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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

23 अगस्त, 2024

राजकुमार कुम्भज की कविताएं

 


1. एक दिन ऐसा ही हुआ


एक दिन ऐसा ही हुआ

मैं हुआ, दर्पण हुआ, फ़ासला हुआ

कहने को तो वहीं मैं, वहीं दर्पण

लेकिन, उसी एक दर्पण में फ़ासला हुआ

मैं वही, मगर वही, वैसा ही नहीं

जैसाकि था कल, वैसा नहीं हुआ

एक दिन ऐसा ही हुआ।











2.अंतिम हवा नहीं होगी अंतिम


ऊपर की ऊपर

और नीचे की नीचे ही रह जाएँगी साँसें

अंतिम हवा चलेगी अंतिम जीवन की

मैं हो जाऊँगा शेष, कुछ भी रह नहीं पाऊँगा विशेष

वह मुझमें से बिखर जाएगा कहीं

दूसरों, तीसरों और अन्य अन्यों में

नए जीवन में, नए जीवन के लिए, नए जीवन की तरह

फिर-फिर जागते और जगाते हुए

वह मेरा अपना-सा अपना ही जीवन

कष्ट तो होंगे कई-कई बीच में

दुष्ट भी होंगे, कई-कई बीच में

दो-दो हाथ करेगा उनसे मेरा ही जीवन

जो तब होगा, अपना-सा अपनों में

वे जो होंगे, मेरे अपने मुझ जैसे ही

जब न रहूँगा मैं, रहेगा संसार वैसे ही

ऊपर से नीचे तक हर हाल ख़ुशहाल

अंतिम हवा नहीं होगी अंतिम।


3. है जो सही-सही


जो पाना नहीं चाहता हूँ, पा रहा हूँ

और जो किसी भी हाल में गाना नहीं चाहता हूँ, गा रहा हूँ

खिड़की, दरवाज़े खुले रखता हूँ सभी,

फिर भी मिलती नहीं है ताज़ा और साफ़ हवाएँ

करूँ क्या कि आए, उट्ठे एक भीषण तूफ़ान सभी के भीतर

और सभी कुछ उलट-पलट जाए इधर से उधर

और मिले सभी को सभी कुछ वह

है जो सही-सही।

०००

 



 








4.खौलते हैं फूल


हँसते हुए कुछ देखा उसने

फूल भी हँसने लगे हँसता हुआ देखकर उसे

नमी थी उसकी आँखों में ओस जैसी

फूलों में प्राणों की तरह खिलने लगी वह

कुछ-कुछ उसके भीतर भी खिलने लगे फूल

कहने लगे फूल कि खिलता फूल है वह

कहने लगी वह

कि फूलों के खिलने से ही खिलती है वह

खिलते हैं फूल, खिलती है वह निरन्तर

खौलते हैं फूल, खौलती है वह निरन्तर

खिलना और खौलना एक नैसर्गिक प्रक्रिया है

जारी रहे खिलना और खौलना।


5. लोहे के जूते में एक आदमी


लोहे के जूते में एक आदमी

तेज़ क़दम बढ़ाते हुए निकला घर से बाहर

उसके हाथों में एक छाता था, बीच में बारिश

शराबघर जाने की बजाय, वह थोड़ा मुड़ गया

उसे सामने एक बग़ीचा दिखाई दिया

जोकि किसिम-किसिम के फूलों से दहक रहा था

उस आदमी ने छाते के हत्थे से काम लिया

उसने कुछ फूलों को चुना और अपनी ओर झुकाया

अब कुछ फूल उसकी मुट्ठी में थे जिन्हें उसने ताक़त से रगड़ा

और बारिश के कीचड़ में ज़मीन पर फेंक दिया

सबने देखा कि वहाँ कोई ईमानदार माली नहीं था

सूने और सुनसान, किन्तु दहक रहे उस एक बग़ीचे में

लोहे के जूते में एक आदमी बड़ी देर से बड़ी देर तक

मज़े-मज़े से टहलता रहा।


6.कवि का कमरा


कवि का कमरा

एक कमरा है छोटा-सा

जिसमें समाया है संसारभर का संसार

लगता ही नहीं है कि सिर्फ़ एक कमरा है ये

समूचा संसार मज़े से रहता है यहाँ

वह एक,

जो समूचे संसार से करता है प्रेम

बच्चों और स्त्रियों की तरह

लगातार देखते हुए सपने

कवि का कमरा।












7. वही और वैसा ही सब


वही और वैसा ही सब

कुछ भी रहा है कब जो रहेगा कल

वही बादल, वही प्यास, फिर नहीं

वही

वही लोहा, वही नमक, फिर नहीं

वही रिश्ता, वही ख़ुशबू, फिर नहीं

फिर भी जाना पहचाना-सा बहुत कुछ

वही आग, वही पानी, फिर-फिर

वही सरकार, वही तकरार, फिर-फिर

वही सीना, वही साहस, फिर-फिर

वही और वैसा ही सब।

०००

सभी चित्र:-मुकेश बिजोले





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