image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

17 जून, 2015

डॉ राजेन्द्र श्रीवास्तव की कहानी "पूरी लिखी जा चुकी कविता"

॥पूरी लिखी जा चुकी कविता॥


उम्मीद अभी खत्म नहीं हुई थी।
मैंने केबिन के बाहर लगी नेम  प्लेट को फिर ध्यान से देखा।
ए. प्रियदर्शी, ब्रांच मैनेजर।
' ए ' से अंकिता भी हो सकता था।
केबिन के बाहर के काउंटर पर लेजर बुक में कुछ लिख रहे कर्मचारी के पास जाकर मैं खड़ा हो गया –
'अंदर मैडम से मिलना है' – प्रत्यक्षतः मैंने कहा। ‘मैडम’ शब्द पर मैंने अतिरिक्त जोर दिया। वस्तुतः मैं पुष्टि करना चाहता था कि अंदर कोई महिला ही है। ' ए ' से अंकिता। अरविन्द या आशुतोष नहीं।

'क्या बात है? ' प्रतिप्रश्न । बिना सिर उठाए। लापरवाही या कहें उपेक्षा का – सा भाव।

'अंकिता .... अंकिता प्रियदर्शी मैडम से मिलना है।' मैंने स्वर को सहज बनाए रखने की पुरजोर कोशिश की, पर सफलता नहीं मिली। पूरे आत्मविश्वास के साथ अंधेरे में तीर चलाना मेरे बस की बात नहीं थी।

'मैडम का नाम अंकिता है? ' वह उलटा मुझसे ही पूछ रहा था, 'प्रियदर्शी मैडम का नाम अंकिता है? ' इस बार उसने उड़ती सी नज़र मुझ पर डाली। मुझसे कुछ खास प्रभावित हुआ नहीं लगता था वो। हालांकि ऐसा होने का कोई कारण भी नहीं था।

'कोई कंप्लेन्ट है क्या आपकी? ' मुझे चुप देखकर उसने फिर पूछा। इस बार उसका स्वर शंकित था।

बैंक में अगर मैं काउंटर छोड़कर केबिन की तरफ आ गया तो इसका यह मतलब नहीं कि उनकी सेवाओं के बारे में शिकायत ही हो।

'मिलना है ' , मैं फंसे स्वर में बोला, 'दूसरा कुछ काम है। कंप्लेन्ट नहीं है .. मैं तो आपके बैंक का ग्राहक ही नहीं हूं...'

इससे ज्यादा सब्र शायद कर्मचारी में नहीं था। मेरी बात पूरी होने से पहले ही उसने इंटरकॉम पर बात शुरू कर दी थी। 'अंदर बुलाया है ' - वो मुझसे मुखातिब हुआ।
मैं चुपचाप केबिन की ओर बढ़ गया। केबिन के दरवाजे को हल्का सा धक्का देकर मैंने केबिन में प्रवेश किया।
अपने द्वारा ही गढ़ी गई परिभाषाओं के अनुसार मैं माथे पर सिंदूर लगाए, सादी सी साड़ी में किसी घरेलू किस्म की महिला की कल्पना कर रहा था, पर यहां तो माजरा ही अलग था। बॉब कट बालों में, गाढ़े नीले रंग की कसी हुई पैन्ट और वैसी ही गाढ़ी नीली धारियोंवाली सफेद कमीज या टॉप, आप जो भी कहें, पहने जो लड़की वहां मौजूद थी वह अंकिता तो हरगिज़ प्रतीत नहीं होती थी। वह कुर्सी से उठ खड़ी हुई तो मैंने उसकी सुगठित देहयष्टि पर नज़र डाली। रंग सांवला था। नैन-नक्श साधारण थे पर लड़की में एक विशिष्ट आकर्षण था और वो बहुत भली लग रह थी।

केबिन छोटा सा था। एक छोटी सी मेज और सामने दो कुर्सियां। मेज पर एक टेलीफोन। एक लैपटॉप। मोबाइल। छिटपुट सामग्री।
लड़की की चमकीली आंखों में प्रश्न था।

'मैं अंकिता से मिलने यहां आया था...'
मुझे लगा कि वह मुझे बैठने के लिए कहेगी। पर शायद वो व्यस्त थी और मुझे  खड़े-खड़े निपटाना चाहती थी।

'आप ही अंकिता हैं? ' मैंने अपने आपको दुविधाजनक स्थिति में पाया।

'बुजुर्गवार, ' अबकी वह बड़े सब्र से बोली, 'ब्रांच के बारे में या आपके अकाउंट के बारे में कोई दिक्कत है? ' आवाज मीठी थी और उसमें खनक थी।

