आइये आज पढ़ते हैं नंदना पंकज जी की कुछ रचनाएँ।
पढ़कर अपनी प्रतिक्रियाओं से अवगत जरुर कराये ।
"बंदिनी का संशय"
अब जबकि तुम
लगातार लिख रहे हो
मेरे लिये
प्रेम और मुक्ति की
कविताएँ,
मेरी सुप्त जिजीविषा को
जगाते हुए,
दिखा रहे हो
सपने
उन्मुक्त आकाश के,
भर रहे हो नस-नस में
विद्रोह की चिंगारियाँ,
और तुम्हारे
भावपूर्ण शब्दों के स्रोत से
अद्भुत ऊर्जा जुटाकर
मैं यथाशक्ति
फड़फड़ा रही हूँ
अपने लहूलुहान
कतरे-छँटे पंखों को,
संभव है शीघ्र ही
पिंजरा तोड़ मुक्त हो जाऊँ,
किंतु क्या तुम
आश्वस्त कर सकते हो मुझे
कि बाहर और शिकारी
घात लगाये नहीं
बैठे होंगे
मुझे नोच खाने के लिये,
सुरक्षित रहेगी
मेरी उड़ान
दुनिया के तेज़
नाखूनी पंजो से...
"रोटी का मुल्य"
एक बार फिर
सिद्ध कर दिया तुमने
कि रोटी का मूल्य
किसी भी दौलत से
कहीं अधिक है ,
तभी तो उस भुखे की
दसगर्दा धूनाई की,
जम कर उतारा उसपे
मन की सारी भड़ास,
अधमरा करके छोड़ा उसे
रोटी चुराने के अक्षम्य अपराध में,
देश चुराके खाने वाला
दूर देश में बैठे
अट्टहास कर रहा है
हमारी न्याय व्यवस्था पे,
'सबसे बड़ा चोर कौन'
इसपे बहस के लिये
संसद में तैयारी हो रही है
जूतम-पैज़ार की।
"तम के विपक्ष में"
निःसंदेह अंतरिक्ष में
अंधेरा ही प्रतीत होता है
हर समय,
किंतु सत्य तो यह है कि
अनादि काल से
अनवरत चल रहा है
प्रकाश का अनंत आवागमन
एक अंतहीन अज्ञात
गंतव्य की ओर,
बस वहाँ फैला अक्षुण्ण निर्वात
परावर्तित नहीं होने देती
अगणित असंख्य किरणों की
एक भी तार
हमारी दृष्टि तक,
और हम स्वीकार लेते हैं
अंधकार की सत्ता को,
ठीक हमारे शासकों के
हृदय की भाव-शुन्यता
पर्याप्त रोशनी के बावज़ुद
गहन कर रही है तिमिर को
हमारे समक्ष,
इस निर्वात में उपस्थित नहीं
जब तक
करुणा, संवेदना, मनस्ताप,
भावोद्गार जैसे कुछ पदार्थ,
तो क्यूँ न साथी
तम के विपक्ष में
कोई उपग्रह स्थापित करें हम
इस शुन्य में,
जो भले ही स्वयं दैदिप्यमान न हो
फिर भी चन्द्रमा की तरह
कुछ उजालों को मोड़ सके
हमारी दृष्टि तक,
कण-कण में वितरित कर सके चाँदनी
कब तक सुर्योदय की
अपुरणीय प्रतिक्षा में भ्रमित
हाथ पर हाथ धरे
बैठे रहेंगे हम...
"परिश्रम का फल"
'परिश्रम का फल मीठा होता है।"
बहुत ही बड़ा झूठ है ये,
परिश्रम का फल मीठा नहीं
नमकीन होता है,
क्युँकि सींचा जाता है इसे
श्रमिकों की कभी न
सुखने वाली
पसीने की धार से,
प्रायः घुला होता इसमें
आँसू और लहू का
अतिरिक्त लवण,
और युँ नमक
इतना तेज़ हो जाता है कि
फल खा ही नहीं पाता
श्रमिक
सो जाता है
भूखे पेट...
प्रस्तुति-बिजूका समूह
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टिप्पणी:-
संजीव:-
बंदिनी का संशय स्त्री मुक्ति के संदर्भ में पढी जाये तो बहुत कमजोर रचना है। बंदिनी जिस वजह से बंदिनी है उससे ही मुक्ति की आस और भविष्य में सुरक्षा की आश्वति चाहती है। एक बहुत.कमतर समझ.को प्रस्तुत करती है।
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