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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

08 नवंबर, 2015

कविता : यून्ना मोरित्स : वरयाम सिंह

साथियो आज अनुवाद के दिन आप सभी साथियो केलिए प्रस्तुत है रुसी कविताएँ जिन्हें लिखा गया यून्ना मोरित्स ने और अनुवाद किया है वरयाम सिंह जी ने ।

उम्‍मीदें ही तो कारण हैं आँसुओं का

उम्‍मीदें ही तो कारण हैं इन आँसुओं का।
हट जाओ आगे से, ओ अनाड़ियों के दिल!
कवि नहीं रोया होता इस तरह कभी
यदि रही न होती उसे उम्‍मीदें।

गीलें होठों और पलकों वाला
वह हैं नहीं नायक संवेदनशील,
पर वह पैदा होता है तब
जब भरपूर होती हैं उम्‍मीदें।

जब भरपूर होती हैं उम्‍मीदें
इस संसार में जन्‍म लेता है कवि,
उसकी नियति में न होता जीना
यदि बची न हों शेष उम्‍मीदें।

दूसरों की अपेक्षा उसे अधिक
उपलब्‍ध रहती है उम्‍मीदों की रोशनी।
ओ मस्‍कवा! विश्‍वास कर उसके आँसुओं पर
भले ही तुम्‍हें होता नहीं स्‍वयं किसी पर।

विश्‍वास कर तू, ओ मस्‍कवा! उसके आँसुओं पर
उसका रोना ख़राब कपड़ों के कारण नहीं।
वह रो रहा है यानी उसमें जिंदा हैं
उम्‍मीदों के बिना न जीने की उम्‍मीदें।

मैंने नाम लिया 

मैंने फूल का नाम लिया - फूल खिल उठा
चटख रंगों में बिखेरने लगा पराग।
मैंने चिड़िया का नाम लिया - गाने लगी चिड़िया
अंडे में से रोशनी में निकल आई सब बंधन तोड़।

मैंने दिन का नाम लिया, नाम लिया इस क्षण का
कि आ गया यह दिन, यह क्षण
मैंने बच्‍चे का नाम लिया - वह पैदा हो गया,
और रहेगा जीने के लिए हमारे बाद।

अभी मुझे नाम लेने हैं कुछ और चीजों के
जो पड़ी हैं अनाम अंधकार में।
एकदम मामूली है मेरा यह जादू
लेकिन यह रहेगा अभी जादू ही।

रास्‍ता दिखाने वाला तारा 

कौन चमकता है इस तरह?
आत्‍मा।
किसने सुलगाया है उसे?
बच्‍चे की तुतलाहट, हलकी-सी धड़कन या
पोस्‍त के लहराते खेत ने।

कौर करवटें बदलता है इस तरह?
आत्‍मा।
किसने जलाया है उसे?
उड़ते हुए बवंडर, बजते हुए चाबुक और
बर्फ जैसे ठंडे दोस्‍त ने।

कौन है वहाँ मोमबत्‍ती लिये?
आत्‍मा।
कौन बैठे हैं मेज के चारों ओर?
एक नाविक, एक मछेरा
उसके गाँव का।

कौन है वहाँ आकाश पर
आत्‍मा।
आज क्‍यों नहीं वह यहाँ?
लौट गई है वह अपने दादा-दादी के पास
बताती है उन्‍हें -
कैसी है हर चीज आज-कल यहाँ।

वे कहते हैं उसे कोई बुरी बात नहीं,
अफसोस न कर तू अपने खोये हुए पाँवों और हाथों पर
अब तू आत्‍मा है, तारा है
पृथ्‍वी के सब नाविकों और मछेरों के लिए।

परिचय

यून्‍ना मोरित्‍स

जन्म : 2 जून 1937, कीयेव

भाषा : रूसी
विधाएँ : कविता

मुख्य कृतियाँ

कविता संग्रह : रजगोवोर ओ श्यास्तिये (सुख के विषय में बातचीत), मिस झेलानिया (इच्छाओं का अंतरीप), प्री स्वेते झिज्नी (जीवन के आलोक में), त्रेती गलाज (तीसरी आँख), ईज्ब्रान्नोये

प्रस्तुति- तितिक्षा
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टिप्पणियाँ:-

फ़रहत अली खान:-
कल वाली कहानी कल पूरी नहीं पढ़ पाया था; आज पढ़ी; अच्छी लगी। इसमें अनूठी बात ये नज़र आई कि ये काल के बंधन से बाहर निकल कर लिखी गयी है और कई अंधेर-छाप सामाजिक मान्यताओं का विरोध करती है।

आज की अनुवादित कविताएँ टुकड़ों में पसंद आयीं, हालाँकि कई जगह कवित्री की बात अस्पष्ट रही। पहली कविता तीनों में सबसे बेहतर लगी। वरयाम सिंह जी ने विदेशी भाषाओँ की कविताओं के अनुवाद पर अच्छा काम किया है।
साथियों से अनुरोध है कि समय निकाल कर टिप्पणियाँ दिया करें।
ज़रूरी नहीं कि साझा की गई रचना हमें पसंद ही आए, लेकिन समीक्षात्मक टिप्पणियाँ एडमिन का उत्साह बढ़ाती हैं और इससे ख़ुद हमारी भी लेखन क्षमता में वक़्त के साथ आहिस्ता-आहिस्ता निखार आता है।

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