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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 नवंबर, 2018


डॉ रमेश यादव की कविताएं


एक 

शहर जंगल बन रहा है         
इस शताब्दी की                                                                       
रोचक घटना है यह                                                                 
कि जंगल शहर बन रहा है                                                         
और शहर जंगल                                                                     
सभी नुकीले अस्त्र                                                               
उग आए हैं अब
हमारे शरीर पर
शायद अस्त्रों के आदान-प्रदान
हुए हैं उनमें
उन शहरों में
जो कभी जंगल थे
लेकिन अब वे शहर हैं                                                                                                                                 
इसलिए                                                                    भेड़िये के खड़े कान                                                                                     
शेर के बाल                                                                                   
बाघ के नाख़ून                                                                             
और चिता की चतुराई के                                                                     
तहत हमने                                                                               
अन्तःकरण कर लिया है                                                                     
उन जंगलों की हुनर को                                                                   
जो कभी शहर थे                                                                             
लेक़िन अब वे जंगल हैं                                                                       
क्योंकि?                                                                                         
शहर कभी जंगल था                                                                         
तो जंगल कभी शहर                                                                         
फलतः आज
शहर जंगल बन रहा है                                                             
और जंगल शहर !


                                                                                                                                                                                                                                                दो 
                                                                                                                                                                 ख़्वाहिश             
ख़्वाहिश                                       
खींचे पत्थर पर                           
वह लक़ीर
जो खींचती नहीं
औऱ खींच जाए तो
मिटती नहीं
लेकिन
मिट या मिटाने की
जुगत हमारी ही है
ख़्वाहिश ने
इसे नाकाम किया !






तीन 

कंक्रीट होता जीवन
आपाधापी जीवन                                                           
चाहत के कारवां                                                     
और अंतहीन दौड़ में
बेजान होते सुंदर जान से
निर्मित सुंदर महल आलिशान
कंक्रीट होता जीवन
निष्प्राण सड़क पर दौड़ता
लैस जीवन से सुंदर परिवहन
अपरिचित में परिचित का भान
जान से बेजान होते
अनजान शहर में
कंक्रीट  होता जीवन !






चार 

स्त्री जब रोटी बेलती है
रोटी बेलती स्त्री
बहुत खूबसूरत दिखती है
उस क्षितिज की तरह
जिसमें असंख्य तारे हैं
पहाड़ हैं पठार हैं पत्थर हैं
मुरझाये पेड़ हैं
और हरियाली भी
गोल चौकी पर
जब चलता बेलन तो
रोटी के साथ
मानो वह आकार देती
और सँवार रही होती है
उस संसृति को
मन को विचार को
एवं हृदय को
वैसे ही
जैसे!
कपड़े में पड़े भांज को
सपाट कर रहा होता है इस्तरी
स्त्री जब रोटी बेलती है…!




पांच 

सच बोलता आदमी
सच बोलता आदमी
वैसा ही है
जैसा सूरज को सूरज कहना
चन्द्रमा को चन्द्रमा
और ईमली को ईमली कहना
गुलाब को गुलाब
सच बोल रहा हर आदमी
अभिमन्यु की तरह लड़ रहा होता है
अपने बाहर की दुनिया के साथ-साथ
अपने भीतर की दुनिया के
उस अभेद्य चक्रव्यूह से
जो टिका है षड्यंत्र पर
हिंसा पर
और कुण्ठा पर
सच बोल रहा हर आदमी
ध्वंस कर रहा होता है
उस दीवार को
जो टिकी है
अंधविश्वास पर
झूठ पर
और फ़रेब पर
सच बोल रहा हर आदमी
परास्त कर रहा होता है
बिना औज़ार के
उस षड्यंत्र के तहत
स्थापित डर को हिंसा को
और रक्तरंजित वार को
लेक़िन!
स्थापित कर रहा होता है
उस विस्थापित मूल्यबोध ‘सत्य’ को
जिसको किया था स्थापित
‘सत्यहरिश्चंद्र’ ने
युगों पहले
सच बोलता आदमी !





छ:

बम है शब्द
शब्द
अगर ग़म है
तो बम भी है
ग़म में
आँसू है
लाचारी है
और मायूसी भी
लेक़िन!
बम में
दम है ग़म के बाद
हँसी है ख़ुशी है
और स्फूर्ति भी
जैसे
‘भगतसिंह’ शब्द नहीं
बम है
वैसे ही
बम हैं शब्द लाखों
किताबों में
भभक रहे हैं
फ़टने के इंतज़ार में!



सात 

झरता है जब भूख का सपना
बसंत पद्चाप के
बाद ही झरने लगते हैं
निस्तेज पड़े पेड़ के पत्ते
और अँखुआने लगते हैं
अंकुरितयुक्त पेड़ों की टहनियाँ
वैसे ही
भूख का सपना
झरता रहता है
उन पेड़ों से झरते
फूलों और फलों की तरह
टहनियों से झरते ओंस की बूंदों की तरह
जिनका मालिक एक है
या अनेकों हैं
या कि सबका मालिक एक है
क्योंकि?
हर एक सपना भूख का
अंकुरितयुक्त ही होता है
उन पेड़ों की तरह
जिनके पत्ते झरते रहते हैं बार-बार
पतझड़ में
जिनपर लिखा गया है भूख
और उन झर रहे पत्तों को
बसंत ने बेदख़ल किया है
कई बार
अपने हुजूम के लिए
झरता है जब भूख सपना !




आठ 

डर है
रोज़ काम पर जाना
जंग नहीं
लेक़िन जंग से कम नहीं
हमें जीना है
उनके लिए जो हमें प्यार करते हैं
वे घर के हों बाहर के

डर है हमें
सूने रास्ते बस और ट्रेन में सफ़र करना
और घर वापस लौटना
सवाल रोज़ी का
जुड़े हैं सभी उसी से
डर लगता है
हाथों में तस्वीर रखने से
कहीं गुनाहगार क़रार न कर दिया जाऊं?
डर उस भीड़ से है
क्योंकि?
कोई शक़्ल नहीं होती उसकी
उसी में छुपा है ख़ौफ़नाक
दरिंदा!
हमारे सपनों को चकनाचूर कर सकता है
वह कभी भी
जो बुने थे सबके लिए

एक दुकान खोलनी है हमें
रोज़ी के ख़ातिर सबके के लिए
मग़र डर ये है कि
नाम क्या दूँ?
क्योंकि? विशेष नाम
हमारे लिए विशिष्ट सवाल होगा
डर है !







नौ 

जरा सीखो तो चलना या बोलना
चलना और दौड़ना
दोनों एक पूरक क्रिया है
फ़र्क गति का है
ख़रगोश ना सही
कछुआ ही
लेक़िन
चलो तो सही
उस शून्य गति के ख़िलाफ़
बाधित किया जाता रहा है जिसे
उतनी ही धूर्तता में
द्रुत से
अगर
चल नहीं सकते हो तो
बोलो तो सही
जैसे बोलता है कौआ
अपने द्वंद्व के प्रतिद्वन्द्विता में
प्रतिद्वंद्वी से
जरा सीखो तो
चलना या बोलना !



दस 

पानी एक्स-रे
पानी का लिया
एक्स-रे
जैसे मछली चलती
झील के तह में
और दिखाई दे जाता
सबकुछ स्पष्ट
कंकड़ शैवाल और काई
उसी तरह
उपस्थित है पानी का
एक्स-रे हमारे अंदर
और स्पष्ट करता
धमनियों एवं नसों के
रक्त मज्जा को
देह कंकाल को
क्या यही काया है?
या
एक्स-रे है
पानी का ?

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डॉ रमेश यादव
जन्म : 6 अप्रैल 1979, गाज़ीपुर, यूपी।
शिक्षा : एम ए, एम फिल,  पीएचडी (हिन्दी) कलकत्ता विश्वविद्यालय,
यूजीसी पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण।
संप्रति और संपर्क : असिस्टेंट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
महारानी काशीश्वरी कॉलेज(कलकत्ता विश्वविद्यालय)
20, रामकांता बोस स्ट्रीट, कोलकाता-700003
मो. 9831934019, ईमेल. rameshyadav6479@gmail.com
प्रकाशन : ‘यशपाल : कथा साहित्य और विचारधारा’(शोध) 
‘तुम बोलते क्यों नहीं?’(कव्य संग्रह), दर्जन से भी अधिक शोध-पत्र 
विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित।
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5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर अभिव्यक्तियाँ।

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  2. डॉक्टर रमेश यादव, बहुत सुन्दर, बहुत सहज किन्तु बहुत गहरी बातें. आपकी सभी कविताएँ ताज़े हवा के झोंके जैसी लगीं.

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  3. सभी सम्माननीय जनों का हार्दिक आभार!

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  4. सभी सम्माननीय जनों का हार्दिक आभार!

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