मैं चुप रहा।

'कर्जे के बारे में कुछ बात है? लोन - वोन लेना है आपको? '

नहीं, ये अंकिता नहीं हो सकती।
मैं भी कितना बेवकूफ था ! रद्दी की दूकान पर दिखी एक फटी हुई डायरी के पृष्ठों की बिना पर मैं नागपुर से पुणे तक चला आया था। पर डायरी की सतरें मामूली नहीं थीं। यह किसी की जिन्दगी और मौत का सवाल हो सकता था।
ठीक याद है मुझे। रविवार था उस दिन। मैं रद्दी की दूकान पर था। वहीं फटी हुई डायरी मुझे नज़र आई थी। कुतुहलवश मैंने डायरी उठा ली थी।
रद्दी की दूकान पर कभी - कभार कुछ पुरानी किताबें मुझे मिल जाती हैं। रद्दी वाला समझ जाता है कि किताबें मेरे काम की हैं। कई बार किताब एक - आने या       दो – आने की होती है। वह हिचकिचाते हुए दस – बीस रुपए मांग लेता है। उसे पता नहीं कि कई बार दुर्लभ किताबें मेरे हाथ लगती हैं, जो मेरे लिए अनमोल होती हैं। वह बेचारा अपने दस – बीस रुपए में ही खुश रहता है। ये ‘विन – विन’ स्थिति होती है। दोनों हाथों में लड्डू नहीं, दोनों के हाथों में लड्डू। रद्दी वाला भी खुश। मैं भी खुश। ऐसा ही कुछ तलाशते हुए वह फटी हुई डायरी मेरे हाथ लगी थी।
डायरी चार-पांच साल पहले की थी। साल दो हजार आठ की। जैसा कि मैंने बताया आखीर के कुछ पन्ने फटे हुए थे। पुरानी डायरी थी। बीच - बीच में से भी कुछ पन्ने गायब थे। जिल्द नदारद थी। ऊपरले पृष्ठ पर नाम, पैन - कार्ड नंबर और कुछ सामान्य जानकारियां थीं। नाम अंकिता दर्ज था।

मुझे ऐसा लगा ज़रूर कि किसी की डायरी और उसकी व्यक्तिगत बातों को पढ़ना नैतिकता के खिलाफ है, किंतु डायरी किसकी है मुझे तो यह भी पता नहीं था। डायरी पर एक नज़र डालकर मुझे इसे फाड़कर फेंक ही देना था।

वैसे यह बातें अपने आपको संतुष्ट करने भर के लिए थीं। सच और सबसे बड़ा सच यही था कि किसी अनजान लड़की की पर्सनल बातों को पढ़ने की कल्पना भर ने मेरे भीतर न जाने कितनी अनछुई दुनियाओं को अनावृत्त कर दिया था।

फिर दो पृष्ठ फटे हुए थे। इसके बाद सीधे तीन जनवरी दो हजार आठ।

लिखा था-

चेतन की नाराजगी मेरी समझ में नहीं आ रही। मेरी कंपनी अगर छुट्टी नहीं दे रही, तो इसमें मेरी क्या गलती भला। चेतन के मां और पापा भी इतना नाराज क्यों हो रहे हैं, समझ नहीं आता। कहते हैं नौकरी छोड़ दो और घर पर ध्यान दो। कोई बात नहीं… चेतन का गुस्सा कुछ देर भर का है।

कुछ और पन्ने फटे थे। फिर अगले कुछ पन्नों पर कुछ नंबर और कुछ नाम लिखे थे। इसके बाद सत्ताईस जनवरी दो हजार आठ की तारीख पर घसीटी हुई अंग्रेजी में लिखा था-

व्हेन यू आर लुकिंग ऐट दि सन,
यू सी नो शैडोज़ ...
(जब आपकी दृष्टि सूर्य पर होती है, तो छायाएं नज़र नहीं आतीं)
इसके नीचे अंग्रेजी में ही अंकिता लिखा हुआ था।

कई कोरे पन्नों के बाद चौदह फरवरी की तिथि पर लिखा था –

मेरी बड़ी इच्छा थी कि चेतन के साथ अकेले कहीं घूमने जाऊं। शादी की सालगिरह। पहली। उस पर से वैलेन्टाइन - डे। प्रेम-दिवस। कितना मधुर संयोग। प्यार के इसी दिन पिछले बरस हमारी शादी हुई थी। एक साल बीत गया। लेकिन पिछले दो दिन से चेतन ऑफिस के दोस्तों के साथ बाहर गया है। कम से कम एक फोन तो कर सकता था। ग्यारह बज गए हैं रात के। अब तक तो नहीं आया फोन। मैं फोन मिलाती हूं तो 'आउट ऑफ रीच' आ रहा है। खैर। कोई बात नहीं। लौटेगा तो डबल गिफ्ट वसूल करूंगी। देना भी पड़ेगा कुछ। चिन्ता नहीं। नीले रंग की रिस्ट वाच खरीद कर पहले से रख ली है।
इसके नीचे एक बड़ा सा गुलाब स्केच पेन से बनाया गया था।


