image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

08 जून, 2015

निकारागुआ के महाकवि एर्नेस्तो कार्देनाल की कविता अनुवादः मंगलेश डबराल

आप अपने सेलफ़ोन पर बात करते हैं
करते रहते हैं
करते जाते हैं
और हँसते हैं अपने सेलफ़ोन पर
यह न जानते हुए कि वह कैसे बना था
और यह तो और भी नहीं कि वह कैसे काम करता है
लेकिन इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है
परेशानी की बात यह है कि
आप नहीं जानते
जैसे मैं भी नहीं जानता था
कि कांगो में मौत के शिकार होते हैं
बहुत से लोग
हज़ारों हज़ार
इस सेलफ़ोन की वजह से
वे मौत के मुँह में जाते हैं कांगो में
उसके पहाड़ों में कोल्टन होता है
( सोने और हीरे के अलावा )
जो काम आता है सेलफ़ोन के
कण्डेंसरों में
खनिजों पर क़ब्ज़ करने के लिए
बहुराष्ट्रीय निगम
छेड़े रहते हैं एक अन्तहीन जंग
१५ साल में ५० लाख मृतक
और वे नहीं चाहते कि यह बात
लोगों को पता चले
विशाल संपदा वाला देश
जिसकी आबादी त्रस्त है ग़रीबी से
दुनिया के ८० प्रतिशत कोल्टन के
भण्डार हैं कांगो में
कोल्टन वहाँ छिपा हुआ है
तीस हज़ार लाख वर्षों से
नोकिया, मोटरोला, कम्पाक, सोनी
ख़रीदते हैं कोल्टन
और पेंटागन भी, न्यूयार्क टाइम्स
कारपोरेशन भी
और वे इसका पता नहीं चलने देना चाहते
वे नहीं चाहते कि युद्ध ख़त्म हो
ताकि कोल्टन को हथियाना जाना ज़ारी
रह सके
७ से १० साल के बच्चे निकालते हैं
कोल्टन
क्योंकि छोटे छेदों में आसानी से
समा जाते हैं

उनके छोटे शरीर
२५ सेण्ट रोज़ाना की मजूरी पर
और झुण्ड के झुण्ड बच्चे मर जाते हैं
कोल्टन पावडर के कारण
या चट्टानों पर चोट करने की वजह से
जो गिर पड़ती है उनके ऊपर

न्यूयार्क टाइम्स भी
नहीं चाहता कि यह बात पता चले
और इस तरह अज्ञात ही रहता है
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का
यह संगठित अपराध
बाइबिल में पहचाना गया है
सत्य और न्याय
और प्रेम और सत्य
तब उस सत्य की अहमियत में
जो हमें मुक्त करेगा
शामिल है कोल्टन का सत्य भी
कोल्टन जो आपके सेलफ़ोन के भीतर है
जिस पर आप बात करते हैं
करते जाते हैं
और हँसते हैं सेलफ़ोन पर बात करते हुए
०००
निकारागुआ के महाकवि एर्नेस्तो कार्देनाल की कविता
अनुवादः मंगलेश डबराल
--------------------------
टिप्पणियाँ:-

अनूप सेठी:-
मुझे यह कविता रूप में मिली है। अब चर्चा इस पर होनी चाहिए कि यह एक बयान से कविता में कैसे तब्दील हो रही है।
गौतम चटर्जी:-
अजेय जी आप सही हैं। मूल भाषा में यह कविता की प्रतीति और स्पर्श में है। अनुवाद से यह बयान में बदल गया है। कविता का अनुवाद मैं समझता हूँ संभव नहीं। किन्तु इससे काम नहीं चलने वाला। बहुत से पाठक वंचित ही रहेंगे। सिर्फ कविता लिखने भर से कविता के अनुवाद की योग्यता नहीं आती। न ही कहीं रहते हुए दूर देश की संवेदना महसूस की जा सकती है। इसका प्रस्थान बिंदु बार बार तब बनता है जब जब हमारी दृष्टि का फलक बढ़ता रहता है।

पवन तिवारी:-
अजेय जी से सहमत हूं...मैं अखबार में हूं और इस कविता से मैंने एक स्टोरी आइडिया डेवलप कर लिया है..

अलकनंदा साने:-
पढकर बेचैनी हुई । दुनियाभर में शोषण जारी है और लोग मजबूर ।
पर ये कविता नहीं है महज सपाट बयानी है जैसे अखबार में छपी कोई खबर ।

योगेन्द्र कुमार:-
कोल्टन का पूरा रासायनिक नाम है - Columbite Tentalite. यह उसके एक टुकड़े की तस्वीर है ।

इसका इस्तेमाल सेलफोन में ही नहीं, कंप्यूटर और तमाम इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों में होता है और ज्वेलरी में भी ।

बहुत विचलित करने वाली कविता । मंगलेश जी और बिजूका   को आभार ।

कविता गुप्ता:-
"हँसते है सेलफ़ोन पर
बात करते हुए .''

ये पक्तियाँ !
सच में हम भी अपराधी हैं।बता रही हैं।जितना सम्भव होगा इस कविता को फॉरवर्ड भेजना चाहती हूँ।
यदि सहमति हो।

संजय वर्मा:-
बेचैन करने वाली जानकारी  । पर जैसा अलकनंदा जी ने भी  कहा , कविता जैसा कुछ नहीं , रिपोर्ट है ये ।

आशीष मेहता:-
जी सत्य भाई, पूरी ईमानदारी से यह सवाल सभी साथियों से है। इस बेचैनी का उचित प्रारब्ध जान नहीं पड़ता मुझे।

सत्यनारायण:-
सिर्फ़ सेलफ़ोन, कम्प्यूटर आदि का
उपयोग त्यागना भर इसका हल होता
तो आज मैं त्याग देता....लेकिन
मैं यह जामता हूँ कि इस समस्या का
हल यह नहीं है....इसका हल कुछ और है...जिससे पूरी व्यवस्था आँख
चुराए बैठी है...

आशीष मेहता:-
सत्य भाई आपका इशारा किस तरफ़ है, नहीं जानता। मुझे लगता है विकास (समाज का) और विनाश (प्राकृतिक संसाधनों का) आज पर्यायवाची हो चले हैं। यदि ऐसा है, तो क्या हम विकासोन्मुखी न रहें ? क्या वापस आदि मानव हो जाएं?? क्या करें  ??? किस से आँख चुराऐ बैठे हैं हम ????

सत्यनारायण:-
नहीं...मैं नहीं चाहता कि हम सभी
पुनः आदिम व्यवस्था में लौट जाएँ...
मुझे लगता है कि विकास के साथ
इतना सा ध्यान रखने भर की ज़रूरत है...जैसे हम घर बनाते हैं...तो उसमें दरवाज़े भी लगाते हैं...और इस बात का ध्यान रखते हैं कि
घर में प्रवेश करते वक़्त दरवाज़े की चौखट सिर में न लगे....
मुझे लगता है कि किसी दिशा में ऐसी
सावधानी ही...काम करने वालों के जीवन की रक्षा कर सकती है....किसी परिस्थिति में क्या सावधानी रखनी है
और उसके लिए किन संसाधनों का
कैसे उपयोग करना है....यह ध्यान रखना और संसाधन ज़रूरतमंद को उपलब्ध कराना ज़रूरी है....
हम अधिक मुनाफ़े के लाललच में
जब ख़र्च कम करते हैं...तो सबसे पहले...सबसे आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति के हक़..सुविधा को ही कट करते हैं...जब हर सुविधा का लाभ लेने का वक़्त आता है...तो वह पहला व्यक्ति कौन
होता है....आप जानते हैं...और सभी जानते हैं....तो यह व्यवस्था ऐसी नहीं है कि सुधार संभव नहीं....लेकिन इच्छा शक्ति की कमी है.....

आशीष मेहता:-
उम्मीद पर दुनिया कायम "रहनी चाहिए" । मकान बनाने के सूक्ष्म उदाहरण को देखें। नगर निगम के नक्शे को कितने लोग अपनाते हैं ?(लालची मैं खुद हूँ ) । कितने अवैध निर्माण तोड़े जाते हैं?? (संसाधन या इच्छा शक्ति की कमी) । जहां अमला कार्यवाही करे, वहाँ राजनैतिक असर (व्यवस्था में प्रथम पुरुष) । जब आप उससे भी लड़ने की हिम्मत दिखाऐ, तो कचहरी की मलामत या फिर जान का जोखिम। किस इच्छा शक्ति की तरफ उम्मीद से हैं?? कुछ सरल होकर बात सामने आए, तो बात बने।

आशीष मेहता:-
वही इंसान ही तो फोन पर बात करते हैं, हँसते हैं.... जानकारी प्राप्त कर / कविता पढ़ कर विचलित / बेचैन हो जाते हैं। सोचते हैं क्या करें, पर कुछ कर नहीं पाते हैं । हाँ, फिर से फोन पर बात कर लेते हैं, हँस लेते हैं।।

सत्यनारायण:-
हाँ...यह सामूहिक पतन का दौर है
आशीष भाई.....उसी निपटने की
इच्छा शक्ति चाहिए...और वह सामूहिक
ही....

बसंत त्रिपाठी:-
कविता बेचैन करने वाली है..और जो सवाल यहां उठा है वह शायद हमारे समय का सबसे बड़ा सवाल है जो पूरी दुनिया में अलग अलग जगहों से उठ रहा है..जवाब अभी भला किसके पास है!

किसलय पांचोली:-
सेलफ़ोन कविता ने हिला कर रख दिया। कांगो के मजदूर बच्चों को मजदूरी की मजबूरी और कोल्टन के कष्ट दोनों से निजात दिलाने के लिए सेलफोन पर विश्व व्यापी अभियान चलना चाहिए।

अशोक जैन:-
सेलफोन
मार्मिक, सुंदर और बेहतरीन अनुवाद।
पर क्षमा चाहूँगा। कविता पढ़कर क्षणिक श्मशान भाव पैदा होता है। फिर कुछ देर बाद हम वही हो जाते हैं बेरहम निष्ठुर अमानवीय मानव।

विज्ञान की उपलब्धि का फायदा हम ही ले रहे हैं। जैसे कोयले से बनने वाली बिजली। कोयला खदानों को देखें। या फिर सड़क , जहाँ असंगठित मजदूर काम करते हैं। या फिर महल मंदिर या अन्य भव्य निर्माण को देखें। सबकी तह में सिर्फ और सिर्फ शोषण ही शोषण। कहीं कुछ कम कहीं कुछ ज्यादा। इनका अप्रत्यक्ष बलिदान कभीकभार नजर आ जाता है अन्यथा नहीं।

इन सबके बावजूद हम सभी सभी विज्ञान की नवीनतम खोजों और अन्य सुख सुविधा का लाभ उठाते आये हैं, उठा रहे हैं और उठाते रहेंगे।

इस मार्मिक कविता के बहाने सोचने पर मजबूर कर दिया। आभार।

सत्यनारायण:-
मित्रो व्यक्तिगत तौर पर देखेंगे तो हमें कई उदाहरण मिल जाएँगे...बेहतरीन
इंसानों के...लेकिन वे बहुत कम है...दरअसल यह सामूहिक रूप से पतन का दौर है...इसलिए सामूहिक रूप से ही इससे निपटने की इच्छा
शक्ति चाहिए....

सुवर्णा :-
सेलफोन एक मार्मिक कविता। बात कांगो  की ही नहीं। हमारे आस पास ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं। कोल माइंस में देखिए कितने बच्चों का भविष्य ख़राब हो रहा है। शायद समुचित शिक्षा से कोई रास्ता निकले। मीडिया और समाज को जागरूक होना चाहिए और यह करने में कविता, रचनाकार सफ़ल है

कविता वर्मा:-
बहुत मार्मिक कविता । दुनिया भर में खास कर तीसरी दुनिया में बाल मजदूरी अभी भी एक श्राप है । विकास की रफ्तार को थोड़ा धीमा कर इंसानियत के बारे में सोचने का समय आ गया है ।

फ़रहत अली खान:-
अंजनी जी, रूपा जी(फूफी जी), वसुंधरा जी, मीनाक्षी जी, सुषमा जी, अर्जुन जी, नीता जी, मीना जी, धनश्री जी, नाज़िया जी, प्रज्ञा जी और दीगर शुभचिंतक साथी;
आप सभी से तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ।
नाज़िया जी, इत्तेफ़ाक़ से बेबी की अम्मी आपकी हमनाम हैं।

आज की कविता मुझे बहुत पसंद आई। जानकारी और वो भी अंदर से झिंझोड़ देने वाली; ऐसा किसी कविता के कंटेंट में बहुत कम नज़र आता है।
तकनीक का मैन्यूफ़ैक्चरिंग लेवल का ब्यौरा देने वाली कविता पहली बार पढ़ी। अनुवादक का योगदान भी कम नहीं है कि मौलिकता से ज़रा भर समझौता नहीं किया।
एक ग़ौर-तलब बात ये भी है कि कंडेन्सर(या कैपेसिटर या संधारित्र) एक इलेक्ट्रॉनिक घटक है जिसका प्रयोग लगभग हर उपयोगी इलेक्ट्रॉनिक सर्किट में होता है; फिर चाहे वो मोबाइल हो, टीवी हो, रेडियो हो या फिर कुछ और।
हालाँकि आजकल आई.सी.(इंटीग्रेटेड सर्किट) का इस्तेमाल ज़्यादा हो रहा है जिसमें कुछ ख़ास तकनीकों की मदद से एक ही सिलिकॉन वेफ़र पर दूसरे घटकों के साथ साथ मनचाही धारिता का कैपेसिटर भी बनाया जा सकता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें