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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

25 अक्टूबर, 2016

प्रवासी स्त्री मज़दूर: घरों की चारदीवारी में क़ैद आधुनिक ग़ुलाम:- लता

सुभोर साथियो,

आज आप सबके लिए प्रस्तुत है एक लेख इसे पढ़ें व खूब चर्चा करें ।

प्रवासी स्त्री मज़दूर: घरों की चारदीवारी में क़ैद आधुनिक ग़ुलाम:- लता

अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार विश्व स्तर पर होने वाले मज़दूरों के प्रवास में स्त्री मज़दूरों का हिस्सा आधे के बराबर है। लेकिन श्रम के चरित्र के निर्धारण में प्रवासी स्त्री मज़दूरों के पास विकल्प न के बराबर है और ये जिस देश में जाती हैं वहाँ भी श्रम विभाजन में लिंग भेद का प्रत्यक्ष सामना करती हैं। उनके हिस्से वही काम आता है जिसे परम्परागत रूप से औरतों के काम का दायरा समझा जाता है-साफ़-सफ़ाई, खाना बनाना, कपड़े धोना, बच्चों-बुज़ुर्गों की देखभाल आदि घरेलू कामकाज। घरेलू श्रम, श्रम का सबसे अनुत्पादक, उबाऊ और थकाने वाला स्वरूप होता है। घरों में मानो यह प्राकृतिक तौर पर स्थापित है कि ये काम घर की औरतें ही करेंगी। लेकिन आज पूँजीवाद के भूमण्डलीकरण के इस दौर में धनी देशों का एक बड़ा तबक़ा और विकासशील देशों का भी एक तबक़ा निजीकरण और नवउदारवादी नीतियों का फ़ायदा उठाकर जीवन के सारे ऐशो-आराम और ऐश्वर्य के मज़े लूट रहा है। वह तबक़ा अपने वर्ग की औरतों के लिए ‘सापेक्षिक’ आज़ादी ख़रीदने की क्षमता रखता है और उन्हें इन घरेलू कामकाज से मुक्त करने के लिए दूसरों का श्रम ख़रीदता है। जैसाकि पहले ही कहा गया है कि घरेलू श्रम, श्रम का सबसे अनुत्पादक, बर्बर, उबाऊ और थकाने वाला स्वरूप है, लेकिन बाहर से ख़रीदे जाने पर अक्सर यह बर्बरता का भीषणतम रूप अख्‍त़ियार कर लेता है। श्रम का यह स्वरूप अपने घरेलू दायरे की वजह से सर्वाधिक असुरक्षित और असंगठित क्षेत्र बनकर रह जाता है। घरेलू श्रम की सुरक्षा के लिए क़ानून न के बराबर हैं और जो हैं भी उनका लागू होना कठिन है।

घरेलू श्रम के रूप में प्रवासी मज़दूरों की स्थिति और भी असुरक्षित हो जाती है। सभी विकसित देशों में आप्रवासन क़ानूनों के ज़्यादा कठोर होने की वजह से ये घरेलू मज़दूर अपने मालिकों से पूरी तरह बँधे होते हैं और बचकर भाग निकलने की स्थिति में उन्हें देशनिकाला का सामना करना पड़ता है। दूसरे देश जाकर काम करने के लिए वीज़ा, पासपोर्ट और यात्रा में होने वाले ख़र्चे के लिए ये अक्सर स्थानीय सूदख़ोरों से भारी क़र्ज़ लेते हैं जिसकी भरपाई नहीं होने पर इनके लिए अपने देश वापस जाना बेहद कठिन होता है। उन्हें पता होता है कि उनकी नौकरी घर के छोटे भाई-बहनों या बेटे-बेटियों के भोजन का, बूढ़े या बीमार माँ-बाप के पोषण-इलाज का एकमात्र ज़रिया है। इसलिए मालिकों द्वारा दी जाने वाली शारीरिक-मानसिक प्रताड़नाओं को सहने के अलावा इनके पास कोई और चारा नहीं रहता। वैसे तो खाड़ी देशों से लेकर विकसित देशों तक सभी जगह प्रवासी मज़दूरों की स्थिति गुलामों की तरह ही है। लेनिन ने 1913 में एक लेख लिखा था ‘सभ्य यूरोपीय और बर्बर एशियाई’, जिसमें तथाकथित सभ्य यूरोपीय समाज के ऊपर कटाक्ष किया था। इसमें उन्होंने बताया कि रंगून में एक ब्रिटिश कर्नल ने घर में काम करने वाली एक 11 साल की लड़की का बलात्कार किया था। इसके बाद जज ने कर्नल को ज़मानत दे दी और कर्नल ने अपने ख़रीदे गवाहों से यह सिद्ध किया कि वह 11 साल की लड़की वेश्या है और फिर जज ने कर्नल को केस से पूरी तरह बरी कर दिया।

घर में काम करने वाले मज़दूरों की स्थिति हमेशा से ही ख़राब रही है, लेकिन आज जब पूँजीवाद अपने सबसे अनुत्पादक और परजीवी चरण में पहुँच गया है और इसने मानवीय मूल्यों के क्षरण और पतन की सारी सीमाएँ तोड़ दी हैं तो इन परिस्थितियों में समाज का सर्वाधिक कमज़ोर और अरक्षित हिस्सा जैसे बच्चे, औरतें और घरों में काम करने वाले आदि इस क्षरण और पतन का शिकार सबसे ज़्यादा होता है। घरों में काम करने वाले स्त्री-पुरुषों के साथ मार-पीट, गालियाँ, यौन उत्पीड़न बेहद सामान्य है लेकिन पिछले एक दशक से स्त्री मज़दूरों में जो ज़्यादातर घरेलू नौकरानी का काम करती हैं, उनमें काम की जगह से भागने के दौरान मौत या आत्महत्या की घटनाएँ बहुत अधिक बढ़ी हैं। इस उत्पीड़न से बच निकली स्त्रियों के लिए लेबनान तथा यूरोप के कई देशों में कुछ आश्रय गृह बने हैं। ब्रिटेन के आश्रयगृह में रहने वाली एक औरत का कहना है कि वह भाग्यशाली है कि वह बच निकली लेकिन उसके जैसी हज़ारों-हज़ार ऐसी औरतें हैं जो चुपचाप यह अत्याचार और उत्पीड़न झेल रही हैं और उनके पास बच निकलने का कोई रास्ता भी नहीं है।

आइएलओ के अनुसार स्त्री मज़दूरों के प्रवास और घरेलू श्रम के बीच स्पष्ट सम्बन्ध है। प्रवासी मज़दूर औरतें मुख्यतः घरों में काम करने के लिए विदेश जाती हैं। भारत, चीन, फ़िलिपींस, श्रीलंका, कम्बोडिया, बर्मा, सब-सहारा अफ़ीका के देशों से मज़दूर स्त्रियाँ खाड़ी देशों, चीन, मलेशिया, सिंगापूर, थाइलैण्ड आदि देशों में घरेलू नौकरानी का काम करने के लिए जाती हैं तथा अमेरिका में इन देशों के अलावा भारी तादाद में लातिन अमेरिका के देशों से औरतें घरेलू काम के लिए जाती हैं। इसके अलावा कई औरतों को घरेलू काम दिलाने का वायदा करके ले जाया जाता है और उन्हें जबरन वेश्यावृत्ति में धकेल दिया जाता है। मानव तस्करी की शिकार औरतें भी वेश्यावृत्ति के जाल में फँस जाती हैं।

domestic worker 2खाड़ी देशों में कम से कम 146,000 प्रवासी घरेलू कामगार हैं जिनमें से ज़्यादातर एशिया और अफ़ीका के देशों से हैं। अन्य प्रवासी मज़दूरों की तरह ये घरेलू मज़दूर औरतें भी अपने मालिकों से ‘कफ़ाला व्यवस्था’ से बँधी होती हैं। इस व्यवस्था के अनुसार अपना कॉन्ट्रैक्ट पूरा होने तक मज़दूर अपने मालिक या एजेण्ट से बँधा होता है। वह किसी भी हालत में काम नहीं छोड़ सकता, न ही कॉन्ट्रैक्ट तोड़ सकता है। यहाँ तक कि अपने देश वापस आने की भी इजाज़त मालिक की रज़ामन्दी पर ही मिलती है। इस व्यवस्था की वजह से ज़्यादातर मज़दूर औरतें हिंसा, उत्पीड़न और अत्याचार भरे माहौल में जकड़कर रह जाती हैं। ‘कफ़ाला व्यवस्था’ संयुक्त अरब अमीरात में आने वाले सभी स्त्री-पुरुष मज़दूरों पर लागू होती है, लेकिन घर की चारदीवारी में बन्द किसी मज़दूर औरत को यह व्यवस्था बिल्कुल अलगाव में डाल कर, निराश, हताश और असुरक्षित कर देती है। ह्यूमन राइट वाच (एचआरडब्यू) ने संयुक्त अरब अमीरात में घरेलू काम करने वाली 99 औरतों का साक्षात्कार लिया गया था, इस रिपोर्ट के अनुसार विश्व के सबसे अमीर देश में इन घरेलू मज़दूर औरतों को बिना आराम लगभग 21 घण्टों तक काम करना पड़ता है, बेहद कम या लगभग न के बराबर भुगतान किया जाता है, ज़्यादातर को खाने को पर्याप्त नहीं मिलता, पिटाई आम बात है, कहीं भी आने-जाने पर पाबन्दी होती है, कइयों का यौन उत्पीड़न होता है और लगभग सभी का पासपोर्ट ज़ब्त कर लिया जाता है। मज़दूर अधिकारों के हनन और अपनी ‘कफ़ाला व्यवस्था’ के लिए कुख्यात संयुक्त अरब अमीरात अब अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन के प्रबन्ध मण्डल (गवर्निंग बोर्ड) का प्रभावी सदस्य होने जा रहा है।

गार्डियन अख़बार के डैन मैकडगॉल ने मध्य एशिया से लेकर ब्रिटेन तक में घरेलू स्त्री मज़दूरों के शोषण और उत्पीड़न पर एक रिपोर्ट बनायी है, जिसमें उन्होंने दिखाया है कि घरेलू स्त्री मज़दूरों की मृत्यु की बढ़ती घटनाएँ जिसे मध्य एशिया की सरकारें आत्महत्या कहकर केस बन्द कर देती है, वास्तव में वह या तो मालिकों द्वारा की गयी हत्या होती है या बेहद असह्य, बर्बर और अमानवीय काम की परिस्थितियों से बचकर भागने की कोशिश में हुई मौत होती है। यदि ये किसी तरह भाग भी निकलती हैं तो पुलिस इन्हें पकड़कर वापस मालिकों तक पहुँचा देती हैं। इसके अलावा यहाँ नौकरों के लिए कोई श्रम क़ानून नहीं है। 2012 में एक इथियोपियाई नौकरानी को लेबनान में सड़क पर बुरी तरह पीटा गया, एजेण्ट उसे ज़बरन वापस भेजना चाहते थे। राहगीर बस देख रहे थे, लेकिन कोई भी इस महिला को बचाने के लिए आगे नहीं आया। पुलिस द्वारा अस्पताल पहुँचाने के दो दिनों बाद इस महिला ने अस्पताल में आत्महत्या कर ली। वह महिला वापस अपने देश नहीं जा सकती थी और कफ़ाला व्यवस्था की वजह से वह कहीं और काम नहीं कर सकती थी। समझा जा सकता है कि ‘कफ़ाला व्यवस्था’ मज़दूरों को किस कदर हताश-निराश छोड़ देती है। मगर  यह व्यवस्था यदि हट भी जाये तो भी घरेलू मज़दूरों की स्थिति में ख़ास परिवर्तन की अपेक्षा नहीं की जा सकती है, क्योंकि मध्य एशिया में घरेलू मज़दूरों के लिए कोई क़ानूनी अधिकार नहीं हैं।

यूरोप में मज़दूरों के लिए दर्ज क़ानूनी अधिकार के सम्बन्ध में भी प्रवासी मज़दूरों की स्थिति को लेकर गहरी उदासीनता है और प्रवासी घरेलू मज़दूरों की चर्चा न के बराबर है। यूरोप में भी घरेलू मज़दूरों की स्थिति भी विश्व के अन्य हिस्सों जैसी ही हैं, बर्बर, अमानवीय गुलामों सी। वर्तमान समय में ब्रिटेन में घरेलू मज़दूरों की माँग विश्व के किसी भी हिस्से से सबसे ज़्यादा है। डैन मैकडगॉल की ही रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटेन में 86 प्रतिशत घरेलू मज़दूरी करने वाली प्रवासी स्त्रियों को 16 घण्टे से ज़्यादा काम करना पड़ता है, 71 प्रतिशत को भोजन न के बराबर मिलता है, 32 प्रतिशत के पासपोर्ट जब्त कर लिये गये हैं और 32 प्रतिशत के साथ शारीरिक और यौन उत्पीड़न होता है।

मई-जून 2014 में लातिन अमेरिका के ग़रीब और पिछड़े देश जैसे एल सल्वादोर, होंडुरास आदि देशों में माफ़िया और एजेण्टों ने यह अफ़वाह उड़ा दी कि अमेरिकी सरकार छोटे बच्चों वाली और गर्भवती महिलाओं के प्रति सहानुभूति दर्शाते हुए उन्हें अमेरिकी नागरिकता दे रही है। ग़रीबी और बेरोज़गारी की मार झेल रही कई लातिनी महिलाएँ  बेहतर ज़िन्दगी की उम्मीद में उनके पास जो कुछ भी था, उसे एजेण्ट के कमीशन और यात्रा के ख़र्चे पर फूँककर अमेरिका-मेक्सिको बॉर्डर पार करने चली आयीं। यहाँ आकर उन्हें सच्चाई का पता चला और अब वे अधर में हैं। यदि वे वापस चली भी गयीं तो उनके पास कुछ भी बचा नहीं है। अब पकड़े जाने पर उनके पास अमेरिका में रहने का कोई उपाय नहीं। वहीं अचानक से आयी औरतों और बच्चों की इस बाढ़ को देखकर ओबामा ने सीमा क्षेत्र पर सुरक्षा और सख़्त करने का ऐलान किया है।

लातिन अमेरिका से आयी गै़र-क़ानूनी प्रवासी औरतों की जीवन परिस्थितियाँ भी पुरुषों के समान ही कठिन होती हैं, लेकिन इस आबादी के बड़े हिस्से को विकल्पहीनता की स्थिति में या ज़बरदस्ती वेश्यावृत्ति या नशीले पदार्थों की बिक्री के व्यापार में धकेल दिया जाता है। ग़ैर क़ानूनी आप्रवासी मज़दूर जिसमें औरतें भी शामिल हैं सर्वाधिक श्रमसाध्य काम करते हैं और उन्हें बेहद कम या न के बराबर मेहनताना मिलता है।

अमेरिका में भी घरेलू मज़दूरों की स्थिति विश्व के बाक़ी हिस्सों जैसी ही है। यहाँ भी घरेलू काम ज़्यादातर फ़िलिपींस, इण्डोनेशिया, अप्ऱफ़ीका और लातिन अमेरिका से आयी औरतें ही करती हैं। कई ऐसी घटनाएँ सामने आयी हैं जिनमें घरेलू मज़दूरों को बिना पगार क़ैद करके सालों काम करवाया गया। ऐनी जॉर्ज नाम की एक महिला ने एक गै़र-क़ानूनी प्रवासी महिला को 5 सालों तक अपने बँगले में क़ैद कर गुलामों की तरह खटाया था। यह कोई अकेली घटना नहीं है, इसके अलावा प्रवासी औरतें जो क़ानूनी तौर पर घरों में काम करती हैं, उनकी स्थिति कोई ख़ास बेहतर नहीं है। ये भी बिना छुट्टी पूरे-पूरे सप्ताह 16 से 18 घण्टे काम करती हैं, खाने को कम और सोने की उचित जगह भी नहीं मिलती है।

28 फ़रवरी 2014 को हाँगकाँग शहर में सैकड़ों प्रवासी घरेलू स्त्री मज़दूरों ने अपने अधिकारों के लिए एक प्रदर्शन किया। आईएलओ की रिपोर्ट के अनुसार पूरे विश्व में घरेलू मज़दूरों के मात्र 10 प्रतिशित हिस्से को न्यूनतम मज़दूरी मिलती है।  जापान और कोरिया जैसे देशों में जहाँ न्यूनतम मज़दूरी लागू की जाती है, वहाँ भी घरेलू मज़दूर न्यूनतम मज़दूरी के दायरे से बाहर रह जाते हैं। वैसे घरेलू मज़दूर जो किसी एक मालिक के लिए काम नहीं करते और जो मालिक के साथ नहीं रहते, उनके लिए अपने क्षेत्र के बाक़ी मज़दूरों के साथ मिलकर न्यूनतम मज़दूरी और काम की परिस्थितियों में सुधार के लिए संघर्ष कर पाना थोड़ा आसान होगा। लेकिन किसी दूसरे देश से आकर 24 घण्टे मालिक के साथ रहने वाली प्रवासी स्त्री मज़दूरों की स्थिति बेहद कठिन होती है, क्योंकि वे समाज के बाक़ी हिस्सों से कटी हुई होती है। यदि कोई सम्पर्क भी हो तो भाषाई और संस्कृति भेद की वजह से दूरी बनी रहती है।

यह व्यवस्था जो ग़रीबों को अपनी जगह-ज़मीन से उजड़कर अनजान शहर और देश की ओर प्रवास करने के लिए मजबूर करती है, मज़दूर के शरीर के एक-एक कतरे को निचोड़ने के लिए रोज़ नये-नये दाँत तेज़ करती है, वह एक-दो क़ानून बना भी दे तो वह हाथी के दिखाने के दाँत होंगे। इसके अलावा घर की चारदीवारी के अन्दर किसी भी क़ानून का प्रभावी ढंग से लागू हो पाना असम्भवप्राय है। कहा जा सकता है कि इन क़ानूनों की स्थिति भी भारत में दहेज़ या घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ बने क़ानूनों की तरह ही होगी। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हक़ों के लिए लड़ा नहीं जाये। पहले तो इन क़ानूनों को बनाने के लिए संघर्ष करना ही होगा, इस असुरक्षित, घरों में क़ैद मज़दूर आबादी को क़ानूनी हक़ के दायरे में लाया जाना बेहद ज़रूरी है।

जब तक ऐसा कोई समाज अस्तित्व में नहीं आता जो घरेलू काम से औरतों को मुक्त नहीं करता और इन कामों को घर की चारदीवारी से निकालकर समाज की ज़िम्मेदारी नहीं बना देता, घरेलू दायरे में होने वाले उत्पीड़न या हिंसा से समाज को और औरतों को मुक्त नहीं किया जा सकता। हमें लेनिन के उस कथन को नहीं भूलना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा था कि औरतों की मुक्ति तब तक सम्भव नहीं जब तक उन्हें चूल्हे-चौके और बच्चों के परवरिश से मुक्त नहीं किया जाता। इन सारे कामों के पूरा करने की ज़िम्मेदारी समाज को लेनी होगी, तब ही सही मायने में औरतों की मुक्ति की ज़मीन तैयार होगी। 1917 की रूस की सर्वहारा क्रान्ति ने यह कर दिखाया था, औरतों को चूल्हे-चौके की गुलामी से मुक्त किया और कई ऐसे स्त्री विरोधी क़ानूनों को ख़त्म कर नये क़ानून बनाये गये और उन्हें लागू किया गया जिससे सही मायनों में औरतों को समाज में समान हक़ और अधिकार मिले। औरतें सही मायने में आज़ाद हुईं।
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प्रस्तुति-बिजूका समूह

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