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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

14 नवंबर, 2015

कविता : वसंत सकरगाए

आज आपके लिए प्रस्तुत है तीन रचनाएँ इन्हें पढ़कर सभी साथी अपने विचार रखें।

गाय रम्भा रही है -                 
                  
नये कायदे औ' कराली* से बेखबर
मासूम गायों का झुण्ड
घुस गया चरते चरते उस परकोटे
बहुत ऊँची अब कर दी गई दीवारें जिसकी
एक ही दरवज्जा
प्रवेश जहाँ निषेध
वर्जना है...वर्जना है...वर्जना है

गर्जना है...गर्जना है
यह तो नये चौकीदार की गर्जना है
डरकर भागी वापस कुछ गायें हड़बड़ दड़बड़
कुछ को मार मार दिया गया खदेड़...
...और दरवज्जा बंद

चुकी आँखें  चौकीदार की
एक गाय हुई गुमराह परकोटे भीतर
सिंग मार मार जतन किए
कि खुल जाए दरवज्जा बंद
भागती रही उछल कूदल
बेचैन इधर उधर

थक हारकर बेबस खड़ी हुई है
एक गाय आँसू बहा रही है
कि जिन्दा है, मरी नहीं है कटी नहीं है

मुँह कर दादरी की तरफ
वो गाय
अब भी रम्भा रही है...

(*कराली=अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक; भयंकारी डरावनी)          

मैं तो जा रहा था...
                                          
मैं तो जा रहा था साहित्य के रस्ते अपनी धुन चुपचाप
जाने कैसे मुड़ गया अकादमी की राह
पहुँचा अकादमी के सामने जैसे ही
उठा बबंडर गगनचुम्भी  बहुत तेज
उजड़े दरख्त हुई टहनियाँ घायल
पेड़ों से गिरे पत्ते
लिखे अधलिखे
जले अधजले
कागज के उड़े कुछ टुकड़े
जमकर हुई धूलधक्कड़
कपड़ों पर जमी घुसी मुँह आँखों में गर्द

ठिठककर देखा अकादमी की तरफ
करते करते आँखें साफ 
बंद दरवज्जों खिड़कियों के पीछे कुछ तो थी खुसुरफुसुर

और उड़ते गुबार में करते करते आँखें फिर साफ
तकने लगा आसमान
कागज के उड़ते डोलते पुर्जों पर पढ़ने लगा जैसेतैसे
दामोलकर पानसरे कलबुर्गी...ओ! बेगुनाह अखलाक
कि पलटकर झपटा लिया अरपट्टे में बबंडर के भूत ने मुझको
थर थर कांपा चीख चीख पुकारने लगा 
कि भूत की दबोच मेरी गरदन पर हुई मजबूत बेकदर
मेरे हमदम अदबी फकीरों के ये नाम
घुटने लगे मेरे भीतर मेरे दम के साथ साथ

कहा भूत ने  बुरी तरह हड़काते हुए मुझको
कि आइंदा आया इस रस्ते और जो देखा
इस हवा में अकादमी की ओर
तो कर दूँगा इसतरह तेरी ऐसीतैसी
लपेटकर ले जाऊँगा धूल-धुंध में,फैंकूगा ऐसी जगह इतनी दूर
कि नाम वाम की छोड़
हिन्दी कविता में खुदरे भाव भी नहीं मिलेगा
तेरा मुर्दा!

आदमी आदमी के बीच -  

आदमी आदमी के बीच दीवार खड़ी होना चाहिए                                                  
जीवन के कुछ जरुरी मुहावरे
नीम अंधेरे उस मुहाने
इस दलील के साथ धकियाए जा रहे हों खड़े खड़े
कि यही पाटेंगे अब तो
आदमी आदमी के बीच बढ़ती खाई को

सत्ताई व्याकरण के निर्थक उपसर्ग और विसर्ग
लगातार कर रहे हों घात भाषा के साथ
एक कमजोर समय इसतरह मजबूत
तरह तरह के विज्ञापनों से अटा पड़ा हो इसतरह
किसी किले की मजबूत दीवार से टकराकर टुकड़ा टुकड़ा
एक कद्दावर हाथी आखिरी बार चिंगाड़ता हुआ
ताकीद कर रहा हो बार बार
कि दीवारें पक्की और मजबूत होना चाहिए-
आदमी आदमी के बीच
दीवार खड़ी होना चाहिए

महंगे लिबास हीरे जबाहरातों से लदाफदा
एक आदमी बिल्कुल भलाचंगा
शाल श्रीफल और माला वाला पहनकर
राजनीतिक प्रशस्ति के बाद और फूलाफूला
अभी अभी इस मंच पर हुआ है जो पूरा नंगा
धमक धमक
धमका रहा है
कि बहुत खतरनाक होगा अब
नंगों से पंगा लेना

इस नंगे आदमी के इस बड़े बहुमत में
एक दूसरा आदमी जो नंगा हुआ है मोहताज
मुँहबसाती भूखमरी और गरीबी से बेआवाज
धमके हुए इस आदमी
और धमक धमक धमकाते उस आदमी के बीच
शर्मसार होने से बचा रहे तीसरा आदमी
इसलिए
आदमी आदमी के बीच
दीवार खड़ी होनी चाहिए।

000 वसंत सकरगाए
प्रस्तुति  -  तितिक्षा
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टिप्पणियाँ:-

प्रज्ञा :-
तीनों ही कविताएँ सामयिक संदर्भों से जुडी हैं। ये समय के बेहद ज़रूरी मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करती हैं। साम्प्रदायिकता, प्रतिरोध की संस्कृति के खात्मे की कार्यवाही और आदमी आदमी के बीच बढ़ते फासले। तितिक्षा का शुक्रिया।
ये कविताएँ उस अहसास को और पुख़्ता करती हैं कि साहित्य प्रतिपक्ष की राजनीति को रचने का कारगर औज़ार है।

आभा :-
मंचीय कवितायेँ हैं। मुद्दा मज़बूत है। लेकिन बहुत ज़्यादा प्रतिक्रियावादी लगी। एक घटना और दौर को दिखाने वाली कवितायेँ।

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