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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 अक्तूबर, 2016

लेख : धर्म और हमारा स्वतन्त्रता संग्राम : भगतसिंह

तितिक्षा:-: सुभोर साथियो,

साथियों जैसा की हम सभी जानते है 28 सितम्बर को महान क्रांतिकारी भगतसिंह जी की जन्मतिथि थी।

आइये आज पढ़ते हैं महान क्रांतिकारी शहीद-ए-आजम भगत सिंह का यह लेख
इसे पढ़कर खुलकर अपने विचार रखें ।

धर्म और हमारा स्वतन्त्रता संग्राम
भगतसिंह

मई, 1928 के ‘किरती’ में यह लेख छपा। अमृतसर में अप्रैल में राजनीतिक कॉन्फ्रेंस और नौजवान सभा की कॉन्फ्रेंस हुई थी, जिसमें धर्म की समस्या पर शहीद भगतसिंह और उनके साथियों में जमकर विचार-विमर्श हुआ। यह लेख उसी मसले पर प्रकाश डालता है। – स-

अमृतसर में 11-12-13 अप्रैल को राजनीतिक कॉन्फ्रेंस हुई और साथ ही युवकों की भी कॉन्फ्रेंस हुई। दो-तीन सवालों पर इसमें बड़ा झगड़ा और बहस हुई। उनमें से एक सवाल धर्म का भी था। वैसे तो धर्म का प्रश्न कोई न उठाता, किन्तु साम्प्रदायिक संगठनों के विरुद्ध प्रस्ताव पेश हुआ और धर्म की आड़ लेकर उन संगठनों का पक्ष लेने वालों ने स्वयं को बचाना चाहा। वैसे तो यह प्रश्न और कुछ देर दबा रहता, लेकिन इस तरह सामने आ जाने से स्पष्ट बातचीत हो गयी और धर्म की समस्या को हल करने का प्रश्न भी उठा। प्रान्तीय कॉन्‍फ्रेंस की विषय समिति में भी मौलाना जफ़र अली साहब के पाँच-सात बार ख़ुदा-ख़ुदा करने पर अध्यक्ष पण्डित जवाहरलाल ने कहा कि इस मंच पर आकर ख़ुदा-ख़ुदा न कहें। आप धर्म के मिशनरी हैं तो मैं धर्महीनता (Irreligion) का प्रचारक हूँ। बाद में लाहौर में भी इसी विषय पर नौजवान सभा ने एक मीटिग की। कई भाषण हुए और धर्म के नाम का लाभ उठाने वाले और यह सवाल उठ जाने पर झगड़ा हो जाने से डर जाने वाले कई सज्जनों ने कई तरह की नेक सलाहें दीं।

सबसे ज़रूरी बात जो बार-बार कही गयी और जिस पर श्रीमान भाई अमर सिह जी झबाल ने विशेष ज़ोर दिया, वह यह थी कि धर्म के सवाल को छेड़ा ही न जाये। बड़ी नेक सलाह है। यदि किसी का धर्म बाहर लोगों की सुख-शान्ति में कोई विघ्न न डालता हो तो किसी को भी उसके विरुद्ध आवाज़ उठाने की क्या ज़रूरत हो सकती है? लेकिन सवाल तो यह है कि अब तक का अनुभव क्या बताता है? पिछले आन्दोलन में भी धर्म का यही सवाल उठा और सभी को पूरी आज़ादी दे दी गयी। यहाँ तक कि कांग्रेस के मंच से भी आयतें और मन्त्र पढ़े जाने लगे। उन दिनों धर्म में पीछे रहने वाला कोई भी आदमी अच्छा नहीं समझा जाता था। फलस्वरूप संकीर्णता बढ़ने लगी।

जो दुष्परिणाम हुआ, वह किससे छिपा है? अब राष्ट्रवादी या स्वतन्त्रता प्रेमी लोग धर्म की असलियत समझ गये हैं और वही उसे अपने रास्ते का रोड़ा समझते हैं।