आठ मार्च।

मैंने तो मजाक में कहा था कि आज महिला दिन है और आज सब मेरी चलेगी। पता नहीं चेतन को इसमें इतना बुरा क्या लग गया। कहता है तुम्हारी तनख्वाह से घर नहीं चल रहा। बे-सिर- पैर की बात है। ऐसी बेतुकी बात की अपेक्षा नहीं थी मुझे उससे।

बीस अप्रैल दो हजार आठ।

बाबा आज ही के दिन इस आसार – संसार से विदा हुए थे। मुझे और माई को अकेला छोड़कर। बाबा की बड़ी याद आ रही है। बाबा हमेशा माई से कहते थे कि लड़की मेरी खूब लिखेगी - पढ़ेगी  और अपने पैरों पर खड़ी होगी। बाबा को मैंने किसी भी स्थिति में कमजोर पड़ते नहीं देखा। बाबा इतने मजबूत थे, लेकिन जिस दिन मैंने एमबीए किया था, तो मेरा रिज़ल्ट देखकर खुशी से खूब – खूब रोए थे। मैं हमेशा कहती थी मैं शादी नहीं करूंगी और जीवन भर माई-बाबा के साथ रहूंगी। माई – बाबा का ध्यान रखूंगी। तब तुम हंसते थे बाबा। और बाबा, तुम्हारी जिद पर ही तो मैंने शादी की थी। अब माई से मिलने के लिए जाने नहीं देता चेतन, तो बोलो क्या करूं। और चेतन को, उसके मां-पापा को मेरी नौकरी और पढ़ाई - लिखाई से इतनी शिकायत क्यों है, नहीं पता। खैर, मैं सब संभाल लूंगी।

एक जुलाई को केवल एक अंग्रेजी वाक्यांश –

हैव ए हर्ट टू एचीव एन्ड ए माइन्ड टू बिलीव।
(कुछ कर गुज़रने की इच्छा और मन में विश्वास)

बाईस जुलाई दो हजार आठ।

चेतन के मन में पता नहीं क्यों ऐसा बैठा है कि कामकाजी महिला पति और परिवार से जुड़ ही नहीं सकती। न सिर न पूंछ। नॉनसेन्स।

अगस्त की कोई तारीख थी। पन्ना थोड़ा फटा हुआ था। लिखा था –

मुझे नहीं लगता कि अपनी नौकरी या कामकाज के कारण मैंने अपने पति और परिवार पर ध्यान देने में कमी की है। हां, यह सही है कि दिन भर मैं मां – पापा की सेवा में फिजिकली नहीं लग सकती या शाम को चेतन के आने पर चाय की प्याली लेकर खड़ी नहीं रहती दरवाजे पर, क्योंकि कई बार चेतन के घर आने के बाद मैं घर पहुंचती हूं ... लेकिन घर- परिवार के प्रति मेरे समर्पण या लगाव को इन चीजों से तौला नहीं जा सकता। ना ही ऐसे किसी प्रमाणपत्र की मुझे कोई आवश्यकता है। जो वर्किंग वुमेन नहीं है, वो ऐसा करेगी ही, ये भी कहीं नहीं लिखा है।

बीस अगस्त

मामला किसी बच्चे के कठिन से प्रश्न जैसा आसान ज़रूर नज़र आता है, पर है उतना ही कठिन जितना किसी बच्चे का आसान - सा प्रश्न।

सत्ताईस अगस्त

मैंने चेतन से आज कह दिया है कि उसे नहीं पसंद, तो मैं नौकरी छोड़ देती हूं। कमाल है, मैंने तो ऐसा सोचा ही नहीं कभी कि मैं चेतन से ज्यादा कमाती हूं। फिर घमंड का सवाल ही कहां पैदा होता है। अपनी सहकर्मी प्रियंका को मैंने बताया है..कि मैं नौकरी छोड़ना चाहती हूं..  वो मेरे इन विचारों के सख्त खिलाफ है। मुझे बेवकूफ़ और दब्बू.. न जाने क्या – क्या कहती है। पर मैं जानती हूं कि मेरी किसी भी मुसीबत में प्रियंका मेरे लिए .. मेरे साथ खड़ी हो जाएगी।

दो सितंबर दो हजार आठ

ये मेरे जीवन का बहुत महत्वपूर्ण निर्णय है। मुझे चुनना है अपनी नौकरी और अपने पति में से एक को। चलो, अच्छा ही है, मैं नौकरी छोड़ देती हूं। नौकरी तो दुबारा मिल सकती है, पति कहां रोज – रोज मिलेगा। हा .. हा..।

चौदह सितंबर

चेतन ने आज हाथ उठाया है मुझ पर। पहली बार ऐसा हुआ है। आज बाबा नहीं हैं तो क्या हुआ, मैं माई के पास जा सकती हूं। मुसीबत ये है कि अब नौकरी भी नहीं रही। पर वो कोई बात नहीं। मेरी डिग्रियां अच्छी हैं और उम्र भी चौबीस ही है, नौकरी तो मुझे दूसरी भी मिल जाएगी। लेकिन माई को अभी बताना ठीक नहीं। उसे क्यों परेशान करूं। बस कमाल की बात ये है कि चेतन मुझे ही ताना दे रहा है कि चार पैसे एक्स्ट्रा आते थे, वो भी बंद हो गए, अब महरी को भी हटा दो और कास्मेटिक्स और कैल्शियम की दवा का खर्च भी बंद कर दो। वाह भई वाह। नौकरी भी मत करो और आमदनी भी जारी रहे। दोनों चाहिए चेतन को। मुझे तो रोने की बजाए हंसी आ रही है।

चौबीस अक्तूबर

आज मेरा जन्मदिन है और संयुक्त राष्ट्र दिवस भी। यूनाइटेड नेशन्स डे। ऐसे - वैसे दिन थोड़े ही पैदा हुई हूं। बड़ा दिन है, पर चेतन ने फिर हाथ उठाया है। अब चुप रहने से काम नहीं चलेगा। कुछ करना पड़ेगा। कल प्रियंका से मिलकर बात करूंगी। अच्छा, चेतन ने मारा भी सिर्फ इसलिए कि माई के पास जाना चाहती थी और माई के लिए एक साड़ी खरीदना चाहती थी। यहां मेरी बांह और पीठ पर नीले चकत्ते पड़ गए हैं और मेरी सास कह रही है कि जो पति के मन के अनुसार न ढल सकी, उसका जीवन किस काम का। अच्छा है भई, औरत के सारे दायित्व सबको पता हैं और पुरुष का तो कोई फर्ज बनता ही नहीं।


दस नवंबर दो हजार आठ

चलो इस परिवार में इतनी बड़ी खुशी भी तो मिली। माई कहती थी कि मातृत्व का सुख अलौकिक होता है। अब जाकर महसूस हुआ। मैंने आज प्रियंका से कहा कि मुझे एक टू-इन-वन ‘सीडी- डीवीडी प्लेयर’ भेज दे, ताकि चैन से लेटकर मूवीज़ - शूवीज़ देखूं... तो पागल कहती है कि तू तो खुद ही टू-इन-वन हो गई है। टू-इन-वन। एक में दो। मुझे तो बड़ी शरम आई। प्रियंका की बच्ची। डॉक्टर ने अगले साल अगस्त की तारीख बताई है। गॉड इज़ मिरर्ड इन दि मैजेस्टी ऑफ क्रिएशन।(सृजन की नव्यता-भव्यता में दिखाई देता है ईश्वर)


आठ दिसंबर को केवल अंग्रेजी में इतना लिखा था -

वन बाय वन लाइक लीव्ज़ फ्रॉम ए ट्री
आल माई फेथ्स हैव फॅरसेकन मी
(मेरी आस्थाएं एक-एक कर, पेड़ की पत्तियों की तरह मुझसे विलग होती गईं)

दस दिसंबर

अफसोस है कि इतने निचले स्तर के परिवार में मेरा रिश्ता हुआ। चेतन ने न जाने कहां से पता लगा लिया है कि मेरी कोख में लड़की है। शायद कल की सोनोग्राफी के बाद डॉक्टर ने उसे यह बात बता दी है। चेतन को लड़की नहीं चाहिए। सर तो नहीं फिर गया कहीं चेतन का। अफसोस ये भी है कि मेरी सास एक औरत होते हुए भी लड़का ही चाहती है, लड़की नहीं। मेरी समझ में नहीं आ रहा कि ऐसा कैसे संभव है? आई बिलीव .. यस, आई बिलीव बिकॉज़ इट इस इम्पॉसिबल।
(हां .. असंभव है यह, तभी तो मुझे इस पर विश्वास है)

बारह दिसंबर दो हजार आठ

चलो, मैं भी देखती हूं कि कौन क्या कर लेता है...
किस कंटीले समय से गुज़र रही हूं मैं कि अपनी बच्ची को जन्म देने के लिए मुझे पुलिस और अन्य प्राधिकारियों तक बात पहुंचानी पड़ रही है। चाकू के फ़ल जैसा लपलपाता समय है।

अच्छी बात ये है कि प्रियंका मेरी हरसंभव मदद कर रही है।

नथिंग इन लाइफ इज़ टू बी फीयर्ड
इट इज ऑनली टू बी अन्डरस्टुड ..
(बात को समझने भर की ज़रूरत है, अन्यथा कुछ भी तो नहीं इस जीवन में जिससे हम  भयभीत हों)

देखती हूं कि कौन क्या कर लेता है...
मैं तो इसे ज़रूर जन्म दूंगी। अपना ही प्रतिरूप बनाऊंगी। नाम रखूंगी इसका अपराजिता... स्थितियों से कभी हार नहीं मानना सिखाऊंगी इसे .. जैसे माई - बाबा ने मुझे सिखाया है ... कठिनाइयों से लड़ना .. संघर्ष करना ...
मेरी बच्ची .. अपराजिता..
अपराजिता.. अपराजिता... अपराजिता ...

इसके बाद डायरी के पन्ने फटे हुए थे।

तन्द्रा भंग हुई। मानो किसी समाधि से बाहर आया मैं।

पता ही न चला कि कब हम दोनों आमने – सामने बैठ चुके थे। लड़की की आंखें प्रश्नों की एक पूरी दुनिया मेरे सामने उपस्थित कर रही थीं।

' दरअसल...' मैं फंसे हुए स्वर में बोला, 'एक बड़ी पुरानी डायरी मुझे मिली है .. इसमें दी गई जानकारियों के आधार पर, बड़ी मुश्किल से पता करते हुए, मैं नागपुर से यहां तक आया हूं। अंकिता से मिलने। अगर डायरी वाली अंकिता आप ही हैं ....'

मैं सच कह रहा था। मुझे वास्तव में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा था। डायरी में दिए गए कुछ नंबरों भर से मैंने अंकिता का नागपुर का पता हासिल किया था और वहां से अपनी तलाश को बढ़ाता हुआ मैं पुणे तक पहुंचा था।

लड़की का चेहरा जर्द पड़ गया था, मानो कोई चोरी करती हुई रंगे हाथ पकड़ी गई हो।

मैंने डायरी अपने बस्ते में से निकालकर मेज पर रखी भर थी कि लड़की ने उसे झपट लिया। इसके बाद वो पन्नों के समंदर में जैसे गहरे उतरती चली गई। मैं  अपलक उसे देख रहा था। एक पूरी की पूरी दुनिया उसकी आंखों में ध्वस्त हुई और फिर निर्मित हुई। आत्मविश्वास, साहस और दृढ़ता से उपजा मिला – जुला कोई भाव उसके चेहरे पर था।

'पढ़े-लिखे मालूम होते हैं। किसी की प्राइवेट और पर्सनल बातों को पढ़ना ग़लत नहीं मानते आप…? किसी का निजी और वैयक्तिक भी कुछ होता है या नहीं..? ' लड़की की आवाज दृढ़ थी। उसकी आंखों में इतना ठंडापन था कि मैं विचलित हो गया।

अचानक वो हंसी – ' बात तो गलत है आपकी, लेकिन यह स्वाभाविक है। मैं भी आपकी जगह होती तो शायद यही करती। लेकिन मुझे हंसी आ रही है कि आप नागपुर से यहां तक चले आए, सिर्फ यह जानने के लिए कि आखिर उस डायरी वाली लड़की का हुआ क्या .. '

' मुझे लगता है कि मैं सही जगह पहुंचा हूं.. ' मैं असमंजस में था।

वो फिर हंसी।
'अरे, डायरी मेरी है। मैं ही अंकिता हूं। लेकिन इसमें लिखी बातें कपोल कल्पित हैं... मनगढ़ंत .. ये मेरी कविताओं के विचार-बिन्दु हैं। मैं लिखती हूं .. अपनी कविताओं और कहानियों के प्वाइंट्स बनाती हूं... रूप-रेखा तैयार करती हूं अपनी रचना की...'

