लड़की जब मचलती है तो मनचलों के मन भी मचलने लगते हैं।

उस लड़की के साथ भी ऐसा हुआ। लड़की ठहरी खिलता फूल वो भी महक से तरबतर। उसे अपनी महक लुटाने में कोई कमी नज़र नहीं आई। जितना लुटाती वो उतना ही महक उठती।

मनचलों में एक था 'सौम्या के सर'। सौम्या उसके कज़िन की लड़की थी जिसे ट्यूशन पढ़ाने 'सौम्या के सर' आते थे। दूसरा मनचला था एक कालेज का प्रौढ़ प्रिनिसिपल। आखिर लड़की किसी अनुभवी के साथ का अनुभव भी बटोर लेना चाहती थी।

और भी मनचलों के मन लड़की की बतख चाल पे लट्टू हुए होंगे। नाचे होंगे। पर हमारे ज्ञान के दायरे से वो परे की चीज़ रहे।

लड़की जब कमल से मिलती तो धीरज से बहाने बाजी। और जब धीरज से मिलती तो कमल से बहाने बाजी। कहते हैं लड़कियों के पास आंसू नाम के वो हथियार हैं जिससे वो संसार के सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति को भी हरा सकती हैं। लड़की ने अपनी ताक़त को पहचाना और विजय पे विजय हासिल करती रही।

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कहते हैं, वक़्त राज खोल देता है।

धीरज ने कहा वो कमल से न मिले। लड़की ने न नुकुर के बाद मान लिया। आखिर उसे उच्चशिक्षा के लिए मार्ग पे जो चलना था। लड़की ने धीरज से कहा उसका एडमिशन M.B.A. में करा दो दिल्ली में। मैं खुद - ब - खुद कमल से दूर हो हो जाउंगी।

धीरज प्यार करता था लड़की से। फिर क्योंकर न मानता वो अपनी प्रेयसी की बात। लड़की दिल्ली पहुँच गई। बड़ा शहर। बड़ा कालेज। लड़की के पंख लग गए। वो आसमान में उड़ चली।

धीरज मुंबई चला गया। कंपनी ने तबादला कर दिया। वैसे भी वो गोरखपुर में अब क्या करता। उसकी प्रेयसी तो अब दिल्ली में थी उच्च शिक्षा के लिए। धीरज अपनी प्रेयसी की पढ़ाई डिस्टर्ब नहीं करना चाहता था सो वो दिल्ली कभी - कभी ही गया। हाँ फोन पर वो अपनी प्रेयसी से जरूर रोज बात करता। धीरज बिना किसी व्यवधान के लड़की के लिए पैसा भेजता। लड़की की जरुरत से कहीं ज्यादा। वो लड़की से प्यार जो करता था। सच्चा प्यार ।

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लड़की M.B.A. कर चुकी थी। जॉब भी लगी थी।

अब शायद उसे धीरज की जरुरत नहीं थी। उसे जय नाम का मनचला मिल चूका था। अच्छा - खासा जॉब। बड़ा घर। लड़की उस से मिली और उसपे अपनी महक लुटा दी । जय उसका दीवाना बन गया । बात शादी तक पहुंची । लड़की फट से राज़ी हो गई। आखिर उसे बचपन में अपनी माँ की कही वो बात - 'तूँ बड़ी होकर जो अच्छी लड़की बनोगी तो तुम्हें भी एक पति मिलेगा' - सच जो करनी थी।

पर एक दिन जय ने लड़की के मोबाईल में धीरज का मेसेज देख लिया। प्यार के शब्दों का मेसेज। लड़की तो अब उच्च शिक्षित थी। आंसू के हथियार तो साथ थे ही। दोनों का इस्तेमाल किया। और उसने जय के सामने धीरज का वो खाका खींचा कि जय का प्यार उस लड़की पे और गाढ़ा हो गया।

लड़की ने धीरज का जो खाका खींचा वो कुछ यूँ था -- धीरज उसे तंग करता है। फोन करके परेशान करता है। उसकी ज़िन्दगी नरक बना चूका है। से गाली देता है। और उसे मरता - पीटता है।

जय ने लड़की लड़की से कहा - 'ठीक है यही एक बार मेरे सामने धीरज से कहो। उसे ज़लील करो।' लड़की ने सोचा उसे अब धीरज की जरुरत तो नहीं। सो वो जय की बात मान गई।

लड़की ने धीरज को जी भर जय के सामने ज़लील किया। धीरज चुचाप सुनता रहा। और वहां से चला गया। बिना कुछ कहे। वो लड़की से प्यार जो करता था। सच्चा प्यार।

धीरज को लड़की के मम्मी और भाई भी जानते थे। धीरज ने उन्हें अपना माना था। उनकी मदद की थी। लड़की के भाई को पढ़ाया था। B.C.A.करवाया था।

लड़की की मम्मी ने खुश होकर धीरज को फोन किया। लड़की की शादी की बात बताई। और दहेज़ के लिए उसकी सहयता मांगी। धीरज तयार हो गया। वो लड़की से प्यार जो करता था। सच्चा प्यार।

धीरज ने एक बड़ी रक़म लड़की की मम्मी के एकाउंट में डाल दी। लड़की की शादी के दहेज़ के लिए। वो उसे प्यार जो करता था।

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लड़की की इंगेजमेंट हो चुकी थी। शादी की डेट भी फिक्स हो गई। लड़की ने धीरज को इन्फॉर्म नहीं किया। जरुरत ही नहीं थी उसे।

शादी के दो दिन पहले लड़की और उसके करीबी सफर पे निकले। शादी का सफर। बोकारो का रास्ता। जय का शहर जो यही था।

मैं भी सफर में था। मैं लड़की का करीबी जो था। उसके लड़कपन का दोस्त। लड़की ने मुझे देखा। और मुस्करा कर बोली - 'देखो मेरे पास सब कुछ है। एक पति भी मिलने जा रहा है। मैं अच्छी लड़की जो हूँ। और खूबसूरत भी।'

मैंने देखा तो लड़की मुझे खूबसूरत लगी। मैंने उसकी बात मान जो ली थी।

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लड़की की शादी हो गई।

मुझे अचानक एक लेखक मिल गया। मैंने उसे लड़की की कहानी सुनाई। लेखक ने एक कहानी लिखी। शीर्षक था - 'खूबसूरत अंजलि उर्फ़ बदसूरत लड़की।'

मैं मान गया लड़की खूबसूरत नहीं थी। ये एक साहित्यकार ने जो कहा था।

लड़की का नाम अंजलि था।

000 सुधीर मौर्य
प्रस्तुति:- सत्यनारायण पटेल
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टिप्पणियाँ:-

आशीष मेहता:-
लड़की को बदसूरत बताने वाले 'मिले साहित्यकार ' मन्टो से रीस खाया कमबख्त है या कोई और, पता नहीं। लेखक ने माँ के गुस्से में ही कहानी खोल दी। इस खुले पिटारे की स्तरीयता का ज्ञान शायद मुझे शाम तक मिल जाएगा। इतने साहित्यकार अगर, कुछ कहेंगे, तो मैं भी तो मानूंगा।
कहानी तो खैर जिस भी वजह से लिखी गई, पोस्ट क्यों की गई ? मन में सवाल बना हुआ है। उम्मीद है, एडमिन/कहानीकार साझा करेंगे शाम तक ।
अलकनंदा साने:-: कहानी कमजोर तो है ही ...आखिर क्या संदेश देना चाहती है , यह भी समझ नहीं आया ...इस तरह की कहानियां समाज में उच्छृंखलता को ही बढ़ावा देगी ...

मनीषा जैन:-
अलकनंदा जी की बात से सहमत। कुछ उद्देश्य नही है कहानी का।

राजेश्वर वशिष्ट:-
यहाँ लगाए जाने के लायक कहानी तो नहीं थी एडमिन साहब। भाषा तक अधकचरा और खराब है। बी ग्रेड पत्रिकाओं में छपने वाली रचना लगी। आप पर क्या जादू चला आप जानें।

सत्यनारायण:-
मित्रो आज की कहानी सुधीर मोर्य की है...सुधीर मोर्य समूह के साथी नहीं है...लेकिन उनकी कहानी चुनाव समूह की साथी कविता वर्मा जी
ने ही किया था....कहानी मुझे भी कमज़ोर लगी....मैं आपकी बात सहमत हूँ.....
उन्हें कहानी पसंद आयी...दूसरे समूह और भी कई मित्रो को पसंद
आयी....चलिए अगली बार कोई बेहतर रचना का प्रयास रहेगा...
आप सभी का शुक्रिया....

