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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

04 नवंबर, 2018

परख चौबीस

कविता तब और अब !

गणेश गनी


कुलदीप शर्मा


कुलदीप शर्मा हिमाचल प्रदेश के  एक ऐसे कवि हैं  जो  लंबे समय से  कविता लिखते आए हैं और छपते भी रहे हैं। इनकी कविता  व्यवस्था के खिलाफ मुखरता से  अपनी बात  रखने में सक्षम है। जो स्थान  हिमाचल में  कुलदीप शर्मा की  कविता को मिलना चाहिए था  वह स्थान  शायद नहीं मिल पाया। इसके अपने कारण हो सकते हैं  परंतु  कुलदीप शर्मा तब से लिख रहे हैं  जब  सोशल मीडिया नहीं था। तब कविता कवि की डायरी से उतरकर डाकबाबू के झोले में घुटी घुटी सफ़र तय करते हुए सम्पादक के हाथों से निकलकर पत्रिका के पन्नों पर बैठ जाती थी। पत्रिका के पन्नों पर अंकित होना भी सबके भाग्य में कहां होता, कुछ तो कूड़ेदान में समा जाती। पत्रिका में छपी कविता यदि आलोचक के हत्थे चढ़ जाती, तो समझो कि या तो कालजयी बना दी जाती या फिर धूल में मिला दी जाती। इस सारे खेल में पाठक कहीं नज़र नहीं आता था। कवि, सम्पादक और आलोचक ही पाठक होते। आज भी पत्रिकाओं की स्थिति लगभग वैसी ही है। कुछ सम्पादक तो ऐसे हैं जो न तो कवि हैं और न कहानीकार। वो मात्र शौकीन हैं। अपने को साहित्य के असली पारखी समझने वाले ये लोग कमाल तो तब करते हैं, जब कविता, कहानी पर टिप्पणी करते हैं और उससे बड़ा कमाल तब होता है, जब रचनाकार इसे गम्भीरता से लेता है। कई बार इसके परिणाम घातक भी होते हैं। यदि रचनाकर मानसिक और बौद्धिक स्तर पर कमज़ोर हो तो दोनों स्थितियों में उसकी मौत निश्चित है। पहली स्थिति में यदि सम्पादक और आलोचक कमज़ोर रचना को कालजयी बता दे और रचनाकार को प्रशस्ति दे दे, तो समझो उसके अंदर का सम्भावनाशील रचनाकार सदा के लिए मर गया।
दरअसल आलोचक अपने को स्थापित करता था, न कि कवि को। इस कारण कविता दब जाती थी, कवि गुम कर दिया जाता था। कवि कुलदीप शर्मा की एक कविता का यह अंश मेरी इस बात की तस्दीक करेगा-

बहुत ऊँची कर दी हमने मूर्ति
मूर्ति से भी ऊँचे किये उदघोष
मूर्ति के माथे पर लिख दी हमने
अपनी ही महत्वाकांक्षाएं
मूर्ति के कंठ में स्थापित की हमने
अपनी ही जय जयकार
उसकी विशाल आँखों में रोपे
अपने ही दिवास्वप्न
कन्धों पर पड़ी शॉल को
हमने अपनी विजय पताका बना दिया
मूर्ति के कड़ेपन में जा बसी
हमारी जिद्द
मूर्ति के ऊपर सवार
अट्टहास कर रहा
हमारा ही अहंकार।

