आइये आज पढ़ते हैं एक साथी आशीष सिंह की कुछ रचनाएँ ।
इन्हें पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया दें
1.
मेरे अंदर के 'रंग ' का रंग क्या है ?
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कभी-कभी
आपकी सारी पढ़ाई लिखाई नाकाफी लगने लगती है
जैसे इसी घटना को लो
पिछले बस स्टाप से बस में आयी
इस लड़की को ही ले लो
बडी देर से वह बहस कर रही है
कंडक्टर से
किराया इतनी जल्दी जल्दी क्यों बढ़ा रहे हैं आप लोग
फिर मानो मन ही मन बोलनी लगी
आप जान पाते हैं
क्या जान पायेंगे
हर बार बापू से
आगे पढ़ने के लिए
कितनी मिन्नतें करनी पड़ती है
हर बार लगता है
अब छूटी पढ़ाई कि तब छूटी "
माथे पर हरा दुपट्टा संभालते -संभालते
वह अपनी पास वाली लड़की से बतियाये जा रही है लगातार
मन में आया कि क्या सचमुच लड़कियां
ज्यादा बोलती हैं
फिर मन ने कहा
यह विचार कहीं स्त्री विरोधी तो नहीं
इस तरह सोचना अब ठीक नहीं
कहीं मेरे अन्दर ढंका पुता पुरुष वाद
कुण्डली मारे तो नहीं बैठा है
स्कूली वेशभूषा और दुपट्टे के रंग पर
मेरे मन में फिर एक सवाल कौंधा
हो न हो ये लड़की मुसलमान है
तभी तो अपने हक को लेकर
इतना सचेत है
दुपट्टे का रंग भी तो
मुसलमानी लग रहा है
चलो अच्छा है
हमारा समाज आगे बढ़ रहा है
लड़कियां अपने भविष्य को लेकर
सचेत हैं
वह भी मुस्लिम
फिर मैं अपने
पड़ोसी से देश की ताजा तरीन
घटनाओं पर बातें करने लगा
पढ़ाई लिखाई में आगे बढ़ने को लालायित
इस पीढ़ी के आत्मविश्वास पर भी
उसे मेरी यह बात थोड़ी सहज नहीं लगी
दबी जुबान से वह फुसफुसा ही गया
भाई साब !
अब तो 'वे' लोग बच्चों को भी
वह भी पढ़े लिखे
" इन " घरों के बच्चे अब बच्चे नहीं
इनकी सिखाई ही कुछ अलग होती है
देखा नहीं
मेरठ में कैसे इस्तेमाल किया
लड़की का " उन ' लोगों ने
और तमाम बातें
मै बहस करता रहा
नहीं यह सब अफवाह है
राजनीतिक जुबलेबाजी है
आदि आदि तमाम अच्छी
व्यवहारिक बातें
वहीं मन के कोने में 'कुछ 'जनमने लगा
हाँ ! तभी तो यह बेधड़क कंडक्टर से भिड़
गयी थी
इतनी उत्सुक है अपने पढ़ाई को लेकर
क्या भरोसा
इतना सब होते होते
देखा वह अगले स्टाप पर
उतरने की तैयारी कर रही है
अपना पिट्ठू बैग संभालते संभालते
चेहरे पर मीठी मुस्कान लिए
अपने बायें हाथ को हिला रही है
सहेली से अभिवादन के लिए
अरे ! यह क्या
जो देखा वह मानों
मेरी आदमीयत पर तमाचा था
मै टनों शर्म से नहा सा गया
"इसके हाथ में तो कलावा बंधा है "!
मुझे अपने आदमी होने पर
शर्म आ रही थी
और मेरे पास
अपने अन्दर के सवालों का
कोई जबाब नहीं था
क्या आपके पास है
हो तो बताना !!!"
मेरी सारी पढ़ाई - लिखाई तो
मुझे अब नाकाफी लगने लगी है ।
2.
उम्र कभी खत्म नहीं होती
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वृक्ष के ललाट पर
उभरी तमाम झुर्रियां
उम्र नहीं
गुजरे अतीत का दस्तावेज होती हैं
जहाँ पीढ़ी दर पीढ़ी से
दर्ज हैं
जिंदगी से बेपनाह मुहब्बत
की शक्ल
अन्दर तक झुलसाती लू
बार -बार उजाड़ने को आतुर आंधी
दिखते चुभते निशानात
कभी कभार की बारिश की खुशबु
दर्ज ही नहीं
शिराओं में तैर रही
तमाम उम्र का हिसाब
बताते हैं
जर्रे जर्रे में लिखे बयान
सुनना है तो
जरा नजदीक
आओ और देखो
अपने अनुभव की
खुली पोटली
सौंपती जाती है
खुले हाथों
नये नये अंकुरित
पल्लवों को
हरिताभा से युक्त
मुलामियत से ऊभ चूभ होते
नव डंठलों को
जो हंसते खिलखिलाते
मैदान में आ डटे होते हैं
कहती जाती है अपने पीले पड़ रहे पत्तों से
दोस्तों !
उम्र कभी खत्म नहीं होती
वह महज
एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित
होती रही है अनवरत
युगों युगों से
तभी शायद जीवन रस से भरपूर
जनगायक ने कहा होगा
' हम न मरब मरिहै संसारा ।
3.
आपका जन्नत
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भारत माता के बच्चे
भारत के "रक्षक ' बेटों से
पनाह मांग रहे हैं ।
बूटों से कुचली जा रही माँ
किनकी है
वो बच्चा
जो अपने " रक्षक " के आगे
विवश
बेतरह दर्द से चीख रहा है बेआवाज़
किनकी गोद का दुलारा है
आपकी बाप की उम्र का बुजुर्ग
जिसके होंठ अपनों की दुआ
मांगते कुछ बुदबुदाते
अपने रक्षक बेटों की बेतों से
पिट रहा है
लगातार लगातार
यह बुजुर्ग मुल्क के
किस शहर का है
किस घर का भरापूरा छायादार दरख्त है
कहीं आपका ही
अपना अजीज तो नहीं
कहीं आपका अपना खोया हुआ
भाई तो नहीं
यह अपने पन का कैसा दृश्य है
आपकी आँखों का सुकून छीन नहीं रहा ?
ये बेटे किस भारत मां के बेटे हैं
जिनके बचपन को आपकी
तमगाधारी पुलिस -फौज
देशभक्ति का सबक सिखा रही है ।
खून से लथपथ जमीन पर पड़ी
यह लाश मुल्क के किस बासिन्दे की है
भारत माँ के बेटों
रक्त से सनी गोली
कहाँ से निकलती है
एक बेटा
दूसरे बेटे के चेहरे को खूं से तरबतर करने पर आमादा
बताओ !
ये बच्चे किस भारत माँ के बच्चे हैं
आपके पास इनका नाम पता है ?
गर नहीं !
तो पता करो
यह आपके अपनों की छवि
तो नहीं ?
बिलाशक यह छवि
जन्नत को दागदार करती छवि है
आपके अपने घर , शहर की छवि है
आपके समय की क्रूर तसवीर
आपका सामना होना है
बस जगह बदल सकती है
4.
चली है रस्म नई कि कोई न सर उठा के चले
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यह सवाल तो है कि
बच्चों के हाथों में गेंद नहीं है
लड़कियां स्कूल नहीं जाना चाहती
नौजवान काम नहीं कर रहे हैं
मांये अपनी सूनी गोद देखकर
रो नहीं पाती
बाप अपने बच्चों को खेलने से
नये तरीके से खेलने से
चाहते हुए भी मना नहीं कर पाते
अपने शौहर की सलामती की दुआ मांगती कि
किवाड़ की ओट में छुपी जवान बेटी की
तय नहीं कर पा रही हैं औरतें
बुज़ुर्ग मान मरजाद का पाठ किसे पढ़ायें
जब अपनों के रक्षक पढ़ा रहे हैं पाठ
मान मरजाद में रहने का
कलाकार , दार्शनिक , राजनीतिज्ञ सभी हैं
पर बात बातचीत से निकल गई लगती है
जिंदाबाद कोई हो
कहीं से भी हो
लेकिन ऐसी तसवीरें आपको जिंदाबाद नहीं
रहने देगी
मेरे अपनों को सीने पर पांव रखे
मेरा अपना राष्ट्र की कैसी इबादत कर रहा है
किसका और कैसा राष्ट्र
कितनी दूर तक कितनी देर तक
संगीन के साये में पला - बढ़ा राष्ट्र
क्योंकि हमारे एक कवि ने कभी कहा था
"देश कागजका बना नक्शा नहीं होता "
देश को महज कागज का नक्शा ना
बनाओ
कागज में महज दर्ज होती हैं आवाजें
अपने बीते कल की आज की
लेकिन हमारे आज के सीने से
निकलती हैं आवाजें अपने आने वाले कल की
वे कागज पर नहीं दर्ज होती
वे दर्ज रहती पत्तों की थिरकन में
चिड़ियों की फड़फड़ाहट में
बच्चों के अथाह धमाचौकड़ी में
झूमते नाचते युवाओं की ताजी ताजी
उम्मीदों
नवयुवतियों के उन्मुक्त सपनों में
कल की बीती कहानी को बार बार
याददिहानी कराती पोपली बातों में
पहाड़ , नदिया , झरने यही तो दुहराती है
हरवक्त
जिसे आप अपने देश वाले कागज पर लिख ही नहीं पाते
लिखें कैसे सुने तब ना
तो सुनो
लिखने से पहले सुनना जरूरी है
ऐसा कहते रहे हैं
मेरे अपने
राष्ट्र के अपने लोग ।
5 .जिंदगी का स्वाद
दोस्तों में बैठ
देश-दुनिया की अंतहीन
ऊबने की हदतक
बातें
घर -परिवार के किस्से
पड़ोसी की परेशानी
चन्द और बातें
बातों से निकालकर
बातें ही बातें
पर मन हुआ नहीं खाली
लौट आया ।
किताबें देखी
खोजने लगा मन की बात
कई कविताएं
अच्छे कहे जाने वाले
कवि की कविताएं
कहानी आधी -अधूरी पढ़ी
छोड़ दी
जैसे कोई भरी बाल्टी
खींचते खींचते छोड़ दे
कुएं में दुबारा
प्यास बुझी नहीं ।
वापस रसोईघर में तलाशने लगा स्वाद
क्या खांऊ ऐसा कि
मन का भारीपन हल्कुवाये
कुछ खाया
पर खा नहीं पाया
स्वाद जैसा स्वाद
मिला नहीं
मन को संतृप्त करता स्वाद
जिंदगी में
स्वाद कहाँ मिलता है
क्या तुम्हें पता है !
अन्तस की मरोड़न
बोल नहीं पाती
समझ भी तो नहीं पाती ,
मैं घर पर हूं
किताब में
भोजन में
गपशप में
तलाशता हूं
' स्वाद '
वहीं हमारा गर्म युवा रक्त
स्वाद की नई इबारत
दर्ज कर रहा है
सड़कों पर
बेखौफ
हुकुमत के बूटों तले
जिंदगी की खातिर
जिंदगी को ठोकर मारने
का स्वाद चख रहा है
मैं कहाँ हूं ?
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6.
तुम सुदंर हो
बिन बोले
सुंदरता के बारे में ,
तुम खूबसूरत हो
बिना खूबसूरत होने का
लेबल चस्पा किए ,
तुम जरुरत हो
प्रकृति की
पुरुष की
आत्मिक सुख की।
इतना एकाकी होता है क्या सुख
कि महज बयां कर
कुछ शब्दों में
हम मुक्त हो जाएं ।
7.
मेरी कलम की नोक पर
ठिठके अक्षरों
बिना सकुचाये
बिना झिझके
बोलो !
ताकि न बोलने से
बोलने की आदत
चुप्पी में न बदल जाए
और चुप्पी
"सबसे बड़ा खतरा है
जिन्दा आदमी के लिए ।
8.
कहानीकार महेश कटारे से बातचीत
१९मार्च २०१५
" असमय बारिश ने
रौंद दी है
फसलों को
जिंदगी को
कविता - कहानी भूलकर
मैं देख रहा हूं
तबाह होती गेहूं की बालियां
दूध से सराबोर होते दानों को
चना , मटर , अरहर
सभी कुछ तो
नहीं रहा वैसा
जैसा मनचीता । '
' हल्कू' ने ठीक ही ठीक ही कहा था
कि अब ' चैन ' से सोऊंगा
अब आज
समझ पाया
कि वो 'चैन ' शब्द
कितनी पीड़ा से निकला होगा
उम्मीद के जिबह होते
मन के कटघरे से
निकल पड़ते हों
जैसे चचा गालिब़ को
" नींद क्यों रात भर नहीं आती "
ऐसी ज़िन्दगी को
क्या कविता - कहानी में
दर्ज करके चुका जाऊँ !
सामने जवान फसल
पलटी पडी़ है
पछाड़ खाती कोशिश को
भरपूर ताकत से
पंजो पर उझक- उझककर
थाम लेने में
भिंदा पडा़ हूं " ।
ऐसा ही कुछ कहा
कथाकार कटारे ने
और मैं इस विपदा पर
क्या मांगता
वह भी एक किसान से
कहानी !
कितनी बेमानी होती
ऐसी क्रूर मांग
जहाँ ठोस यथार्थ
जिंदगी का शिल्प
अपनी मास-मज्जा से
टकरा रहा हो
नया रूपाकार गढ़ रहा हो ।
9.
कवि मित्र भास्कर चौधरी की बेटी "पाखी" की खूबसूरत कलाकारी देखते हुए
एक नन्हीं चिड़िया
फुदक फुदककर
झांक रही है
घोंसले से बाहर की दुनिया
रंग बिरंगे पंखों वाली
नन्हीं चिड़ियाँ
उड़ना चाहती है
रंगना चाहती है
अपने मन के समुन्दर में लहराते रंग
से अपने वाले आकाश को
अपनी नन्ही नन्हीं चोंच में
थामे कूँची
करीने से डुबो डुबो मन के समुंदर मे
रंग रही है अपने आसपास को
खूबसूरत अहसासों से
दूर दूर तक जाती
आवाज को
न दिखाई पड़ती
दूर देश के बच्चो के मन में
खिलखिल करती खनखनाहट को
रंग रही है
अपनी नन्हीं नन्ही कूंची
अपनी दुनिया की
सुंदरता को
जितना ही सुदंर
चिड़ियां का मन
उतना सुदंर है उसका मन
मेरी प्यारी
नन्हीं चिड़ियाँ
तुम उड़ों
मुक्त गगन में
अपने कल्पना के पंख
रंग बिरंगे पंख
पसारे
देख आओ
दूर देश में
गुनगुनाते अपने नन्हे नन्हें दोस्तों को
और मिल जुल कर
रंग डालो पूरी की धरती
अपने पंखों के रंग मे
पाखी
यह दुनिया तुम्हारे खूबसूरत पंखों जैसी ही
खूबसूरत है
बस देखने निगाह
नन्ही चिड़ियाँ जैसी हो जाय
और क्या !
---पाखी को शुभकामनाएँ ।
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प्रस्तुति-बिजूका समूह
परिचय:
नाम-आशीष सिंह
सम्प्रति -
सहायक अध्यापक
राष्ट्रपिता स्मारक इण्टर कॉलेज ।
प्रकाशन-
इटौंजा लखनऊ
वागर्थ , कृतिओर , सेतु , अलाव आदि पत्रिकाओं में कविताएं व आलोचनात्मक आलेख प्रकाशित ।
पता-
ई--2 / 653
सेक्टर -F
जानकीपुरम लखनऊ 226021
mo : 09044272667
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टिप्पणियां:-
पूनम:-
आदरणीय
आज की चार कविताऐ बहुत ही सामजिक है इसलिए सार्थक है तसवीरे जिन्दाबाद नही रहने देगी " ये बच्चे किस भारत माता के बच्चे है " हम न मरिब मरिहै संसारा " मेरे भीतर ढंका पुता पुरूषवाद " यह कुछ ऐसे प्रतीक है जिनसे कुछ संभावना दिखाई देती है मुझे लगता है कि यह पहली draft की कविताऐ है । कुछ सुधार की गुंजाइश है मगर यह मेरा गलत विचार भी हो सकता है क्योंकि अधिक सुधार करने के बाद कविता का सहज भाव मुरझाने लगता है । कृपया मुझे मेरे बडबोलेपन के लिए माफ़ी दीजिएगा ।
सूर्य प्रकाश:-
युवा कवि एवं आलोचक आशीष जी की एक साथ कविताएं पढकर बहुत अच्छा लगा।बढिया कविताएं कथ्य एवं शिल्प दृष्टि गत।मित्र आशीष जी को असीम शुभकामनाएं... खूब सृजन करें।
अनाम:-
पूनम जी , सूर्य प्रकाश भाई और बिजूका समूह के एडमिन और दोस्तो आप सबका आभार । आपने कवितायें पढ़ीं । प्रतिक्रिया दी । और साथी भी इसपर अपनी राय देते तो हम सब के लिये और अच्छा रहता । सीखने समझने को मिलता । पूनम जी आपने सही कहा कि ये पहली ड्राफ्ट की कवितायें ही हैं । आपकी टिप्पणी इन पर और ठीक से काम करनेके लिये प्रेरित करती है । भाई सूर्य प्रकाश आपका भी बहुत बहुत आभार ।
मुझे लगता है जब कवि किसी दूसरे पर उंगली उठाने से पहले खुद को तराजू पर तौलता है तो कविता सच्ची कविता होती है. यही किया है आशीष ने उनकी पहली कविता ‘’मेरे अंदर के 'रंग ' का रंग क्या है ?’’ में. आशीष अपने खुद से सवाल करते हैं वह वास्तव में तमाम उन लोगों से हैं जो पुरुष प्रधान मानसिकता के हैं और जिन्हें स्त्री का सवाल करना अच्छा नहीं लगता या सवाल करती स्त्री तुरंत ही उनके संदेह के घेरे में आ जाती है..
जवाब देंहटाएंदूसरी कविता ‘उम्र कभी खत्म नहीं होती’ जनगायक कबीर की बड़ी ही खूबसूरत बात के साथ खत्म होती है कि ‘हम न मरब मरिहै संसारा’. वास्तव में हमारे बुजुर्ग पीढ़ियों के बीच की कड़ी हैं जिनके अनुभवों का लाभ पिछली एवं आने वाली पीढ़ी दोनों को मिलता है. जिनकी उम्र कभी खत्म नहीं होती बल्कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित हो जाती है.. इस कविता में छिपा एक संदेश भी है बुजुर्गों के साथ अपनापे का जो समय के अनुरूप बेहद ज़रूरी है..
तीसरी कविता ‘आपका ज़न्नत’ कश्मीर के बहाने दुनिया के नक्शे पर दर्ज़ उन तमाम शहरों और देशों के बाशिंदो के बारे में है जो राजनीतिक अदूरदर्शिता के शिकार हैं, जिन्हें असल दुश्मन की पहचान नहीं और जो स्वयं को खत्म करने के रास्ते पर चल पड़े हैं..
‘चली है रस्म नई कि कोई न सर उठा के चले’ - फासिस्ट ताकताें एवं छद्म राष्ट्रभक्तों के पाखंडों की पोल खोलती इस कविता में समय की गूंज को शिद्दत से महसूस किया जा सकता है....