तितिक्षा:-: सुभोर साथियो,
साथियो आइये आज पढ़ते हैं साथी मीना अरोड़ा की कुछ रचनाएँ ।
अपने बेबाक विचार अवश्य रखिये ।
1.गिरवी
सुन रहे हो?
गिरवी पड़ी है
धरोहर तुम्हारे प्यार की
कब छुड़ाओगे ,कब्जेदारों से
तुम क्यों इतने गरीब हुए
क्यों नहीं है वक्त
तुम्हारे पास मेरे लिए
मैंने कहा था -
मत कमाओ
नहीं चाहिए मुझे
कंगन, बिछुए, कुण्डल ,हार
पर तुम शायद ,मुझे
सजाना चाहते थे
अनमोल गहनों से
बस दूर होते चले गये मुझसे
मैंने कहा था -
दो वक्त नहीं
एक वक्त ही बहुत है
खाना पेट के लिए
पर आत्मा को
हर समय चाहिए
तुम्हारा स्नेह, दुलार
और ढेर सारा प्यार
पर तुम मेरी भावनाओं को रौंद कर
चले गये कमाने , दो जून की रोटी
कब्जा कर लिया है मुझ पर
मेरी आत्मा पर
प्रेम के परिंदो ने
या शायद
मैंने खुद को खुद ही
गिरवी रख दिया है
अपनी अतृप्त आत्मा को
तृप्ति देने को
पर अब मुक्ति चाहती है
मेरी आत्मा
बन्धनों से ,कब्जेदारों से
कब छुड़ाओगे? ??
सुन रहे हो ?
2. "ईदी "
हमने उनके नाम के
रोज़े रखे
पर वो
प्यार की ईदी भी नहीं दे पाये
हम उनके नाम का
कलमा पढ़ते रहे
पर वो इतना भी
नहीं समझ पाये
इससे ज्यादा भी
करने की चाहत
दिल में लिए ,
बुत उनका बना
दिन और रात
सजदे करते रहे
पर उनको खुदा
न बना पाये
वो दीवानगी को
मेरी पागलपन समझता है
हम उसके लिए
शहर अपना छोड़ आये
उसकी एक
नजर इनायत हो
हम पर
हम बन सोहनी
कच्चा घड़ा
खुद ही घड़ लाये ।
3."गुजरते हो"
रोज गुजरते हो तुम
आते जाते ठिठकते हो
मेरी यादों की गली में
छिपकर देखती हूँ तुम्हें
खोया हुआ पाती हूँ
शायद सोच रहे होते हो तुम
कि क्या करो ?
मुझे दस्तक देकर निकलो
या नहीं
जब आमना सामना होगा
तुम्हारा मेरा
क्या कहोगे?
क्या कर रहे हो तुम
मेरी गली में
पर शायद तुम्हें पता ही नहीं
कि मैं छिपकर देखती हूँ
और सोचती हूँ
कि
तुम दस्तक क्यों नहीं दे रहे ????
अगर तुम सिर्फ मेरे लिए
आये हो इतनी दूर चल कर
फिर क्यों,क्यों नहीं
आवाज दी तुमने मुझे
द्वार क्यों नहीं खटखटाया ?
क्यों नहीं कहा ?
कि तुम मेरे लिए
भटक रहे हो
गली- गली, शहर -शहर
कई जन्मों से
और मैं भी कई जन्मों से
तुम्हारी प्रतीक्षा में
तुमसे मिलन की आस लगाये
बैठी हूँ
और कब तक
सहना होगा?
तुम्हारा मेरे लिए दूर तक चलकर आना
और मेरा तुमको छिपकर देखना ।।
4 "प्रतीक्षारत "
जैसे सूरज थककर
रात की बांहों में
जा समाता है
रात उसकी आग को
बुझाती है उस पहर
जब सन्नाटा गहराता है
उसे ओस से नहला
चांद का शीतल
टीका उसके मस्तक
पर सजाकर
उसकी आंखों में
सुरमा लगा
हौले से स्पर्श देती है
हवा के ठंडे झोंको का
फिर अपने काले ,घने ,लम्बे बालों
में ढक लेती है उसको
कभी महसूस करो
उस प्रेम को
जो पृथ्वी के
आदिकाल से चला आ रहा है
और चिरकाल तक चलेगा
सूरज और रात का
अद्भुत मिलन
प्रतीक्षारत हूँ
रात बन ।।
5 "नहीं मैं बच्ची नहीं "
सच है यह कि मैं बच्ची नहीं
पर कितने बीते बरसों ने अपने गर्भ में
समेट रखा है बचपन मेरा
कभी मुझको मौका नहीं दिया
बचपना दिखाने का
बस होश सम्भालने से पहले मेरे हाथों में
थमा दी जवानी की डोर
मैं जवां नहीं होना चाहती थी
खेलना चाहती थी खिलौने से
पर लोग खेलने लग गये मुझसे
मुझको खिलौना मानकर
मेरी हसरतें वहीं घुटकर रह गईं
समय की धूल चढ़ती गयी
उम्र चुपके चुपके बढ़ती गयी
किसी ने कभी बचपन मेरा पूछा नहीं
मैं अपने बचपन की अर्थी अपने कंधों पर उठा
कई बचपन संवारने लगी
अपनी सपनों की दुनिया को
वक्त के साथ गुजारने लगी
तुमसे हुई एक मुलाकात में
यूँ ही बात बात में
कुछ पुराना सिला उधड़ गया
बचपन ने फिर से झांका
उतर अर्थी से ताका
जीने की तमन्ना जाग गयी
अब जवानी भी तो भाग गयी
क्या बचपन लौट आया है
मन में उम्मीद जाग गयी
पर तुमने मुझसे ये क्या कहा?
क्या कहा और क्यों कहा?
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"बच्ची नहीं हूँ मैं "
पर जो कहा सच कहा
बच्ची नहीं हूँ मैं
क्योंकि बची नहीं हूँ मैं ।
6 "काला पत्थर "
तुम ब्लैक बोर्ड थे
दीवार पर टंगे हुए
मैं चाॅक
दीवानी सी
बस तुमसे
पूछे बिना
खुद को घिसती रही
तुम पर
अपना अस्तित्व मिटाती रही
तुम ज्यों के त्यों
बुत बने रहे
मैं तुम्हारी छाती पर
लिख कलमा प्यार का
खुद ही खुद को
सहलाती रही
दोहराती गयी
अपने शब्दों को
तुमने कभी रोका नहीं
कभी मुझको टोका नहीं
मुझे लगा शायद तुमको
मेरापन भा गया है
पर ये क्या ??
मैं मिटते मिटते मिट गयी
तुम बेरहम पत्थर से
दीवार पर टंगे रहे
मिटने दिया तुमने
मुझको और
मेरे अल्फाजों को
कुछ नया पाने की
चाहत में ।।
7."लौटना मेरा "
जब भी लौटती हूँ थकी थकी सी
तुम मुझे मुस्कराते हुए मिलते हो
तुम्हारी आंखों को मेरा इंतजार रहता है
तुम्हें अपने लिए खड़ा देख
मुझे कुछ पल को
आत्मग्लानि का बोध होता है
परंतु इतना क्षणिक ,कि क्या कहूँ
मैं अगले ही पल ठान लेती हूँ कि
मैं यह साबित कर दूंगी
मेरे लिए तुमसे बेहतर कोई है
जो मेरा इंतजार कर रहा है
फिर उसकी तलाश में जुट जाती हूँ
पर ये क्या?
इस बार जख्म पहले से गहरे हैं
मैं लौटती हूँ
तुम वहीं खड़े मिलते हो
मैं मुँह फेर
अगली तलाश में निकल पड़ती हूँ
तुम मुझे नहीं रोकते
जाने देते हो
मेरा आने जाने का क्रम बना रहता है
और तुम्हारा मुस्कराने का
कभी कभी लगता है
मेरी खिल्ली उड़ा रहे हो
जी करता है ठहर जाऊँ
और तुमसे पूँछू कि
मुझमें बैठे तुम मुझसे
कैसी खोज करवा रहे हो ?
पर प्रश्न व्यर्थ सा लगता है
खोज तो मैं रही हूँ
अपना चैन सूकून खो कर
उसे ,जो मेरा नहीं
उसे ,जो मेरे भाग्य में नहीं
खुद से जुदा होकर, मैं न जाने
किसकी तलाश कर रही हूँ
मैं आत्मसात करने लगती हूँ
मुड़कर देखती हूँ
अब तुम्हारी आंखों में नमी पाती हूँ
चारों ओर नजर डालने के बाद
मैं विवश सी लौट रही हूँ
पर आज अजीब सी
शान्ति का अनुभव कर रही हूँ
सोच रही हूँ भटक भटक कर
आखिर मैंने
मुझमें, तुमको पा ही लिया ।।
8."दीवार"
आओ खोजें उस दीवार को
जिससे टेक लगाकर
हम तुम सारे सुख दुख बांटते थे
उसका चूना बताता था कि
हम कितनी देर तक
सटे रहे उससे
फिर झाड़ते थे कपड़े
कि कहीं कोई जान न ले
कहां थे तुम -हम
और साथ -साथ झाड़
आते थे अपने सारे गम
गहरी सी मुस्कुराहट
होंठों पे
आंखों में उदासी लिए
एक दूसरे से कहते थे :-
"कल यहीं मिलेंगे "
आओ खोजें उस
दीवार को ।
परिचय:
नाम- मीना अरोरा ( एम. ए अर्थशास्त्र)
हल्द्वानी (उत्तराखंड)
काव्य संग्रह -
"शेल्फ पर पड़ी किताब "
तथा
"दुर्योधन एवं अन्य कविताएँ "
व्यंग्य - "व्यंग्य यात्रा" ,"कैमूर टाइम्स", आदि पत्रिकाओं में ।
प्रसिद्ध अखबार "अमर उजाला " में रचनाओं का प्रकाशन
"जनपक्ष आज" में तथा अन्य कई अखबारों में व्यंग्यों का प्रकाशन ।
प्रस्तुति-बिजूका समूह
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टिप्पणियां:-
आशीष मेहता:-
अभीभूत हूँ और निशब्द भी। साथिन ने मानो कलेजा निकाल, रख दिया। संप्रेषणीय रचनाओं के लिए पहले नमस्कार फिर सलाम। खूब लिखा....खूब लिखें..... बूल्ले नच् के यार मणा ले, भाँवे लोग कहें भैड़ी.......
राहुल चौहान:-
गिरवी कविता,
छोटी छोटी खुशियों में जीवन का आंनद देखती है, यही सरल सत्य है भी
सभी रचनाओ में विरह को नए नाम प्रतिमान देकर रचनाओ को पठनीय बना पाये है रचनाकार।
पूनम:-
गिरवी ,ईदी कविताऐ बहुत ही मर्मसपर्शी है इतना ही काफी नही इनमे व्यंजना भी बहुत सहजता से शामिल हो गई है । यो तो सभी कविताओ पर निहाल होने की इच्छा करती है । सब कुछ सदियो से वैसे ही है मगर उसको कहने का तरीका कितना अलग अलग है ।"वक्त के साथ हरेक चीज बदल जाती है पर बदलते नही किरदार यहाँ अपनों के "
"सबका सुख दुख एक मंजिल एक है फिर फर्क क्यो? आदमी और आदमी के दरम्यान सोचो जरा? "
पूनम:-
आदरणीया मीना जी आपकी कविताऐ बहुत सहज भाव से लिखी गई है मगर दीवार शीर्षक से रची गई कविता बहुत अपनी सी लगी क्योंकि दीवार हम महिलाओ के लिए किसी मित्र से कम नही ऐसी सखी है दीवार इतनी संवेदनशील आत्मीयता से भरी हुई होती है।हमारी बातो को जज्बात को शांत होकर सुनती है दीवार जो कभी भी झटक कर गिरा नही देती । कितनी सर्वसुलभ होती है । दीवार पर लिखने के लिए बहुत शुक्रिया है आपको
डॉ सुधा त्रिवेदी:-
कविताएँ आज के साहित्य के चलन के हिसाब से अच्छी हैं।
समाज के चलन के हिसाब से बैठ नहीं रहीं मुझे ।
रे जब तुझे ही मेरी फ़िक्र नहीं तो मैं तेरे लिए क्यों ऑंखें फोड़ती बैठूँ - गो टू hell।तू नहीं तो कोई और सही कोई और नहीं तो कोई और सही - आज का ट्रेंड तो ये हो रक्खा है।
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