मैं बेतरह चौंका।

वो पूर्ववत् कहती रही, ‘अखबारों और पत्रिकाओं में तो मेरी कहानियां और कविताएं छपती ही रहती हैं... दूंगी ना अपना कविता-संग्रह पढ़ने के लिए, अगर आपकी रुचि हो तो ।’

मैंने एक दीर्घ निश्वास छोड़ी। अपनी बेवकूफी पर हंसी भी नहीं आई, कोफ्त हुई बल्कि। अपनी झेंप मिटाता हुआ मैं बोला, 'मुझे भी कुछ - कुछ ऐसा ही लगा था, क्योंकि सब कुछ सिलसिलेवार चल रहा था डायरी में... ठीक है... जो है, सो है .. लेकिन फिर भी मैं जानना चाहता हूं कि डायरी में जिस लड़की का जिक्र है .. आपके कहे अनुसार जो आपकी कविता या कहानी की बस एक किरदार भर है, उसका अंजाम क्या हुआ .. हुआ क्या उस लड़की का...? '

अबकी वह खिलखिलाकर हंसी .. ' अब ये डायरी मेरी खो गई थी ... इसलिए कविता अधूरी रह गई थी। अच्छा हुआ आप इसे ले आए। अब पूरा करूंगी इसे। शुक्रिया आपका। '  पटाक्षेप का भाव था उसके स्वर में।

उसकी बात समाप्त होने से पहले ही एक व्यक्ति कुछ फाइलें लेकर केबिन में घुसा। अंकिता आदेशात्मक लहजे में बोली, ' बाकी का काम छोड़ दीजिए क्षीरसागर जी, ये साहब मेरे परिवार के सदस्य हैं, बैंक के स्पेशल गेस्ट हैं। इन्हें अपने गेस्ट हाउस में ले जाइए। स्टाफ कार और ड्राइवर भी इनके लिए भेज दीजिए ...' वो फिर मुझसे मुखातिब हुई, 'आप थके होंगे, आराम कर लें। एक – दो दिन रुकेंगे पुणे में, तो मुझे खुशी होगी। ' वह आग्रह कर रही थी और संकोच का कोई रंग भी घुला हुआ था इस आग्रह में। अपना विज़िटिंग कार्ड भी थमाया अंकिता ने।

मैं ठगा – सा महसूस कर रहा था। मैं क्षीरसागर के साथ निःशब्द बाहर निकला। केबिन का दरवाजा बंद होने से पहले बस एक क्षणांश भर के लिए मेरी और अंकिता की नज़रें टकराईं। एक विचित्र सा भाव था अंकिता की आंखों में। मुझे लगा कि वह अपनी रुलाई रोकने की पुरजोर कोशिश कर रही है। पता नहीं क्यों ऐसा लगा मुझे।

‘ पान खाएंगे साहब ... हैं?  आप भी कविता लिखते हैं क्या?  हमारी मैडम        की तरह ... हैं?’ क्षीरसागर ने मेरे हाथ से बस्ता ले लिया था । उच्चाधिकारी के निकट-संबंधी के लिए उपजा सम्मान उसके स्वर में था।

यानी अंकिता सही कह रही थी। कविताएं लिखने के बारे में उसने जो कहा था, वह सच था।

मैंने क्षीरसागर की बात सुनकर इनकार में सर हिलाया। दोनों बातों के लिए। कवि भी नहीं हूं और पान भी नहीं खाता।

'मैडम भी खूब हैं,' क्षीरसागर कार की ओर बढ़ते हुए बोला, 'पहले कहा था कि कार आज घर पर लगेगी क्योंकि उनकी बिटिया का जन्मदिन है ..और जितनी प्यारी है न, हैं जी .. उतनी ही शैतान भी है अपराजिता। अगर कार नहीं पहुंची समय पर तो हमें फोन करना शुरू कर देगी.. शैतान नहीं है... शैतान की नानी है..'

'अपराजिता !! ' मैं चौंका। किसी हथौड़े की तरह मेरे जेहन से टकराया यह नाम ! नाम मेरे लिए अपरिचित नहीं था। मेरी धड़कनें तेज हो गईं – 'इनके मिस्टर ... अंकिता के पति क्या करते हैं? ' सांस फूलने लगी थी मेरी।

'आप तो इनके परिवार से हैं और आपको पता नहीं?  हैं.. ? अरे ... मैडम का तीन साल पहले ही तलाक हो चुका है। अपनी मां और बेटी के साथ यहां रहती हैं...’ क्षीरसागर ने इतनी देर में अपनी  अधबांही शर्ट  की  जेब से पन्नी में लिपटा पान का

बीड़ा निकालकर मुंह में डाल लिया था,  ‘खैर छोड़िए, मैं पूछ रहा था कि आप भी कुछ लिखते - विखते हैं क्या? हैं जी.. ?  मैडम कह रही थीं आपसे कि कोई कविता अधूरी रह गई है...’

मैंने एक लंबी सांस ली – ' क्षीरसागर जी, मुझे सिर्फ बस स्टैन्ड पर छोड़ दीजिए। रुकना नहीं है, जिस काम से आया था, पूरा हो गया है। '

अब रुकने का कोई कारण व भी नहीं था। मुझे पता चल गया था कि कविता पूरी लिखी जा चुकी है।
000 राजेन्द्र श्रीवास्तव
----------------------------------
टिप्पणियाँ:-

संजना तिवारी:-
डायरी के रूप में लिखी गयी यह कहानी एक नए रूप में कहानी को प्रस्तुत कर रही है , इस रूप ने न केवल कहानी को दोगुना रोचक बना दिया है बल्कि पाठक को अंकिता से गहराई से जोड़ भी दिया है ।लेखक को बधाई के साथ शुभकामनाएँ

ध्वनि:-
अंकिता की कहानी एक संघर्ष मय लड़की की कहानी है जो भारतीय पुरुष प्रधान समाज में अपने अस्तित्व के लिए लड़ती है और कहानी के अंत मे विजय भी हासिल करती दिखाई गई है
मुझे संतोष है कि अंकिता अपनी मां के साथ रहती है।

मनीषा जैन :-
कहानी के आवश्यक तत्व कथ्य प्रवाह जिज्ञासा तीनों ही इस कहानी में खूबसूरती से पिरोये गये हैं हालांकि कथानक पुराना है लेकिन प्रस्तुति रोचक है ।आज के कहानीकार हैं डॉ राजेन्द्र श्रीवास्तव जी जो समूह एक में हैं ।

आशीष मेहता:-
तुलना की कोई वजह, आधार एवं ध्येय नहीं है मेरे पास, पढ़ कर 'ओ हेनरी ' की कहानी जैसा "फील" मिला। अच्छी कहानी

निरंजन श्रोत्रिय:-
कॉलेज में नेट नहीं चल पाता इसलिये सुबह ही सत्य को फोन कर बता दिया था। अद्भुत कहानी। अपने समूचे कहानीपन में। कथाकार को सलाम। कल का संस्मरण भी नम करने वाला।

डॉ शशांक शुक्ल:-
राजेन्द्र जी को बधाई देना चाहूँगा ।डायरी शिल्प के प्रयोग में कथा रस का अच्छा बुनाव किया है ।

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
आज सुबह बिजूका पर अपनी कहानी देखकर धड़कनें तेज हो गईं। समूह की प्रतिक्रिया जानना कुछ - कुछ ऐसा था मानो परीक्षा का रिजल्ट आने वाला हो। सबसे पहले बिजूका के प्रति आभार कि मेरी कहानी प्रस्तुति के योग्य और अनुकूल पाई गई।

आदरणीय डॉ शशांक शुक्ला जी, श्री भागचंद गुर्जर जी, सुश्री निरुपमा जी, श्री प्रदीप कांत जी, श्री आशु दुबे जी, श्री राहुल वर्मा जी और समूह के सभी मित्रों के प्रति मेरा आभार पहुंचे। अपने बहुमूल्य समय में एक लंबी कहानी के लिए समय निकालना और उस पर चिंतन अनुचिंतन करना रेखांकित करने वाली बात है। आप सभी के विचार मेरे लिए प्रेरक और प्रोत्साहनपूर्ण हैं। भविष्य में बेहतर लिखने की बुनियाद भी। पूरी विनम्रता से आप सभी मित्रों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूं।

निरंजन श्रोत्रिय:-
इस कहानी पर बड़ा आलेख बनता है। कहानी के स्वरुप और भविष्य को लेकर। यहाँ भविष्य शब्द का अर्थ पाठक की आगामी गृह्यता से है।

डॉ शशांक शुक्ल:-
राजेन्द्र जी आपका आभार ।
एक तो हिंदी कहानी में शिल्प को लेकर बहुत प्रयोग नहीं होता ...दूसरे कहानी कंटेंट के स्तर पर महत्वपूर्ण प्रश्नों को बहुत संवेदीकृत ढंग से उठाती है ।विचारधारा के आतंक के बिना भी अच्छी कहानी लिखी जा सकती है ।
साधुवाद ।