बात यह है कि क्या धर्म घर में रखते हुए भी, लोगों के दिलों में भेदभाव नहीं बढ़ता? क्या उसका देश के पूर्ण स्वतन्त्रता हासिल करने तक पहुँचने में कोई असर नहीं पड़ता? इस समय पूर्ण स्वतन्त्रता के उपासक सज्जन धर्म को दिमाग़ी ग़ुलामी का नाम देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि बच्चे से यह कहना कि – ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं, मिट्टी का पुतला है – बच्चे को हमेशा के लिए कमज़ोर बनाना है। उसके दिल की ताक़त और उसके आत्मविश्वास की भावना को ही नष्ट कर देना है। लेकिन इस बात पर बहस न भी करें और सीधे अपने सामने रखे दो प्रश्नों पर ही विचार करें तो भी हमें नज़र आता है कि धर्म हमारे रास्ते में एक रोड़ा है। मसलन हम चाहते हैं कि सभी लोग एक-से हों। उनमें पूँजीपतियों के ऊँच-नीच की छूत-अछूत का कोई विभाजन न रहे। लेकिन सनातन धर्म इस भेदभाव के पक्ष में है। बीसवीं सदी में भी पण्डित, मौलवी जी जैसे लोग भंगी के लड़के के हार पहनाने पर कपड़ों सहित स्नान करते हैं और अछूतों को जनेऊ तक देने से इन्कारी है। यदि इस धर्म के विरुद्ध कुछ न कहने की क़सम ले लें तो चुप कर घर बैठ जाना चाहिए, नहीं तो धर्म का विरोध करना होगा। लोग यह भी कहते हैं कि इन बुराइयों का सुधार किया जाये। बहुत ख़ूब! छूत-अछूत को स्वामी दयानन्द ने जो मिटाया तो वे भी चार वर्णों से आगे नहीं जा पाये। भेदभाव तो फिर भी रहा ही। गुरुद्वारे जाकर जो सिख ‘राज करेगा खालसा’ गायें और बाहर आकर पंचायती राज की बातें करें, तो इसका मतलब क्या है?

धर्म तो यह कहता है कि इस्लाम पर विश्वास न करने वाले को फिर तलवार के घाट उतार देना चाहिए और यदि इधर एकता की दुहाई दी जाये तो परिणाम क्या होगा? हम जानते हैं कि अभी कई और बड़े ऊँचे भाव की आयतें और मन्त्र पढ़कर खींचतान करने की कोशिश की जा सकती है, लेकिन सवाल यह है कि इस सारे झगड़े से छुटकारा ही क्यों न पाया जाये? धर्म का पहाड़ तो हमें हमारे सामने खड़ा नज़र आता है। मान लें कि भारत में स्वतन्त्रता-संग्राम छिड़ जाये। सेनाएँ आमने-सामने बन्दूकें ताने खड़ी हों, गोली चलने ही वाली हो और यदि उस समय कोई मुहम्मद गौरी की तरह – जैसीकि कहावत बतायी जाती है – आज भी हमारे सामने गायें, सूअर, ग्रन्थ साहिब, वेद-क़ुरान आदि चीज़ें खड़ी कर दी जायें, तो हम क्या करेंगे? यदि पक्के धार्मिक होंगे तो अपना बोरिया-बिस्तर लपेटकर घर बैठ जायेंगे। धर्म के होते हुए हिन्दू-सिख गाय पर और मुसलमान सूअर पर गोली नहीं चला सकते। धर्म के बड़े पक्के इन्सान तो उस समय सोमनाथ के कई हज़ार पण्डों की तरह ठाकुरों के आगे लौटते रहेंगे और दूसरे लोग धर्महीन या अधर्मी-काम कर जायेंगे। तो हम किस निष्कर्ष पर पहुँचे? धर्म के विरुद्ध सोचना ही पड़ता है। लेकिन यदि धर्म के पक्ष वालों के तर्क भी सोचे जायें तो वे यह कहते हैं कि दुनिया में अन्धेर हो जायेगा, पाप बढ़ जायेगा। बहुत अच्छा, इसी बात को ले लें।

रूसी महात्मा टॉल्स्टॉय ने अपनी पुस्तक (Essay and Letters)) में धर्म पर बहस करते हुए उसके तीन हिस्से किये हैं –

1-  Essentials of Religion यानी धर्म की ज़रूरी बातें अर्थात सच बोलना, चोरी न करना, ग़रीबों की सहायता करना, प्यार से रहना, वग़ैरा।

2-  Philosophy of Religion, यानी जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, संसार-रचना आदि का दर्शन। इसमें आदमी अपनी मज़ीर् के अनुसार सोचने और समझने का यत्न करता है।

3-  Rituals of Religion यानी रस्मो-रिवाज़ वग़ैरा। मतलब यह कि पहले हिस्से में सभी धर्म एक हैं। सभी कहते हैं कि सच बोलो, झूठ न बोलो, प्यार से रहो। इन बातों को कुछ सज्जनों ने Individual Religion कहा है। इसमें तो झगड़े का प्रश्न ही नहीं उठता। वरन यह कि ऐसे नेक विचार हर आदमी में होने चाहिए। दूसरा फ़िलासफ़ी का प्रश्न है। असल में कहना पड़ता है कि Philosophy is the outcome of Human weakness यानी फ़िलासफ़ी आदमी की कमज़ोरी का फल है। जहाँ भी आदमी देख सकते हैं। वहाँ कोई झगड़ा नहीं। जहाँ कुछ नज़र न आया, वहीं दिमाग़ लड़ाना शुरू कर दिया और ख़ास-ख़ास निष्कर्ष निकाल लिये। वैसे तो फ़िलासफ़ी बड़ी ज़रूरी चीज़ है, क्योंकि इसके बग़ैर उन्नति नहीं हो सकती, लेकिन इसके साथ-साथ शान्ति होनी भी बड़ी ज़रूरी है। हमारे बुज़ुर्ग कह गये हैं कि मरने के बाद पुनर्जन्म भी होता है, ईसाई और मुसलमान इस बात को नहीं मानते। बहुत अच्छा, अपना-अपना विचार है। आइये, प्यार के साथ बैठकर बहस करें। एक-दूसरे के विचार जानें। लेकिन ‘मसला-ए-तनासुक’ पर बहस होती है तो आर्यसमाजियों व मुसलमानों में लाठियाँ चल जाती हैं। बात यह कि दोनों पक्ष दिमाग़ को, बुद्धि को, सोचने- समझने की शक्ति को ताला लगाकर घर रख आते हैं। वे समझते हैं कि वेद भगवान में ईश्वर ने इसी तरह लिखा है और वही सच्चा है। वे कहते हैं कि क़ुरान शरीफ़ में ख़ुदा ने ऐसे लिखा है और यही सच है। अपने सोचने की शक्ति (Power of Reasoning) को छुट्टी दी हुई होती है। सो जो फ़िलासफ़ी हर व्यक्ति की निजी राय से अधिक महत्त्व न रखती हो तो एक ख़ास फ़िलासफ़ी मानने के कारण भिन्न गुट न बनें, तो इसमें क्या शिकायत हो सकती है।

अब आती है तीसरी बात – रस्मो-रिवाज़। सरस्वती-पूजा वाले दिन, सरस्वती की मूर्ति का जुलूस निकलना ज़रूरी है। उसमें आगे-आगे बैण्ड-बाजा बजना भी ज़रूरी है। लेकिन हैरीमन रोड के रास्ते में एक मस्जिद भी आती है। इस्लाम धर्म कहता है कि मस्जिद के आगे बाजा न बजे। अब क्या होना चाहिए? नागरिक आज़ादी का हक़ (Civil rights of citizen) कहता है कि बाज़ार में बाजा बजाते हुए भी जाया जा सकता है। लेकिन धर्म कहता है कि नहीं। इनके धर्म में गाय का बलिदान ज़रूरी है और दूसरे में गाय की पूजा लिखी हुई है। अब क्या हो? पीपल की शाखा कटते ही धर्म में अन्तर आ जाता है तो क्या किया जाये? तो यही फ़िलासफ़ी व रस्मो-रिवाज़ के छोटे-छोटे भेद बाद में जाकर (National Religion)) बन जाते हैं और अलग-अलग संगठन बनने के कारण बनते हैं। परिणाम हमारे सामने है।

सो यदि धर्म पीछे लिखी तीसरी और दूसरी बात के साथ अन्धविश्वास को मिलाने का नाम है, तो धर्म की कोई ज़रूरत नहीं। इसे आज ही उड़ा देना चाहिए। यदि पहली और दूसरी बात में स्वतन्त्र विचार मिलाकर धर्म बनता हो, तो धर्म मुबारक़ है।

लेकिन अलग-अलग संगठन और खाने-पीने का भेदभाव मिटाना ज़रूरी है। छूत-अछूत शब्दों को जड़ से निकालना होगा। जब तक हम अपनी तंगदिली छोड़कर एक न होंगे, तब तक हममें वास्तविक एकता नहीं हो सकती। इसलिए ऊपर लिखी बातों के अनुसार चलकर ही हम आज़ादी की ओर बढ़ सकते हैं। हमारी आज़ादी का अर्थ केवल अंग्रेज़ी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं, वह पूर्ण स्वतन्त्रता का नाम है – जब लोग परस्पर घुल-मिलकर रहेंगे और दिमाग़ी ग़ुलामी से भी आज़ाद हो जायेंगे।

प्रस्तुति-बिजूका समूह
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टिप्पणियां:-

पूनम:-
सारगर्भित सटीक है मगर धर्म के पीछे हाथ धोकर मत पडियेगा  । धर्म यानि
धारण करना अपने विश्वास को अपनी आशा को लेकर चलना । भगतसिंह जी का यह लेख सचमुच सटीक है मगर सबकी अपनी मान्यताओ को भी वैसे ही रहने दीजिए हमारे अजमेर मे तो ख्वाजा साहब की दरगाह पर हिन्दू वसंत पेश करते है होली पर गुलाल लगाया जाता है शुरुआत मुस्लिम भाई-बहन करते है । सब कुछ इन्द्रधनुषी रंगो मे सराबोर है । दिमागी गुलामी तब है जब एक दूसरे को हीनता के साथ देखे परखे । दिमागी गुलामी तब है जब खुद को सबसे ज्यादा तुर्रम खान समझने लगे । भारत के सभी सपूत सौहार्दपूर्ण रवैये के साथ रहते है । धर्म को उड़ा देने की कहाँ जरूरत है ।

