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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 दिसंबर, 2018

परख उन्नतीस

सिमट जाती मीलों की दूरी!

गणेश गनी

कोई सवा लाख साल पहले की घटना है। चन्द्र एक ही झटके में अपनी प्रेमिका का हाथ छुड़ाकर वापिस लौटने लगा और उस संगम पर रुक गया जहां कभी उसने मिलने  का इंतज़ार किया था। लेकिन भागा वादे के मुताबिक अपने घर से चल तो पड़ी थी, परन्तु रास्ते की बाधाओं ने उसे मिलनस्थल तक पहुंचने में बरसों की देरी कर दी। आज जब सुन्नी अपने भुंकु के वियोग में भागा में समा गई और भुंकु सुन्नी के वियोग में चन्द्र में समा गया तो चन्द्र को वो दिन याद आया जब उसने तांदी में भागा का तब तक इंतज़ार किया जब तक कि पृथ्वी ने अपनी धुरी का एक चक्कर पूरा नहीं कर लिया। प्रेम में दूरियां सिमटकर पलकों के मध्य समा जाती हैं। सुमन शर्मा की प्रेम कविता में नयापन और ताज़गी है-



सुमन शर्मा

गिरती पलकों के मध्य
सिमट जाती मीलों की दूरी
उंगलियों से छू जाती है
होठों से पिघलती गीली हँसी
और नम हो जाता है
अंतर का थार।

प्रेम का सम्बंध हृदय से तो है ही, आत्मा से भी है। प्रेम सम्वेदनाओं का मामला है और औरत से ज़्यादा कोई संवेदनशील नहीं हो सकता। फिर यदि औरत कवयित्री भी है तो फिर सम्वेदनाओं की गहराई अथाह हो जाती है।
चंद्रभागा का मिलन इस पृथ्वी पर अदभुत घटनाओं में से एक था। इन्हीं बरसों में चंद्रभागा का वैदिक नाम असिक्नी हुआ फिर बहुत बाद के बरसों में इसे पंजाब में चनाब कहा जाने लगा। पहली बार घटने वाली हर घटना अदभुत होती है, भले ही पहली बार किसी को चूमना ही क्यों न हो। सुमन शर्मा प्रेम को धीमी आंच में पकने देना चाहती हैं, प्रेम पेड़ पर लगे फल के पकने की प्रक्रिया जैसा है-

तुमसे प्रेम
किसी प्रयोजन के तहत नही हुआ क्योंकि स्थितियां और परिस्थितियां
दोनों ही प्रतिकूल थीं।

तुमसे प्रेम ठीक वैसे भी नहीं हुआ जैसे
दुनियां के तमाम प्रेमियों को हुआ
अचानक पहली नज़र में ही।

यह प्रथम दृष्टि का प्रथम प्रेम नहीं  बल्कि
जानने-समझने की दीर्घ प्रक्रिया से गुजर कर
शनैः-शनैः विकसित हुआ प्रेम है
प्रगाढ़ और अटूट।

सुन्नी-भूंकू की प्रेम कहानी भी पहली बार दरिया ए चनाब यानी चंद्रभागा के किनारे ही परवान चढ़ी। यह कथा नहीं बल्कि एक सत्य प्रेमगाथा है जो इसी दरिया में समा गई।
हिमाचल के चंबा के पास एक नगर है भरमौर जिसका पुराना नाम ब्रह्मपुर बताया जाता रहा है। यह पीर पंजाल और धौलाधार पर्वत शृंखलाओं से घिरा है तथा इरावती की धारा इधर से ही बहते हुए आगे बढ़ती है। भरमौर में एक ही स्थान पर चौरासी मंदिर हैं और इसलिए इसे चौरासी के नाम से भी जाना जाता है।
पुराने समय में जब भरमौर नगर न होकर गाँव भर था,
तब वहाँ भेड़ों का एक चरवाहा रहता था, नाम था भूंकू।
गद्दी समुदाय का सारा जीवन यायावर जीवन होता है। भेड़ बकरियों के साथ ग्रीष्मकाल में पहाड़ों में और शरदकाल में मैदानों में घूमते रहते हैं। भुंकू भी यायावर और मस्तमौला युवा था।
एक बार गर्मियों में भुंकू भेड़ें चराने लाहुल निकल गया, कोई सौ मील दूर। वहाँ वह अनाज लेने के लिए एक गाँव में गया तो उसकी मुलाकात सुन्नी से से हुई। चंद्रभागा घाटी की यह बाला भी अल्हड़ थी, शोख और चंचल थी।
दोनों में प्रेम हो गया, भुंकू प्यार में सब कुछ भूल गया, अपना देस, भेड़ें, सब कुछ और छ: माह बीत गए। भुंकू के विदा होने का समय आया। सुन्नी से फिर जल्द ही लौट आने का वचन देकर वह चला गया, पर वह गया, तो फिर लौट कर नहीं आया। सुन्नी इंतज़ार करती रही। वो रातों में अक्सर जागती रहती। कवयित्री सुमन शर्मा की इन पंक्तियों में प्रेम की अद्भुत अनुभूति है, जैसे ये शब्द कहानी की नायिका के ही हों-

मैं सारी चांदनी को
एक पोटली में बांध
रख देना चाहती हूँ तुम्हारे सिरहाने
ठीक तुम्हारे तकिए की जगह
कि जब कभी रातें अँधेरी होने लगे
तुम्हारी रात रौशन रहे

एक लोकगीत आज भी लाहुल में गाया जाता है। इसमें एक जगह ज़िक्र आता है कि जब जब भी सुन्नी ने उधर से आने वालों से भूंकू का हाल पूछा तो एक साज़िश के तहत उसे बताया जाता रहा कि बाकी सब तो राजी बाजी हैं, पर भूंकू गद्दी मर गया है। सुन्नी को यह झूठी ख़बर तब तक दी जाती रही, जब तक कि वो चनाब में समा नहीं गई-

तुम्हें सर्दियां पसन्द हैं न
मैं पहाड़ों की सारी बर्फ़ीली नमी
तुम्हारे लिए
मैं अपनी गर्म सांसों में सोख लेना चाहती  हूँ
कि जब तक चले मेरी सांसें
महसूसते रहो तुम इसे मुझमें।

सुमन शर्मा के ये शब्द प्रेम की पराकाष्ठा हैं। कवयित्री नपे तुले शब्दों में पूरी बात कहने की ताकत रखती है।
उधर भूंकू तक भी ख़बर पहुंच गई कि बाकी सब तो कुशल मंगल है, पर सुन्नी भोटली मर गई है। भुंकू को यकीन नहीं हुआ तो वो सारे बंधन तोड़ लाहुल पहुंचा और फिर दरिया में कूदकर कर सुन्नी से जा मिला। फिर भुंकू भी न रहा, रह गई बस भुंकू और सुन्नी की अमरगाथा।
दरअसल प्रेम को परिभाषा में समेटना उतना ही मुश्किल है जितना कि समस्त आकाश को आंखों में समेटना। विद्वान कहते हैं, मुस्कान प्रेम की भाषा है। सच्चा प्रेम दुर्लभ है, सच्ची मित्रता और भी दुर्लभ है। प्रेम पर अद्भुत बातें लिखने वाले अज्ञात हैं, पर जो वे लिख गए वो पत्थर की लकीर बन गया, अहंकार छोडे बिना सच्चा प्रेम नहीं किया जा सकता।
कोई कह गया, प्रेम ही है जो बेंच के दोनों किनारों पर जगह खाली होने पर भी दो लोगों को बीच में खींच लाता है। आप किसी से इसलिए प्रेम नहीं करते क्योंकि वे खूबसूरत हैं, बल्कि वे खूबसूरत हैं क्योंकि आप उनसे प्रेम करते हैं।
कवयित्री सुमन ने प्रेम पर कोमल कविताएं अपने नए अंदाज़ में लिखी हैं। सुमन शर्मा कहती हैं, प्रेम में इतना भी क्या कम है, बस इतना ही रह जाना मुझमें-

नहीं रह सकते गर मेरे सदा के लिए
बस इतना ही रह जाना मुझमें
जितना कि जीने के लिए
फेफड़ों में होती है साँस
जितना कि हृदय में होती है धड़कन
बस इतना ही रह जाना
जितना कि काया की संरचना में
होता है हिस्सा
पृथ्वी,जल,अग्नि,आकाश और वायु का
नहीं है गर मुमकिन चलना संग जीवन भर
तो इतना ही चलना
जितना कि धमनियों में चलता है रक्त
जितना कि चलती है नब्ज़
नहीं है मुमकिन गर रहना नजर के रूबरू
तो रह जाना नज़र में
इतना ही जितना कि नैनों में रहती है ज्योति
जानती हूँ मैं भी मुमकिन नहीं मिलना हमारा
लेकिन दुनिया-समाज की रवायतों का बंधन
तो सिर्फ तन के लिए होता है न!
रह जाना मुझमे इतना ही
जितना की मन में आस
ईश्वर के अस्तित्व का विश्वास
रह जाना मुझमें इतना ही
जितना कि होता है आत्मा में परमात्मा
और मैं तुममें ही रह जाऊँगी
तुम्हारा एक कण बन कर....!

००
गणेश गनी


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