प्रज्ञा :-
ये कहानी बहुत सामान्य सी ही लगी। जल्दी जल्दी बदलते प्रेमी । इसमें वो खूबसूरती उभर नही पाई अंजली की जो उभरनी थी। दूसरे कई और बातों के साथ जब बत्तख सी चाल मोरनी में बदल गयी थी तो वापिस बत्तख सी कैसे हुई।

गरिमा श्रीवास्तव:
पितृसत्ताक भाषा और पुरुष दृष्टि से स्त्री को देखने का नजरिया।जैसे भाषा में अपना पूरा pervertion उड़ेल दिया हो।अच्छी कहानी है।ऐसी कहानियां  सामने आनी चाहियें ताकि हम समाज और विशेषकर स्त्री को देखने के आम नज़रिये से लगातार परिचित होते रहें।कही गलती से भी यह न सोच बैठें कि पितृसत्तात्मक भाषा और लैंगिक विभेद -पुरानी बातें हो चुकी हैं।बधाई।!!!

प्रज्ञा :-
खूबसूरती के शब्द से शुरू हुई कहानी और बार बार खूबसूरती के आये उपमान। बदसूरत तो पितृसत्ता की नज़र में न। एक पक्ष खुला रखना चाहिए था उस खूबसूरती को लाने का। कहानी एक ही दिशा में जो उठी कि उसीमे बढ़ती गयी। अंजलि का खूबसूरत पक्ष कहानी को और सशक्त करता।

गरिमा श्रीवास्तव:-
प्रज्ञा जी बत्तख और मोरनी दोनों के पैर कुरूप होते हैं।स्त्री की तुलना हर प्रकार के पशु पक्षी से की जाये।जिसका रहस्य पृथ्वी पर कोई जान नहीं पाया,उसका रहस्य गोरखपुर के होटल में खुला।लड़की न हुई कोई चीज़ हुई,जैसे वह धोखा देने के लिए पैदा हुई हो और बेचारा पुरुष....सब जान बूझकर भी रूपए दिए चला जाया है।सारे समाजशास्त्री गए भाड़ में..यहाँ साहित्यकार को समाज का दर्पण बता दिया गया है।राजेन्द्र यादव होते तो इस कहानी को 'हंस' में ज़रूर छापते। शालिनी माथुर का एक लेख है मर्दों के खेला में औरत का नाच...काश उसमे लिखी बातें सच न होती।

वही तो।ऐसी स्त्री है यह जिसमे संवेदना नाम मात्र को नहीं।लोग बदलती चलती है।सिर्फ अपना फ़ायदा देखती है।लगता है निजी अनुभव प्रसूत कहानी है।एम् बी ए में प्रवेश यूँ ही हो जाता है।उफ़ स्त्री के जीवन में क्या सहजता है...कोई संघर्ष नहीं बस शरीर को पण्य के रूप में प्रयोग की कला और सारे पुरुष जां न्यौछावर करने को तैयार।क्या बात है।।।।

गरिमा श्रीवास्तव:-
प्रज्ञा जी हम पाठकीय रुचि की बात कर रहे थे।पितृसत्ता हमें कैसा मानसिक अनुकूलन देती है कि हम लेखन की राजनीति समझ ही नही पाते।स्त्री शरीर का रूचि पूर्ण चित्रण कहीं न कहीं रीतिकाल का एकाध पद याद दिला ही देता है।

सत्यनारायण:-
कोई कहानी किसी स्त्री की ख़राब प्रवृतियों को उभारने वाली...उन्हें पाठकों के सामने लाने वाली हो सकती है...दुनिया की हर स्त्री भली ही हो यह भी कतई ज़रूरी नहीं है...स्त्री चरित्र भी ख़राब हो सकते हैं....
लेकिन जब हम ख़राब या आदर्श चरित्र की कहानी कहते हैं...तो कही-सुनायी हर बात तार्किक होनी चाहिए...यदि हम तार्किक रूप से रचना का निर्वहन सही नहीं कर पाते हैं...तो फिर वह रचना कई तरह से कमज़ोर नज़र आती है.....

मैं इस बात से इंकार नहीं कर रहा हूँ कि अंजलि ऐसी नहीं हो सकती...हो सकती है...अंजलि से बुरे चरित्र भी
समाज में मौजूद हैं....लेकिन तर्क की कसौटी पर....रचनात्मक कौशल की दृष्टि से....कहानीकार बेहतर निर्वहन नहीं कर सके हैं.....संवेदनात्मक रूप से भी कहानी कमज़ोर है....जबकि कहानी में अंजलि के पहले प्रेमी का चरित्र के प्रति बेहद संवेदनात्मकता को उभारी जा सकती थी....

और भी कई पहलू है....लेकिन कहानी छोटी है...सहज ही पढ़ी जा सकती है....बात तो हो ही रही है...

हर पाठक की अपनी राय भी होती है..

