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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 अक्तूबर, 2016

लेख : तो इसलिए बिपन चन्द्र की किताब हटाना चाहता है आरएसएस : अटल तिवारी

साथियों बिपन चंद्र जी की साम्प्रदायिकता एक प्रवेशिका को nbt ने आगे छापने से मना कर दिया है। इसी विषय पर यह आलेख एक साथी अटल तिवारी का है ।

साथियों आलेख पढ़ें और खूब चर्चा करें ।

तो इसलिए बिपन चन्द्र की किताब हटाना चाहता है आरएसएस
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“मैं नेशनल बुक ट्रस्ट के काम में किसी तरह का विवाद या राजनीति नहीं लाना चाहता।” यह बात ट्रस्ट का अध्यक्ष बनाए जाने पर करीब डेढ़ साल पहले बलदेव भाई शर्मा ने मार्च 2015 में कही थी, लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ के संपादक रहे बलदेव भाई शर्मा अपनी कही बात पर ज्यादा दिन तक कायम नहीं रह सके। उनकी अध्यक्षता में चल रहे चल रहे ट्रस्ट ने नौ अगस्त को आधुनिक भारत के प्रमुख इतिहासकार बिपन चन्द्र की किताब ‘सांप्रदायिकता : एक प्रवेशिका’ न छापने जैसा चकित करने वाला फैसला ले लिया। बताया जाता है कि बिपन चन्द्र की इस किताब का 49 लाख रुपए का आर्डर ट्रस्ट को मिला था, जिसे बिना किसी उचित कारण के अचानक उसने रोक दिया। मजे की बात यह कि मुख्यधारा के मीडिया ने इसका संज्ञान तक नहीं लिया। वैसे सांप्रदायिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार में अहम भूमिका निभाने वाले कारपोरेट मीडिया से ऐसी उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए कि वह इसका संज्ञान लेगा। खैर! अंग्रेजी के एक अखबार ने तीन सप्ताह बाद इस समाचार को प्रकाशित किया, जिसमें यह भी बताया गया कि इस किताब के अंग्रेजी संस्करण ‘कम्युनलिज्म : अ प्राइमर’ के साथ-साथ उर्दू संस्करण को भी रोकने के प्रयास किए गए।  
इतिहासकार बिपन चन्द्र की 89 पेज की किताब ‘सांप्रदायिकता : एक प्रवेशिका’ एक तरह से सांप्रदायिकता के वैचारिक चरित्र को समझने में कुंजी का काम करती है। वह विभिन्न मसलों पर आरएसएस और भाजपा की तीखी आलोचना करते हुए उनकी कारगुजारियों का खुलासा भी करती है। इतिहास, राजनीति विज्ञान,हिन्दी, पत्रकारिता आदि विषयों के विद्यार्थी अपने अध्ययन के शुरुआती सफर में इस किताब को पढ़ने और समझने का प्रयास करते हैं। इससे गुजरते हुए उन्हें राष्ट्रवाद के ठेकेदारों की असलियत पता चलती है। ऐसे में नेशनल बुक ट्रस्ट यह किताब क्यों नहीं छापेगा? बड़े पैमाने पर बिकने वाली इस किताब की सामग्री के अधिक प्रचार-प्रसार से कौन लोग घबड़ा रहे हैं? वे किताब पाठकों को क्यों नहीं पढ़ाना चाहते हैं? उसे क्यों छिपाए रखना चाहते हैं आदि बातें अब छिपी नहीं रही कि उक्त किताब आरएसएस और भाजपा को नंगा करने का काम करती है। उनके मनुष्यता विरोधी कामों का खुलासा करती है। ऐसे में जाहिर है कि भाजपा सरकार की ओर से उपकृत किए गए नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष बलदेव भाई शर्मा भला क्यों ऐसी किताब छापेंगे, उनके जैसे लोगों पर इस बात का फर्क नहीं पड़ता कि बिपन की यह किताब बड़ी संख्या में बिकती है। पाठकों के लिए बहुत उपयोगी है। प्रिन्ट में न रहने पर बड़ी संख्या में जीराक्स होती रही है, पर लगातार पढ़ी जाती रही है।    
इतिहासकार बिपन चन्द्र इसी नेशनल बुक ट्रस्ट के 2004 से 2012 तक अध्यक्ष रहे हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन काम करने वाला यह ट्रस्ट 1957 में स्थापित किया गया था। वह हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू समेत 31 भारतीय भाषाओं में सस्ती किताबें छापता है। बिपन की यह किताब पाठकों तक न पहुंचने देने का असफल प्रयास करने वालों को यह नहीं पता होगा कि बिपन ने यह किताब 2002 में गुजरात दंगों के बाद लिखी थी। मकसद था-सामान्य शब्दावली में लोगों को सांप्रदायिकता जैसे विषय से परिचित कराया जाए। दिल्ली इतिहासकार ग्रुप की तरफ से ‘सांप्रदायिकता: एक परिचय’ नाम से छपी इस किताब को बिपन और उनके साथी इतिहासकारों और विद्यार्थियों ने सड़कों पर बेचा था/बांटा था। ऐसे में ट्रस्ट के मौजूदा अध्यक्ष को अगर यह लगता है कि उनके न छापने से यह किताब लोग नहीं पढ़ पाएंगे तो यह उनकी भूल है। फिलहाल हम यहां ‘सांप्रदायिकता : एक प्रवेशिका’ के छोटे-छोटे 12 अंश दे रहे हैं, जिनसे यह पता चलता है कि इस किताब को आखिर आरएसएस. भाजपा और उससे जुड़े लोग क्यों नहीं छापना चाहते हैं? पेश है किताब के अंशः

1. 2002 गुजरात की भयावहता

“फरवरी-मार्च 2002 के गुजरात दंगे भी, जिन्होंने पूरे देश को दहला दिया था, भाजपा और आरएसएस के प्रचार-तंत्र द्वारा फैलाई गई सांप्रदायिक विचारधारा का नतीजा थे।...कुछ समय पहले तक राहत की बात सिर्फ यही थी कि सरकार का सहयोग सांप्रदायिक विचारधारा और सांप्रदायिक ताकतों को नहीं मिलता था। मगर गुजरात में फरवरी-मार्च 2002 के सांप्रदायिक हत्याकांड में भाजपा सरकार ने जो किया और भाजपा की केंद्रीय सरकार शिक्षा में भी सांप्रदायिकता जिस तरह फैला रही थी और विनायक दामोदर सावरकर और डा. केशव बलराम हेडगेवार जैसे सांप्रदायिक नेताओं की शान बढ़ा रही थी, उससे अब यह राहत भी गायब हो गई थी ।”

2. सांप्रदायिक घृणा का प्रचार करने वाले

“गुजरात में जिन्होंने हत्याएं कीं और लूटपाट मचाई उनकी भरपूर निंदा की गई और उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की गई मगर जिन लोगों ने सांप्रदायिक घृणा का प्रचार किया था और जो दंगे के असली सूत्रधार थे, उनके खिलाफ बहुत कम आवाजें उठीं। दंगाइयों से तालमेल और दंगों पर सरकारी नियंत्रण न कर पाने के लिए नरेन्द्र मोदी की तो घोर निंदा हुई मगर इस बात को शायद ही किसी ने उठाने की जरूरत समझी कि मोदी काफी समय से उस विचारधारा को पनपा रहे थे और उसका प्रचार कर रहे थे जिसकी वजह से आदवासियों, शहरी गरीबों और मध्यम वर्ग ने बढ़-चढ़कर मारकाट की। किसी ने यह तो पूछा ही नहीं कि नरसी मेहता, गांधी और मोरारजी देसाई के गुजरात में आखिर हिंसा का समावेश करवाने वाले कौन हैं।”

3. अटल...आडवाणी और जोशी

“मैं लोगों को अटल बिहारी वाजपेयी के गंभीर, मृदुभाषी और शानदार व्यक्ति होने के बारे में बात करते सुनता था। और यह भी सुनता था कि उनके नेतृत्व में भाजपा में इंसानियत जगी और वह पहले की तुलना में कम सांप्रदायिक हुई थी क्योंकि वह धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ साझा सरकार चला चुकी है। यही बात और यही तर्क हम पिछली सदी के नब्बे के दशक में लाल कृष्ण आडवाणी के बारे में भी सुनते थे। यह नजरिया न सिर्फ दिखावटी है बल्कि खतरनाक भी क्योंकि नेता और पार्टियां उन विचारधाराओं से अलग करके नहीं देखे जा सकते जिनके दम पर वे लोगों के बीच पहुंचते हैं। 1990 में आडवाणी की रथयात्रा के दौरान यह सच तब सामने आया जब उनकी और वाजपेयी की वैचारिक मुद्राओं में काफी अंतर था। फिर नरेंद्र मोदी और गुजरात की हिंसा के मामले में और शिक्षा के सांप्रदायिकीकरण की मुरली मनोहर जोशी की कोशिशों को लेकर भी ये झमेले दिखते रहे ।”