फ़रहत अली खान:-
'पूरी लिखी जा चुकी कविता' कहानी बहुत अच्छी लगी। ज़रूर ये किसी माहिर कहानीकार ने लिखी है। कितना मर्म है अंकिता की डायरी में; लेखक ने डायरी के ज़रिये ही सारी कहानी कह दी, बाद में तो सिर्फ़ उस पर पुख़्तगी की मोहर लगना बाक़ी रह गयी थी, सो अंत में वो भी लग गए।

वसुंधरा काशीकर:-
बहुत बेहतरीन तरीके से लिखी गयी कहानी। मुझे फ़ॉर्म और स्टाइल दोनो अच्छे लगे। आज के दौर के औरत की समस्यांए बताने वाली कहानी है। हमने व्यवस्था आधुनिक अपनायी है पर मूल्य पुराने है ये संघर्ष अकसर देखा जाता है, जो कहानी में सूचक तौर पर बहुत अच्छे तरीके से व्यक्त किया है। होल्ड करने वाली रायटिंग स्टाइल!!

अशोक जैन:-
नर और नारी दो श्रेष्ठ रचनायें और उसमें नारी श्रेष्ठतम। पर स्वभाव से नारी कोमल और सहृदय होने के कारण नर सदियों से शोषण करता आया है। जहाँ भी नारी ने स्व विवेक पर कठोर निर्णय लिया है, परिणाम अच्छे मिलें हैं।

नारी एक सर्वथा स्वतंत्र व्यक्तित्व। जो वह चाहती है, वह हम उसे करने नहीं देते। बचपन में मां बाप, फिर ससुराल पक्ष और अंत में बच्चे। क्या कभी स्वयं की जिंदगी भी जी पाती है नारी? अपवाद हैं पर बहुत ही कम।

ज्यादातर स्थानों पर मां या सास के रुप में नारी ही पुरुषात्मक रवैया अख्तियार कर लेती हैं तब स्थिति और विचित्र हो जाती है।

कल प्रेमचंद का स्मरण किया था। उनके नारी पात्रों को देखिये। नारी स्वतंत्रता का प्रबल पक्षधर । आज नारी शोषण की कथा।

लेखक ने बहुत रोचक तरीके कहानी रची है जिसमें भावों की अभिव्यक्ति को बखूबी उभारा है साथ सस्पेंस का पुट भी रखा है।

इतनी अच्छी कहानी साझा करने हेतु आभार साथ ही लेखक का धन्यवाद कि इतनी प्यारी रचना रची। आपकी और रचनायें पढ़ना चाहेंगे।

ब्रजेश कानूनगो:-
बहुत बार लिखे जा चुके विषय पर लिखी कहानी का शिल्प अनूठा है।अंत तक बांधे रखता है।जैसे पूरी कहानी में धुंध सी तैरती रहती है और यकायक सूरज निकल आता है।बधाई रचनाकार को।

किसलय पांचोली:-
पूरी लिखी जा चुकी कविता नामक कहानी पुराने विषय पर आंशिक रूप से नए तरीके , अपेक्षित कसावट और उत्सुकता को जीवित रखते हुए लिखी गई रचना है। बधाई।

कविता वर्मा:-
कहानी के आवश्यक तत्व कथ्य प्रवाह जिज्ञासा तीनों ही इस कहानी में खूबसूरती से पिरोये गये हैं हालांकि कथानक पुराना है लेकिन प्रस्तुति रोचक है ।आज के कहानीकार हैं डॉ राजेन्द्र श्रीवास्तव जी जो समूह एक में हैं ।

अशोक जैन:-
डॉ राजेंद्र श्रीवास्तवजी को साधुवाद।
क्षमा करें। एक बात कहना चाहता हूँ कि जब तक यह शोषण और अत्याचार चलता रहेगा, कथानक पुराना कैसे हो सकता है?

संध्या:-
बहुत अच्छी कहानी किसी भी निरीहता से परे दृढ़ता से अपनी बात रखने में समर्थ मिश्रित शेली में लिखी कहानी समाज के क्रूर सच को न सिर्फ बयान करती हुई बल्कि,उससे जूझने का साहस देती हुई।दी
डायरी शैली का सुन्दर प्रयोग अंत तक पहुँचते पहुंचते आँखों की पोरें गीली कर गयी कहानी।
बहुत बधाई कहानीकार/कहानीकारां को ।
मणि जी कहानी पढ़वाने का शुक्रीया ।

अनिता चौधरी:-
कहानी बहुत ही बढ़िया है।कहानी लिखने का तरीका और भी खूबसूरत है। कहानी के लेखक को बहुत बधाई और तितिक्षा जी को एक अच्छी कहानी पढवाने के लिए  शुक्रिया ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें