image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 जुलाई, 2018

 साक्षात्कार : 

नवारुण भट्टाचार्य की कविताएं और उनसे बातचीत



मीता दास 



नवारुण भट्टाचार्य एक बड़े व्यक्तित्व के धनी इन्सान , कवि , कामरेड थे , पर इतने सहज – सरल की कोई उन्हें देखकर नही कह सकता की उनके भीतर एक आग अनवरत जलती रहती थी | उनकी कुछ कविताएं उनके भीतर की आग को उजागर करती हैं ।


नवारुण भट्टाचार्य की कविताएं
बांग्ला से  अनुवाद : मीता दास 


 आत्म प्रचार 
1....

मैं एक पेपर बैक किताब नहीं होना चाहता
कि पढ़ लिए जाने के बाद फैंक दिया जाऊं
और मेरे पृष्ठ भी खुल - खुल कर अलग हो जाएँ ।
हार्ड बाउंड वाली कीमती किताब भी नहीं होना चाहता मैं
जो ताक के ऊपर रखा रहता है महीन धूल और कीड़ों के संग
इनमे से किसी भी एक की तरह होने की इच्छा नहीं है मेरी
मेरी इच्छा है की मुझे बचपन में सुने दोहे के रूप में याद रखा जाये
या फिर गैर कानूनी इश्तेहार की तरह चीत्कार कर उठूँ
मैं चाहता हूँ मुझे सहज ही लो
जिस तरह दुःख को तुम लोगों ने मान लिया है ।
००




आत्म प्रचार 
2....


किसका है इतना साहस की मुझे सीखा सके
और किसके पास है इतना दुःसमय
कि चाबुक की तरह पछाड़ खाए
मेरी चेतना में
और टूट जाये मेरे पैरों के समीप
जैसे टूटे वेगवान लहर .... कोई है ?
वे पोंछ लेंगे रुमाल से चेहरे का डर
है कोई ऐसा ?
किसके पास है इतना दुःसमय ?
राक्षसी नरक और सजावटी समाज  .... तुम सब सुनो !
कॉलर नीची कर लो , कॉलर नीची कर लो
वे सभी है चाक़ू और चेन की शक्ल में
बहुत देखे हैं
इलेक्ट्रिक ट्रेने रुक जाती हैं
अगर मैं रेल लाईन पे खड़ा हो जाऊं
जैसे वैगन तोड़ते है वैसे अगर नींद तोड़ दें
कौन बे ?
मेरी कमीज तेरी देह पर नहीं अंटेंगी
मेरे नाप की बर्फ की सिल्ली आज तक सप्लाई नहीं हुई
मॉर्चुरी से सेंट छिड़क कर ले जायेंगे
कर देंगे दिवालिया
हिम शब्दों के संग ढक देंगे फूल गुच्छ और मालाओं से
कौन साला ?
सभी की जुबान लाख से सील कर दिया गया है
सब साले मृत
कौन कहेगा
बहुत तो जल भून कर राख हो चुके होंगे
अब लौट भी आओ
निर्दयी !
किसका है इतना साहस की मुझे लौटाए
किसके पास है इतना दुःसमय ?
००


       



 कविता का टॉर्च 


किसने - किसने बारूद स्टॉक किया है
कौन हैं जिन्होंने पेट्रोल संग्रह किया है
खाली बोतल में
मलोटाभ कॉकटेल बनाने  लिए
कौन  .... कौन हैं वे
जुगनुओं के करीब
अंधकार के जल उठने का पाठ सीख रहा है
कौन रिसर्च कर रहा है
दहन और विस्फोरण के
अल्केमिय रहस्य के बारे में
कौन - कौन अपने ह्रदय पिंड को
ग्रेनेड में बदल  चाहते हैं
मरते - मरते भी
बचा लेना चाहता है कौन माचिस की काड़ी
मैं जी -जान से ढूंढ रहा हूँ
उनके चेहरे
कविता के टॉर्च की रौशनी में ।
००


     

 सोचने की बात 

एक रोटी के भीतर कितनी भूख होती है
एक जेल कितनी इच्छाओं को रोक सकती है
एक अस्पताल के बिस्तर पर -------
कितने कष्ट अकेले सोये रह सकते हैं
एक वर्षा की बूँद के भीतर
कितने समंदर हैं
एक पाखी के मर जाने पर
कितना आकाश रहता है शेष
एक लड़की अपने होंटों पर कितने
चुम्बन छुपा सकती है
एक आँख में मोतिया उतरने पर
कितने उजाले बुझ सकते हैं
एक लड़की मुझे कितने दिन
अनछुआ रख सकती है
एक कविता लिख कर कितना
हो हल्ला मचाया जा सकता है |
००



युवक का मृत देह ------ शमशान में 

 मैं केवल युवक हूँ
मेरे खून में था एक चीता बाघ
हड्डियों में था गंधक
तीसरे प्रहर में मैं
नक्षत्र की तरह उगता था
मैं केवल युवक हूँ
मायावी होने को मैं
सारे देह में लिपटाये रहता हूँ
बुलेट का दखल निर्धारित सा किया है
अपनी छाती पर
क्या राशन कार्ड में थी मेरी मृत्यु ड्यू ?
मैं केवल युवक हूँ
जीवित रहते हुए राष्ट्र से छुपता रहा
मृत्यु के बाद राष्ट्र मुझे यहाँ ले आया छुपा कर |
००


नवारुण भट्टाचार्य से मीता दास की बातचीत

प्रश्न : --- नमस्कार , नवारुण दादा मुझे आपका साक्षात्कार लेना है एक स्थानीय पत्रिका के लिए |

उत्तर : --- हाँ , हाँ क्यों नही | हलके से मुस्कुराते हैं वे , आगे कहते हैं ..... हिंदी में न बांग्ला में , मुझे हिंदी ठीक से नही आता , तू पूछ मैं हाफ हिंदी , हाफ बांग्ला ओर कबी – कबी इंगरेजी में बोलूँगा |

प्रश्न : ---- हाँ – हाँ ठीक है न जैसे आपको ठीक लगे , मैं समझ जाउंगी और ठीक कर दूंगी |

उत्तर : --- पूछो क्या पूछना है , पर हाँ मुझे ठीक से बोलना भी नई आता है |

प्रश्न : --- अच्छा जैसा मन करे बोलिए ..... हाँ तो मेरा पहला प्रश्न है की आप लगते तो बिलकुल सहज हैं पर आपकी रचनाओं में इतनी आग कहाँ से आती है ?

उत्तर : --- थोड़ा मुस्कुराकर .....तूने कब पढ़ा ?

प्रश्न : --- अरे मैंने आपको कई हिंदी और बांग्ला पत्रिकाओं में पढ़ा है | विशेषकर आपका “ यह मृत्यु उपत्यका मेरा देश नही ”

उत्तर : --- हाँ – हाँ उस संकलन को हिदी का कवि मंगलेश ने ओनुबाद { अनुवाद } किया है , आग क्या होता है ... यह तो एक ज्वाला है जो सभी के भीतर धधकता रहता है , हाँ कोई – कोई उसे पकड़ पाता है और कोई – कोई उससे डरकर भागता है | मुझे भागने वालों से चिढ़ है | डट कर मोकबिला करो | अच्छा ये तो अच्छी बात है की बंगाल के बाहर भी बांग्ला कविता प्रजन्म पढ़ रहा है |

प्रश्न : ---- क्या आप मूलतः कवि हैं , कहानीकार हैं , उपन्यासकार हैं , नाटककार हैं या एक्टिविस्ट हैं ?

उत्तर : --- हँसते हुए ....” अरे तूने पुछा नही की क्या मैं मानूष भी हूँ ? हाँ मैं मूलतः मन से कवि हूँ , मुझे कवितायेँ लिखना अच्छा लगता है , कवितायेँ मेरी व्यक्तिगत हैं , कहानियां , उपन्यास सब लिखता हूँ पर कवितायेँ मेरे ज्यादा करीब हैं | अब मेरी इच्छा है की कुछ बड़ी कवितायेँ भी लिखूं , देखूं कब लिख पाता हूँ |

प्रश्न : --- बांग्ला भाषा में आप कवि से ज्यादा कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं पर हिंदी में आपकी कविताओं ने आपको एक कवि के रूप में ही पहचान ही नही दिलाई प्रतिष्ठित भी किया है ?

उत्तर : --- हाँ मैंने पहले ही कहा न की मेरी कवितायेँ मेरी व्यक्तिगत हैं , मैं कवितायेँ लिखता हूँ पर ज्यादा उस पर चर्चा नही करता जितना की मैं अपनी कहानी और उपन्यासों के प्रति सजग हूँ | और हाँ मेरी कवितायेँ मंगलेश डबराल के माध्यम से हिंदी के पाठको तक पहुंची , अगर मैं ऐसा कहूँ की मेरी कवितायेँ नही मेरी बातें , मेरी सोच हिंदी के पाठकों तक पहुंची यही मेरा सुख है | और इन सबका श्रेय हिंदी के पाठक वर्ग को जाता है की उन्होंने मनोयोग से मंगलेश जी द्वारा किये अनुवादों को पढ़ा | मैं इसलिए खुश हूँ की एक भाषा दुसरे भाषा में क्या लिखा जा रहा है उसे मनोयोग से पढ़ रहा है | यही तो विचारों का आदान – प्रदान है , नही तो क्या और कौन किस भाषा में क्या सोच रहा है कैसे पता चलेगा | और इसका सबसे सार्थक दिशा है अनुवादों का होना | और हाँ मेरा एक ही उपन्यास “ हरबर्ट “ ही हिंदी में अनुदित हो पाई उसे मूनमून सरकार ने किया था | अब वह जीवित नहीं इसलिए मेरा और कोई रचना का ओनुबाद { अनुवाद } भी नही हुआ | इस लिए हिंदी वाले मुझे कवि के रूप में जानते हैं |

प्रश्न : ---- आप कविता , कहानी और एक्टिविस्ट की भूमिका में कैसे और कब आये , आपको कब लगा की कुछ लिखना है , हाँ मुझे यह मालूम है की आपके पिता एक बड़े नाटककार रहे , माँ एक प्रतिष्ठित कहानीकार , उपन्यासकार और एक सजग एक्टिविस्ट भी हैं | हमने कई बार कई घरों में ऐसा माहौल देखा है की बच्चे उस दिशा में न जाकर कोई और दिशा ढूँढने लगते हैं | क्योंकि किसी – किसी का दम घुटने लगता है उस एक जैसे माहौल में | और कई बार हमने पीढ़ी दर पीढ़ी उन्हें उसी काम को करते देखा है , आप क्या सोचते हैं इसके बारे में ?

उत्तर :--- ऐसा अधिकतर पेशेवरों के घर में होता है की पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही काम को करते चले आते हैं पर यहाँ पेशा नही है कविता या कहानी लिखना , यह तो एक आग है जो दिल में सुलगती है या उस आग से जीवन झुलस जाता है तब अधिकतर भावुक लोग कलम का सहारा लेते हैं | मैंने भी उस आग में जल कर कमल पकड़ा है न की पेशेवर की तरह पेशे जैसा चुना है | हाँ ..... उनका प्रभाव जरूर पड़ा है मेरे जीवन में पर हाँ मेरे लेखन में कितना प्रभाव पड़ा है इसका अंदाजा नही है मुझे |

प्रश्न :---- आपके जीवन में आप किसको प्राथमिकता देते हैं माँ या पिता या और कोई ?

उत्तर : ---- प्राथमिकता जैसी कोई बात नही पर हाँ पिता हमेशा ही मेरे करीब रहे , पिता मेरे हर लेखन में एक प्रहरी की तरह पहरा देते रहे | उन्होंने हमेशा कहा अपनी लेखनी कभी मत बेचना , पैसों के लिए कभी मत लिखना | मैंने लिखा भी नही ...... क्योंकि यह मेरा पेशा भी नही है |

प्रश्न : --- अच्छा पाठकों को यह बताएं की आप कई मूल्यवान लोगों के संपर्क में रहे जैसे बिजन भट्टाचार्य { पिता.... नाटककार , एक्टिविस्ट } , महाश्वेता देवी { माता ... कथाकार , उपन्यासकार और एक्टिविस्ट } , ऋत्विक घटक { मामा ..... फ़िल्मकार , कलाकार और एक्टिविस्ट इप्टा से जुडाव } , उत्पल दत्त { नाटककार , कलाकार } , बलराज साहनी { फिल्म कलाकार , नाटककार } , सत्यजीत रॉय { फ़िल्मकार , आर्टिस्ट } और भी कई महत्वपूर्ण नाम जिनके संपर्क में रह कर आप जीवन को कैसे देखते हैं , और आपके जीवन में किसका प्रभाव पड़ा ?

उत्तर : ---- सभी महत्वपूर्ण नाम हैं , सभी के संपर्क में रह कर जीवन को देखने का एक अलग तरह की दृष्टि जरूर मिली , पर हाँ मेरे जीवन में मेरे पिता का प्रभाव ज्यादा रहा और हाँ मामा ऋत्विक घटक को भी इससे जुदा नही रख सकता क्योंकि उनका इप्टा से जुडाव ही मेरे जीवन का बीज मन्त्र था | और उस पर सन इकहत्तर का नक्सलबाड़ी आन्दोलन मुझे भीतर तक हिला दिया था | वह मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण अध्याय रहा है | उसे मैं अपने जीवन में हर कदम – कदम पर महसूस करता हूँ |

प्रश्न :--- पिता की भूमिका आपके जीवन में ज्यादा रही पर सुना है की हर किसी के जीवन में माँ की भूमिका ज्यादा असर छोड़ती है ?

उत्तर : ---- हाँ मेरी माँ की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है मेरे जीवन में , इस लिए तो इतनी आग है | माँ का प्यार तो कभी भरपूर मिला नही पर हाँ उसका दुःख भी नही है मुझे | इन्सान को जीवन में दुःख बहुत कुछ सिखा देती है | इन्सान कभी अपने सुख के क्षण को याद नहीं रखता और न ही दुःख को ही याद रखता है पर हाँ अपने अपमान को जरूर याद रखता है | ट्रेजिडी ही है जो इन्सान को इन्सान बनाने में मदद करता है पर कोई कॉमेडी नही |

प्रश्न : ---- अच्छा यह बताइए की आपको क्या अच्छा लगता है अपने इस जीवन में ....कुछ उल्लेखनीय ?

उत्तर : --- हौले से मुस्कुराते हुए .....सुस्वादु भोजन और जीवन के लिए जनसाधारण के लिए लड़ते जाना | मुझे लड़ना अच्छा लगता है | जीतूंगा या नही पर हाँ जीवन की अंतिम सांस तक लड़ता रहूँगा | पर यह लड़ाई केवल मेरा ही नहीं है , हम सब की लड़ाई है यह सिर्फ मेरे अकेले के बस का नही तुम सभी साथ हो और हमारी पार्टी का साथ भी हो  “ लड़ते जायेगे ... जीत जायेंगे “| हम लेखक सिर्फ लेखन के माध्यम से उन सभी की चेतना को जगाने का काम ही नही करना है लड़ना भी है | जरूरी नही की लड़ाई जीत ही जाएँ , हर युद्ध जीता भी नही जा सकता पर  प्रतिवाद या प्रतिरोध तो किया ही जा सकता है | चे गुआवा नही जीत पाए थे पर हाँ वे कालजयी जरूर हो गए | हमें आदिवासी बहुल क्षेत्र में सामरिक शक्ति प्रदर्शन के खिलाफ आन्दोलन या प्रतिवाद करना चाहिए | गैर कानूनी षडयंत्र के खिलाफ खड़े होना चाहिए | यही उद्देश्य मैं अपने जीवन में ढालना चाहता हूँ |

प्रश्न : --- आप एक पत्रिका “ भाषाबंधन “ निकालते हैं , उसके विषय में कुछ बताना चाहेंगे की उसका क्या उद्देश्य है | देश भर में तो इतनी पत्रिकाएं निकलती हैं फिर इसकी क्या जरूरत महसूस की आपने ?

उत्तर : --- अच्छा प्रश्न है ..... यह पत्रिका निकलने का उद्देश्य यह था की बांग्ला भाषा का पाठक अनुवादों के सहारे सारे देश – विदेश के साहित्य को अनुवादों के माध्यम से पढ़ पायें | बांग्ला भाषियों ने मुक्तिबोध की कितनी कवितायेँ पढ़ी है ? क्या उन्होंने केदारनाथ को पढ़ा है ? क्या वे नागार्जुन को पढ़ पाए हैं , सर्वेश्वर दयाल सक्सेना , धूमिल , अज्ञेय, श्रीकांत वर्मा गोरख पांडे किसी को नही पढ़ा है | बांग्ला के अनेक साहित्य हिंदी में अनुदित हुए हैं पर हिंदी का बांग्ला भाषा में नही के बराबर | बांग्ला भाषियों क्या “ शहर में कर्फ्यू ” जैसा उपन्यास पढ़ा है ?  नही पढ़ा है , अगर पढ़ते तो देख पाते की हिंदी में क्या लिखा जा रहा है | उसे पढ़कर ऐसा लगता है जैसे किसीने जोरदार घूँसा जड़ दिया हो नाक पर | इस तरह का उपन्यास बांग्ला भाषा में मैंने तो नही पढ़ा |

प्रश्न : --- जहाँ एक – एक कर सारी पत्रिकाएं डूबत खाते में हैं ऐसे समय में एक और पत्रिका ! आप इसका भविष्य किस प्रकार देखते हैं ?

उत्तर : ---- “ भाषा बंधन “ मेरा सपना है , मैं जीओं या मरुँ .... चाहता हूँ की भाषा बंधन जीवित रहे | इसके लिए मुझे बड़ी चिंता लगी रहती है | अब जरा बूढ़ा भी हो चूका हूँ और मासिक निकलना भी बड़े जोखिम का काम है सोच रहा हूँ इसे त्रैमासिक कर दूं और जरा पन्ने बढ़ा दूं , पर हाँ इसकी कीमत बढ़ जाएगी क्या लोग इसे खरीदेंगे ?

प्रश्न : ---- हाँ ... क्यों नही खरीदेंगे | हम लोग हैं न साथ देने को | और हाँ एक प्रश्न और क्या आप लगता है की इन हाशिए से फैके गए लोगों की नियति क्या होनी चाहिए ?

उत्तर : ---- मेरे हिसाब से ...... मुस्कुराते चेहरे से कहते हैं .......” उन्हें तो इस दुनिया के हिसाब से रास्ते के कुत्ते की तरह हर लॉरी के नीचे दब जाना चाहिए | “



प्रश्न : --- क्या कभी इनके दिन फिरेंगे ?

उत्तर : --- इसी बात की तो लड़ाई है , लड़ते जाओ ... जीवन युद्ध में .....अंतिम सांस तक |


धन्यवाद ....... अपने हमें इतना समय और बहुमूल्य विचार हमसे बांटे | मैं और हमारी पत्रिका आपका आभारी रहेगा , नमस्कार |

नमस्कार |


नवारुण भट्टाचार्य 

     

नोट : ----- यह साक्षात्कार एक स्थानीय पत्रिका के लिए लिया गया था 13 नवम्बर 2010 को जब  भिलाई के जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अधिवेशन में वे अतिथि के रूप में पधारे थे | आज वे इस दुनिया में नहीं हैं | पर हम आज भी उनकी कविताओं में एक धधकती ज्वाला का ताप महसूस कर सकते हैं |



कवि ---- नवारुण भट्टाचार्य
जन्म --- 23 jun 1948
मृत्यु --- 31 जुलाई 2014 
००



नवारुण भट्टाचार्य की कहानी नीचे लिंक पर पढ़िए

कहानी: इस पृथ्वी का आखिरी काम्युनिस्ट
http://bizooka2009.blogspot.com/2018/05/2020-2010-2020.html

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत तीखी और चुभने वाली कविताएँ.
    बढ़िया अनुवाद जो मूल सा असर छोड़ता है

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभार दी , आपका आशीर्वाद और स्नेह और नवारुण दादा का मुझपर जो भरोसा जो किसी अदृश्य शक्ति से कम नही ।

      हटाएं
  2. गुर्दा दान के लिए वित्तीय इनाम
    We are currently in need of kidney donors for urgent transplant, to help patients who face lifetime dialysis problems unless they undergo kidney transplant. Here we offer financial reward to interested donors. kindly contact us at: kidneytrspctr@gmail.com

    जवाब देंहटाएं