दूसरी परिस्थिति तब बनती है, जब रचनाकार आलोचना सहने को तैयार नहीं है और कोई जाना माना सम्पादक या आलोचक उस पर नकारात्मक टिप्पणी कर दे, तो कमज़ोर मनोस्थिति वाला रचनाकार तो वैसे ही मर जाएगा। हाल ही में एक ऐसा उदाहरण हिमाचल में सामने आया है। हालांकि थोड़े से सम्पादक स्वयं कभी न कभी अच्छे कवि या कहानीकार रहे हैं। जो सम्पादक या आलोचक स्वयं कुछ नहीं लिखते, केवल जजमेंट देते हैं, तो यह लगभग वैसा ही है जब एक संगीत-गीत का मात्र शौकीन व्यक्ति उस प्रतियोगिता का जज बना दिया जाए, जहां प्रोफेशनल गीत -संगीत के प्रतिभागी भाग ले रहे हों। आप सोचें उसे सुर ताल की बारीकियों पर जजमेन्ट देने का क्या अधिकार है?
कवि को जब अपनी ताकत का अंदाज़ा ही न हो और अपनी कमज़ोरियों को भी छुपाना चाहता हो, और फिर केवल दूसरों की जजमेंट पर ही जीवित रहना चाहता हो तो यह सम्भव ही नहीं है। कुलदीप शर्मा ने ठीक कहा कि तब इतिहास हमें बौना बना देता है-

हम जो अपनी ताकत से असन्तुष्ट रहे
अपनी कमजोरियों से नाराज़
अपने कद को करना चाह रहे थे
इतना ऊँचा
कि इतिहास हमें बौना न बना दे।

अब कविता कवि की डायरी से उतरकर सीधे पाठक तक पहुंच रही है यानी अपनी असली जगह, जिस तक उसे पहुंचना ही चाहिए था। कविता अब सम्पादकों और आलोचकों की मोहताज नहीं रही। सम्पादक और आलोचक अब स्वयं कवि को खोजने निकलेंगे। वरना उन्हें कोई नहीं पूछने वाला। कमोबेश यह स्थिति बन चुकी है। पत्रिकाओं का हाल सब देख रहे हैं। पाठक एक भी नहीं। कुछ बड़ी मानी जाने वाली पत्रिकाओं का वितरण पूरे पूरे राज्य में पांच से दस प्रतियों तक ही सिमटा है। आज सोशल मीडिया ने हर कवि को अपनी स्वयं की पत्रिका दी है। आज जिन्हें हाशिए पर धकेला जाता था साजिश के तहत, वे छाए हुए हैं और साजिश करने वाले स्वयं हाशिये पर चले गए हैं।
कवि ने आग का बयान दर्ज़ किया है, एक हिस्सा आप भी पढ़ें और तय करें कि क्या लौटना चाहिए उधर जिधर कविता की असली भूख बसती है-

पर मुझे लौटना है इस बार
उन चूल्हों की ओर
जहाँ बरसों से भूख मेरी बाट जोह रही है
जहाँ लोगों ने
अभी भी बचा रखा है मुझे
अपने दिलों में
जीवन ऊष्मा की तरह
मुझे लौटना है
उन अलावों की ओर
जो गाँव की चौपाल पर जलते थे कभी।

सब को मालूम है कि अधिकतर बड़े कवियों के अंदर का रचनाकार मर चुका है, उनके पास अब लिखने को नया कुछ नहीं है और यह बात कवि भी जानता है कि भीतर एक ठहराव की स्थिति है। लेकिन जैसे ही कहीं से डिमांड आती है तो सप्लाई करनी पड़ती है। अधिकतर अपने अस्तित्व को भी बचाए रखना चाहते हैं। अब जो लिख रहे हैं वे तो फेक पोएट्री कर रहे हैं यानी झूठ लिख रहे हैं और ऐसा झूठ जिसके धरातल पर पांव नहीं हैं। कवि सोच कुछ रहा है, कह कुछ रहा है, कर कुछ रहा है। तो गुणवत्ता का सवाल ही नहीं उठता। हमारे अधिकतर पुराने कवि और आलोचक भी ऐसे ही थे, जिन्होंने हिंदी साहित्य को उबाऊ और नीरस बनाया। कुछ तो ऐसे हैं जो विदेशी कविता के प्रभाव में ऐसे आए कि मारे गए। न घर के न घाट के। इन कवियों की थोड़ी सी कविताओं को निकाल दें तो बाकी का लिखा हुआ केवल किलो के हिसाब से ही आंका जाएगा। आलोचकों ने उठा दिया बस। अब आप बताएं काल्पनिक कविता का मैं क्या करूँ। मुझे वो कविता भी नहीं सुननी जो मात्र सपाट बयानबाजी हो, रिर्पोटिंग हो, नकली भाव हो और केवल घटनाओं की व्याख्या हो।
अच्छी कविता भी हमेशा से लिखी जाती रही है, परंतु उसे हाशिए से बाहर धकेला गया। अब जो नई पीढ़ी है पाठकों की उसे मालूम भी नहीं कि अच्छी कविता भी थी पहले। जो जानते हैं, वो अब तक भी चुप हैं और गालियों में ही बस उन्हें याद करते हैं-