अशोक जैन:-
एक लड़के के द्वारा आत्मकथानकात्मक रुप में एक लड़की की कहानी !!!! अजीब सी लगी। लड़की की अंतरंग बातें, किसे मालूम? क्षमा करें बुनियाद कमजोर।  

महत्वाकांक्षी लड़की की कहानी पर सभी जगह समझौता।

लड़की की कहानी है पर शायद कोई संदेश या शिक्षा समझ नहीं आई।

गरिमा श्रीवास्तव:-
बेचारे लेखक कितनी बातें अवचेतन में कुलबुलाती रहती होंगी।वस्त्र हरण से लेकर शय्या शयन तक उफ़ अपरूप कल्पनायें।विद्यापति याद आ गए।सिर्फ चन्दन से चित्रांकित करना बाकी रहा।चलिये अगली रचना के लिए पृष्टभूमि तैयार हो गयी।

अशोक जैन:-
कहानी पुन: पढ़ी । कहानी के जन्म के पहले रचनाकार के मन में कुछ न कुछ पृष्ठभूमि या विचार रहते हैं। वह पृष्ठभूमि या विचार जानने की अभिलाषा है।

कविता वर्मा:-
आज की कहानी सुधीर मोर्य जी की थी । वे हमारे समूह के सदस्य नहीं है । कहानी पर आपके विचारों का स्वागत है ।

अर्जन राठौर:-
गरिमा जी को बधाई माया anjelo के संधर्ष भरे जीवन की गाथा बताने के लिए

फ़रहत अली खान:-
आज की कहानी पर बड़ी रोचक बहस हुई, तक़रीबन सौ टिप्पणियाँ आयीं।
आज जब मैंने ये कहानी पढ़ी तो फिर से मुझे मंटो की कहानियाँ याद आ गयीं। हालाँकि मंटो की कहानियों से इस कहानी की तुलना नहीं की जा सकती।
शुरू में और बीच बीच में कई जगह व्याकरण की ग़लतियाँ नज़र आयीं; इसके अलावा बहुत सी सैद्धांतिक कमियाँ दिखाई दीं।
साहित्यकार ख़ुद समाज के दर्पण नहीं होते हैं, बल्कि वो तो साहित्य रुपी दर्पण दिखाते हैं।
लड़कपन और बचपन में फ़र्क़ होता है, लेकिन लेखक ने शुरूआत ही लड़कपन से कर दी।
धीरज अगर वाक़ई अच्छा लड़का था तो उसने उस लड़की के साथ इतना बड़ा अनैतिक काम क्यूँ किया?
लड़की जब सारे उल्टे-सीधे काम कर रही थी तो उसके घरवाले क्या कर रहे थे? लड़की के पिता शायद हयात नहीं थे लेकिन माँ और छोटा भाई तो थे।
यहाँ तक कि लड़की ने एक पराये लड़के के पैसों से एम बी ए की डिग्री भी हासिल कर ली और माँ पर कोई चिंता ही नहीं।
छोटे छोटे वाक्य कहीं कहानी को मज़बूती देते हैं तो कहीं कमज़ोरी बन जाते हैं। कई जगह पर लेखक ने प्रभावित भी किया लेकिन लयात्मकता होने के बा-वजूद कहानी कुछ कमज़ोर लगी।
हालाँकि कहानी पूरी तरह अव्यवहारिक भी नहीं है।
आजकल लड़के-लड़कियाँ बहुत आसानी से ग़लत राह पर चले जाते हैं। इसके लिए मैं पूरा दोष माँ-बाप और बड़े भाई-बहन को दूंगा; ख़ुद अच्छे काम करें ताकि आपको देखकर आपके छोटे भी सही राह पर चलें और बच्चों को शुरू से नैतिक शिक्षा दें।

निधि जैन :-
इसी रौ में कहूँगी कि माँ बाप सयानी होती लड़कियों को रिश्तेदारों के घर भेज देते हैं फिर फुफेरे ममेरे भाई जीजा बहन के देवर इत्यादि

फ़रहत अली खान:-
सभी को शक की निगाह से देखना ठीक नहीं है। अगर माँ-बाप सलीक़ेमंद हैं तो बच्चे भी अमूमन सलीक़े के ही होते हैं। फिर बच्चा चाहें जहाँ रहे, वो अपने घर का माहौल नहीं भूलता।

बेशक कुछ हद तक नियम-पाबंदियाँ लगाना भी माता-पिता की अहम ज़िम्मेदारियों में से एक है। जी। सही बात है। इसीलिए तो माँ-बाप का किरदार बहुत अहम होता है, फिर चाहे वो कहानी हो या हक़ीक़त।

डॉ शशांक शुक्ल:-
तयबद्ध फार्मूले की कहानी ।सस्ती कहानी का एहसास दिलाती ।प्रश्न अच्छे-बुरे चरित्र का नहीं होता ।परिस्थितियों के बीच कहानी के चरित्र बनते -बिगड़ते हैं ।कहानी में घटनाएं तय हैं ...चरित्र तय हैं...निष्कर्ष तय हैं ।ज़ाहिर है इस प्रकार कहानी नहीं बनती ।इस प्रकार किस्से बनते हैं ।

मुकेश कुमार:-
कहानी ने एक कटु यथार्थ उकेरा है. इस दुनिया में ऐसे भी स्त्री चरित्र है, हमें यह मानना ही होगा. कहानी अच्छी है. खराब नहीं. हम स्त्री के दुश्चरित्र को पचा नहीं पाते हैं. कहीं यह मान बैठे हैं की पतित और दुश्चरित्र तो सिर्फ पुरुष ही होता है. जिन दोस्तों ने यह कहानी खराब बताई है, यदि कहानी में लड़का पतित होता तो वह खराब नहीं बतलाते. हमे 'आधी दुनिया' का सम्पूर्ण सच, उनका छल-छद्म, डाह-ईर्ष्या, लंपटता भी खुली आँखों से देखनी ही होगी. कहानी बेहद अच्छी है, यथार्थपरक है, ऐसी स्त्रियां होती है, और पुरुष के सच्चे प्रेम की धता बताकर प्रेम की पींगें आये दिन बदलती हैं. रचनाकार को बधाई! कहानी के अंतिम पैराग्राफ में कहानी का मर्म/कथ्य निहित है.

डॉ शशांक शुक्ल:-
प्रश्न पुरुष और स्त्री का नहीं है और न अच्छे और बुरे का ।प्रश्न यह है कि कहानीकार ने यथार्थ को उथला कर दिया है ।यथार्थ सीधी रेखा में नहीं चलता ।कथानक कमजोर है ।घटनाएं और चरित्र बद्ध ढंग से विकसित कर दिए गए हैं ।बुरे से बुरे चरित्र पर भी बेहतरीन कहानी लिखी जा सकती है ।चरित्र परिस्थिति से टकरा कर ही सच्चे और प्रमाणिक होते हैं ।इसलिए स्त्री या पुरुष के रूप में देखना हमें कहाँ तक ले जा सकता है ? इस ओर से सतर्क रहने की आवश्यकता है ।कोई व्यक्ति बुरा किन परिस्थिति में बनता है ? कहानी इसे भी स्पष्ट नहीं कर पाती ।

तितिक्षा:-
मुकेश जी आपकी बात से सहमत हूँ दुनिया का हर पुरुष बुरा हो ये जरुरी नहीं और हर स्त्री भली हो ये भी सच नहीं ।
कुछ पुरुष ऐसे भी होते हैं जो महिलाओं के सहयोगी व् उन्हें उनका उचित स्थान दिलाने में बराबरी से उनके साथ खड़े होते हैं ।

आशा पाण्डेय:-
कहानी यथार्थ है .बहुत  अच्छी कहानी है.ऐसी लड़किया होती है.कहना गलत न होगा कि आजकल इनकी संख्या बढ़ रही है.

गौतम चटर्जी:-
कोई भी कला प्रथमतः और अंततः कला होती है इसलिए कलात्मक उपलब्धि होनी चाहिए तभी वह प्रभावशाली हो सकती है। कलात्मक उपलब्धि कला मूल्यों से होती है। कई बार अंतर्वस्तु मूल्यवान होती है लेकिन कलात्मक उपलब्धि न होने से वह असर नहीं करती वहीं कई बार वाग्मिता अच्छी होने से तथ्यहीन बात भी सही लगती है। यहाँ इस कहानी में कलात्मक उपलब्धि न होने से सही बातें भी सतही और सस्ती लग रहीं। ऐसी रचनाएँ नहीं रह जाती।

सत्यनारायण:-भरत भाई कहानी मुझे भी पसंद नहीं आयी....लेकिन जिस साथी
को कहानी चुनने की जिम्मेदारी थी
उन्होंने यह चुनी....आगे से बेहतर चुनाव की कोशिश होगी

3 टिप्‍पणियां:

  1. मेरी कहानी पर हुई इस चर्चा से मै बहुत प्रसन्न हूँ। जिन लोगो ने सुझाव दिए उनसे मैं यही कहूँगा क़ि अगली कहानी में सुधार करूँगा। सबको आभार के साथ कविता जी को बहुत धन्यवाद जो मेरी कहानी को प्रकाशित किया।

    --सुधीर मौर्य

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  2. kya me ye jan sakta hu ye kahani kis group me prkashit hui he.

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