डॉ शमां खान:-
समयानुकूल उदाहरण सहित देखें तो कई बातें सटीक हैं,दिमाग़ी बुखा र तो राजनीति के वायरस से,संकीर्ण स्वार्थ से पनपता है।धर्म जहाँ होगा मानवता और प्रेम स्वतः होगा।असुरक्षा ही कट्टरता को जन्म देती है।लेख में परिपक्वता का आभाव और युवा जोश समय की मांग के अनुकूल सही रहा हो,
पर यह सही है ,विचार रुकने नहीं चाहिए।

पूनम:-
सही कहा आपने बात यह है कि धर्म भी समाज का ही तो प्रतिबिम्‍ब है और गडबड तब होती है जब समाज अनुकूल आचरण नही होता बस धर्म की गलती मान ली जाती है मुझे तो सभी धर्मो पर बहुत गर्व है और सभी को समझने मे बडा आनन्द मिलता है मार्गदर्शन होता है
एक सरल वाक्य बचाना मेरा उद्देश्य है
मसलन यह कि हम इंसान हैं
मैं चाहता हूँ इस वाक्य की सचाई बची रहे
सड़क पर जो नारा सुनाई दे रहा है
वह बचा रहे अपने अर्थ के साथ
मैं चाहता हूँ निराशा बची रहे
जो फिर से एक उम्मीद
पैदा करती है अपने लिए
शब्द बचे रहें
जो चिड़ियों की तरह कभी पकड़ में नहीं आते

फ़रहत अली खान:-
लेख पढ़ते-पढ़ते कई भ्रामक और ग़लत तथ्य मिले। जिनमें से कुछ निम्न हैं:

"...धर्म तो ये कहता है कि इस्लाम पर विश्वास न करने वाले को फिर तलवार के घाट उतार देना चाहिए..."

"...धर्म के होते हुए मुसलमान सूअर पर गोली नहीं चला सकते..."

"...इनके(मुस्लिम) धर्म में गाय का बलिदान ज़रूरी है..."

शहीद भगत सिंह के लिए हर भारतीय के दिल में आदर भाव रहता है, मगर ये ज़रूरी नहीं कि हर कोई उनके फ़लसफ़े से सहमत हो, कम से कम मैं तो बिल्कुल नहीं।
अगर वो हयात होते तो ऊपर लिखे तथ्यों(ग़लत और भ्रामक) के सन्दर्भ मैं ज़रूर जानना चाहता।
उनके अलावा कोई और ये लेख लिखता तो मैं कहता कि ये तथ्य ग़लत नीयत से लिखे गए हैं, मगर उनके मामले में इसकी वजह कम-इल्मी और धर्मों के प्रति दुर्भावना/पूर्वाग्रह(बिना उनका अध्ययन किए) मालूम होती है।
तक़रीर करते वक़्त कोई ख़ुदा-ख़ुदा करे या आयत या मन्त्र पढ़े तो ये उसकी मर्ज़ी, श्रद्धा और सोच का मामला है, इस पर ऐतराज़ जताने वाला ऐसा करके दरअसल ख़ुद अपने विचार उस पर थोपने की कोशिश कर रहा है।
जब मैं मानता और जानता हूँ कि अल्लाह सर्वशक्तिमान है तो मैं अपने बच्चे को यही सच्चाई तो बताऊंगा। ये सोचना कि इससे वो मानसिक तौर पर कमज़ोर हो जायेगा, अतार्किक बात है। बल्कि इस बात से तो उसे और भी मानसिक मज़बूती मिलेगी कि जो होता है वो अल्लाह ही की मर्ज़ी से होता है, और बिना उसकी मर्ज़ी के कुछ नहीं होता।

आप भले ही ख़ुदा को, धर्म को न मानते हों, लेकिन फिर भी शराफ़त का तक़ाज़ा ये है कि अगर कोई दूसरा ख़ुदा को, धर्म को मानता हो तो आपके कम से कम उसके विचारों का सम्मान करें। लेख में कई जगह धार्मिक प्रतीकों का नाम बे-अदबी के साथ प्रयुक्त किया गया है, जिसके लिए मैं भगत सिंह जी को पूर्णतः ज़िम्मेदार मानता हूँ।

क्या विज्ञान अच्छाई-बुराई में फ़र्क़ कर सकता है? क्या वो बताता है कि इंसाफ़ और ना-इन्साफ़ी क्या है? क्या वो दया-ममता-करुणा-ज़ुल्म-अत्याचार को परिभाषित कर सकता है? क्या वो चोरी-डकैती-रिश्वत की कमाई और ईमानदारी-मेहनत की कमाई में फ़र्क़ कर सकता है?
ज़ाहिर है कि इसका जवाब है- 'नहीं'।
तो क्या बिना इन चीज़ों को परिभाषित किए हम एक इंच भी आगे बढ़ सकते है? ज़ाहिर है-'नहीं'

तो कौन इन तय करेगा कि अच्छा-बुरा, इंसाफ़-ना इन्साफ़ी, दया-करुणा-ममता-अत्याचार-ईर्ष्या, ईमानदारी-बेईमानी क्या है?

इसके बारे में धर्म आपको बताता है। ज़िन्दगी जीने का सही तरीक़ा ही तो अस्ल में धर्म है।

अब सवाल उठता है कि कौन सा धर्म?... तो ये आपका एकदम निजी मामला है। अगर दुविधा में हों तो विभिन्न धर्मों का अध्ययन करके जो सबसे बेहतर लगे वो अपना सकते हैं।

कार्ल मार्क्स या भगत सिंह जैसे ईश्वर और धर्म को न मानने वाले लोग(अगर वाक़ई ये ऐसे ही थे) जब समाज के उत्थान, देश के विकास(यानी अच्छाई-बुराई आदि) की बात करते हैं तो ये कहने में मुझे कोई गुरेज़ नहीं है कि बा-वजूद इसके कि इन्होंने ईश्वर और धर्म को नकारा, ये ज़रूर जाने-अनजाने में किसी न किसी धर्म की बातों से प्रभावित रहे होंगे।

कोई कहेगा कि मैं बाक़ी दिन चुप रहता हूँ, मगर ऐसे मुद्दों पर ज़रूर हाज़िर हो जाता हूँ, तो ये मैं मानता हूँ कि मुझे बाक़ी दिन भी ग्रुप पर आना चाहिए। और आगे इंशाअल्लाह ये कोशिश रहेगी।

शिशु पाल सिंह:-
बहुत ही सुन्दर और सारगर्भित लेख।यदि हम मानव समाज का इतिहास पढ़े तो हम पाएंगे कि मानवीय मूल्यों का जितना अहित धर्म ने किया है और किसी ने नहीं किया।शोषण,ऊँच नीच,छुआछूत,इंसान इंसान में भेद,और तमाम बुराइयो की जड़ यह धर्म ही है।जितना कत्लेआम इस धर्म के नाम पर हुआ है यह सभी लोग जानते है।राजाओ,बादशाहो,ने अपना राज्य सुरक्षित रखने और बढाने के लिए धर्म को ही हथियार के रूप प्रयोग किया।धर्म के नाम पर ठगी बादस्तूर जारी है। धर्म मानव समाज में सुख और शांति में बाधक बन रहा है।विकास में रोड़ा

शिशु पाल सिंह:-
है।याद रंखे कि लोकतंत्र और पूंजीवाद धर्म का विरोध करके ही मानव समाजइ स्थापित हुआ था।यदि समाज को आगे बढ़ना है तो धर्म से पीछा छुड़ाना ही पड़ेगा।

डॉ सुधा त्रिवेदी:-
ज़नाब फ़रहत अली ख़ान साहब को
सुधा त्रिवेदी की ज़ानिब से आदाब अर्ज़ है।

सबसे पहले तो मैं शहीद भगतसिंह को नमन करती हूँ जो न केवल बंदूक की क्रांति करना जनता था बल्कि 23 वर्ष की उम्र में ही जिसके इतने परिपक्व विचार थे बल्कि जो बड़ी स्पष्टता से , साहसपूर्वक उन्हें लिख भी सकता था।
उन शहीदों को सलाम ।
खान साहब ने उनके लेख में कुछ भ्रामक और ग़लत तथ्य पाए ।
वे हैं
पहला
"इस्लाम के अनुसार , इस्लाम पर विश्वास न करनेवालों को तलवार के घाट उतार देना चाहिए।"
जब खान साहब ने इसे ग़लत बताया तो मुझे बेहद ख़ुशी हुई क्योंकि आज तक मेरा भी यही मानना था । isi के वीडिओज़ में इतिहास की कुछ घटनाओं आदि के आधार पर मेरी भी और विश्व के अधिकांश ग़ैर इस्लामिक लोगों की यही धारणा है और इन दिनों पुष्ट भी हुई है। फरखुंदा को जब जीवित जला रहे थे तब भी इस तरह की नारेबाज़ियाँ होती दिखाई दे रही थीं। हमारे विद्वान भाई ने इसका खंडन किया है तो ज़रूर सच कह रहे होंगे । यदि सच में इस्लाम , ग़ैर इस्लामिकों के प्रति भी स्नेह और सहिष्णुता का आदेश देता है , तो यह खुश होने की बात है। हमारी श्रद्धा पहले भी सभी धर्मों के प्रति थी क्योंकि शहीद भगत के आलेख में उल्लिखित लियो टॉलस्टॉय द्वारा वर्णित  पहले मामले में तो सभी धर्म समान ही हैं और यही बुनियादी चीज़ है।और अब और बढ़ेगी ।
यह यदि भ्रामक तथ्य है तो वज़ह कम इल्मी या दुर्भावना न होकर अनुभव हैं। ज़ाहिर है कि सब लोग दुनियाभर की पोथी पत्रियां नहीं पढ़ लेते बल्कि अन्य लोगों के आचरण से निष्कर्ष निकाल लेते हैं। जैसे आम धारणा बन गई है कि हिंदू नाम से अभिहित जातियों की धर्म पुस्तकों में यही सब विधान लिक्खे होंगे ।
अब रह गई बात मंचों पर धर्म ध्वजों को फहराने से रोकने की बात जिसे अपनी विशिष्ट लेखन शैली में आयत -मंत्र पढ़ना लिखा है , तो उन्होंने उसका उद्देश्य ख़ुद ही स्पष्ट किया है कि इससे हम आपस में व्यर्थ खींचतान करेंगे और वास्तविक उद्देश्य से भटक जाएँगे।
भगत दूरद्रष्टा था बेटा। देखिए । आज वही हो रहा है। हम अवास्तविक झगड़ों में पड़े वास्तविक धर्म मनुष्यता को भूल रहे हैं।
खान साहब । उन्होंने यह नहीं कहा कि बच्चे को सच्चाई न बताइये मगर अतार्किक न बनाइये।
मुझे कहीं भी भगतसिंह के आलेख में किसी धर्म के प्रति बेअदबी नहीं दिखी। इन्होंने धर्म को नहीं धर्म के बेजा बंधनों से मुक्त होने का आह्वान किया है।
मैं लिखना बहुत चाहती हूँ पर कम समय और छोटे डिवाइस के कारण संभव नहीं हो पा रहा ।
थोड़ा लिखा , बहुत समझना भाई।
बुरा मत मानिए , मगर सभी धर्मों को आज के परिप्रेक्ष्यों में revise करके उन्हें एकीकृत किये जाने की आवश्यकता है।
धर्म आपस में लड़ने के लिए नहीं मिलजुलकर रहने के लिए बनाए गए हैं।

फ़रहत अली खान:-
धर्म के नाम पर अभी तक जितने झगड़े हुए हैं, वो दरअसल धर्म के बजाए अधर्म पर आधारित थे।
मक़सद रहा है सत्ता हथियाना, शक्ति प्राप्त करना और दोष मढ़ा गया धर्म पर। जबकि अक्सर ऐसे लोगों को धर्म का नाम मात्र भी ज्ञान नहीं होता। और उनको भी नहीं जो बिना सोचे समझे धर्म को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं। ये तथ्य आज के सन्दर्भ में भी परखा जा सकता है, मगर इसके लिए किसी भी पूर्वाग्रह से हटना पड़ेगा।
सच्चाई तो ये है कि अगर ईश्वर और धर्म पर विश्वास ख़त्म हो जाए तो मानवता तेज़ी से अपने पतन की ओर अग्रसर हो जायेगी।
'मानवता' तो पहले ही धर्म का मूल है, फिर इसे धर्म से अलग क्यूँ समझा जाए?
और अगर मान भी लें कि मानवता एक नए धर्म के तौर पर देखी जाए, तो ये कौन तय करेगा कि मानवता क्या है?
इसके पैमाने कौन तय करेगा?
अगर हरेक व्यक्ति ख़ुद अपने लिए इसके पैमाने तय करेगा तो एक शख़्स जो चोरी-डकैती कर रहा है या रिश्वत ले रहा है, अपने कर्मों को ये कह कर जस्टिफाई कर सकता है कि वो ये सब अपने परिवार को पालने के लिए करता है।
और इसके अलावा, कोई शख़्स जो ईश्वर और धर्म में विश्वास नहीं रखता, ये भी पूछ सकता है कि मानवता धर्म ही क्यूँ अपनाया जाए, इसके विपरीत कर्म क्यूँ न किए जाएँ? तब logically आपके पास कोई जवाब नहीं होगा। ऐसे में जवाब धर्म और ईश्वर के प्रति आस्था देती है।

अगर मैं(या कोई शख़्स जो अपना नाम मुसलमानों जैसा बताता हो) कोई ग़लत काम करे तो इसके लिए आप मुझे बे-शक ज़िम्मेदार ठहरा सकते हैं, मगर इसके लिए अगर आप मेरे धर्म(बिना उसका अध्ययन किए) को ज़िम्मेदार ठहराते हैं तो आप ख़ुद भी ज़ुल्म-नाइंसाफ़ी और ग़लत काम कर रहे हैं। इसीलिए मैंने भगत सिंह जी को उन भ्रामक और ग़लत तथ्यों के लिए ज़िम्मेदार माना, और मैं इस बात पर क़ायम हूँ।

किसी भी धर्म की आलोचना करने से पहले आपको उसकी किताबें पढ़नी चाहिए, न कि उसके अनुयाइयों(तथाकथित) के चरित्र देखकर आप ये निष्कर्ष निकालें।

Isis वालों के वहशी कारनामे या अख़लाक़ और एहसान जाफ़री के परिवार पर जय श्री राम बोलकर हमला करने वालों को देखकर किसी को क्रमशः मुस्लिम या हिन्दू धर्म की शिक्षाओं के ऊपर कोई निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए। ये मेरा मानना है

फ़रहत अली खान:-
मेरे पहले कमेंट में मैंने लेख में आए जिन भ्रामक और ग़लत तथ्यों का ज़िक्र किया है, उनके सन्दर्भ मुझे अगर मिल जाते तो मैं मान जाता कि मुझे ग़लतफहमी हुई है। मगर जहाँ तक मैं जानता हूँ, इन तथ्यों वाक़ई ग़लत हैं।

डॉ सुधा त्रिवेदी:-
खान भाई । यदि आपने ये बातें मुझे जवाब देते हुए कही हैं तो मैंने धर्म छोड़ने की बात नहीं कही। मैंने धर्मों को पुनः revise करके उन्हें एकीकृत करने की बात कही है। मैं तो निरीश्वरवादी हूँ ही नहीं , भगतसिंह भी हों , ऐसा इस आलेख से पता नहीं चलता। उन्होंने वहाँ कट्टरता से मुक्त होने की बात कही है जहाँ वह देश धर्म या समय की माँग की आपूर्ति में बाधक है।
मानवता के पैमाने तय भी हैं नहीं टी हम आप तय कर सकते हैं , ये तो बेहद सरल होगा। एक श्लोक है
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयं
परोपकार : पुण्याय पापाय परपीडणं।।

दूसरी बात
मैं यह नहीं कहती कि स्थापित धर्मों , दर्शनों , मान्यताओं को ध्वस्त कर कोई नई चीज स्थापित की जाए -ऐसा संभव ही नहीं हैं । जो सभ्य होने  के आधारभूत मापदंड हैं उन्हें आप कभी नहीं बदल सकते । हम नए पैमाने नहीं गढ़ सकते , मगर अलग अलग धर्मों द्वारा इस सभ्यता को सुस्थापित करने के लिए निर्देशित common चीजों को एक करके उसे नया नाम दे सकते हैं। अलग अलग नाम और लेबलिंग हटने से झगड़े कम होंगे।
जो लियो टॉलस्टॉय ने दूसरे और तीसरे no पर चीजें रखी हैं , उनमें से तीसरे no की चीजें - rituals उन्हें nullify या minimize किया जा सकता है । असल भेदभाव की जड़ यही है।
दूसरे no में जो चीजें हैं दर्शन की , वह चूँकि अधिकांशतः अनुमान या विश्वास आधारित है , वहाँ मतभिन्नता होगी , मगर उसको लेकर तो झगड़े हो नहीं रहे । दर्शनशास्त्र की धारा धर्म से जुड़ी होने पर भी सभ्यताओं को अधिक प्रभावित नहीं करती।

माना कि आप को सूअर पर गोली चलाने की मनाही नहीं है और गाय हमारे लिए पवित्र और देवस्वरूपा है आपके लिए सूअर उतना ही अछूत और नापाक । यहाँ तक कि सुना है आपको सूअर का नाम लेने की भी मनाही है और उसे बदकौम नाम दिया गया है और भगतसिंह जी ने उसे मारने की वैसी ही मनाही में शामिल किया जैसे गाय को । मानती हूँ दोनों में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है मगर हम यह क्यों भूलते हैं कि उन्होंने इतिहास की जिस क्रांति की ओर इशारा किया 1857 के ग़दर का तो वहाँ झंझट के जड़ में यही गाय सूअर का लफड़ा था। भगतसिंह जी केवल यह बताना चाहते थे कि जब इस तरह की मज़हबी बातें मुक्ति का आंदोलनों के आड़े आएँगी तो उस समय हमें अपनी तार्किकता से निर्णय लेने लायक़ बनना होगा ।
गाय हमारे लिए पूज्य इसीलिए है क्योंकि हम उसके दूध से पोषण पाते थे -हैं। उसे हमारे धर्म से जोड़ दिया गया कि उसका वध नहीं करना है। गोवध का निषेध परा वैदिक काल से ही है , मांस भक्षण के निषेध से पहले से ।
वैदिक ऋचाओं में अनेकानेक मंत्र इस प्रकार के हैं कि हमें पुष्ट गौओं से समृद्ध करो । हम उनके क्षीरोधन से पुष्ट हों।
यह भी कहा गया
अमृतं क्षीर भोजनं
इसी तरह सूअर इतना अपवित्र समझ गया था कि उसके मांस भक्षण का सख़्त निषेध किया गया , उन प्रदेशों में भी जहाँ मांस भक्षण क्षुधा तृप्ति का बड़ा विकल्प था ।इस सख़्ती को धर्म से जोड़ा गया ताक़ि वह अटूट हो जाए।

हमलोग धर्म पर चर्चा करें - बुरा माने बिना तो सुधार संभव है। लेकिन how dare u talking about my  religion तो फ़िर आगे रास्ते बंद हो जाएंगे । मेरे तुम्हारे छोड़कर revise करने का काम होना चाहिए।

फ़रहत अली खान:-: नहीं सुधा जी। मैं आपको नास्तिक नहीं बता रहा हूँ। दरअसल मेरा ये कमेंट पिछले सारे कमेंट्स के जवाब में था।
बल्कि मेरा तो ये मानना है कि कोई भी ऐसा शख़्स जो कहता है कि वो ईश्वर और धर्म में विश्वास नहीं रखता और साथ ही मानवता-दया-करुणा-न्याय में विश्वास रखता है; वो दरअसल ख़ुद सच्चा नास्तिक नहीं है।
क्योंकि सच्चा नास्तिक वो है जिसके लिए केवल established science ही असली सच्चाई हो। और चूँकि established science मानवता-करुणा-दया-न्याय आदि की कोई परिभाषा नहीं देती, तो उसे इन सब मूल्यों से कोई सरोकार न हो। वो बस अपने मतलब का पक्का हो, अपने फ़ायदे का यार हो। ऐसा किसी शख़्स किसी की भलाई के बारे में क्यूँ सोचेगा, जबकि established science किसी की भलाई करने के बारे में कोई प्रूव्ड कांसेप्ट नहीं देती।

लेकिन मुझे आज तक एक भी शख़्स ऐसा नहीं मिला, यानी दूसरे शब्दों में मैंने आज तक कोई असली नास्तिक नहीं देखा। हालाँकि ऐसे लोग कई बार मिले जो कहते हैं कि हम ईश्वर और धर्म में विश्वास नहीं रखते।

शिशु पाल सिंह:-
आप सभी सुधिजनो के समक्ष कुछ प्रश्न रख रहा हूँ कृपया अपने अमूल्य विचार देने का कष्ट करें ।
1 मानव समाज में ईश्वर चिंतन कब और क्यों आया।
2  ईश्वर चिंतन आने से मानव समाज में क्या परिवर्तन  हुए
3 धर्म की अवधारणा क्या है।
4 धर्म के उपस्थित रहते हुए समाज में इतना सांस्कृतिक पतन क्यों है।
5 सर्वसक्तिमान के उपस्तिथ रहते हुए समाज में इतना अत्याचार,शोषण,अमानवीय कृत्य क्यों

मीना अरोड़ा:-
हो सकता है आपको मेरे द्वारा दिये गये उत्तर संतुष्ट न कर पायें पर मैं छोटा सा प्रयास करना चाहती हूँ: -
1- मानसिक  और  आध्यात्मिक  रूप  से   समृद्ध  होने के बाद  मनुष्य  ने ईश्वर के  बारे में  चिंतन  शुरू किया । यह चिंतन जितना  गंभीर  होता  गया  उतनी  ही  शांति  का  अनुभव होता  गया ।  काल  तो  ठीक  ठीक  नहीं  बताया  जा सकता  मगर  वह आर्थिक  विकास  और  समृद्धि  के  बाद ही  आया  होगा ।
2.  ईश्वर  चिंतन  से मनुष्य  अधिक   प्रसन्न  और  शांत  चित्त  रहने लगा । व्यक्ति  जैसा होता है  समाज  भी  वैसा  हो जाता है  । इसलिए  समाज  में  खुशी  और शांति  बढ़ी ।
3. फिर  लोगों  और  समाज  ने  कुछ  नियम  कायदे  बनाए ।  उनका  पालन  ही धर्म  कहलाया । इससे  समाज  में  आदर्श  व्यवस्था  कायम हुई ।
4. जब अधर्मी  और  धर्म  का  सही पालन  न करने  वाले  अधिक होते हैं  तो  समाज  और  व्यक्ति  का पतन  शुरू  होता है । सांस्कृतिक  पतन भी  उसी   में  शामिल  है ।
5. सर्वशक्तिमान  हर जीव  के काम  में  हस्तक्षेप  नहीं  करता। उसने  संसार  रचा  और  एक व्यवस्था  बना  दी ।  उसके  पालन  करने  और  न करने  वालों  का सब हिसाब   उसके  पास  रहता है । अत्याचार,  शोषण,  अमानवीय  कृत्य  वही करते हैं  जो इस  व्यवस्था  को  नहीं   मानते ।

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