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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 अक्तूबर, 2016

फ़लस्तीनी कवि समी अल कासिम की कविता एक दिवालिये की रिपोर्ट अनुवाद: रामकृष्ण पाण्डेय

आज प्रस्तुत है फ़लस्तीनी कवि समी अल कासिम की कविता

एक दिवालिये की रिपोर्ट

अनुवाद: रामकृष्ण पाण्डेय

अगर मुझे अपनी रोटी छोड़नी पड़े
अगर मुझे अपनी कमीज़ और अपना बिछौना बेचना पड़े
अगर मुझे पत्थर तोड़ने का काम करना पड़े
या कुली का
या मेहतर का
अगर मुझे तुम्हारा गोदाम साफ़ करना पड़े
या गोबर से खाना ढूँढ़ना पड़े
या भूखे रहना पड़े
और ख़ामोश
इंसानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूँगा
आखि़र तक मैं लड़ूँगा
जाओ मेरी ज़मीन का
आखि़री टुकड़ा भी चुरा लो
जेल की कोठरी में
मेरी जवानी झोंक दो
मेरी विरासत लूट लो
मेरी किताबें जला दो
मेरी थाली में अपने कुत्तों को खिलाओ
जाओ मेरे गाँव की छतों पर
अपने आतंक के जाल फैला दो
इंसानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूँगा
और आखि़र तक मैं लड़ूँगा
अगर तुम मेरी आँखों में
सारी मोमबत्तियाँ पिघला दो
अगर तुम मेरे होंठों के
हर बोसे को जमा दो
अगर तुम मेरे माहौल को
गालियों से भर दो
या मेरे दुखों को दबा दो
मेरे साथ जालसाजी करो
मेरे बच्चों के चेहरे से हँसी उड़ा दो
और मेरी आँखों में अपमान की पीड़ा भर दो
इंसानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूँगा
और आखि़र तक मैं लड़ूँगा
मैं लड़ूँगा
इंसानियत के दुश्मन
बन्दरगाहों पर सिगनल उठा दिये गये हैं
वातावरण में संकेत ही संकेत हैं
मैं उन्हें हर जगह देख रहा हूँ
क्षितिज पर नौकाओं के पाल नज़र आ रहे हैं
वे आ रहे हैं
विरोध करते हुए
यूलिसिस की नौकाएँ लौट रही हैं
खोये हुए लोगों के समुद्र से
सूर्योदय हो रहा है
आदमी आगे बढ़ रहा है
और इसके लिए
मैं क़सम खाता हूँ
मैं समझौता नहीं करूँगा
और आखि़र तक मैं लड़ूँगा
मैं लडूँगा

प्रस्तुति-बिजूका समूह
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टिप्पणियां:-

अवधेश:-
मीना अरोरा की कविताओं का स्वर शिकायती है । यह शिकायत जायज है । शिकायत और नाराजगी में फर्क है । यहां न स्त्री होने के प्रति अफसोस है , न पुरुष के प्रति नाराजगी । यह एक स्त्री की स्वायतत्ता के प्रश्न उठाती हैं । वह छोटी- छोटी स्थितियों के माध्यम से बड़ी विडंबनाओं के दृश्य उपस्थित करती हैं । हां, शब्द कौशल और वैचित्र्य दो अलग चीजें हैं । पहली कविता- ' बच्ची नहीं हूं मैं ' पर जो कहा सच कहा/ बच्ची नहीं हूं मैं / क्योंकि बची नहीं हूं मैं ' । जैसी पंक्ति कविता के उठान को कमजोर करती है । कविताएं चाक्षुष है, जाहिर है , यह इन कविताओं का खूबसूरत पक्ष है ।हां, कविताओं में थोड़ा कसाव अपेक्षित है ।  अच्छी कविताओं के लिए मीना जी को बधाई ।

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