तूमने हमें जाना नहीं
तूमने हमें जाना नहीं
और न ही जानना चाहा कभी
हमारी परंपराएं, संस्कृति और धार्मिक मान्यताएं
नहीं है तुम्हारी जैसी
तुम्हारी तरह नहीं पूजते हम
पत्थरों से निर्मित मूर्तियां
नहीं मिलेंगे हमारे देवी - देवता
तुम्हारे देवी - देवताओं की तरह
बड़े बड़े महलों में
हमारे देवता
नदी किनारे या पहाड़ की तलहटी में
अक्सर दिख जायेंगे
एक लहलाते हुए रूप में
हमारे देवताओं का नाम नहीं है
तुम्हारे देवताओं की तरह
पीपल, तुलसी, आवला, खेजड़ी, आम और आशापाला ये सब हमारे देवता
हम आदिवासी
अपने त्योहारों और परंपराओं की रस्में अदायगी
इन्ही देवताओं को पूजकर करते है पूरी
और इन्ही से
अपने निर्जन जीवन को उर्वर बनाते हैं।
०००
लहरी राम मीणा
पले हुए सपने
पुरुष की तुलना में
रोज़ बढ़ती है
लड़कियों की लम्बाई
और
अंगों के आकार की चौड़ाई
एवं
देह के सौंदर्य की आभा
फै़लती है सूर्य के समान
रोज़ पालती है सपने
आकाश के समान
और
पले हुए सपने
धीरे - धीरे एक दिन
अंतत: टूट जाते हैं...।
०००
नहीं चाहते वे
नहीं चाहते वे
तुम भी उनके साथ
वैसा ही व्यवहार करो
जैसा कि तुम्हारें पूर्वज़
करते आए है
तुम्हारे पूर्वजों की तरह
तुम भी उनके प्रति नतमस्तक रहो
उनकी हां में हां मिलाओ
ऐसा ही भाव उनके सम्मान में रखो
तुम्हारा ऐसा व्यवहार ही
पसंद है उन्हें
नहीं चाहते वे
और न ही उन्हें स्वीकार
तुम्हारा अकड़कर खड़े होना
आंँख में आंँख मिलाकर
बातें करना
०००
नहीं चाहते वे
तुमसे यह उम्मीद
कि तुम
अपने पूर्वजों की परंपरा को तोड़कर
कोई नहीं परंपरा
उनके खिलाफ़ खड़ी करो
तुम्हारा तर्क और बहस करना
ठीक नहीं लगता उन्हें
चिड़ होती है इन सब से
उनकी हांँ में हांँ मिलाने वाले
लोग और परिवारों से
वे बहुत राजी हैं, खुश हैं
रहता है उनका उठना- बैठना
ऐसे ही लोगों के साथ
वही उन्हें स्वीकार है, पसंद है
जब चाए जैसा चाए
कुछ भी बोल सकते है उन्हें
और उनसे किसी के खिलाफ़
कुछ भी बुलवा सकते है
चाहते है वे समाज में
ऐसे परिवार
जो उनके हिसारे पर
लड़े- भिड़े किसी से भी
बिना वजह
बात- बात पर
उन्हें जब और भी
ख़राब लगता है
तब तुम उन्हीं की आवाज़ में
उनसे बात करते हो
साफ़ सुथरे कपड़े और
साफ़ सफ़ाई के साथ
अपने घरों में रहते हो
जब तुम हंँसते हो
खुश रहता है तुम्हारा परिवार
तब उन्हें और भी ज़्यादा चिड़ होती है
दुःख होता है
ऐसे वातावरण में
जब तुम
अपनी प्रगति के साथ आगे बढ़ते हो
तब- तब वे कोशिश करते हैं
कैसे भी तुम्हें रोका जाए
कैसे भी तुमसे लड़ा जाए
कोई बात न होते हुए भी
लग जाते है
लड़ने की तैयारियों में
बनाते है लड़ने की रणनीतियांँ
जब - जब तुम
विनम्र और शांत बनते हो
किसी भी विषय पर
तब- तब वे
और भी ज़्यादा
हिंसक रूप में
इक्क्टै होकर
लड़ने के लिए
आ जाते है
तुम्हारे दरवाज़े पर...।
(ओमप्रकाश वाल्मीकि का कविता- संग्रह
'अब और नहीं...' पढ़कर)
०००
सभी चित्र:- मुकेश बिजोले
परिचय
डॉ. लहरी राम मीणा
(जन्म: गाँव-रामपुरा उर्फ़ बान्यावाला, नियर: एनएच-8, एमिटी यूनिवर्सिटी, जयपुर )
शिक्षा: एम.फिल., पी- एच.डी. दिल्ली विश्वविद्यालय । आप प्रतिष्ठित युवा आलोचक, कवि एवं रंग समीक्षक हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकें हैं -साहित्य का रंगचिंतन ( शिल्पायन प्रकाशन, नई दिल्ली-2015), भारतेंदु: एक नई दृष्टि ( स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली-2015), समकालीन साहित्य दृष्टि ( यश प्रकाशन, नई दिल्ली-2018), जिस उम्मीद से निकला (भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली-2020),लक्ष्मीनारायण लाल विनिबंध (साहित्य अकादमी, नई दिल्ली - 2024)आलोचना का जनतंत्र ( हंस प्रकाशन, नई दिल्ली-2024), सृजन के विविध रूप और आलोचना (वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली-2024) जिस उम्मीद से निकला काव्य- संग्रह का अवधी, उर्दू एवं राजस्थानी भाषा में अनुवाद हो चुका है। नाटक एवं रंगमंच के क्षेत्र में आप सक्रिय। आप राजस्थान साहित्य अकादमी का देवराज उपाध्याय आलोचना पुरस्कार, नान्दी सेवा न्यास वाराणसी का युवा सृजन शिखर पुरस्कार एवं हिंदुस्थानी न्यूज़ एजेंसी लखनऊ द्वारा भारतीय भाषा सम्मान सहित अनेक सम्मानों एवं पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं।
संप्रति : काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत हैं। संपर्क सूत्र:8010776556
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें