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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

19 अगस्त, 2024

अनुराधा मैंदोला मैंदोला की कविताएं

 


अनुराधा मैंदोला मैंदोला की कविताएं 






अनुराधा मैंदोला मूलतः जिला पौड़ी (जयहरीखाल) की निवासी है। लगभग डेढ़ साल से कविता लिख रही है। पत्रिका 'नव उदय'  में उनकी  कुछ रचनाएं प्रकाशित हुई है। वर्तमान में बेस अस्पताल कोटद्वार में नर्सिंग अधिकारी के पद पर कार्यरत है।


"बिच्छू"


घर की पुताई करवाते हुए

यूं ही अचानक दिख गया एक बिच्छू

अपनी सी ही आकृति लिए हुए

अपने में यूनीक संरचना लिए हुए

किसी को प्यारी भी लग सकती है

यह संरचना?

सोचती हूं इसे भी ईश्वर ने 

उतनी ही खूबसूरती  और फुरसत से बनाया होगा

जितनी खुबसूरती और फुरसत से बनाई होगी 

कोई विश्वसुंदरी

हो सकता है वह कोई मादा ही हो

और हो अपने समाज की सबसे खूबसूरत मादा

लेकिन नही

बिच्छू होना

मतलब जहरीला होना

उसे पता भी नही कि उसे देखा गया

उसे देख घिन आई मुझे

जहर उसका हथियार ही तो है

यूं ही तो नही काटते होंगे हमे

अपना बचाव करते हुए ही डंक मारते होंगे

लेकिन नही

ये बात दिमाग में घर कर गई है कि बिच्छू जहरीले होते हैं

और उन्हें मारना है

नही तो डंक मारेंगे

जब तक मैं पहुंच पाती इसके जीववैज्ञानिक अध्ययन पर

तब तक एकाएक

मेरा पैर किसी कंप्यूटर कमांड की तरह आगे बढ़ा

और मैंने उसे कुचल डाला

इस सब से नही भरा मन

और उसके प्रति उभरी घृणा से मन लिजलिजा हो गया

ये बिच्छू बेमौत मारा गया

बिना गुनाह के 

उसका बिच्छू होना अभिशाप साबित हुआ

और मुझे अपनी ही शाबाशी मिली

जीत भरी मुस्कान के साथ।

000

मन्दिर की घंटियों की ध्वनि 

नही पहुंचती तुम तक


सहते हुए मार चुकी हो 

अपना ईश्वर और मन


कोई ख्याल भी

फटकने नही देती हो आस_पास

खुले मैदान, इतने भी खुले नही

जितना तुम सोचती या चाहती हो


ये सब वही है जो नदी

को भी बांध देते है

पहाडों को गिरा देते हैं


तुम भी नदी हो

पहाड़ हो


कोई कोना ढूँढती हुई

सिमट जाती हो

उसी में

लगाती हो अंदर से सांकल


ऊब, धोखे और भय से 

भरोसा नही कर पाती


हवाएँ अब भी खटखटा रही है

दरवाजा

बज उठती है सांकल से

स्वर लहरियाँ


यकीन रखो

कई आश्चर्य बाकी है

उन्मुक्त और आज़ाद से। 

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दीवार


1.

ठीक मेरी तरह 

तुम भी कह देना

सारी बातें दीवारों से

भरोसेमंद होती है

आदमी से ज्यादा। 

    


2.

दीवारों से कही बातें 

कहीं नही जाती

दीवारों के कान होते है

जुबान नही। 


3.

दीवारें रखती है 

राज छुपा कर

बोझ बन जाए

तो गिरती है

भर भरा कर। 

000




दो चार पत्तियों के झड़ने पर वृक्ष कहां शोक मनाते है,

आ जाता है  पतझड़ जब, तब ही बसंत बुलाए जाते हैं,

कहां मिली हैं चांदनी रातें सबको,अमावस लौट आते हैं,

जिन रातों में चांद न होता,जुगनू  ही राह दिखाते हैं।

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कौन से देश से हो? 

मेरा कोई देश नही

कौन सी जात की हो? 

मेरी कोई जात नही देखता

तुम सांवली से भी  गहरे रंग की हो

जी, मेरे रंग से मेरा ताल्लुक नही है

तुम्हारी क्या उम्र होगी? 

मेरी उम्र मेरी ढाल नही है

कद_काठी  तो काफी अच्छी है तुम्हारी

ये भी मेरा सकारात्मक  पक्ष नही है

तुम्हारा हुलिया  फिर भी आकर्षक लगता है

कोई फर्क नही पड़ता साहब

मेरा देश,जात, रंग, उम्र,कद_काठी, हुलिया 

नही देखा जाता

मैं  एक स्त्री हूँ । 

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चित्र: अनुप्रिया 

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सत्यनारायण पटेल 

9826091605

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