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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

07 अक्तूबर, 2016

कविताएं : रुचि भल्ला

आइये आज पढ़ते है एक साथी की कुछ रचनाएँ ।
आप सभी की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी ।
रचनाकार का नाम है रुचि भल्ला।

1.धरती माँ

तुम बहुत बोझ लेकर चल रही हो इजा 
तुम्हारी इस यात्रा का मुझे अंदाज़ा तो नहीं 
पर तुम्हारी पीठ पर रखा बोझ 
तुम्हारी सहनशीलता देख कर 
परेशान जरूर हूँ  
तुम्हारे खुरदरे हाथ फटी एड़ियाँ 
चरमराती रीढ़ की हड्डी थका चेहरा 
देखने को विवश हूँ 
फटी बिवाईयों से रिसता खून 
पपड़ाए होठों पर उगा मरूस्थल 
देखने को अभिशप्त हूँ  
जानती हूँ......
तुम्हारे पाँव की गतिशीलता से ही 
दुनिया में सूरज उगता है चाँद निकलता है 
दुनिया चलती है तुम्हारे पाँव के चलने से 
पर इस तरह पाँव घसीट कर
इतना बोझा ढोकर 
हमें कब तक जीवन देती रहोगी इजा 
मैं उदास -हताश अगरबत्ती जला कर 
ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ 
कि चौरासी लाख योनियों में 
आगे तुम्हें कुछ भी बनाना 
पर इजा न बनाना  .....

2.तोताराम कुम्हार

सुख - दुख की मिट्टी को 
हाथों की नमी से गूंथ कर
जब तुम चाक चलाते हो  
कच्चे रूप गढ़ते हो 
मुझे ब्रह्मा दिखते हो 

फिर तुम विष्णु बन जाते हो 
जब उसमें आकार ...जीवन भरते हो

जब सजाते हो आवां 
कच्चे जीवन को पक्का करते हो 
अपने हाथ के ताप से 
धधकती हैं तुम्हारी आँखें 
सुलगता है आवां 
तुम रुद्र बन जाते हो

कौन कहता है कि धरती पर 
ईश्वर नहीं मिलते....
मंदिर के बाहर
मैं रोज़ मिलती हूँ तोताराम से

3. सुनो प्रज्ञा !

आठवें माले वाली खिड़की से देखती हूँ 
दिखते हैं .....
तमाम घरों की खिड़कियों पर खिंचे पर्दे 
धारीदार डिज़ाइनदार झालरों से सजे 
काॅटन साटिन के पर्दे 
बड़े अच्छे लगते हैं रंग-बिरंगे पर्दे 
वे और अच्छे लगते 
जो झाँकते मिल जातीं उनसे 
कुछ जोड़ी आँखें  
उनके पीछे से मिल जाते 
दोस्ती के लिए आगे बढ़े हाथ 
ये मेरी ख्वाहिशें थीं सो खिड़की पर टंगी रहीं 
वे पर्दे थे ......पर्दादारी निभाते रहे

4.सुनो प्रज्ञा !

मैं आठवें माले में खड़े हुए 
सौ हाथ ऊपर की ओर बढ़ा कर 
आसमान का पर्दा हटाना चाहती हूँ 
शायद मुझे इस तरह दूर पहाड़ दिख जाएं 
मिल जाएं खिले हुए चटक पीले फ्यूंली 
दहकते लाल बुरांस और तुम
मैं अब भी बसंत की उम्मीद में खड़ी हूँ
जबकि गेंदा और गुलाब फाग के
गीत गा रहे हैं .........

5.मैं क्षमाप्रार्थी हूँ

दुनिया के सारे बच्चों के प्रति
कि उन्हें मारा गया छोटी -छोटी बातों पर
हाथ उठाया उनकी छोटी गल्तियों पर
उन्हें चोट देते रहे

जबकि बड़ी मामूली सी बातें थीं
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के टूटने की तरह नहीं था
उनके हाथ से काँच के गिलास का टूट जाना

और बच्चों ! जब तुमने स्कूल का काम
नहीं पूरा किया
लाख सिखाने पर पहाड़े नहीं याद किए
बाबू जी की छड़ी छुपा दी
टीचर के बैठने से पहले उनकी कुर्सी हटा दी
ताजा खिला गुलाब तोड़ डाला
स्पैंलिग मिस्टेक पर नंबर गंवा दिए
खो दिए ढेर पेंसिल रबर
कॉपी के पन्नों से हवाई जहाज उड़ा डाले
इतनी बड़ी तो नहीं थीं तुम्हारी गल्तियां
कि हमने तुम्हें जी भर मारा

मेरे बच्चों आओ ! मेरे पास आओ !
मैं पोंछना चाहती हूँ तुम्हारे भीगे हुए चेहरे
रखना चाहती हूँ तुम्हारी चोटों पर मरहम
मेरे बच्चों आकर मुझे माफ करो

हमने अब तक सिर्फ मासूमियत को मारा
हमने उन्हें नहीं मारा जहाँ उठाने थे अपने हाथ
वहाँ ताकत नहीं दिखलाई
जहाँ दिखलाना था अपने बाजुओं में दम
वहाँ हम खड़े अवाक रह गए ...

6. ईश्वर को चाहिए आदमी 

उसे चाह है आदमी की
जो रोज़ सुबह आकर
उसे हाथ लगा कर जगाए
नहलाए - धुलाए 
हाथों से अपने खाना खिलाए 
घंटो बैठ कर अपनी कहानी सुनाए
शाम को भी आए
फूलों के गुच्छे भी लाए
गीत गाए, नाचे -गाए
जाते -जाते नींद का झूला
झुला कर जाए

उसे आदत पड़ गई है प्यार की
अब उसे रोज़ चाहिए आदमी
दो -एक नहीं भीड़ की भीड़ चाहिए

आदमी जानता है ईश्वर की हकीकत
कि आदमी प्यार का उतना भूखा नहीं
भूख तो ईश्वर को है प्यार की
वो जानता है ईश्वर की सारी ख्वाहिशें
समझता है ईश्वर की मजबूरी

ये सच है ....
आदमी को ईश्वर नहीं
ईश्वर को चाहिए आदमी......

7. जब तुम याद करते हो ......

स्तालिन लेनिन रूसो गाँधी
सुकरात टैगोर सिकंदर को

मैं उस वक्त याद करती हूँ न्यूटन को

देखती हूँ सपने न्यूटन के

सपने में धरती मुझे सेब का बगीचा दिखती है

न्यूटन बैठा होता है एक पेड़ के नीचे
और मैं उस पेड़ के पीछे

दुनिया वालों ! जब तुम खरीद रहे थे सेब

उलट-पुलट कर उसे खा रहे थे

ले रहे थे स्वाद कश्मीरी डैलिशियस
वाशिंगटन गोल्डन एप्पल का

ठीक उसी वक्त न्यूटन के हाथ भी एक सेब लगा था

सेब के ग्लोब को उंगली से घुमाते हुए
उसे मुट्ठी में मंत्र मिला था 'ग्रैविटी फोर्स'

जब तुम सो रहे थे मीठा स्वाद लेकर गहरी नींद

न्यूटन ने सेब की आँख से
आसमान को धरती पर झुकते हुए देखा 
धरती का आसमान की ओर खिंचाव देखा था

तुम नहीं समझोगे इस प्यार को
एडम ईव की संतानो !

8.स्वर्णा बाई फल्टन में रहती है

फल्टन ही उसकी दुनिया है

दुनिया से बाहर की दुनिया भी स्वर्णा जानती है

पूछने पर बताती है वह दिल्ली जानती है

दिल्ली वही है जहाँ शिंदे साब टूर पर जाता है

शिंदे साब वही है जो फल्टन में रहता है
जहाँ वह काम करती है

स्वर्णा की दुनिया फल्टन है

फल्टन से बाहर की दुनिया
उसने देखी है लोगों की ज़ुबानी

सुनी-सुनाई बातों पर वह यकीन से कहती है
वह दिल्ली जानती है

स्वर्णा के लिए दिल्ली राजनीति का गढ़ नहीं

लाल किले पर फहराता तिरंगा नहीं

इंडिया गेट से अंदर जाने का रास्ता नहीं

दिल्ली दिल्ली है

जहाँ शिंदे साब टूर पर जाता है

9. राजपथ को गई लड़की

पीपल का पेड़
रहता होगा उदास
तेरे घर की खिड़की को रहती होगी
तेरे आने की आस
छत पर टूट -टूट कर बिखरती होगी
धूप की कनी
जहाँ तुम खेला करती थी नंगे पाँव
चाँद को आती होगी तुम्हारी याद
घर का कोना होगा खाली
तुम्हारे होने के लिए

एक रात मेरी नींद में उतर कर
मेरे राष्ट्राध्यक्ष ने बतलाया
तारकोल का काला - कलूटा राजपथ
रोता रहा कई दिन कई रात
तुम्हें निगलने के बाद

- रुचि

10.मैं फल्टन में हूँ

फल्टन सतारा में है
सतारा महाराष्ट्र में
महाराष्ट्र से दिल्ली दूर है
फरीदाबाद से बहुत दूर
मेरे चारों ओर सतारा के पठार हैं
और इलाहाबाद पठार के उस पार

मैं फल्टन में खड़ी हुई ऊँचे पठार देखती हूँ
और देखती हूँ नारियल के पेड़ों की लंबी कतार
देखते-देखते मैं भीग जाती हूँ
समुन्दर का पानी जुहू चौपाटी को लाँघ कर
मेरे पाँवों में आ जाता है

मुम्बई लोकल ट्रेन की तरह धड़धड़ाते हुए
मेरे पास चली आती है
मैं उसे देखती हूँ
और मुझे दिल्ली की मेट्रो याद आ जाती है

मेट्रो जो मुझे दिल्ली रेलवे स्टेशन ले जाती थी
जहाँ से इलाहाबाद बारह घंटे का सफ़र होता था
सफ़र के बीच कानपुर ...फतेहपुर ...स्टेशन आते थे
समुन्दर और पठार नहीं.....

परिचय - छोटा सा नाम है मेरा- रुचि

प्रस्तुति-बिजुका समूह

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टिप्पणियां:-

पूनम:-:
बहुत खूब
ज्ञानदत्त जी
तथा कौत्स जी का
प्रसंग सीखने लायक है ।आजकल ऐसी मानसिकता की जरूरत है ।बहुत सुन्दर जानकारी मिली बहुत आभार ।
सादर नमस्कार मै क्षमा प्रार्थी हू शीर्षक की कविता मार्मिक है यह बहुत ही संवेदनशील तथा ईमानदार भावना से परिपूर्ण है अगर दस प्रतिशत कविताऐ भी ऐसी सहजता से सच को बयान करने लगे तो समाज मे मानवीयता सचमुच बढेगी । बहुत शुभकामनाये ।
तोताराम कुम्हार भी मन को उद्वेलित करने वाली कविता है ऐसे चरित्र कविता के माध्यम से बार बार सामने लाने की कोशिश होनी चाहिए ।समाज का बहुत बड़ा तबका मेहनत करता है मगर जीवन के सतरंगी रूप को बस चाहते ही रह जाता है कभी भोग नही पाता मेरी भावना भी दिहाड़ी मजदूरो के साथ तथा पसीना बहाते ही रह जाने वाले वर्ग से बहुत जुड़ी हुई है अपने बच्चो के साथ समय भी नही बिता सकते उनके मन को नही समझ पाते । अपने बच्चो को जान नही पाते । बस उम्र है कि खिसकती जाती है  ।

प्रदीप मिश्रा:-:
कविताओं में कथ्य बहुत सुंदर हैं। कविताई में थोड़े रियाज़ की जरूरत है।कवि की संवेदना को प्रणाम। बिजूका का आभार।

आशीष मेहता:-:
तितिक्षाजी का आभार आज की अच्छी पोस्ट के लिए।

पूनमजी एवं अवधेशजी का विशेष तौर पर आभार। आपकी टिप्पणियों से कविताओं से बेहतर जुड़ने में मदद मिली।

पूनमजी के शब्दों और अवधेशजी के 'कयास (यकीनन) को विचारूँ तो..... "यदि भोगा हुआ यथार्थ है तो कवियत्री 'महानगरीय शिक्षिका' भी होना चाहिए।"



अवधेश:-:
सारी कविताएं संवेदित करती हैं । इन कुछ कविताओं में कुमाऊंनी जीवन की संवेदना अनुस्यूत है । पहली कविता की इजा में थोडा़ अंतर्विरोध है । मां का जीवन और बोझ उठाने की विवशताओं के बरक्स इजा के पुन- इजा न बनने की कामना में  यह स्त्री दुख से मुक्ति की कामना है या मां होने की त्रासदी से ? यह स्थापित मान्यताओं को झटका देती है । सुनो प्रज्ञा में नागरी जीवन के बरक्स दूर पहाड़ और वहां के फ्यूंली और बुरांस की याद नाॅस्टेल्जिया की अभिव्यक्ति है । बावजूद इसके बिंब अच्छे हैं । शेष छोटी कविताएं असरदार हैं । मैं क्षमाप्रार्थी हूं बेहतरीन कविता है । बच्चों के प्रति हमारी समझ और उनकी गलतियों के बरक्स हमारी(बड़ों की) बड़ी गलतियों का इतना सचेत और मारक रूपक अद्भुत है । कवयित्री (यकीनन) को बधाई ।

सुषमा सिन्हा:-
रूचि भल्ला जी को बढ़िया कविताओं के लिए बधाई और शुभलामनाएँ। रूचि जी कल की कविताओं से ही जान गई गयी थी कि ये तो आपकी कविताएँ है। कविताओं का कवि के नाम से याद रह जाना भी कवि की उपलब्धि है। ऐसा मैं मानती हूँ। 😊🌺👍

पूनम:-
बहुत शुभकामनाये रूचि जी आज की सभी कविताऐ पढी और गुणी भी इनका क्रम बहुत अच्छा बनाने के लिए titiksha जी का आभार फल्टन
से आपने हम सभी को सहज ही जोड दिया है कितनी कल कल ध्वनि के साथ बिखरे हुए है आपके शब्द चित्र कही भी कोई बाधा नही है बहुत कहना चाहती हू फिलहाल हार्दिक बधाई

रूचि:-
कविता का ध्येय है संप्रेषित होना ।।। कविता पाठक तक पहुँच कर सार्थक होती है ।।। कवि के मनोभावों को जब पाठक ग्रहण करता है तब उसमें नये अर्थों का प्रस्फुटन होता है ।।। इस दृष्टि से कवि सदैव अपने पाठकों का आभारी होता है ।।। इस संदर्भ में मैं बिजूका और उसके सदस्यों के प्रति हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ ।

मनीषा जैन :-
कविताओं से पहले से परिचित थी। बहुत ही संप्रेषणीय कविताएं। रूचि से दो बार मिलना इतना मधुर था कि अमिट छाप छोड़ी रूचि ने। संवेदनशील रूचि की संवेदना से भरपूर कविताएँ।

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