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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

29 नवंबर, 2015

कहानी / संस्मरण : मश्विरह : फ़रहत अली खान

आइये पढ़ते हैं कहानी मश्विरह

मश्विरह"(Advice)

अभी क़रीब तीन साल पहले हुआ ये कि अचानक मेरा कुछ लिखने को जी करने लगा; दिल प्यास की शिद्दत में किसी प्यासे की तरह बेचैनी महसूस करने लगा। यूँ तो तरह-तरह के ख्यालात ज़ेहन में आते लेकिन जब उन्हें काग़ज़ पर उतारने बैठता तो लफ़्ज़ नहीं मिलते थे; दिमाग़ ऐसे ठस हो जाता था गोया(जैसे कि) किसी चौराहे पर ज़बरदस्त जाम लग गया हो। कुछ नहीं सूझता था कि क्या लिखूँ; और अगर कुछ लिख भी लेता था तो उसे पढ़कर दिल मुतमइन(संतुष्ट) नहीं होता था; मज़्मून में जगह जगह ख़ामियाँ नज़र आती थीं। इसी कशमकश में दो-तीन महीने बीत गये। मैं अक्सर खोया-खोया सा, गहरी सोच के समंदर में डूबा हुआ रहने लगा था। इस वजह से मैं अपने कारोबार पर भी ध्यान नहीं दे पा रहा था। घर में आटा-दाल पूरा है कि नहीं, बच्चों के स्कूल की फ़ीस कितनी और कब जानी है, दुकान से शाम को घर जाते वक्त क्या लेकर जाना है, कुछ लेकर भी जाना है या नहीं, घर में किसी को कोई हर्ज़-मर्ज़ है, कोई ज़रूरत है; इन सारे हिसाबों से तो मानो मैं फ़ारिग(मुक्त) ही हो गया था.   

एक दिन सोचा कि ये सब अपनी बीवी को बताऊँ। जब मैंने उसके सामने इस बात का ज़िक्र किया तो वो उदास होकर बोली, "हमारे छोटे-छोटे बच्चे हैं। उनकी परवरिश, पढ़ाई-लिखाई की कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी है आपके कन्धों पर; और सारा दारोमदार एक छोटी सी दुकान पर ही तो है। मेहरबानी करके आप उस पर ध्यान दें।"

"कह तो तुम ठीक ही रही हो।", मैंने दिल ही दिल में कहा; मगर सामने चुप रहा।

लेकिन मुझे लगा कि किसी और से भी इस बारे में मशविरह लिया जाए; सो अगले ही दिन अपने एक दोस्त और ख़ैर-ख़्वाह(शुभचिंतक) हकीम साहब के पास पहुँच गया जिनका मतब मेरी परचून की दुकान के बराबर में ही था। जब उनको मैंने अपना हाल बताया तो उन्होंने कहा, "देखिये, आपकी परेशानी को मैं समझ रहा हूँ। यूँ तो आपको कोई बीमारी नहीं है, लेकिन एक लिहाज़ से इसे एक ज़ेहनी बीमारी कहा भी जा सकता है; और इस बीमारी का इलाज ख़ुद आप ही के पास है। आप अपने ज़ेहन को तमाम बातों से हटा कर किसी एक ही चीज़ पर लगाने की कोशिश करें; और बेहतर होगा कि अपनी दुकान पर ही ध्यान दें। ज़ेहन जब दस जगह बँटा होता है तो याददाश्त और सेहत पर इसका बुरा असर पड़ता है। अपना ख़्याल रखें।"

"हकीम साहब की बात में दम तो है।", मैंने सोचा और उन्हें सलाम करके वहाँ से चल दिया।

हालाँकि मशविरह तो मैं दो जगह से ले चुका था मगर सच कहूँ तो फिर भी मैं एक अजीब उलझन में फँसा हुआ था; गर्म दूध निगलने का था न उगलने का।

तभी मुझे अपने एक दूसरे दोस्त जो शहर के अच्छे कहानीकारों में शुमार होते हैं, का ख़्याल आया; तो सोचा कि उनसे भी इस बाबत बात करूँ।

उनसे बात की तो वो बोले, "लिखने की शुरुआत करने वालों के साथ अक्सर ऐसा होता है। आप बस अच्छी सोच रखिए, अच्छा पढ़ते रहिए और ख़ुदा से दुआ करते रहिए कि आपका क़लम सिर्फ़ भली और सच्ची बात पर ही चले; फिर आपको इसका एहसास होगा कि ज़ेहनी सुकून क्या होता है।"     

ये सुनकर मैंने सोचा, "वाह! कितनी उम्दा बात कही।"  

जब मैं वहाँ से निकला तो मेरे ज़ेहन में अपनी बीवी, हकीम साहब और मेरे कहानीकार दोस्त तीनों की कही बातें बार-बार एक-एक करके घूम रही थीं। तीनों ने अपने-अपने हिसाब से मुझे मश्विरह दिया और तीनों ही की बातें मुझे मुनासिब नज़र आती थीं; सो मैंने तय किया कि मैं तीनों ही की बताई बातों पर एक साथ अमल करूंगा।

बस फिर क्या था, तभी से मैं दुकान के वक़्त पर दुकान की तरफ़ पूरा ध्यान देने लगा; अपनी सेहत और घर की ज़िम्मेदारियों को ख़ास तवज्जोह देने लगा। रब से दुआ करता कि मैं अगर कुछ लिखूँ तो सिर्फ़ हक़ और सच बात लिखूँ। सो अब मैं अच्छी किताबें पढ़ता और जब भी थोड़ा बहुत वक़्त मिलता उसमें काग़ज़-क़लम लेकर बैठ जाता। अब मुझे बातों को अलग-अलग रंग में कहने का ढंग आने लगा था। जैसे-जैसे सोचता वैसे-वैसे लिखता जाता।

अच्छा लिखने से जो ज़ेहनी सुकून हासिल होता है वो बयाँ नहीं किया जा सकता; अंदर का सारा मवाद बाहर आ जाता है; जी हल्का हो जाता है। हालाँकि मैं तारीफ़ी जुमले सुनने के लिए नहीं लिखता हूँ, लेकिन इस बात को कहने में कोई झिझक भी महसूस नहीं करता कि अब मुझे अपने लिखे पर ऐसे जुमले कई नामचीन लोगों के मुँह से अक्सर सुनने को मिलते हैं।

अब इस बात से क्या फ़र्क़ पड़ता है कि मैंने वाक़ई अपनी ज़ेहनी परेशानी के वक़्त उन तीनों से बात की थी, या मैंने ख़ुद ही ये तसव्वुर कर लिया कि मैं उनसे एक-एक करके मश्विरह ले रहा हूँ।

000 फ़रहत अली खान
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टिप्पणियाँ:-

सुषमा अवधूत :-
बहुत सुंदर लिखा है,पर क्या ये कहा नी है ये मुझे समझ  नहीं आया पर है वाक़ई अच्छा अनुभव

नयना (आरती) :-
बहुत उम्दा कहानियां । मनीषा जी धन्यवाद आपका इन्हें पढ़ाने का

अल्का सिगतिया:-
कहानी। ने शुरु  में। बहुत। जिग्यासा पैदा की,पर पता नहीं,मैं  जो कहना चाह  रही। हूँ,फिलहाल  बर्क पर उतर नहीं रहा ।

रेणुका:-
Ji mujhe bhi samajh nahi aaya ki saare mashware kaise madadgaar rahe....

अल्का सिगतिया:-
वो शायद। यूँ कि सब कुछ। करते हुए लेखन किया

अल्का सिगतिया:-
कुछ लोगों। के जैसे शायद hill station  पर अलहदा होकर लिखने नहीं। बैठे

मनीषा जैन :-
मुझे ऐसा लगता है कि ये संस्मरण या आत्मकथ्य जैसा है। लेखक ने अपनी मन की परेशानी तीन अलग अलग व्यक्तियो को बताई व तीनो ने ही अपने अपने तरीके से अच्छी राय दी और लेखक तीनों  की ही बातों पर ध्यान देकर अपने जीवन में अग्रसर हुए।

सुवर्णा :-
अच्छी रचना। कल व्यस्तताओं के चलते अपनी बात नहीं रख पाई थी पर लग रहा था कि कलम शायद फ़रहत जी की ही है। अच्छी परिपक्व रचना फ़रहत जी।

आर्ची:-
मैं भी समझ गई थी कि लेखक फरहत जी ही हैं ऊर्दू शब्दों के अर्थ कोष्ठक में जो दिए थे.. अच्छी थी रचना एक संस्मरण या प्रसंग के रूप में कहानी के रूप में नहीं

आभा :-
लेखक का नाम तो शैली से ही पता चल गया था। ये संस्मरण हो सकता है कहानी तो नहीं लगती

चंद्र शेखर बिरथरे :-
फरहत सर मजा नहीं आया । कोशिश अच्छी है । लगे रहिये । एक न एक दिन कामयाबी आपके कदम चूमेगी । इंशाल्लाह । चंद्रशेखर बिरथरे

फ़रहत अली खान:-
अल्का जी;
अभी मैं भी सीखने के ही फ़ेज़ में हूँ। अच्छी उर्दू अभी दूर की कौड़ी है मेरे लिए। हालाँकि सीखने के साथ ही साथ सिखाना भी चलता रहता है।
कल ही मेरे एक सीनियर ने मुझसे कहा- 'आपकी उर्दू अच्छी नहीं है, अभी आपको सीखनी पड़ेगी।'

फ़रहत अली खान:-
सुषमा जी, अर्जुन जी, नयना जी, अल्का जी, रेनुका जी, कुंदा जी, मनीषा जी, सुवर्णा जी, अर्चना जी, आभा जी...
इतनी विस्तृत टिप्पणियों के लिए आप सभी का तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ।
अगर कोई मुझसे पूछे-
'क्या ये कोई संस्मरण या आत्मकथ्य है?'
तो मेरा जवाब होगा- 'नहीं; क्यूँकि जो भी कुछ इसमें वर्णित है, वो मेरी आप-बीती या मन में पैदा हुई भावनाएँ-मात्र नहीं हैं।'

और अगर पूछा जाए-
'क्या ये कोई कहानी है?'
तो मैं कहूँगा- 'हाँ; क्यूँकि ये मेरी कल्पना मात्र है जिसमें एक छोटी सी घटना का ज़िक्र किया गया है।'
(हालाँकि कई बार कल्पनाएँ भी हमारे अनुभवों से प्रेरित होती हैं; और यहाँ भी ऐसी किसी संभावना से मुझे इंकार नहीं है।)

दरअसल होता ये है कि अगर किसी कहानी में कोई किरदार 'मैं' भी हो, तो वो किसी संस्मरण या आत्मकथ्य सी प्रतीत होती है और उसका ऐसा लगना स्वाभाविक ही है। अब ऐसे में लेखक को ख़ुद ये बात बतानी पड़ती है कि फ़लाँ लेख आत्मकथ्य या संस्मरण है(यानी आपबीती या मन में उपजी भावनाएँ) या फिर ये कहानी(काल्पनिक घटना या चरित्र-चित्रण) है।

अब जबकि ये कोई संस्मरण या आत्मकथ्य नहीं है, तो इस काल्पनिक घटना के विवरण को कहानी के अलावा साहित्य की और किस श्रेणी में रखा जा सकता है?

काफ़ी दिन पहले मनीषा जी ने प्रेमचंद जी की जयंती पर उनकी एक कहानी 'कश्मीरी सेब' ग्रुप में साझा की थी; उस कहानी में भी 'मैं' मुख्य किरदार था।

मैंने इसे एक मनोवैज्ञानिक कहानी मान कर लिखा है।
आप में से अक्सर लोग मुझसे ज़्यादा तजुर्बा-कार हैं; मैंने साहित्य की अलग-अलग विधाओं का संरचनात्मक अध्ययन नहीं किया है, बस जो मुझे लगता है उसी आधार पर अपनी धारणा को आपके सामने रखा।
कृपया मार्गदर्शन करें।

मनीषा जैन :-
हाँ, कहानी के लिए मैं शैली भी अपनाई जा सकती है। और ये भी जरूरी नहीं कि वो 'मैं' लेखक का अपना मैं ही होगा। हम अक्सर जब कोई मैं शैली की कहानी पढ़ते हैं तो सोचते हैं कि यह लेखक की अपनी कहानी है लेकिन ऐसा होता नहीं है।
और साथी भी इस पर अपने विचार रखें।

आर्ची:-
मैं के रूप में लिखने के कारण नहीं कहानी के लिए आवश्यक कुछ तत्वों की कमी के कारण यह रचना कहानी नहीं लग रही.. जैसा कि कुंदाजी ने कहा एक स्पष्ट कथानक कहानी में होना चाहिए।

वसुंधरा काशीकर:-
फ़रहत जी बहुत अच्छी कोशिश है। माफ़ कीजियेगा ज़रा देर से पढ़ रही हूँ। मेरे दृष्टी से शैली और आशय ये दो विषय साहित्य में महत्व रखते है। कोई भी कला कलाकृती relate की जा सकता है/ या सवाल पूछती है वो महत्वपूर्ण है। आपका ये संस्मरण या कहानी या आत्मकथ्य रिलेट कर सकते है! बधाई!!

फ़रहत अली खान:-
बाक़ी साथी भी इस विषय पर कुछ कहें।
ताकि सभी की बातों का एक निचोड़ निकाला जा सके।
एक सवाल अभी भी मेरे ज़ेह्न में है; अगर ये लेख संस्मरण या आत्मकथन नहीं है तो किन-किन विधाओं की श्रेणी में इसे रखना मुमकिन है?
मैं चाहूँगा कि बे-झिझक इस बात पर कुछ चर्चा हो।

स्वाति श्रोत्रि:-
लेखक लिखने के लिए विषय चुनता है।उस पर बहुत विचार करता है।पश्चात एक रचना का जन्म होता है वो कौनसी विधा है उसका नामकरण वाचक करता है। आपने एक लेखक के लेखक बनने की प्रक्रिया को अपने शब्दों में प्रस्तुत किया हैं। वो काबिलेतारीफ है।

निधि जैन :-
मुझे ऐसा लगता है कि ये संस्मरण या आत्मकथ्य जैसा है। लेखक ने अपनी मन की परेशानी तीन अलग अलग व्यक्तियो को बताई व तीनो ने ही अपने अपने तरीके से अच्छी राय दी और लेखक तीनों  की ही बातों पर ध्यान देकर अपने जीवन में अग्रसर हुए।

मनीषा जी की टिप्पणी से सहमत

ये आत्मकथ्य ही है

कहानी तो नही
फ़रहत अली खान:-: शुक्रिया निधि जी।

वैसे कहानी के अंतिम हिस्से में इस बात की तरफ़ भी इशारा है कि उन तीनों से मश्विरह लेने की बजाए शायद सिर्फ़ ये तसव्वुर(कल्पना) ही कर लिया गया कि उन तीनों से मश्विरह लिया गया है; यानी संभवतः असल में किसी से कोई मश्विरह नहीं लिया गया बल्कि सबकी ओर से उन तीनों के संभावित विचार लेखक द्वारा ख़ुद ही आत्मसात कर लिए गए।

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