यही रहती है वह पीढ़ी
जो विश्वास नहीं करती
कि तुम यहाँ थे कभी,
और वे भी जो तुम्हारे होने को मानते हैं
उन्होंने कुछ चुनिंदा गालियों में
सुरक्षित रखा है तुम्हारा नाम।

अब देखें आप एक व्यक्ति सरकारी नौकरी के दौरान आदिवासी इलाके में तैनात है, वो अपने दफ़्तर से सरकारी आंकड़ों को इकठ्ठा करता है और किताब लिख देता है। एक आदमी पर्यटक बनकर उधर जौ की शराब और भेड़ का मांस खाने के बाद रेस्ट हाउस के ड्रॉइंग रूम में वहां की भूख और गरीबी पर कविता लिखता है, टिप्पणी करता है, वहां के जनजीवन पर किताब छपवा लेता है, भले ही उसे आदिवासियों की बोली वाणी का एक लफ्ज़ भी न आता हो। यह विडम्बना है। मैं यह नहीं कह रहा कि उनपर लिखने के लिए उधर जन्म लेना पड़ेगा, मैं यह कह रहा हूँ कि यदि उनपर लिखना ही है तो कम से कम उस यंत्रणा से गुजरना होगा, उनके बीच रहकर उनकी असल भावनाओं को आत्मसात करना होगा। या फिर क्यों लिखना औरों पर, अपनी स्थानीयता पर लिखें न, वो अधिक कारगर है। तो स्थानीयता जरूरी है, कविता में व्याख्या न आए बल्कि घटना के पीछे का मनोविज्ञान आए और वो भी बिम्बों और मुहावरों में। और वो भी ताज़गी के साथ, एकदम नए। यह मौलिक होगा, दोहराव और नकलीपन से छुटकारा भी मिलेगा। वैसे भी हम इतना कुछ पढ़ते हैं कि जाने अनजाने में बहुत कुछ किसी न किसी का लिखा हुआ आ ही जाता है। उससे ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता क्योंकि इसका मतलब है कि कुछ गहरी और गम्भीर बातों को आप आगे ही बढ़ा रहे होते हैं। इससे भी फ़र्क नहीं पड़ता कि सही बात का खण्डन हो रहा है, असल बात कहने वाले का विरोध हो रहा है, यह तो होना ही है। ऐसे दरबारियों के लिए कुलदीप कहते हैं-

उन्हें फर्क नहीं पड़ता
कि जो लोग घृणा से तुम्हारे चेहरे पर
कालिख पोतने निकले हैं
उन्हें इतिहास की पुस्तकों के पुनर्लेखन का काम
सौंप दिया है  सरकार ने।
वे सरकार की आलोचना से बचते हैं
वे किसी भी आलोचना से बचते हैं
उनके लिए एक बीच का रास्ता निकल आया है।
००

गणेश गनी


परख तेईस नीचे लिंक पर पढ़िए


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1 टिप्पणी:

  1. महत्वपूर्ण लेख। कवि कुलदीप शर्मा जी की कविताओं को केन्द्र में रखकर रचनाकर्म और रचनाकारों पर कई उपयोगी बातें बेबाकी से लिखी हैं गणेश गनी जी ने।
    कुलदीप जी एवं गणेश जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

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