अर्पण कुमार की कविताएं
परदेसी की उद्भावना
आवारगी को आज के लिए
ठउर दिया जाए
अपनी गली की ओर बढ़ें
घर का दरवाज़ा खोला जाए
अँधेरे परिसर में
उजाले का खलिहान लगाया जाए
बैठकख़ाने की बत्ती अब जलाई जाए
नाराज़गी और ग़ुस्से की खनक संग
तानों के तीर बरसाती
मेरे शहर के गुल्लक से निकली
नवयुवती
प्रतीक्षा में गालियाँ दे रही होगी
उसे फ़ोन लगाया जाए
मोबाइल की टहनी से
एकबारगी झूल जाती
उस प्रिया की
दिनभर गुमसुम रही दिनचर्या के
ठहरे तालाब में
तनिक हिलकोरा उठाया जाए
शब्दों से कुछ यूं सुरसुरी की जाए
कि उसकी खिलखिलाहट
इस परदेस को महका-महका दे
उसकी धीमी आवाज़ की
गर्म चादर ओढ़
मीठी-सी नींद ली जाए
इस अजनबी मुलक में कामना
मुझे तड़पा-तड़पा दे
वह बग़लगीर हो
सहर जब हो
उसके शहर में हो
मेरे अपने शहर में हो।
.......
अर्पण कुमार
वे कविता के पास जाएँ
अभी-अभी सड़क पर एक बच्चे ने
सखुए के पत्ते पर रखा एक खीरा
गाय को खिलाया
गाय उस पत्ते को भी खा गई
जिसमें रखकर उसे खीरा दिया गया
वह भोजन को
आधा-अधूरा नहीं छोड़ती
गाय टहलती हुई
सड़क के इस पते तक आ गई थी
जैसे कोई डाकिया कंधे पर नहीं
बल्कि अपने पेट में रखे हुए हो
चिट्ठियों के चार थैले
और निश्चिंत टहल रहा हो मंद-मंद
किसी को कोई पत्र थमाने की
उसे कोई ज़ल्दी न हो
बड़े भरोसे से खाया
गाय ने यह प्रसाद
उसकी भूख के हिसाब से
यह प्रसाद ही ठहरा
कुछ देर
सड़क के बीचोंबीच खड़ी रही
फिर आगे बढ़ गई
बच्चे के लिए गाय
किसी प्रार्थना की तरह आई
किसी अनुरोध की तरह चली गई
बच्चा कुछ देर तक
देखता रहा गाय को
और मैं उन दोनों को
सड़क के दो किनारे जैसे दो तट हों
और दोनों तटों पर बसी दुकानों के बीच
सड़क किसी बाँकी नदिया की तरह बहती रही
शांतिप्रिय और प्यारे ऐसे पल
कपूर की तरह चमकते
और उड़ जाते हैं शीघ्र ही
जो नहीं हुए इसके गवाह
दिन-विशेष की उनकी डायरी में
आनंददायक यह क्षण
अंकित होने से रह गया हो बेशक
मगर वे निराश न हों
इस घटना की चर्चा
अब उन्हें किसी कविता में मिलेगी
कविताएँ ऐसी घटनाओं की संचयिकाएँ होती हैं
वे कविता के पास जाएँ।
.....
कामगार स्त्रियाँ ज्यों बिना बाहरी समर्थन की कोई सरकार
सरकार को पालते हैं
शराब के ठेके
शराब के ठेकों को पालते हैं
शराबी
शराबियों को कौन पाले!
उन्हें पालती हैं उनकी पत्नियाँ
ऐसी कामगार स्त्रियों की गाढ़ी कमाई
इन शराबियों की
दवा-दारु में चली जाती है
घिसी-उधड़ी साड़ी या कि सूट में
वे सारे करतब करती हैं
मसलन…
भेजती हैं स्कूल अपने बच्चों को,
निकम्मे, मदहोश और बड़बड़ करते पति के लिए
रख लेती हैं
तीज और करवा-चौथ के व्रत भी
वे कामगार और पालक स्त्रियाँ हैं
इन त्यौहारों में ग़ुलामी नहीं
गति देखती हैं
परस्पर हास-परिहास कर लेती हैं
सज-सँवर लेती हैं
सस्ते सौंदर्य प्रसाधनों से
शिकायतों-कटाक्षों के रेगिस्तान को
फैलने नहीं देतीं अपने आस-पास
हर हाल में बाँधे रखती हैं
अपने आँचल से
हरियाली की कोई पुड़िया
अपनी अंतःप्रकृति में वे उत्सवरत होती हैं
वे अस्पताल में नर्स हैं
किसी शॉपिंग मॉल मे गार्ड
किसी के घर में बर्तन-बासन करती हैं
किसी ऑफिस में चाय-नाश्ता बनाती हैं
वे दहकती हैं
सुबह की धूप पीकर
सड़क पर, गलियों में
तो कभी छत पर
वे महकती हैं
रात की चाँदनी पीकर
ऑटो तो कभी बस के किसी कोने में
वे अपने वश में रखती हैं
काम और दाम दोनों
वे लगा लेती हैं बीड़ी का सुट्टा
दबा लेती हैं
अपने होंठ तले
थोड़ा-सा गुल
किसी खर्चीली सरकार के
ध्यान में नहीं आतीं
ऐसी स्त्रियाँ
कम-से-कम साधनों में
गृहस्थी सँभाले रखने का हुनर
जानती हैं जो,
संकट का कोई साया
कई बार ज़्यादा लंबा हो उठता है
बच्चों को भरसक भान नहीं होने देतीं
मगर, सप्ताह में
उनके व्रतों की संख्या बढ़ जाती है
अत्यल्प दानों और अधिकाधिक पानी से
उद्यापन कर लेती हैं
और फिर...
किसी अगले व्रत की आड़ ले लेती हैं
उनका भरोसा डगमगाता है
मगर डिगता नहीं अपनी जगह से
कायम रहता है उनका आत्म-विश्वास
उनके फीके वसन में
कई ऋतुओं को लपेटे होती हैं जिससे
हाँ, वे मेहनतकश
उम्मीद रखती हैं कुछ
अपने बड़े होते बच्चों से,
इधर-उधर उड़ती फिरती हैं
तितलियों की तरह,
पतली और कांतिहीन अपनी उँगलियों पर
हिसाब लगा रही होती हैं
अपनी कमीज़ तो ब्लाउज के नीचे
छोटे-से पर्स को रखती-निकालती
वे पूरे शहर को नाप लेती हैं
रहम न खाएँ उनपर
वे स्वयं में सरकार होती हैं
समय के आगे कुछ लाचार होती हैं
ख़ुशक़िस्मती और बदक़िस्मती की फेर में नहीं पड़तीं
वे बस चलती-फिरती चमत्कार होती हैं।
………
संक्षिप्त परिचय
कवि, कथाकार और आलोचक। 'नदी के पार नदी', 'मैं सड़क हूँ', 'पोले झुनझुने','सह-अस्तित्व', 'नदी अविराम' कविता संग्रह, 'पच्चीस वर्ग गज़' शीर्षक से उपन्यास एवं आलोचना की दो पुस्तकें प्रकाशित। कहानियाँ एवं संस्मरण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं देश के विभिन्न आकाशवाणी केंद्रों से प्रसारित। कुछ सुदीर्घ आलोचनात्मक आलेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।कविता/ कहानी /आलेख के अनुवाद अँग्रेज़ी, बाँग्ला, उर्दू, मराठी,नेपाली में प्रकाशित।
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सत्यनारायण पटेल
9826091605
कवि अर्पण अच्छे कवि हैं। उनकी ये तीनों कविताएं आज लिखी जारही कविताओं से खासी अलग और पाठक को सोचने पर मजबूर करती हैं।तीनों कविताओं में आंचलिकता नक्काशी की तरह पिरोई हुई नहीं बल्कि सहज है।यह कवि की अपनी खासियत है ।
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