4. सांप्रदायिकता और धर्म

“1979 में जब सांप्रदायिकों का चुनावों में सफाया हो गया था तो हिंदू सांप्रदायिकों ने 1947 के पहले मुस्लिम लीग के तौर-तरीकों से प्रेरणा ली और लीग जैसे धर्म और सांप्रदायिकता को, धार्मिक भावुकता के साथ मिलाकर, इस्तेमाल करती थी वही किया जाने लगा। 1980 में शुरू हुई एकात्मता यात्रा असफल हो गई थी और 1984 में हिंदू सांप्रदायिकों ने राम जन्मभूमि का आग लगाने वाला मुद्दा पकड़ लिया। असल में इस तरह का कोई-न-कोई मुद्दा तो उस समय सांप्रदायिक राजनीति को एक जन-आंदोलन बनाने के लिए चाहिए ही था और राम का नाम सिर्फ उत्तर भारत में ही बल्कि बाकी पूरे देश में भी पुजता है।...एक बार जब यह विश्वास फैला दिया गया कि एक वास्तविक राम जन्मभूमि थी और अब वह हिंदुओं के पास नहीं है तो बहुत सारे हिंदू उत्तेजित हुए और उन सांप्रदायिकों की मदद करने लगे जिन्होंने जेल सीता और राम के नाम लिए थे। इसके बाद हिंदू सांप्रदायिकों ने विश्व हिंदू परिषद जैसे खुल्लमखुल्ला अलगाववादी संगठन और पुजारियों, साधुओं और महंतों का सहारा लेना शुरू कर दिया ।”

5. आरएसएस के भाषणों में सांप्रदायिक जहर

“गांधीजी के खिलाफ समय-समय पर किए गए सांप्रदायिक प्रचार, उनके बारे में घृणा, झूठ और भड़काने वाले अर्धसत्यों ने सांप्रदायिकों की नजर में गांधीजी को हिंदू हितों का गद्दार और मुस्लिम-समर्थक करार दे दिया और इससे जो माहौल बना वही असल में गांधीजी की हत्या के लिए जिम्मेदार था। इस बात का कोई खास मतलब नहीं है कि पिस्तौल का ट्रिगर किसने दबाया और वह किस पार्टी या संगठन से संबंध रखता था। यही बात बहुत सटीक रूप से सरदार पटेल ने एक चिट्ठी में लिखी थी: ‘उनके (आरएसएस के) सारे भाषणों में सांप्रदायिक जहर भरा है और इसी जहरीले वातावरण से एक स्थिति ऐसी बनी जिससे यह भयानक दुर्घटना (गांधीजी की हत्या) हो सकी।”

6. सांप्रदायिक विचारधारा का नंगा इस्तेमाल

“भाजपा और इसका पितृ संगठन आरएसएस अपने कार्यकर्ताओं की भर्ती में सांप्रदायिक विचारधारा का जोरदार और नंगा इस्तेमाल करता है। भाजपा और इसके मौसेरे भाई किस्म के संगठन विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जिन पर आरएसएस का ही बहुत सतर्क नियंत्रण है, राम जन्मभूमि मामले और इसके धार्मिक आवेश को हिंदुओं के बड़े हिस्से के मन में पहुंचने के लिए इस्तेमाल करते हैं।”

7. सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद

“राष्ट्रवाद को प्रतिपादित करते समय सांप्रदायिक लोग धर्म तक का सहारा लेते हैं। इसीलिए राम जन्मभूमि मामले को भी सिर्फ धार्मिक मामला बताने की बजाय ये लोग अब उसे राष्ट्रवाद से ही जोड़ने लगे हैं। इसीलिए राम जन्मभूमि आंदोलन के चरम पर के.एस. सुदर्शन जो आरएसएस के मुखिया हैं, लिख रहे थे: ‘राम जन्मभूमि शिलान्यास के लिए ईंटे लगाना सिर्फ एक मंदिर का सवाल नहीं है बल्कि प्रतीकात्मक रूप से यह एक राष्ट्र का शिलान्यास है।’ उन्होंने इस शिलान्यास की तुलना बर्लिन की दीवार गिराए जाने से की थी। इसी तरह आरएसएस के एक बड़े विचारक रामस्वरूप के अनुसार शिलान्यास ‘भारत की आजादी की लड़ाई का दूसरा और संभवतः अधिक महत्वपूर्ण चरण है।’ 1991 के फरवरी महीने में भाजपा के जयपुर सम्मेलन की रिपोर्टिंग करते हुए ‘आर्गेनाइजर’ के संवाददाता ने लिखा था कि पार्टी ने ‘राम को राष्ट्रीयता के साथ जोड़कर (अयोध्या) आंदोलन का आयाम बढ़ाने का फैसला किया है।’ फिर 4 अप्रैल 1991 को अटल बिहारी वाजपेयी ने विश्व हिंदू परिषद की रैली में कहा कि अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर बनना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि अब यह राष्ट्रीय सम्मान की पुनर्स्थापना का प्रश्न बन गया है ।”

8. आरएसएस एक फासिस्ट संगठन

“1947 से लगातार नेहरू आरएसएस को एक फासिस्ट संगठन कहते रहे। उदाहरण के लिए दिसंबर 1947 में उन्होंने अपने सभी मुख्यमंत्रियों को लिखा: ‘हमारे पास इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि एक संगठन के तौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का चरित्र एक निजी सेना की तरह है और वह न सिर्फ नाजी लाइन पर चल रही है बल्कि उन्हीं के संगठन के तरीके और तकनीकों का इस्तेमाल कर रही है।‘ दिसंबर 1948 में उन्होंने आरएसएस पर एक और लंबी टिप्पणी की: ‘आरएसएस असल में सार्वजनिक आवरण वाला एक गुप्त संगठन है जिसकी सदस्यता के कोई नियम नहीं हैं, कोई रजिस्टर नहीं है और हालांकि मोटी रकम जमा की जाती है, इसके कोई खाते भी नहीं हैं। वे सत्याग्रह या दूसरे शांतिपूर्ण तरीकों में विश्वास नहीं करते। वे अकेले में कुछ और करते हैं और उसका ठीक उलटा सार्वजनिक रूप से करते हैं।”

9. गांधी की हत्या...हिंदू महासभा और आरएसएस

“गांधीजी की हत्या के मामले में हिंदू महासभा और आरएसएस की भूमिका के बारे में सरदार पटेल ने डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को 18 जुलाई 1948 को एक चिट्ठी में लिखा था: ‘जहां तक आरएसएस और हिंदू महासभा का सवाल है, गांधीजी की हत्या का मामला अभी अदालत में है और इसलिए इन दोनों संगठनों की हिस्सेदारी के बारे में मेरा कुछ कहना नहीं बनता। लेकिन हमारे रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि इन दोनों संगठनों और खासतौर पर आरएसएस की गतिविधियों ने देश में ऐसा माहौल जरूर बनाया जिसकी वजह से गांधीजी की हत्या की जा सकी। मुझे इस मामले में कतई संदेह नहीं है कि हिंदू महासभा के अतिवादी हिस्से इस षडयंत्र में शामिल थे। आरएसएस की गतिविधियां सरकार और राज्य दोनों के अस्तित्व के लिए चुनौती बनती जा रही हैं।’ इसके पहले 6 मई 1948 को उन्होंने लिखा था कि ‘उग्र सांप्रदायिकता को, जो महासभा के कई प्रवक्ताओं द्वारा प्रचारित की जा रही थी...सार्वजनिक सुरक्षा के लिए खतरे के अलावा कुछ नहीं माना जा सकता।...यही तर्क आरएसएस पर भी लागू होगा क्योंकि वह एक ऐसा संगठन है जो गोपनीय तौर पर सैनिक और अर्द्धसैनिक तरीकों से संचालित किया जाता है।”

10. राष्ट्रवादी नेताओं पर कब्जे का प्रयास

“आरएसएस और भाजपा के नेता जानते हैं कि उनका अतीत राष्ट्रवादी नहीं है और उन्होंने आजादी की लड़ाई तो छोड़िए, विदेशी शासन के विरोध में भी कभी हिस्सा नहीं लिया। मगर उनको यह नहीं सूझ पड़ता कि वे ऐतिहासिक राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास का क्या करें और सच का सामना कैसे करें। वे अपने इस अतीत को न भुला सकते हैं, न मिटा सकते हैं और न उसका उत्सव मना सकते हैं। इसीलिए अब वे राष्ट्रवादी पुरखों का चुनाव करके उन्हें अपनाना चाहते हैं और कहीं-न-कहीं से, अपने राजनीतिक और वैचारिक अभिभावकों के बहाने, अपना कोई सिरा राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास से जोड़ लेना चाहते हैं। वे 19वीं और 20वीं सदी के सामाजिक-धार्मिक सुधारों को भी अपने अस्तित्व का सूत्रपात बताने में नहीं हिचकते। अब ये सांप्रदायिक अपने-आपको गांधीजी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुभाष चंद्र बोस, बाल गंगाधर तिलक, सरदार वल्लभ भाई पटेल, स्वामी विवेकानंद, बंकिम चंद्र चटर्जी, विपिन चंद्र पाल, अरविंद घोष और ऐसे ही अनेक राष्ट्रीय नेताओं का वंशज साबित कर देना चाहते हैं ।”

11. लोकतंत्र विरोधी है हिंदू महासभा और आरएसएस

“मुस्लिम लीग की सांप्रदायिक परंपरा से पाकिस्तान अभी तक उबर नहीं पाया है और मुसीबत में है। हिंदू महासभा और आरएसएस भी लोकतंत्र-विरोधी हैं। आरएसएस का लोकतंत्र-विरोधी संविधान, परंपराएं और कार्यशैली को भी सबके सामने लाना चाहिए। जैसे आरएसएस का प्रमुख अपने पहले के प्रमुख द्वारा नामांकित होता है और उसे आजीवन इस पद से हटाया नहीं जा सकता। इसी तरह इससे जुड़े अन्य संगठनों के भी चुनाव नहीं होते और सिर्फ नामांकन ही होते हैं। इस संगठन का पूरा ढांचा अलोकतांत्रिक है।”

12. भारत के अतीत को विकृत करते सांप्रदायिक

“सांप्रदायिकों ने तय कर लिया है कि भारत के अतीत को अपने हिसाब से विकृत करके सरकारी संगठनों, मीडिया, गैर-सरकारी संगठनों और शिक्षा के क्षेत्र में अतिक्रमण करके इतिहास की अपनी व्याख्या ही प्रचारित करेंगे। आरएसएस और जमात-ए-इस्लामी के नियंत्रण में जो स्कूल और शिक्षा योजना हैं और आरएसएस-भाजपा के नियंयण में जो शैक्षणिक संस्थाएं हैं, वे यही कर रही हैं। खासतौर पर वे भारत के इतिहास और साहित्यिक विरासत को मौखिक प्रचार तथा स्कूली पाठ्यक्रम के जरिए पेश कर रही हैं। आमतौर पर वे सरकारी तंत्र का इस्तेमाल सांप्रदायिक विचारधारा को फैलाने में करती है और खासतौर पर वे इतिहास को विकृत करती हैं क्योंकि इतिहास का यही विकृत रूप सांप्रदायिक विचारधारा का मूल है।

द्वारा- आलोक बाजपेयी
प्रसूति: बिजूका
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टिप्पणियां:-

प्रदीप मिश्रा:-
अलोक जी बेहद जरूरी और महत्वपूर्ण आलेख । इस आलेख को इतना प्रसारित कर सकें करना चाहिए। यह हमारे समय का काला पन्ना है। अभी तो शुरुआत है।

आलोक बाजपेयी:-
हम लोग इस मुद्दे को बड़े पैमाने पर उठा रहे हैं। प्रोफ बिपन चंद्र की इन किताबों को नेशनल बुक ट्रस्ट से थोक खरीद कर ले रहे हैं।
फिर इन्हें देश भर में उन जगहों पर पहुचाने की कोशिश करेंगे जहां इन्हें जरूर होना चाहिए।

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